काव्य जगत राकेश भ्रमर तुमने मुझे छुआ कि बदन जगमगा गया. कोई जला चराग, सहन जगमगा गया. ये फूल कौन-सा तेरे माथे पे खिल गया, गुजरे इधर से त...
काव्य जगत
राकेश भ्रमर
तुमने मुझे छुआ कि बदन जगमगा गया.
कोई जला चराग, सहन जगमगा गया.
ये फूल कौन-सा तेरे माथे पे खिल गया,
गुजरे इधर से तुम जो, चमन महमहा गया.
इस दर पे तेरा नाम हवाओं ने लिखा था,
खुशबू के बोझ से ये बदन थरथरा गया.
इतनी थी आरजू कि मेरे दर पे वो रुकें,
आए जो मुक़ाबिल तो कदम डगमगा गया.
चलते हो धूप में कभी साए में बैठ लो,
देखो तो किस तरह ये बदन तमतमा गया.
हमने तो उस परी से कोई बात भी न की,
किसके ये बोल थे कि बदन गुनगुना गया.
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शहर और सड़क
राजेश माहेश्वरी
शहर की सड़क पर
उड़ते हुए धूल के गुबार ने
अट्टहास करते हुए मुझसे कहा-
मैं हूं तुम्हारी ही भूल का परिणाम
पहले मैं दबी रहती थी
तुम्हारे पैरों के नीचे सड़कों पर
पर आज मुस्कुरा रही हूं
तुम्हारे माथे पर बैठकर
पहले तुम चला करते थे
निश्चिंतता के भाव से
शहर की प्यारी-प्यारी
सुन्दर व स्वच्छ सड़कों पर
पर आज तुम चल रहे हो
गड्ढों में सड़कों को ढूंढ़ते हुए
कदम-दर-कदम संभलकर
तुमने भूतकाल में
किया है मेरा बहुत तिरस्कार
मुझ पर किए हैं अनगिनत अत्याचार
अब मैं उन सबका बदला लूंगी
और तुम्हारी सांसों के साथ
तुम्हारे फेफड़ों में जाकर बैठूंगी
तुम्हें उपहार में दूंगी
टी.बी., दमा और श्वास रोग
तुम सारा जीवन रहोगे परेशान
और खोजते रहोगे
अपने शहर की पुरानी
स्वच्छ और सुन्दर सड़कों को!
सम्पर्कः 106, नयागांव, रामपुर, जबलपुर (म.प्र.)
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दो गजलें : कुमार नयन
1
मैं पैदा हुआ कर्जदारों में था.
बड़ा हो के बेरोज़गारों में था.
मिरी मां ने दम तोड़ा जब भूख से,
मैं राशन की लम्बी कतारों में था.
मिरी बदनसीबी को मत कोसना,
मुकद्दर मिरा बेकरारों में था.
तू दरिया था जब तो मिला क्यों नहीं,
समन्दर तो अपने किनारों में था.
न पूछो मैं जिन्दा रहा किस तरह,
किसी अजनबी के सहारों में था.
मैं खुशबू कहां से लुटा पाऊंगा,
खुदा की कसम मैं तो खारों में था.
2
रगों में चीखते नारे लहू सा चलते हैं.
मिरे जिगर में हजारों जुलूस पलते हैं.
सदी की आग का अन्दाज क्या लगाओगे,
कि सिर्फ जिस्म नहीं साये भी पिघलते हैं.
बहार भी न गुलों को खिला सके शायद,
यहां दरख्त फजां में धुआं उगलते हैं.
उठा है दर्द तो होने दो जिन्दगी रौशन,
चिरागे जख्म कहां रोज-रोज जलते हैं.
कोई नहीं है नया कुछ भी सोचने वाला,
यहां ढले हुए सांचे में लोग ढलते हैं.
पता न था कि जमाने का रंग यूं होगा,
हमारे खून के रिश्ते भी अब बदलते हैं.
लगा के दांव सियासत ठठा के हंसती है,
घरों से खौफजदा लोग जब निकलते हैं.
सम्पर्कः खलासी मुहल्ला
बक्सर-802101 (बिहार)
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कविता
पन्ने पलट रही हूं
पूजाश्री
धरती की शुच्छाओं ने,
युगों तक पुकारा मुझे.
स्तत् आश्वासन देकर के,
आकाश से उतारा मुझे.
मेरी तपिश से जगमगाकर,
सूर्य ने आकार लिया.
मेरे अंतर मन ने सब,
नक्षत्रों का विस्तार दिया.
मैं आदि-अनंता, अरुणाई,
ब्रह्माण्ड की तरुणाई.
स्नेह देने की इच्छा ही,
मुझे धरा पर ले आई.
मैंने आनंदित होकर के,
मन से आशीर्वाद दिया
अंतर की सुधा पिला कर के,
तनमन सब, कुछ वार दिया.
सबकी इच्छा पर बनी-ठनी,
मां, बेटी, बहन, पत्नी बनी.
किन्तु काल की इच्छाएं क्यों,
ढूंढ़े मुझ में नागमणि?
इसलिए इस धरती पर मुझे,
युगों तक सताया गया.
नीलम घरों में सजा कर के,
दांव पे लगाया गया.
मैं! इस संसार में केवल,
मातृत्व से हूं हारी.
मैं क्षमाशील होकर भी,
कहलाई अबला नारी.
किन्तु रहो अब सावधान!
अब, करवट बदल रही हूं
युगों की काली कुटिलता के,
सब पन्ने पलट रही हूं
संपर्कः बंगला नं. 1, इन्द्रलोक, स्वामी समर्थ नगर, लोखण्डवाला, अंधेरी पश्चिम, मुंबई-400053
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आत्मपथ की पिपासा
यशोधरा यादव ‘यशो’
आज मन पूछता है, समय की परिभाषा,
अनवरत चलना है, इसकी अभिलाषा.
खोजकर देखा था, पकड़ नहीं पाई,
जागृत हो उठी थी, कोई नई आशा.
कदम तो बढ़ाया था, चलने की खातिर,
कदमों की ठिठकन देती है निराशा.
समय की मार तो झेलता है मानव,
फिर भी न शब्द हैं, न कोई भाषा.
समय ऐसा मानव जो, पीछे से गंजा है,
आगे से पकड़ो तो, देगा दिलासा.
सुख-दुख की औषधि, समय में निहित है,
चिन्मय निरन्तर है, हर पल नया सा
‘यशो’ कर्मपथ का, बने सत्य सहचर,
जगेगी अगर आत्मपथ की पिपासा.
संपर्कः डी. 963/21 कालिंदी विहार
आवास विकास कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.)
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दोहे
डॉ. अशोक गुलशन
कहना है मुश्किल बहुत, अब चूल्हे का हाल.
चावल भी मंहगा हुआ, सस्ती रही न दाल.
सूखे-सूखे गाल हैं, उलझे-उलझे केश.
महंगाई की मार से, जनता है बेहाल.
मंजिल तक जाना लगे, वैसे ही दुश्वार.
घिसट-घिसट जैसे चले, कछुआ अपनी चाल.
तुमको जब भाता नहीं, मेरा कुछ शृंगार.
ऐसे में फिर क्या कहें, तुमसे दिल का हाल.
पीला अब चेहरा हुआ, लाल हो गयी आंख.
गुलशन मुश्किल है बहुत, कटना अबकी साल.
संपर्कः उत्तरी कानूनगोपुरा,
बहराइच-271801 (उ.प्र.)
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दोहे
सनातन कुमार वाजपेयी ‘सनातन’
आजादी के गांव में, बबार्दी की रेल.
खेती भ्रष्टाचार की, होती रेलमपेल.
रोज घुटाले हो रहे, होती है नित जांच.
पर इसके तन पर कभी, तनिक न आती आंच.
संसद बौनी हो गई, केवल चीख-पुकार.
गांव तमाशा देखता, मौसम है बीमार.
अच्छे दिन की चाह में, नयन बिछे सब ओर.
किन्तु निशा घनघोर है, दूर बहुत है भोर.
सभी अंग बीमार हैं, किन्तु चिकित्सक मौन.
कैसे हो उपचार अब, इसे सुझाये कौन.
शान्ति शान्ति चिल्ला रहे, बनते रोज शिकार.
सभी ओर घुसपैठिये, करते बम की मार.
बस, आटो, रेलें सभी, नहीं निरापद यान.
सभी जगह ही नारियां, झेल रहीं अपमान.
घोर अराजकता बनी, नियम धरम अहसान.
छीना-झपटी, चोरियां, बनीं गांव की आन.
पूर्ण व्यवस्था पंगु है, धरे हाथ पर हाथ.
भोले भाले लोग अब, पीट रहे हैं माथ.
चोटी पर बैठे हुए, आज बने सिरमौर.
घर भरने में व्यस्त हैं, छीन सभी के कौर.
कैसा परिवर्तन हुआ, कैसा है यह सोच.
बाह्य रूप मोहक सुघर, घर अंदर से पोच.
किससे निज विपदा कहें, नहीं किसी से आस.
बना चरोखर गांव अब, जी भर चरते घास.
सम्पर्कः पुराना कछपुरा स्कूल, गढ़ा,
जबलपुर (म. प्र.)-482002
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गजल
अरविन्द अवस्थी
अंधेरे में रहने की आदत बुरी है.
दिखावा भरी ये इबादत बुरी है.
कि ले नाम मजहब का जो जान देते,
असल में तो उनकी शहादत बुरी है.
नहीं साथ जाता है धन और वैभव,
तो इसके लिए फिर अदावत बुरी है.
अगर न्याय मंदिर में चढ़ता चढ़ावा,
तो समझो कि ऐसी अदालत बुरी है.
पता ही नहीं ऊंट कब लेगा करवट,
जख़म खाके उनकी तो हालत बुरी है.
मिला ही नहीं प्रेम से द्वार पर जो,
तो उसके यहां जश्ने-दावत बुरी है.
भरी है अगर गंदगी मन के अंदर,
तो बाहर से तन की मलासत बुरी है.
अलग कर रही आदमी आदमी को,
तरक्की नहीं तो विरासत बुरी है.
नहीं खींच लेती है खुशबू अगर तो,
खिले फूल की फिर नफासत बुरी है.
संपर्कः पाण्डे सदन, मीरजापुर (उ.प्र.
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दो कविताएं
अभिनव अरुण
एक
हमें चाहिए सौ-सौ हाथों वाले
हजार आंख वाले
सशक्त सतर्क योद्धा
लाखों-लाख
क्योंकि करोड़ों-करोड़ हो गए हैं
सफेदपोश
परजीवी
जो हमारी ही देह से लिपट
हमारा ही खून चूस रहे हैं.
दो
हर सुबह हाथ में सत्य की हथौड़ी ले
निकल पड़ेगी हमारी फौज
काटने उन चट्टानों को
जो सदियों से
हमारी राह रोके खड़ी हैं
यही चट्टानें
नहीं आने देतीं निरपेक्ष हवाओं को
हमारे खेतों तक
रोकती हैं ऊर्जावान रोशनी
और अमृतमय बारिश भी
और सदियों से हमारी नस्लें
इनकी गुलामी को ही मानती
आई हैं अपनी नियति
अब हमें बोने होंगे इरादे
उगाने होंगे दशरथ मांझी.
संपर्कः बी-12, शीतल कुंज, लेन-10,
निराला नगर, महमूरगंज,
वाराणसी-221010 (उ.प्र.)
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दोहे
संजीव कुमार अग्रवाल
अपनी किस्मत को कहे, अक्सर वही खराब
जिसको जीने की कला, आती नहीं जनाब!
बंट जाती हैं बेटियां, शादी करके हाय
तन जाता ससुराल पर, मन मैके रह जाय!
दिन भर जल कर सूर्य जब, घर जाता है शाम
दे जाता है दीप को, अपना बाकी काम!
छुप कर बैठे हो कहां, ऐ मेरे हमराज
देखो कब से दे रहा, मैं तुमको आवाज!
अंधियारा जब आ गया, मन के बहुत समीप
मैंने तेरी याद का, जला दिया इक दीप!
सुख के पढ़ना चाहते, अगर पाठ दो-चार
तो दुख के स्कूल में, नाम लिखा ले यार!
चोरी करता हो भले, घर में पहरेदार
मिलती है लेकिन सजा, नौकर को हर बार!
आए जब भी क्रोध तो, कर लेना इक काम
केवल इतना सोचना, क्या होगा परिणाम!
दोष रहा मुझमें कहीं, खाई दिल पे चोट
वरना तेरे प्यार में, हो नहिं सकता खोट!
जीवन भी आखिर करे, कैसे उसको तंग
दुख में भी दिखता जिसे, किसी खुशी का रंग.
संपर्कः गर्ग स्टोर्स, पुस्तकालय रोड,
बक्सर-802101(बिहार)
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क्षणिकाएं
अविनाश ब्यौहार
1. चुगली खाना
भैया जी
छोटी सी
छोटी बात भी
पचा नहीं
पाते हैं...!
क्योंकि
वे चुगली
खाते हैं...!!
2. हेरा-फेरी
यदि लेखाकार
सरकारी खजाने में
हेराफेरी करे तो
उस पर लानत है...!
क्योंकि यही तो
अमानत में
खयानत है...!!
3. ट्यूशन
वर्तमान
शिक्षा प्रणाली
छात्रों के
भविष्य को
छल रही है...!
स्कूल जाना
तो औपचारिकता है,
दरअसल यह
ट्यूशन की
बदौलत चल
रही है...!!
संपर्कः 86,रायल एस्टेट कालोनी,
माढ़ोताल, कटंगी रोड, जबलपुर-482002
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