कहानी पीपल का पेड़ डॉ. गीता गीत आ ज धीरेन्द्र दा के सारे कार्यक्रम सम्पन्न हो गये. एक-एक करके सभी मेहमान जा चुके हैं. सबेरे पंकज भी परि...
कहानी
पीपल का पेड़
डॉ. गीता गीत
आज धीरेन्द्र दा के सारे कार्यक्रम सम्पन्न हो गये. एक-एक करके सभी मेहमान जा चुके हैं. सबेरे पंकज भी परिवार सहित अपने मामा ससुर के घर चला गया है. पर जाते-जाते धीरा बौदी से बोल गया है-‘‘मां, तुम खूब सोच लो, मैं कल आऊंगा. मुझे तुम्हारे फैसले का इंतजार है. तुम सोच समझकर कल अपना फैसला बता देना. इक्का-दुक्का मिलने वालों का क्रम जारी है. फिर भी लग रहा है चारों ओर निस्तब्धता व्याप्त है. शाम घिर आयी है.
धीरा घर के आंगन के पीपल के पेड़ की घनेरी छाया तले बने चबूतरे पर बैठी अतीत की यादों में खोई हुई है. उसकी यादों के आकाश में घने बादल छाये हुये हैं. कभी-कभी बूंदा-बांदी भी शुरू हो जाती है. साड़ी के पल्लू से उन्हें पोंछती हुई धीरा सोचती जा रही है.
पीपल का यह पेड़ धीरेन्द्र और धीरा के प्रेम, आनंद, खुशी और संघर्ष के एक-एक पल का साक्षी है.
शादी की 25 वीं सालगिरह पर इस पेड़ पर रंगीन विद्युत झालरों से कितना सुंदर सजाया गया था. बहुत सारे लोगों को आमंत्रित किया गया था. धीरेन्द्र के बहुत सारे मित्र, पड़ोसी और धीरा की भी बहुत सी सहेलियों को बुलाया गया था. धीरा की रिश्ते की ननद काकूली मित्रा बहुत बड़ा केक लेकर आयी थी. सभी के आग्रह पर जब दोनों ने मिलकर केक काटा तब तालियों की गड़गड़ाहट से पीपल प्रांगण गूंज उठा था. धीरेन्द्र के दोस्तों ने दोनों के ऊपर चुनरी तान दी थी और शुभ दृष्टि कार्यक्रम के लिये मजबूर कर दिया. धीरेन्द्र धीरे से मुस्करा दिये और धीरा की ओर देखा. धीरा आज भी सकुचा रही थी ठीक पच्चीस साल पहले की तरह. परंतु दोस्त सहेलियां कहां मानने वाली थीं. ज्यों ही धीरा ने धीरेन्द्र की ओर देखा. सभी हा-हा करके हंस पड़े.
पच्चीस साल पहले आज ही के दिन जब धीरेन्द्र पाल लंबा-सा टोपोर-‘दूल्हे की टोपी’ लगाकर, धोती-कुर्ता पहनकर धीरा मजूमदार को ब्याहने आए थे, तब धीरा दुल्हन बनी पान के पत्ते से चेहरा ढके, पटे पर बैठी थी और उसके जामाय बाबू (जीजा जी) दादा (बड़े भाई) और दादा के दोस्त लोग उसको मण्डप में लाये थे. धीरेन्द्र खड़े थे और सभी ने सात पाक (सात फेरे) करवाये थे. पान के पत्ते से चेहरा ढके धीरा को शुभ दृष्टि के समय
धीरेन्द्र की ओर देखने के लिए कहा गया तो उसे बहुत संकोच हो रहा था परंतु पंडित जी बार-बार कह रहे थे कि शुभ दृष्टि है एक दूसरे की ओर देखो. जब उसने पान का पत्ता हटाकर धीरेन्द्र की ओर देखा तो धीरेन्द्र भी मधुर मुस्कान लिए उसी की ओर देख रहे थे. उसको हंसी आ गयी थी. सभी उपस्थित जन ताली बजा-बजाकर हंसन लगे थे हंसी का एक दौर-दौरा सा पड़ गया था.
बिदाई की बेला में मां सपना और पिता सुजीत मजूमदार, काकू, जेठू, जेठी मां, दादा, जामाय बाबू, दीदी सभी से लिपटकर वह कितना रोई थी. मायके से विदा होकर दूल्हे की कार जब चौरास्ते से ससुराल के लिए मुड़ी तब उसका रुदन भी थम गया था और वर (दूल्हे) के साथ ससुराल पहुंचने की खुशी चेहरे पर झलक आई थी.
ससुराल पहुंचते ही घर के दरवाजे पर सर्वप्रथम बड़ी सी एक मछली के दर्शन कराये गये थे. यह बंगालियों का एक नियम है कि प्रत्येक शुभ कार्य में मछली जरूर शामिल की जाती है. सासुड़ी मां उसे रसोई घर तक ले गई थी. रसोई घर में सभी बर्तनों में खाद्य सामग्री भरी हुई थी. गैस पर दूध चढ़ा था जो उफनकर गिर रहा था. सासुडी मां बोली, ‘‘बोऊमां उफनता दूध देखो-भगवान की कृपा से और तुम्हारे आगमन से हर चीज यहां उफान पर रहे.’’
धीरा के आगमन के बाद ससुराल का कपड़े का व्यवसाय बहुत बढ़ा. धीरेन्द्र के बड़े भाई रामेन्द्र का व्यवसाय था, परंतु दोनों भाई मिलकर संभालते थे. घर में सुख शांति थी. सभी कुछ अच्छा चल रहा था, तभी एक दिन धीरेन्द्र धीरा को लेकर अकेले ही पिक्चर देखने चले गये. जब टॉकीज से लौटकर घर आये. बड़े भाई ने डांट दिया. थोड़ी कहासुनी होते-होते बात इतनी बढ़ गई कि धीरेन्द्र ने क्रोध में आकर घर ही छोड़ दिया और धीरा को लेकर जबलपुर आ गये.
कहां कलकत्ता महानगर और कहां यह छोटा सा नगर. यहां किराए के दो कमरों के मकान में शिफ्ट हुए, एक छोटा कमरा जिसे रसोई घर बनाया गया. दूसरे कमरे में बैठक बनाई गई जो रात को बेडरूम बन जाता था. पीने के पानी के लिए सड़क के नल पर लंबी कतार पर खड़े होना पड़ता था.
धीरेन्द्र हर पल उसे दिलासा देते रहते, ‘‘धीरा रानी घबराना नहीं. एक दिन तुम्हारे लिए बहुत बड़ा आलीशन घर बनवाऊंगा. चारों ओर पेड़ पौधे होंगे. सामने बड़ा सा बागीचा होगा. पेड़ पर झूले बंधे होेंगे. तुम झूले में झूलोगी और तुम्हें झूलता देखकर मुझे बहुत खुशी होगी.’’
धीरेन्द्र ने कपड़े का धंधा शुरू किया. कलकत्ता के दोस्तों से सम्पर्क कर ट्रांसपोर्ट से कपड़े मंगाने लगा. उसकी मितव्ययता से धंधा खूब चल निकला उसने एक दुकान खरीद ली. धीरा भी
धीरेन्द्र के कामों में सहयोग करने लगी.
खाली समय में धीरा और धीरेन्द्र समाज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति, छोटे बच्चों के नाटक, नृत्य, बच्चों का मेकअप, ड्रेसअप, मंच संचालन, पारितोषिक वितरण दोनों की हॉबी बन गई. बहुत से लोगों से उनका परिचय भी बढ़ गया. दोनों पति-पत्नी लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गये. पंकज के रूप में घर में नए मेहमान ने जन्म लिया. घर में नन्हीं किलकारियां गूंजने लगी. पंकज के पहले जन्मदिन पर बहुत बड़ी पार्टी रखी गई. कितना आनंद और उत्सव बनाया गया था. पंकज स्कूल जाने लायक हुआ. उसे शहर के सबसे अच्छे स्कूल में भर्ती कराया गया. वक्त गुजरता रहा.
धीरेन्द्र ने एक बड़ा प्लाट खरीदा, धीरा को वह प्लाट दिखाने ले गया. प्लाट में पहले से ही एक पीपल का पेड़ लगा हुआ था. धीरेन्द्र ने कहा, ‘‘इस पीपल के पेड़ को यहां से हटा देंगे. काफी जगह निकल आएगी.’’ धीरा तुरंत बोल पड़ी, ‘‘नहीं, आप इस पेड़ को कदापि नहीं हटाऐंगे. आप जानते हैं कि मेरी मां कहा करती थी कि पीपल पितृ दोष से मुक्त करता है. छत्तीस कोटि देवी देवता इस पेड़ पर विश्राम करते हैं और इसकी पत्तियां प्राण वायु देती हैं. आपने वायदा किया था, मकान बनवायेंगे, मकान के सामने बागीचा लगवायेंगे और पेड़ पर झूला डलवायेंगे. मुझे झूला झूलता देख आपको खुशी होगी-देखिए आप अपने वायदे से मुकरना नहीं.’’
धीरेन्द्र ने बहुत आलीशान मकान बनवाया. पीपल के पेड़ के चारों तरफ चबूतरा बनाया. सामने शानदार बगीचा, बगीचे में ही एक तरफ मछली पालने के लिए हौदी बनवायी और पीपल के पेड़ पर झूला डलवा दिया गया.
बाउन्ड्री वाल के लिये जब खुदाई हो रही थी, तब नींव के नीचे से हनुमान जी की एक प्रतिमा निकली. धीरा-धीरेन्द्र बहुत खुश हुए.
हनुमान जी की मूर्ति को मकान के अन्दर ही एक कमरे में स्थापित कर दिया गया. बहुत धूमधाम से मकान का उद्घाटन किया गया. हनुमान जंयती पर विशाल भंडारा रखा गया. यह क्रम हमेशा के लिये चालू हो गया. बच्चे, बूढ़े जवान सभी धीरेन्द्र को
धीरेन्द्र दा और धीरा को धीरा बौदी (भाभी) पुकारने लगे.
पीपल के पेड़ पर झूला डाला गया. पंकज और उसका बच्चा पार्टी दिन भर पीपल के इर्द-गिर्द शोर मचाते, झूला झूलते रहते. धीरा भी कभी-कभी उनके साथ झूलती. उन बच्चों से उनकी ही भाषा में बात करती. बच्चों की धमा चौकड़ी उसे बहुत अच्छी लगती थी.
एक दिन पंकज झूले से गिर गया. उसके माथे में बहुत चोट लगी. न्यूरोसर्जन ने कहा, ‘‘हम इलाज कर रहे हैं आप दुआ मांगिये.’’ दोनों पति-पत्नी कितना डर गये थे. रात-भर दोनों हनुमान जी की स्तुति करते रहे. सुबह डॉक्टर ने बताया था-पकंज खतरे से बाहर है. तब जान में जान आई थी.
पंकज पढ़ाई में तेज था. बारहवीं में जब वह मैरिट लिस्ट में आया, पंकज के साथ ही माता-पिता की तस्वीर भी दैनिक अखबार में छपी थी. धीरेन्द्र जहां कहीं भी जाते, अखबार बैग में रख ले जाते. लोगों को गर्व से दिखाते-देखो यह मेरा बेटा पंकज है, मैरिट में पास हुआ है. लोग ‘मिठाई खिलाओ’ कहते और तुरन्त ही बैग से निकालकर मिठाई भी खिलाते.
पंकज आगे की पढ़ाई के लिये पूना जाना चाहता था. धीरा-
धीरेन्द्र दोनों इकलौते बेटे को बाहर नहीं भेजना चाहते थे. धीरेन्द्र दा ने कहा-‘‘बेटा घर की दुकान है. मैं कब तक अकेले काम करूंगा. तुम यहीं रहकर कुछ करो’’-पंकज बोला-‘‘बाबा यह कस्बाई शहर है, यहां कोई स्कोप नहीं है आगे बढ़ने के लिये. मुझे बाहर जाना ही होगा.’’ पंकज पूना चला गया.
जिस दिन पंकज पूना के लिये रवाना हुआ, सारा दिन दोनों पीपल के पेड़ के नीचे बैठे रहे. धीरेन्द्र ने दुकान तक नहीं खोली, कई दिनों तक उनसे खाना तक ठीक से नहीं खाया गया. पीपल तले बैठकर पंकज की शरारतों को याद कर कभी हंसते और कभी रोने लगते थे.
पंकज ने पूना से पी.ई.टी. के बाद एम टेक किया और वहीं एक अच्छी कंपनी में चुन लिया गया. कंपनी की तरफ से उसे आस्ट्रेलिया भेज दिया गया. अब फोन पर ही बातें हो पाती, वह भी बहुत कम; क्योंकि पंकज को काम से फुरसत ही नहीं मिलती थी. वह हमेशा व्यस्त रहता था. धीरा बौदी और धीरेन्द्र दा ने अपना मन अब बेसहारा अनाथ बच्चों की देखरेख और उनकी सहायता में बिताना आरम्भ किया. जिस दिन दुकान की छुट्टी रहती, दोनों ग्रामीण अचलों की ओर निकल जाते. जहां तक हो सकता जरूरतमंदों की सहायता करते. इसी को जीवन का उद्देश्य बना लिया. अब मन में कोई क्लेश नहीं रहता था. सुख और संतोष था.
पीपल के पेड़ के पुराने पत्ते पीले होकर झड़ गये हैं. नई-नई कोपलें फूटी हैंत्र पूरा पेड़ हरियाली से सज गया है. ठंडी-ठंडी हवा के झोंके चल रहे हैं. धीरा बौदी और धीरेन्द्र यादों में खोये हुये हैं. तभी धीरेन्द्र दा के मोबाइल की घंटी बजी. साथ की दुकान का अजय भौमिक का फोन था. अजय बोला-‘‘दादा मेरे साथ एक बच्ची है. मैं बहुत परेशानी में हूं आपसे मिलना चाहता हूं.’’
धीरेन्द्र दा जानते थे कि अजय भौमिक सज्जन आदमी हैं, सो उन्होंने उसे घर बुला लिया. अजय भौमिक थोड़ी ही देर में बारह तेरह वर्षीय एक बालिका को लेकर उपस्थित हुआ. उसने संक्षेप में उसकी जो कहानी सुनाई उसे सुनकार धीरेन्द्र दा द्रवित हो गये और उस लड़की को एक रात के लिये अपने घर पर पनाह देने के लिए राजी हो गए.
रात अधिक हो चुकी थी अजय भौमिक उस लड़की को जिसका नाम सोमा था, धीरेन्द्र दा के घर छोड़कर चला गया.
सुबह नाश्ते के बाद उस लड़की सोमा ने अपनी जो करुण कहानी सुनाई वह रोंगटे खड़ेकर देने वाली थी.
सोमा के पिता हरियाणा में एक किसान थे. पांच भाई-बहनों में वह चौथे नम्बर की थी. गांव के स्कूल में पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी. इस साल फसल अच्छी हुई थी. पिता ने सोचा था बड़ी बेटी की शादी कर देंगे, तभी बेमौसम की बरसात ने सारी फसल खराब कर दी. कहीं से कोई सहायता या मुआवजा न मिलने के कारण सोमा के पिता ने आत्महत्या कर ली. बड़ी बेटी ने कुएं में कूदकर जान दे दी. सौतेली मां ने कुछ दिनों बाद सोमा को एक बिहारी सेठ के हाथों बेच दिया. बिहारी उसे बिहार ले गया. बिहारी की पत्नी उससे दिन भर काम करवाती थी और भरपेट खाना भी नहीं देती थी. बिहारी का जवान बेटा सोमा पर बुरी नजर रखता था और उससे छेड़खानी करता रहता था. एक दिन मौका पाकर वह वहां से भाग गई. स्टेशन में एक कोने में दुबकी बैठी थी, तभी एक उत्तर प्रदेशी उसे बहला-फुसलाकर दिल्ली ले गया. दिल्ली में सोमा के साथ जो कुछ हुआ, उसे बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारी सरकार बालिका शिक्षा और बालिका रक्षा का डिंडोरा भर पीटती है. वास्तव में लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. दिल्ली से एक बदमाश सोमा कोे यहां ले आया. उसने उसे चहारदवारी में कैद करके रख दिया. दिनभर वह घर का काम करती और रात को आदमी अपनी मनमानी करता. एक दिन शाम को मौका पाकर सोमा दीवाल फांदकर वहां से भागी. मोहल्ले के आवारा लड़कों की नजर उस पर पड़ गई. वे उसके पीछे दौड़े. भागते-भागते वह अजय भौमिक की दुकान में छुप गई. अजय को देख उसने मुंह पर ऊंगली रखकर चुप रहने का इशारा किया. थोड़ी देर में लड़के भी पीछा करते हुये आ पहुंचे. उन्होंने अजय से पूछा कि किसी लड़की को देखा है. अजय पूरा माजरा समझ गये थे. उसने आगे की ओर इशारा कर दिया. लड़के आगे भाग गये. अजय ने सोमा की कहानी सुनी और उसे धीरेन्द्र दा के पास ले गया.
कुछ दिनों बाद धीरेन्द्र दा ने पुलिस एवं कोर्ट की कार्यवाही पूर्ण कर सोमा को अपनी मानस पुत्री बना लिया. अब धीरेन्द्र दा के घर सोमा पारिवारिक सदस्य जैसी रहती है. वह इस घर से और धीरा बौदी से इतना घुलमिल गई है कि कोई कह नहीं सकता सोमा इस परिवार की बेटी नही है. उसने बंगला बोलना भी सीख लिया है.
एक दिन धीरेन्द्र दा तीन दिन के एक शिशु बालक को घर ले आये. पता चला धीरेन्द्र दा के दोस्त के बेटे ने अस्पताल खोला है. कोई मां किसी मजबूरी में अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़कर भाग गई है. सोमा और धीरा बौदी उसे सहर्ष रखने के लिये तैयार हो गये. उस बच्चे को भी कानूनी प्रक्रिया पूरी कर गोदनामा ले लिया गया.
उस बच्चे का नामकरण संस्कार आयोजन किया गया. उसका नाम रखा गया अजितोष. सभी उसे जीत कहकर पुकारने लगे. दोनों बच्चोें की परवरिश अच्छे से होने लगी. पंकज को फोन कर सभी बातों से अवगत करा दिया गया. पकंज ने सहर्ष स्वीकृति दे दी. कहां-‘‘मां-बाप आप लोग अकेले थे. अच्छा हुआ आपको सहारा मिल गया.’’
पंकज की शादी को लेकर दोनों चिंतित हैं. एक अच्छे घराने की पढ़ी-लिखी संस्कारी लड़की के घरवालो से बातचीत चल ही रही थी कि पंकज का फोन आ गया.
आस्ट्रेलिया में ही उसकी मुलाकात नीलिमा से हुई. नीलिमा भी उसी कंपनी में काम करती है जहां पंकज है. दोनों ने प्रेमविवाह कर लिया है. धीरेन्द्र थोड़े विचलित जरूर हुए परंतु पंकज से बोले, ‘‘एक बार आकर बहू दिखा जाओ.’’
शादी के दो साल बाद पंकज आया. तब तक नीलिमा की गोद में धीरेन्द्र दा की पोती मोना आ चुकी थी. एक सप्ताह की छुट्टी दोस्तों से मिलने मिलाने में निकल गयी. फिर जाने वाला दिन भी आ गया. पंकज नीलिमा और मोना को लेकर चला गया. जितना समय भी मिला, दोनों दादा-दादी ने मोना को बहुत प्यार किया.
सोमा अब पच्चीस साल की हो चुकी है. जीत ‘‘अजितोष’’ भी छः साल का हो गया है. जीत क्लास वन पास करके क्लास टू में गया है. देखने में बहुत प्यारा है. पढ़ने में तेज है धीरेन्द्र दा को वह बाबा और धीरा बौदी को मां कहता है. सोमा भी मां-बाबा कहकर ही सम्बोधित करती है. घर से बाहर निकलने में अभी सोमा डरती है. बाहर सभी लोग उसे भेड़िया जैसे नजर आते हैं. इसलिये उसे घर पर ही पढ़ाया जाता है.
इसी बीच पकंज की एक बेटी टीना ने जन्म लिया है. पंकज सबकी फोटो वाट्सअप पर भेज देता है. मां-बाबा फोटोे देखकर ही संतोष कर लेते हैं. दोनों पोतियां मोना, टीना बहुत प्यारी और सुन्दर हैं. दोनों पंकज पर गई हैं.
हनुमान जयंती करीब आ गई है, इसलिये दोनों पति-पत्नी कार्यक्रम संबंधी योजना बना रहे हैं. एकाएक धीरेन्द्र दा-धीरा बौदी से बोले, ‘‘सुनो धीरा एक पते की बात तुमसे कह रहा हूं. जीवन में सबसे बड़ी खुशी उस काम को करने से होती है जिसे लोग कहते हैं कि तुम कर नहीं पाओगे. दूसरी बात, साहस और दृढ़ निश्चय जादुई ताबीज है, जिसके आगे कठिनाइयां दूर हो जाती हैं और बाधाएं उड़न छू हो जाती हैं. प्रत्येक व्यक्ति को हर परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये. फिर धीरा को समझाते हुये बोले-देखो जीवन का समापन एक दिन होना ही है-चाहे हम हों या तुम हो, दुनिया से जाना ही पड़ता है. प्रत्येक व्यक्ति यहां चिंरजीवी होकर नहीं आया है. मृत्यु जीवन की अंतिम सच्चाई है.’’
अब तक सुनते-सुनते धीरा का धैर्य जवाब दे गया. वह तुनककर बोली, ‘‘आज आपको क्या हो गया है. इस तरह की बातें क्यों कर रहें हो? आपकी तबियत तो ठीक है?’’
‘‘हां, मैं ठीक हूं परन्तु तुम्हें कुछ बहुत जरूरी बातें समझाना चाहता हूं. मैंने वसीयतनामा तैयार कर लिया है. तीन लाख रुपये सोमा के नाम के फिक्स कर दिया है. जीत के नाम दो लाख फिक्स किया है. सोमा की तुम शादी कर देना. जीत के बड़े होने तक रुपया कई गुना बढ़ जायेगा. वह पढ़ाई पूरी कर अपने पैर पर खड़ा हो जाये, मैं यही सोचता हूं.
‘‘पंकज हमारा इकलौता लाड़ला बेटा है, इसलिये मैंने पूरी जायदाद और दुकान उसके नाम कर दी है. मकान तुम्हारे नाम से रहेगा, तुम्हारे बाद पंकज का हो जायेगा.’’ तभी जीत दौड़कर बाहर आया. हाथ पकड़कर दोनों से बोला, ‘‘मां-बाबा, आप कितनी रात तक पीपल के नीचे बैठोगे, चलो खाना खाकर सोयेंगे.’’ जीत की बातों को सुनकर धीरेन्द्र दा बोले, ‘‘इसे हमारी कितनी चिंता है. चलो.’’ अंदर जाते हुये पुनः वे धीरा से बोले, ‘‘देखो, किसी भी हाल में तुम हनुमान जी का भंडारा नहीं रोकना.’’
उसी रात को धीरेन्द्र दा को ब्रेन हेमरेज का अटैक आ गया. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा बहुत से लोग अस्पताल देखने पहुंचे. ऐसा लग रहा था जैसे मिनी बंगाल बन गया है अस्पताल. दो दिन बाद धीरेन्द्र की थोड़ी हालत सुधरी. हनुमान जयंती का भंडारा धीरा बौदी ने कराया और इसी दिन धीरेन्द्र दा को नागपुर भी ले जाया गया. जाने क्यों लोगों के मन में यह विश्वास जड़ जमा चुका है कि नागपुर ले जाने से हर बीमारी का अच्छा इलाज हो जाता है. धीरेन्द्र दा कुछ-कुछ अच्छे हो गये. उन्हें घर लाया गया. मिलने जुलने वालों में से किसी ने कहा-‘‘हनुमान जी की प्रतिमा को घर के बाहर मंदिर बनाकर रखना चाहिये.’’ धीरा बौदी ने वही किया. हनुमान जी के मंदिर को बाहर पीपल के पेड़ के सामने बनवा दिया. देखते-देखते एक साल बीत गया. पुनः हनुमान जयंती आ गई. पर दो दिन पहले पुनः धीरेन्द्र दा को अटैक आ गया. धीरेन्द्र दा को अस्पताल में भर्ती कर दिया गया. धीरा बौदी ने अब भी धीरज नहीं खोया. हनुमान जी का भंडारा धूम धाम से किया. दो-तीन दिन बाद धीरेन्द्र दा ने यह असार संसार छोड़ दिया. पंकज एक दिन पहले आ चुका था पिता का क्रियाकर्म उसी ने किया. तेरहवीं के कार्यक्रम के बाद वह धीरा से बोला-‘‘मां अब तुम यहां अकेले रहकर क्या करोगी? मकान-दुकान सब कुछ बेच दो और मेरे साथ पूना चलो. तुम्हारी बहूमां की भी यही इच्छा है
धीरा रोते हुए बोली-‘‘बेटा मैं ‘सोमा और जीत’ को छोड़कर कैसे जा सकती हूं. तुम्हारे पिता ने उनकी जिम्मेदारी मुझको सौंपी है. कहो तो उन्हें भी ले चलते हैं.‘‘ पंकज ने कहा, ‘‘नहीं मां हम उन्हें अपने साथ नहीं रख सकते. हमारी स्वयं की दो बेटियां हैं.क्या आपको अपनी पोतियों से प्यार नहीं है?’’ धीरा बौदी बोली-‘‘क्यों नहीं, तुम हमारे इकलौते बेटे हो. तुमसे हम बहुत प्यार करते हैं और तुम्हारी बच्चियां हमारी पोतियां है. तुम जानते हो न? मूलधन से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है.’’ पंकज बोला, ‘‘फिर ये दोनों तुम्हारे कोई नहीं हैं. ये अनाथ हैं. मैं सोमा को नारी निकेतन में और जीत को बालनिकेतन में छोड़ आता हूं. मां तुम कल तक सामान समेटो और हमारे साथ चलो.’’ धीरा चुप बैठी थी पंकज बोला, ‘‘मां तुम्हें एक दिन का समय देता हूं. आज मैं नीलिमा के मामा के घर जा रहा हूं. तुम कल अपना फैसला सुना देना.’’
पंकज की बातें सुनकर धीरा अवाक् थी. उसका दिल बैठा जा रहा था. जिस सोमा को कुछ देर न देखने से बैचेनी लगने लगती है, जिस जीत को खिलाये बिना कौर गले से नहीं उतरता, उन्हें कैसे आश्रम भिजवायेगी.
पंकज के पास घर-द्वार, नौकरी, संपत्ति, बीबी-बच्चे सब कुछ है, परंतु सोमा और जीत का उसके सिवाय कोई नहीं है. एक-से-एक तूफानी हवा चलने लगी. धीरा घर के अंदर चली गई. सोमा और जीत उसका बिस्तर में इंतजार कर रहे थे. सोते-सोते धीरा ने अपने आप से कहा-‘‘वह बहादुर है और लोगों जैसी डरपोक नहीं. तमाम धमकियों और चेतावनियों के बावजूद वह वही काम करेगी जो उसे सही लगता है.’’
सुबह मुंह धोकर जब वह पीपल के पेड़ वाले चबूतरे पर बैठी थी, तभी गेट के पास कार आकर रुकी. गेट खोलकर पंकज मां के पास आया. बोला, ‘‘हां मां क्या फैसला लिया तुमने, शीघ्र बताओ? तत्काल की टिकिट लेना है ग्यारह बजे की गाड़ी है.’’
धीरा बौदी ने खामोशी तोड़ते हुए कहा-‘‘बेटा तुम हमारी एक मात्र संतान हो. तुम्हारे पिता ने पूरी संपत्ति तुम्हें दे दी है. तुम हमारी पूरी दुनिया हो, पूरा ब्रह्मांड हो. तुम्हारे बिना हमें और किसी चीज से लगाव नहीं है, परन्तु बेटा ब्रह्मांड और ईश्वर एक दूसरे के पूरक हैं. ईश्वर के बिना ब्रह्मांड अधूरा है. बेटा इन दोनों बच्चों में मुझे ईश्वर दिखाई देते हैं. मुझे ब्रह्मांड नहीं मिल पायेगा कोई बात नहीं. पर मैं ईश्वर को नहीं छोड़ सकती. यही मेरा फैसला है और यह पीपल का पेड़़ इसे भी छोड़कर मैं नहीं जा सकती. इस पेड़ में मैं तुम्हारे बाबा की छवि रोज-रोज देखती हूं.’’
पंकज गेट खोलकर गाड़ी स्टार्ट करके चला गया. धीरा उसे जाता हुआ देख रही थी. उसकी आंखों से दो बूंद अश्रु जल गिरे. तभी सोमा और जीत पीपल के पेड़ में डले झूले में झूलने लगे. जीत पुकारने लगा, ‘‘मां आओ ना, झूला झूलें.’’ धीरा गई सोमा और जीत के साथ झूला झूलने लगी. मंदिर की घंटी बजी, कई दर्शनार्थी हनुमान जी के दर्शन को आये थे. दर्शन के बाद वे पीपल के पेड़ के पास आये और बोले-‘‘धीरा बौदी आप हिम्मत और साहस रखना हम सब आपके साथ हैं.’’
धीरा बौदी ने हनुमानजी और पीपल के पेड़ के दर्शन किये और सेामा और जीत को लेकर घर के भीतर चली गयी. बाहर पीपल के पत्ते हिलडुलकर संगीत पैदा कर रहे थे. धीरा के दिल में भी एक संगीत सा बज रहा था. जिसक वाद्य यंत्र सोमा और जीत थे. आज वह उनकी सगी मां बन गयी थी और पीपल का वह पेड़ मानो बाबा बनकर मुस्करा रहा था.
संपर्कः 1050, सरस्वती निवास, शक्ति नगर,
गुप्तेश्वर, जबलपुर 482001 (म.प्र.)
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