आज हर चुनाव के पहले धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण किए जाने की कोशिश होती है. लेकिन अब देश में धर्म के नाम पर युवाओं का ध्रुवीकरण किय...
आज हर चुनाव के पहले धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण किए जाने की कोशिश होती है. लेकिन अब देश में धर्म के नाम पर युवाओं का ध्रुवीकरण किया जा रहा है. राजनीति के गलियारों में चलने वाली साम्प्रदायिकता की ज़हरीली हवा समाज में इस कदर घुल रही है कि इसका प्रभाव युवाओं पर हो रहा है. सभी समुदायों के धार्मिक और राजनीतिक नेता इस बात को अच्छे से जानते हैं कि नौजवान पीढ़ी के बीच ध्रुवीकरण का बीज बोने से आने वाले वक्त में उनकी सियासी फसल बेहतर हो सकती है.
अब हालात ये हो गए हैं कि युवाओं के बीच साजिश रचने वाले धार्मिक चेहरों की सक्रियता तेजी से बढ़ी है. कर्नाटक हो, महाराष्ट्र हो या फिर हरयाणा व उत्तर प्रदेश. सभी राज्यों में अचानक युवाओं को धर्म का पाठ पढ़ाने की घटनाएं बढ़ गई हैं. जाहिर है जिनके पीछे कुछ विघटनकारी साम्प्रदायिक ताकतों का हाथ होता है. शिक्षण संस्थाओं के बाहर और सार्वजनिक कार्यक्रमों में धर्म के ये राजनीतिक ठेकेदार अपना काम कर रहे हैं. युवाओं में एक-दूसरे के प्रति धर्म के नाम पर नफरत बढ़ाने का काम किया जा रहा है. छोटी-छोटी बातों पर दंगे-फसाद हो रहे हैं. मामला कोई भी हो, उसे धर्म से जोड़कर देखा जाता है. ऐसे में इन लोगों का पहला टारगेट होता है वो युवा वर्ग, जो बेरोज़गारी , गरीबी जैसी समस्यायों से परेशान है , युवा वर्ग को बड़ी आसानी से ये लोग यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि सारी समस्यायों की जड़ दूसरी कौम है और उसे एक कौम के खिलाफ भड़काते हैं।
लेनिन ने कहा था कि - 'फासीवाद सड़ता हुआ पूंजीवाद है'. ये कोशिशें तब और भी तेज हो जाती है जब पूंजीवाद, संकट के दौर से गुजर रहा हो. आज यही हो रहा है. गौरतलब बात यह है कि पूर्ण ध्रुवीकरण की राजनीति तभी सफल हो सकती है जब बहुसंख्यकों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के ध्रुवीकरण की भी ज़मीन तैयार हो. मौजूदा समय में जहाँ एक तरफ हिन्दू फासिस्ट अपने काम में लगे हुये हैं वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम फासिस्टों को भी पूरा मौका दिया जा रहा है ताकि आने वाले समय में दोनों कौमों को एक दूसरे का दुश्मन बनाकर ये लोग अपने नापाक मंसूबों में कामयाब हो सकें. ऐसे दौर में इन साम्प्रदायिक ताकतों के मंसूबों को नाकाम करने के लिए जरुरी है कि जनता को मौजूदा आर्थिक , सामाजिक संकट के सही पहलुओं से अवगत कराया जाये और ये समझाया जाये कि गरीबी , बेरोज़गारी जैसी समस्यायों के लिए वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है न कि कोई धर्म समुदाय। और इन समस्यायों से निजात भी तभी मिलेगी जब मेहनतकश इस मौजूदा शोषक व्यवस्था को उखाड़ फेंकेगा।
एक तरफ दक्षिण भारत में कई सांप्रदायिक संगठन न केवल अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपनी आक्रमक कार्रवाई को तेज करते नजर आते हैं बल्कि वैज्ञानिक सोच रखने वाले विद्वानों को भी ठिकाने लगाने पर आमादा हैं, तो दूसरी तरफ हैदराबाद के एक विवाविद नेता भड़काऊ बयान देकर उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों के बीच जगह बनाने के लिए नई सियासी जमीन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार में इन दिनों चुनावी महाभारत जारी है. इस महाभारत में सभी दल अपने को पांडव और दूसरों को कौरव बताते हैं. पांडवों और कौरवों के कुछ नए नाम भी रखे गए हैं, जैसे- देवसेना और राक्षसी सेना। सीधे सीधे भी वाणी का यह जहर लगातार उगला जा रहा है यथा शैतान, भुजंग, नरभक्षी, ब्रम्ह पिशाच आदि. बिहार के विधान सभा चुनाव में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और तीखा करने की कोशिशें जारी हैं. हम किस समाज में रह रहे हैं? एक ऐसा समाज जहाँ एक शक की बिना पर एक आदमी की जान ले ली जाती है. जहां गाय को माता बुलाने वाली हिन्दुत्व की फ़ौज 80 वर्ष की बुजुर्ग महिला की छाती पर अपने पैरों से हमला करती है. उन्हें अपने जूतों के नीचे रौंदती है. उन्ही की आँखों के सामने उनकी जवान लड़कियों के साथ अश्लील हरकतें की जाती हैं. और गौ रक्षा के नाम पर पूरे परिवार और गाँव की हज़ारों की भीड़ के सामने एक व्यक्ति को दिन-दहाड़े मौत के घाट उतार दिया जाता है.
क्या हमारे देश में कानून नाम की कोई चीज़ है या नहीं? क्या हम एक सभ्य समाज में रह रहे हैं? एक तरफ बीजेपी खुलकर साम्प्रदायिकता का कार्ड खेल रही है और दूसरी तरफ बाकी राजनीतिक दल उसे इन मुद्दों पर घेरने की प्रभावहीन कोशिश कर रहे हैं. यह इस विराट लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक है कि चुनाव का मुद्दा जनता की बुनियादी आवश्यकताएं न होकर गौ मांस है. यह नागरिक पतन की चरम परिणति है. सोशल मीडिया का इस्तेमाल समाज में जहर फैलाने के लिए किया जा रहा है. आए दिन कोई न कोई विवादित पोस्ट समाज में साम्प्रदायिक तनाव की वजह बन जाती है. फेक आईडी बनाकर फेसबुक और ट्वीटर पर धार्मिक उन्माद भड़काने की कोशिशें की जा रही है.
देश का युवा वर्ग सोशल मीडिया पर खासा सक्रिय है. वो इससे कहीं न कहीं प्रभावित होता है. सरकार हर घटना के पीछे सियासी फायदा तो तलाशती है. लेकिन कार्रवाई करने में अक्सर देरी करती नजर आती है. दरअसल, मजहबी और सियासी ठेकेदारों की ये कोशिश समाज में एक बड़ा ध्रुवीकरण करने के लिए हो सकती है. अगर भाजपा यह बात प्रचारित करती है कि उसे गत लोकसभा चुनाव में सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए डाले गये वोटों में से जो मत मिले हैं वे राजनीतिक रूप से चेतन मतदाताओं द्वारा बिना किसी लोभ लालच से दिये गये हैं, तो उसे यह भी मान लेना चाहिए कि जागरूक मतदाता बँधुआ नहीं होता है.
दलों के कारनामों के प्रभाव में उसकी दिशा बदल भी सकती है. उल्लेखनीय है कि उक्त चुनाव में भाजपा की जीत काँग्रेस की अलोकप्रियता, व्यापक पैमाने पर दल बदलुओं, धनिकों, दबंगों और विभिन्न क्षेत्रों के लोकप्रिय लोगों को चुनाव में उतारकर संसाधनों के तीव्र प्रवाह के कारण भी थी और लोगों के भावनात्मक-सांप्रदायिक उत्प्रेरण के कारण भी. पूंजीपति व्यवसायी उनके साथ थे. यह सही है कि देश की जनसंख्या का एक भाग आज भी साम्प्रदायिकता की राजनीति से प्रभावित है लेकिन वहीँ एक बड़ा हिस्सा इसमें विश्वास नहीं रखता. इस जनसमूह को वास्तविकता से परिचित कराने की जिम्मेदारी सचेत नागरिकों की है. सरकार आज दूसरे छोर पर है. जनतंत्र में सरकारें जनता की मर्जी से चुनी जाती हैं. वे तभी बेहतर होंगीं जब हम उनपर काबू रख सकेंगे. आज सरकारें बेकाबू हैं क्योंकि हम उनके जाल में स्वेच्छा से फंसे हुए हैं. अब समय है कि बहेलियों के जाल ध्वस्त किये जाएं और यह तभी संभव है जब जनता खासकर युवा इस साजिश को समझें और असल में जाग जाएं.
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