सुरजीत पातर आत्मकथ्य वह शहर जहाँ मैं वृक्ष बना कपूरथला से बी.ए. किया तो मैंने अंग्रेज़ी एम.ए. करने के लिए एक चक्कर पंजाब यूनिवर्सिटी चंड...
सुरजीत पातर
आत्मकथ्य
वह शहर जहाँ मैं वृक्ष बना
कपूरथला से बी.ए. किया तो मैंने अंग्रेज़ी एम.ए. करने के लिए एक चक्कर पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ का लगाया पर चंडीगढ़ की मुझ से ताब सही न गई, वहाँ मुझे अपने अच्छे भले कपड़े पुराने पुराने लगने लगे और फैशनेबल लड़के-लड़कियों को देखकर मेरी साँस ही रुकने लगी, वापस कपूरथला आ गया। फिर मैं और मेरे सालम हमजमाती वीर सिंह रंधावा ने पंजाबी एम.ए. करने की सलाह की। मैंने कहा पंजाबी एम.ए. हम पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से करेंगे, जहाँ दलीप कौर टिवाणा है, गुलवंत सिंह है। वीर सिंह कहने लगा : तेरा दिमाग़ ख़राब है, हम लायलपुर ख़ालसा कॉलेज जालंधर दाखिल होते हैं, सवेरे घर से रोटी खाकर साईकिलों पर जाया करेंगे और आकर घर की पकी खा लिया करेंगे। पर मेरे दिल को पटियाला की खींच पड़ रही थी। वीर सिंह कहने लगा : चल पर्चियाँ बना, टॉस कर लेते हैं। टॉस में जालंधर की पर्ची निकल आई। पर मैंने टॉस को रद्द कर दिया और तीसरे दिन करतार बस पकड़कर अकेला ही पटियाला जा दाख़िल हुआ। कुछ दिनों बाद वीर सिंह मेरे पीछे पटियाला पहुँच गया।
पटियाला मेरे लिए अलोकार दुनिया के दरवाज़े की तरह खुला। कई साल मैं इस अलोकारता के मेले में गुम रहा। इस के बारे में मैंने एक लंबी कविता भी लिखी जिसकी पहली दो सतरें कुछ इस तरह थीं :
सूरज यहाँ पर मुंदरें पहनकर आता है
और चाँद काले चश्मे लगाकर
यहाँ के माहौल में कुछ ऐसा जादू था कि यहाँ आकर मैं और वीर सिंह एक दूसरे से बिछुड़ गए। मैं भूतों के वश में आ गया पर वीर सिंह अपने स्यानेपन की वजह से बचा रहा।
यहाँ एक भूतवाड़ा होता था जो अब उजड़ गया था पर भूत तुम्हें मिल सकते थे। मुझे जो पहला भूत मिला, वह लाली था। उसका ‘पिछले जन्म’ का नाम हरदिलजीत सिंह सिद्धू था, बड़े जागीरदार का पुत्र, पर अपने राजभाग को त्याग कर निकला हुआ, अब वह जैसे सिद्धार्थ था। अंग्रेज़ी की एम.ए., दिल्ली दक्षिण घूमा हुआ। बंबई की माया नगरी की भी गहराई माप आया था और कलकत्ता यूनिवर्सिटी में बंगाली दानिशवरों से भी गोष्ठी रचा आया था।
हमारी अध्यापिका डा. दिलीप कौर टिवाणा थी जो हमें परिवार के सदस्यों की भांति समझती थी, उन्होंने हमें मोह और अंतरंगता से भर दिया। उन्होंने ही मुझे लाली जी से मिलाया था : लाली, यह सुरजीत है, मेरा विद्यार्थी, यह भी तुम्हारे कबीले का बंदा है।
एक शाम लाली जी कहने लगे : चलो कवि, शहर चलें . पटियाला शहर यूनिवर्सिटी से पाँच किलोमीटर दूर है। मैंने कहा : लाली जी, पैदल ही? कहने लगे : नहीं, कथा पर सवार होकर चलेंगे।
उस दिन के बाद से मेरे पैर ज़मीन पर नहीं लगे। हमेशा कथा पर सवार रहा। दरअसल हर भूत किसी कथा पर सवार था।
दुनिया की महान किताबें पढ़ने में दिन रात मसरूफ़ रहने वाले भूत नावेलों कहानियों के पात्रों को जैसे साथ साथ लिए फिरते थे। भूत विश्व साहित्य से इधर की बात नहीं करते थे। लोर्का, सोफ़ोक्लीज़, सार्त्र, कामू वहां पर ऐसे ही थे जैसे कपूरथला में बावा बलवंत, हरिभजन सिंह, शिव कुमार, मीशा होते थे।
ब्रैख़्त, नेरूदा, पाज़ पहले पहले मुझे लाइब्रेरी की शैल्फ़ों पर नहीं मिले, पटियाला की गलियों, बाज़ारों में लाली जी के साथ चलते हुए मिले। लाली जी रात दिन नावलकारों के किरदारों और कवियों के बिंबों के दरम्यान रहते। उनका हर वाक्य कविता, सयानेपन या विनोद से जगमगाता होता। उनके साथ चलने का मतलब था कल्पना की गलियों में से गुज़रना जहाँ सपना, असलियत, देश विदेश सभी इकट्ठे ही रहते। वह कभी भी कहीं भी धूनी रमा लेते, कहीं चिता जगा लेते और किरदारों और गाथाओं को प्रकट कर लेते। वह अपनी बातों से दोपहरों को शामों में बदल लेते, शामों को गहरी रातों और गहरी रातों को सवेरों में।
एक बार मेरे पास मोहनजीत आया हुआ था; हम होस्टल के कमरे में रात को ग्यारह बजे बत्ती बुझाकर रजाइयों में लेटे ही थे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई और आवाज़ आई :
क्यों भाई? कब्रों में लगे हो, अरे कब्रें तो बीस वर्ष गहरी हो गईं हैं। कब्रों पर कोई दीया ही जला दो...। मैं पहचान गया भूत की आवाज़ है।
मैंने बत्ती जगाई, दरवाज़ा खोला, लाली साहब खड़े थे; स्टोव जलाओ कवि, गर्म पानी रखो, अलख जगाएँ, बहुत उदास है रात।
पड़े मज़ार पे कुछ हैं, दीये ये टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात
यह 1967 की बात है, शायद। तब बीस वर्ष हुए थे पंजाब के बंटवारे को, 20 वर्ष गहरी कब्रों का इशारा यही था। फ़िराक गोरखपुरी की उदास रात से शुरू हुई लाली जी की बात सुखबीर की रात के चेहरे तक पहुँच गई, वहाँ से गुलज़ार की चौरस रात तक, गुलज़ार से बात बंबई फिल्म उद्योग की ओर मुड़ने लगी थी पर रास्ते में लाहौर आ गया, लाहौर की पंजाबी फिल्में आ गईं, एक बार फिर बीस वर्ष गहरी कब्रों के पास से गुज़रकर फिर बंबई आई, फिर गुलज़ार पर बात ज़रा सा रुक कर मीना कुमारी की ओर मुड़ गई, मीना कुमारी से मधुबाला, मधुबाला से मैरेलिन मनरो तक, मनरो से अमरीका की फिल्मों तक, फिल्मों से चार्ली चैप्लिन तक, चार्ली चैप्लिन से उसकी फिल्म ग्रेट डिक्टेटर तक, ग्लोब को फुटबाल बनाकर खेल रहे, वही फुटबाल उड़ा, हमारे होस्टल के ऊपर से, पूरब में सूरज बनकर उदय हुआ, यों हमारी सवेर हुई, लाली जी हमें कथा के उड़न-खटोले पर सवार करा के एक रात में पता नहीं कितने जहान दिखा लाए।
एक शाम वह नीत्शे की मशहूर पुस्तक ‘दस्स स्पेक ज़र्दुस्त’ का उर्दू अनुवाद ले आए : ज़र्दुस्त ने कहा था। तीन रातों में उसका सारा पाठ उन्होंने हमें पढ़कर सुनाया।
लाली जी की सृजन शक्ति, याद्दाश्त, हाज़िरजवाबी कमाल थी। वह अपनी बातों से त्रैकाल दर्शन करा देते। इतिहास, मिथ्यहास, महानगरों, महाकाव्य, ब्रह्माण्ड, एक पल का विराट रूप...
हमने लाली जी से एक बार पूछा : तुम लिखते क्यों नहीं- कैसे लिखूं, मेरी एक ओर बुल्ले शाह खड़ा है, कहता है दिखाओ तो क्या लिखा? दूसरी तरफ़ बाबे खड़े हैं।
मुझे किसी की बताई एक बात सपने की तरह याद है, पता नहीं सच है कि दंत-कथा। कहते हैं कि लाली जी का एक मामा बहुत पढ़ा लिखा था, उस के एक हाथ में जाम होता और दूसरे में किताब। जब लाली जी बी.ए. में पढ़ते थे तो एक कहानी लिखकर उसे दिखाने गए। वह पढ़कर कहने लगा : जब कुछ दोस्तोवस्की जैसा लिख सको तो मेरे पास लेकर आना।
एक शाम लाली जी हमें प्रोफेसर राज़दां के डेरे पर ले गए, नई नवेली किताबों से भरा घर, मोह भरी निर्मल आँखों वाला चंचल और पवित्र सी हँसी वाला राज़दां, काँच के गिलासों में सोने-रंगा वाला पागल पानी, पानी के भंवर की तरह घूम रहा एल.पी. यहूदी धुनें (ज्यूइश मैलेडीज़)।
मैं उन धुनों को आँखें मूंदकर सुनने लगा तो वह अजीब दृश्यों में अनुवाद होने लगीं।
मेरी यादों का पटियाला एक सुर-रीयल सा शहर है। वहाँ पर सूरज मुंदरें पहनकर आता है, चाँद काले चश्मे लगाकर, दरख्तों को शाखें राग की तरह ऊपर उठती हैं, विलायती अक्क के छोटे छोटे जामुनी स्पीकर होते हैं, जिस पानी के किनारे होते, उस पानी में तीला पत्ता गिरने से जो छोटे छोटे भंवर पैदा होते वह एल.पी. रिकार्ड जैसे लगते।
यहाँ पर ही कुलवंत ग्रेवाल मिला
(कुप्पवाल स्टेशन पर सच्चे गुरों की गाड़ी का इंतज़ार करता)
जिसकी यह सतरें मेरी रूह में बसतीं हैं :
एक पल जागे वेदना, हमारे लाख पल हों हरे
गुरभगत मिला
जिसने सिखाया सृजन को उम्र कैसे समर्पित करते हैं
डॉ. हरजीत सिंह गिल्ल मिला
जो नया नया फ्रांस से आया था
जिसने हमें नई चेतना से भर दिया
सुरजीत ली मिला
जिस की खुली दाढ़ी और खुले बाल रहस्यमय और काव्यात्मक लगते थे
प्रेम पाली मिला
जो कभी कभी फ़रीदकोट से आता ओर अपनी तनख़्वाह हम पर लुटाकर चला जाता
नवतेज भारती मिला
जिसकी चुप में कोई बड़ी कविता पल रही थी
जोगिंदर हीर मिला
टिकी रात में गाई जिसकी हीर
बाघे के पार सुनाई देती
हरिंदर महबूब मिला
जिसका बोल मैं ज़िंदगी में कितनी बारी दोहराया :
कोई ज़ामिन बने फ़कीर का इस हश्र की रुत में
सति सुहाण सदा मन चाव जैसा
नूर मिला
जिससे मिलकर हम सभी चाव से भर जाते
डा. रवि मिला जो तब डा. जग्गी की अगवाई में पंजाबी में राम-काव्य पर पीएच-डी. कर रहा था। तब मैं सोच भी नहीं सकता था कि डा. रवि इतना रोशन हो जाएगा कि अंधेरे को उसकी हत्या करनी पड़ेगी।
दर्शन जैक मिला
जो मैली सी म्यान में तीखी शमशीर जैसा था
प्रो. भुपिंदर मिनहास मिला जो शामों को श्रवण बन जाता हूँ
लिखते फूलों जैसी हँसी वाला इंद्रजीत बिट्टू जो पटियाला में मिला था
वह लुधियाना में नहीं मिला
पोज़ियर मिला
जो कविता से इश्क करता कविता ही हो गया है
पोज़ियर, उसका असली नाम सुरजीत मान है, प्रो. सुरजीत मान, हाँ वही काव्यमय वृत्तांत लिखने वाला। पोज़ियर उसका नाम कैसे पड़ा यह भी बहुत दिलचस्प किस्सा है।
एक शाम होस्टल में सभी दोस्तों के तख़ल्लुस (उपनाम) रखे जाने थे, और उन के तख़ल्लुस का पहला अक्षर उनके शहर या ज़िले के नाम का पहला अक्षर होना था। डा. रवि का नाम रखा गया : लेकिन लुधियाणवी। वह हर वाक्य में लेकिन ज़रूर ले आते : कविता बहुत अच्छी है लेकिन इसका सैद्धांतिक आधार नहीं। मेरा नाम जस्टिफाईड जलंधरी रखा गया। वीर सिंह कहने लगा तुम अपनी हर बात को जस्टिफाई कर लेते हो। सुरजीत मान का नाम पोज़ियर पटियालवी रखा गया। वह सुंदर भी बहुत था और सुंदर लड़कियों को मोहने के लिए वह पोज़ भी बहुत करता था। डा. नूर उन दिनों ‘‘ढोला’’ गाया काता था :
कंङणां दे नाल
उहा गल्ल कीती अज्ज यार
कंङणां दे नाल
अनुवाद :
कंगनों के साथ
तुमने वही बात की आज यार
कंगनों के साथ
सो नूर का नाम रखा गया कंङण कोटकपूरवी। इन दिनों में ही हम ने (नूर और मैंने) मिनी मैगज़ीन ‘‘कलयुग’’ निकाली। मैं हर बारी उसका आख़िरी पन्ना याशमीन पाशा के नाम से लिखता था। उस पन्ने का नाम था : एक नाजायज़ सफ़ा। उस मैगज़ीन की सारी कंपोज़िंग नूर अपनी प्रैस पर आप ही करता। नूर का एक नाम सपनों का सौदागर भी था; उसके पास हर किसी के लिए कोई खुशख़बरी होती, सुनने वाले के सपने जैसी खुशख़बरी।
और भी बहुत दिलचस्प नाम रखे गए प्रचलित नाम सिर्फ़ पोज़ियर का ही हुआ। जब उसकी किसी लड़की से दोस्ती होती, वह हमें मुश्किल से ही मिलता। पर फिर किसी शाम अपनी शर्बती आँखों को गुलाबी किए यारों के दरवाज़े पर आ जाता, हम समझ जाते ताज़ा टूटे नेह की कहानी। वह कुछ दिन उदास रहता और फिर नौ-बर-नौ होकर चनाब के घाट पर आ जाता।
मैं उसे अक्सर छेड़ता हूँ कि यह शेअर मैंने तेरे बारे में ही लिखा था :
अत्थरू टैसट टिऊब ’च पा के वेखांगे
कल रातीं तूं किस महबूब नूं रोंदा
अनुवाद :
आँसू टैस्ट ट्यूब में डालकर देखेंगे
कल रात तू किस महबूब को रोया था
होस्टल में अक्सर माझे मालवे दुआबे की बहस चलती रहती। पोज़ियर कहता मलवई हैम्लैट जैसे होते हैं, मझैल ओथैली जैसे और दुआबिए इब्सन के किरदारों जैसे।
हममें से घोर मझैल जोगिंदर सिंह कैरो था। उससे मेरी दोस्ती कभी न होती, अगर वह मुझे अपने सपने न सुनाता। वह सवेरे चाय का कप पकड़कर मेरे कमरे में आ जाता और कहता : यार रात मुझे बहुत कमाल का सपना आया। एक दिन उसने सपना सुनाया : हमारे गाँव में चोरी हो गई। पंचायत इकट्ठी हुई, सभी तरकीबें सोचने लगे चोर कैसे पकड़े जाएँ? एक जना कहने लगा तुम ने वह कहावत नहीं सुनी कि चोरों को मोर पड़ गए। सभी कहने लगे हाँ भाई ! इसकी यह बात तो ठीक है। अगले पल गाँव की नहर के किनारे पर दूर तक हज़ारों मोर अपने पंख फैलाए खड़े थे और उनके रंगीले अक्स नहर के शफ़्फ़ाफ़ पानी में दिखाई दे रहे थे
कैरो का अर्ध-चेतन मन उसके चेतन मन से ज़्यादा सृजनशील है। कैरो का लड़ाकूपन भी मशहूर है कुछ साल पहले अमरीका में किसी महफ़िल दौरान मेरी गैरहाज़िरी में मुझ पर किसी ने झूठा इलज़ाम लगाया कि पातर ने पहले भाषा विभाग का इनाम ठुकरा दिया और फिर ले भी लिया। कैरो उससे गाली-गलौज करने लगा। यह सुनकर ऐडमिंटन वाला हरदेव विर्क कहने लगा : पातर यार तुम ख़ुद तो मलूक से कवि हो पर तेरे पीछे कैरो, विर्क, संधु, बराड़ सारी ख़ूंखार कौमें दीवार बनकर खड़ी हैं। संधु बराड़ से उसका इशारा वरियाम संधू और शुभ प्रेम की ओर था।
पटियाला में दूसरा मीठा मझैल सभराओं का रणजीत था, दीवानगी और मोह से भरा। उसका एक दृश्य कभी न भूलने वाला है। उसकी एक जमातिन (सहपाठी) लड़की सर्वरी भट्टी उसे बहुत अच्छी लगती थी। रणजीत ने चार सफ़ेद पगड़ियां खरीदीं और लड़कियों के होस्टल जाकर सर्वरी को कहने लगा : यह चारों पगड़ियां रंगवा दो, अपनी पसंद की। सभी लड़कियां इकट्ठी हो गईं, वह सर्वरी को छोड़ने लगीं : अरी तुम्हारा जमाती तो बहुत रंगीला। तब से उसका नाम रणजीत रंगीली है।
होस्टल में मेरा होस्टल-तराना भी कई बारी गाया जाता था :
गत्ते की तलवार
कुछ न सकी संवार
एक गोली विद्रोहियों ने मारी
एक मारी सरकार
हाहाकार हाहाकार हाहाकार
मशहूर कवियों (शिव कुमार और हरिभजन सिंह) की कविताओं की पैरोडियां भी खूब चलतीं :
माए नीं माए, मैन्नू ग़म दा सूट संवा दे
आहांदे कॉलर
ते हंझुओं दी झालर
विच बटन बिरहों दे ला दे।
अनुवाद :
माँ री माँ, मुझे ग़म का सूट सिलवा दे
सिसकियों के कॉलर
और आँसुओं की झालर
बीच में बटन बिरहा के लगा दे
एक और दिलचस्प पैरोडी इस तरह थी :
जदों तैथों विछड़ के आख़री वारी
मैं अपणे पिंडो मुड़या आ रिहा सी
मेरे साईकिल दा घंटी तों सिवा सभ कुछ खड़कदा सी
ना मेरे विच कोई फूक बाकी सी
ना मेरे साईकिल दे पहियाँ विच
ते मैं इक सच अचेते जाणदा सां
कि साईकिल दा तां शायद
फूक बाझों सर ही सकता है
बंदे दा नहीं सरदा...
अनुवाद :
जब तुझसे बिछुड़कर आख़िरी बारी
मैं अपने गाँव से लौटकर जा रहा था
मेरे साईकिल का घंटी के सिवाय सब कुछ खड़कता था
न मेरे में कोई फूंक बाकी थी
न मेरे साईकिल के पहियों में
और एक सच मैं अचेत में ही जानता था
कि साईकिल का तो शायद
फूंक के बिना गुज़ारा हो सकता है
बंदे का नहीं...
डॉ. हरचरन सिंह की किताब ‘‘सारे के सारे इकांगी’’ और उनके तकिया कलाम ‘बल्ले बल्ले’ को जोड़कर लिखी थी कविता भी :
जिन्हां रुखां दे थल्ले
मिलण सज्जण सज्जणां नूं कल्ले कल्ले
उन्हां रुखां नूं कोई फूल्ल पैदे बल्ले बल्ले
जिन्हां नदियां किनारे
यारां ने यार मारे
उन्हां दे सुक्क जांदे
नीर सारे दे सारे
अनुवाद :
जिन पेड़ों के नीचे
मिलें सज्जन सज्जनों को अकेले अकेले
उन पेड़ों को कोई फूल खिलते
बल्ले बल्ले
जिन नदियां किनारे
यारों ने यार मारे
उनके सूख जाते
नीर सारे के सारे
वृक्ष मेरी ग़ज़लों में रूप पलटकर बार बार आता है पर पंजाबी यूनिवर्सिटी में ही वह पापलर का दरख़्त है जो उस दिन हवा में झूल रहा था, जिसके नीचे से हीरों का झुंड गुज़रा जिस में वह सपने जैसी आकृति भी थी जिसके गुज़रते हुए मुझे लगा कि हवा जिस पेड़ के वजूद को झिंझोड़ कर गुज़र रही है, वह पेड़ मैं ही हूँ, यह मेरे ही पत्ते हैं जो उड़ उड़ कर उसके कदमों पर गिर रहे हैं। यह ही वह शहर था जहाँ मैं पहली बार वृक्ष बना और वह ग़ज़ल लिखी :
कोई डालियों से गुज़रा हवा बनकर कोई डालिओं चों लंघिआ हवा बण के
हम रह गये वृक्ष वाली आह (सिसकी) बनकर असीं रह गये बिरख वाली हाअ बण के
तेरे कदमों पर दूर दूर तक मेरे पत्ते पैड़ां तेरीआं ते दूर दूर तीक मेरे पत्ते
गिरे मेरी बहारों का गुनाह बनकर डिगे मेरीआं बहारां दा गुनाह बण के
कभी बंदों की तरह हमें मिला भी कर
कदी बंदिआं दे वांग सानूं मिलिया वी कर
यों ही गुज़र जाते हो पानी कभी हवा बनकर...
अैवें लंघ जानैं पाणी कदे वा बण के
एम.ए. में मुझे गोल्ड मैडल मिला और मैं रिसर्च स्कालर बन गया, तीन सौ रुपये वजीफ़ा मिलने लगा। मैं नाटक से संबंधित किसी विषय पर पीएच-डी. करना चाहता था। एम.ए. करते हुए भी थीसिस नाटक पर ही लिखा था : पंजाबी नाटक के नये झुकाव। नाटक मुझे बहुत आकर्षित करता था। पहले पहल मैंने यूनानी दुखांत पढ़े, प्रो. मोहन सिंह और डॉ. हरिभजन सिंह के किए ख़ूबसूरत अनुवाद। फिर सार्त्र का मैन विदाऊट शैडो, पोज़ैस्सड, फिर लोर्का के तीनों दुखांत। उन दिनों डॉ. हरजीत सिंह गिल्ल नये नये पैरिस से आए थे। अस्तित्ववाद हवा में था। वह सार्त्र के नाटक फलाईज़ का सीधा फ्रांसीसी से पंजाबी अनुवाद कर रहे थे। लाली साहब समेत सब संगतें वहाँ पर आ जुड़तीं। इस सारे माहौल में मेरे लिए पीएच-डी. का विषय चुना गया : पंजाबी नाटक में अस्तित्ववादी स्थितियाँ। सार्त्र और कामू को पढ़कर पैरों के नीचे आग जलने लगी। प्यार, रब, रोमांस, सभी के डरावने एक्स रे दिखाई देने लगे। सब रिश्तों की बुनावट की पृष्ठभूमि में अहं, ख़ुदगर्ज़ी की गाँठें नज़र आने लगीं। यह सब कुछ संतापमय था। जैसे किसी का शेअर है :
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने करीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
इस में आग थी, पर रोशनी भी बहुत थी। इन दिनों ही मैंने यह कविता :
इस से आगे तो नंगी झीलें हैं मेरे यार
दूध के बुतों की चढ़ती है कहर कुफ़्र बहार
ऐसी पतझड़ की पवन बहती है
जिस के लिए जिस्म के वस्त्र तो सिर्फ़ पत्ते हैं
इतने भावुक न हों नाटक में
कि खुदकुशी के लिए सचमुच का ज़हर पी लें
छोड़ परे मोह और ममता का अब मज़ाक बहुत हो चुका
शाम ढलती है आ जा लौट चलें
इससे आगे तो हंस-पवन बहे
दूध से पानी बिछुड़ कर रोते हैं
इससे आगे तो प्रेत पित्रों के
हवा बनकर बनों में फिरते हैं
मेरी कविता, मेरा पीएच-डी. का विषय, भूतों की सोहबत और मैं यह सब कुछ धुला पड़ा था। मेरी इन्रोलमेंट हो चुकी थी, रजिस्ट्रेशन अभी होनी थी। आख़िर रीसर्च कमेटी की मीटिंग का दिन आ गया, जिस में रजिस्ट्रेशन का फैसला होना था। मीटिंग में शिरकत करके आए डॉ. हरचरन सिंह, जो पंजाबी विभाग के मुखी भी थे और मेरे गाईड भी, मुझे रास्ते में ही मिल गए, कहने लगे : बल्ले बल्ले, अब पूरा ज़ोर लगाकर काम शुरू कर दे, तेरी रजिस्ट्रेशन हो गई है, बस थोड़ा सा विषय बदल दिया है, वह अब पंजाबी नाटक में यथार्थवाद कर दिया गया है। मुझे यह थोड़ी सी तबदीली यूँ ही लगी जैसे किसी की मंगनी हो चुकी हो पर उस थोड़ी सी तबदीली कर दी जाए कि अब तेरा विवाह चन्नो से नहीं, तारो से होना।
आख़िर वह विवाह हुआ ही नहीं। नाटक पर मेरी पीएच-डी. रहती रहती रह गई। फिर कई दशकों बाद मैंने गुरु नानक बाणी पर पीएच-डी. की।
यहाँ रहते ही वह लाल अंधेरी चली हुई जिसे नैक्सलाईट लहर कहते हैं। इसके बारे में होस्टलों में ख़ूंखार बहसें होतीं। यहाँ ही हमारे पास एक रात अमरजीत चंदन आया। यहाँ पर ही पाश की पहली कविताएँ पहुँचीं जिस में बदलते युग की आहट थी।
अनेक चेहरे जो बाद में और शहरों की ज़ीनत बन गए, पहली बार मैंने यहाँ ही देखे- डॉ. अतर सिंह, जोगा सिंह, सूबा सिंह। त्रिलोचन भी अणनी बेचैनियों समेत यहाँ पर ही मिला। अनूप विर्क और दरबारा सिंह यहाँ पर ही मिले। शर्बती आँखें और तोते रंगी पगड़ी वाला मूहरजीत भी यहाँ पर ही मिला। यहाँ पर ही मिला रणजीत सिंह बाजवा जो हर भाषण प्रतियोगिता में अव्वल रहता। भाषण चाहे धर्म के बारे में हो, चाहे विज्ञान के बारे में, चाहे भगत सिंह के बारे में। वह हर भाषण इस जोरदार पैरे से ही शुरू करता : समय के रूपात्मक गतिशील प्रपंच में, ज़मीन और आसमान के बीच में लटकता, पश्चिमी पवनों के संगीत को सुनता, अस्तित्व और अनस्तित्व के ताने बाने में उलझा, वस्तुओं को प्रतीकों और मानव को मशीन में परिवर्तित करता आदमी का पुतला किधर को जा रहा है? उसकी शाब्दिक अंधेरी के आगे कोई न ठहरता। यह पैरा हम सब को याद हो गया था। और फिर वह दिन आया जो इस सारे झुंड के बिखर जाने का सबब बना। यूनिवर्सिटी में गुरू नानक देव जी की पाँच सौ वर्षीय जन्म शताब्दी मनाई जा रही थी, पंडाल सजा हुआ था, कोई केंद्रीय मंत्री, शायद चव्हाण भाषण दे रहा था, पूर्व आयोजित प्रोग्राम मुताबिक एक गर्म विद्यार्थी ने ज़िंदाबाद मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए। हड़कंप मच गया। जो पहले से ही तैयार थे, दौड़ गए पर कुछ बेख़बर विद्यार्थी सिपाहियों के हाथ आ गए, जिन में रणजीत रंगीला भी था। एक सिपाही ने किसी विद्यार्थी को गाली दे दी। रंगीला ने सिपाही को कहा : भाई साहब, तुम अपने शब्द वापस लो। उसने शब्द तो क्या वापस लेने थे, उन शब्दों का लाठियों में अनुवाद शुरू कर दिया। रंगीला का पीट पीट कर बुरा हाल कर दिया। वह रंगीला अब मैसूर में है- भाषा विज्ञान का अध्यापक। शायद शब्दों के साथ इस रिश्ते ने उसे भाषा-विज्ञानी बना दिया।
विद्यार्थी की बहुत बड़ी हड़ताल हुई। हड़ताल ख़त्म हुई तो डॉ. नूर की नौकरी और मेरा रिसर्च स्कालरशिप ख़त्म कर दी दिया गया, दलीप कौर टिवाणा को खालसा कॉलज के ईवनिंग सेशन में बदल दिया। इस जलावतनी की सज़ा पीछे डॉ. नूर और मेरी कविता का भी हाथ था। और भी जिस जिस अध्यापक पर विद्यार्थियों का हमदर्द होने का शक हुआ, उस तक कोप का सेंक पहुँचा।
यूनिवर्सिटी से जलावतन होकर कुछ समय तक मैं और डॉ. नूर पटियाला में एक घर में कमरा लेकर रहे। उस घर में कई सदस्य थे, एक चालीस वर्ष की गृहिणी भी थी, वह जन्मजात कुबड़ी थी, वह उस घर की बेटी थी, उसका विवाह नहीं हुआ था, उसका नाम तेजो था। वह कई बारी आकर हमारे से बातें करने लग जाती। एक दिन मैंने उसे सरसरी पूछा : तेरी उम्र कितनी है? वह कुछ देर चुप रही, फिर कहने लगी : काका बात वह करते हैं, जिससे दिल को ठण्ड पड़े।
मुझे उसके जवाब से एहसास हुआ कि मेरे सवाल से उसके उदास दिल को कितना दुःख पहुँचा। तुम्हारा मासूम सा सवाल भी किसी के लिए कितना निर्दय हो सकता है, तुम्हें पता नहीं होता।
तेजो का वह वाक्य उन कमाल की कहावतों, शेअरों, संवादों में शामिल हो गया जो मुझे हमेशा याद रहते हैं।
और फिर हम सभी यार पटियाला से उजड़ गए। जब पहले पहल पटियाला आए थे तो कितने दिन मन नहीं लगा था, फिर ऐसा दिल लगा कि कई कई महीने घर न जाते, फिर यूं लगने लगा कि हम कितने बदल गए हैं, यहाँ पर क्या कुछ पढ़ा, देखा, झेला, इन दिनों में वह नज़्म लिखी :
हुण घरां नूं परतणा मुशकल बड़ा है
कौण पहचाणेगा सानूं
मत्थे उत्ते मौत दसख़त कर गई है
चेहरे उत्ते यार पैड़ां छड गये ने
शीशे विच्चों हीर कोई झाकदा है
अक्खां विच कोरी लिशक है
किसी ढठ्ठे घर दी छत्त ’चों आउंदी लो जेही...
एने डुब चुके ने सूरज
एने मर चुके ने ख़ुदा
ज्योंदी माँ नूं देखके
अपणे जां ओसदे
प्रेत होवण दा होएगा तोख़ला...
जदों चाची ईशरी सिर पलोसेगी असीसा नाल मेरा
किस तरां दस्सांगा मैं
एस सिर विच किस तरां दे छुपे होए न ख़ेआल...
जिन्हां अक्खां नाल देखे ने दुखांत
किस तरां नाल मेलांगा अक्खां
आपणे बचपन दी मैं तसवीर से
आपणे निक्के वीर नाल...
अनुवाद :
अब घरों को लौटना मुश्किल बहुत है
कौन पहचानेगा हमें
माथे ऊपर मौत दस्तख़त कर गई है
चेहरों पर याद अपने कदमों के निशान छोड़ गये हैं
शीशे में से और कोई झाँकता है
आँखों में कोरी चमक है
किसी ढह गए मकान की छत में से आती लौ जैसी.
इतने डूब चुके हैं सूरज
इतने मर चुके हैं ख़ुदा
जीती माँ को देखकर
अपने या उसके
प्रेत होने का होगा भय...
जब चाची ईश्री सिर सहलाएगी आशीषों से मेरा
किस तरह बताऊंगा मैं
इस सिर में किस तरह के छुपे हुए हैं ख़्याल...
जिन आँखों से देखे हैं दुखांत
किस तरह मिलाऊंगा आँखें
अपने बचपन की तसवीर से
अपने छोटे भाई से
इस कविता में मुझसे उन दोस्तों का दुःख भी शामिल हो गया था, जो देश की तकदीर बदलने के लिए घर से बेघर हुए फिरते थे। मैं असल में लौटकर उस घर न लौट सका। इस घर और गाँव को याद करते हुए यह गीत मैंने पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के होस्टल में लिखा था :
सुन्ने सुन्ने राहाँ विच कोई कोई पैड़ ए
दिल ही उदास ए जी बाकी सभ ख़ैर ए
अनुवाद :
सूनी सूनी राहों में कोई कोई पद-चिन्ह है
दिल ही उदास है जी बाकी सब ख़ैर है
इस दौरान बी जी गुज़र गए, उपकार मेरा छोटा भाई, जो बी जी के पास रहता था, होस्टल में चला गया। उस घर को ताला लग गया। अब वह घर मलबा है। पटियाला छोड़ने के आख़िरी दिनों में ही एक शाम मैंने वह ग़ज़ल लिखी :
मेरा सूरज डुबेया है तेरी शाम नहीं है
तेरे सिर ते तां सेहरा है इलज़ाम नहीं है
एना ही बहुत है कि मेरे ख़ून ने रुक्ख सिंजेया
की होएआ जे पत्तियाँ ते मेरा नाम नहीं है
मेरे हत्यारे ने गंगा च लहू धोता
गंगा दे पाणियां विच क़ोहराम नहीं है
मेरा न फ़िक्र करीं जी कीता तां मुड़ जावीं
सानूं तां रूहां नूं आराम नहीं है
अनुवाद :
मेरा सूरज अस्त गया है तेरी शाम नहीं है
तेरे सिर पर तो सेहरा है इलज़ाम नहीं है
इतना ही बहुत है कि मेरे ख़ून ने पेड़ सींचा
क्या हुआ अगर पत्तों पर मेरा नाम नहीं है।
मेरे हत्यारे ने गंगा में लहू धोया
गंगा के पानियों में क़ोहराम नहीं है
मेरा न फ़िक्र करना दिल किया तो लौट जाना
हमको तो रूहों को आराम नहीं है
अब पटियाला जाऊं तो मुझे मेरी यादों का पटियाला नहीं मिलता। अब भी वहाँ पर हमारे जैसी बेआराम, बेचैन रूहें ज़रूर ज़रूर होंगी। अब भी दरख़्तों के पत्ते उड़ उड़ कर किसी के पद-चिन्हों पर गिरते होंगे पर मेरा पटियाला अब मेरे मन में ही बसता है, धरती पर नहीं।
जब पहले दिन हमें मैडम टिवाणा पढ़ाने आईं तो उन्होंने कहा : एक दुनिया में हम बसते हैं और एक दुनिया हमारे अंदर बसती है। इस वाक्य की पूरी समझ अब ही आई!
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