अमृतराय की कहानियां रणजीत साहा वर्ष 1938 से ‘हम रखैल’ और ‘मरुस्थल’ से आरंभ कर अमृतराय ने लगभग सवा सौ कहानियां लिखी हैं. उनके दर्जन भर कह...
अमृतराय की कहानियां
रणजीत साहा
वर्ष 1938 से ‘हम रखैल’ और ‘मरुस्थल’ से आरंभ कर अमृतराय ने लगभग सवा सौ कहानियां लिखी हैं. उनके दर्जन भर कहानी संग्रह इस क्रम से प्रकाशित हुए हैं-
1. जीवन के पहलू (1945), 2. इतिहास (1948), 3. लाल धरती (1950),
4. कस्बे का एक दिन (1953), 5. कटघरे (1954), 6. भोर से पहले (1953), 7. गीली मिट्टी (1960), 8. चित्रफलक (1972), 9. विद्रोह (1992) 10. घायल की गति घायल जाने (1993). साथ ही, मेरी प्रिय कहानियां (1971), और सरगम (1977) उनके प्रतिनिधि कहानी-संग्रह एवं संचयन हैं.
इस अध्याय में उक्त कहानी संग्रहों में संकलित कहानियों में भी उन विशिष्ट एवं प्रतिनिधि कहानियों पर ही विचार किया गया है, जो हिन्दी कथा-साहित्य में उल्लेख्य रही हैं और जिन्हें कहानी की रचना यात्रा में विशिष्ट मानकर विद्वान आलोचकों और विशेषज्ञों ने उद्धृत किया है. साथ ही, उन कहानियों पर भी विशेष ध्यान दिया गया है-जो स्वयं अमृतराय कि लिए प्रिय बनी रहीं.
जीवन के पहलू
अमृतराय का पहला प्रकाशित कहानी संग्रह (1946) है, जिसमें कुल तेईस कहानियां संगृहीत हैं.1 इनमें प्रमुख हैं, हम रखैल, मरुस्थल, पति-पत्नी, प्रश्न, ताकत और खुदा तथा कलाकार. इस प्रारंभिक कहानी संग्रह में निम्न और मध्यवर्ग की पारिवारिक समस्याओं के साथ सम्बन्धों की आड़ में शोषण का विद्रूप चेहरा पढ़ने की कोशिश की गई है. प्रस्तुत संग्रह में संगृहीत कहानियों को पति-पत्नी शीर्षक के साथ बाद में भी एक अलग संग्रह के रूप में छापा गया था. इसकी भूमिका में अमृत ने यह स्वीकार किया कि इसमें उनकी 1937 से लेकर 1940 तक की कहानियां संकलित हैं. साथ ही यह भी बताया कि सन् 1935 में उनकी पहली कहानी भारत में छपी थी.
‘‘मैंने सन् 1935 में लिखना शुरू किया था ‘बालक’ में. ‘बालक’ तब शिवपूजन सहाय के सम्पादकत्व में निकलता था. सन् 1935 में मेरी पहली कहानी ‘भारत’ में छपी थी. तभी से मैं नियमित रूप से वयस्क लोगों के लिए लिखने लगा. ये कहानियां कुछ और भी, जिन्हें मैंने इस संग्रह में देना ठीक समझा, ‘सरस्वती’, ‘चांद’, ‘योगी’, ‘जनता’, विचार और ‘सचित्र भारत’ आदि पत्रों में छपीं.’’2
जीवन के पहलू कहानी-संग्रह में संगृहीत ‘जब अक्ल जुंबिश करती है’ शीर्षक कहानी में कथानायक युवा अमृतराय के दृष्टिकोण का समर्थन करता हुआ कहता है, ‘पूंजीवाद एक चौखटे का नाम है. व्यक्ति गर्भाधान के साथ ही, उस चौखटे की
परिधि से निर्दिष्ट होने लग जाता है. यह चौखटा भी किसी-न-किसी दिन जल्दी ही टूटेगा, क्योंकि कालान्तर में उसका काठ भी पुराना और दीमकग्रस्त हो जाता है. पर यदि अकेला व्यक्ति या व्यक्तियों का छोटा समूह, ऐसा होने से पहले ही चौखटे का नियंत्रण भेदना चाहता है तो उसे एड़ी चोटी का जोर लगाकर उस चौखटे को चीरते हुए निकलना होगा. ऐसा करने में बदन का लहुलुहान हो जाना सहज और स्वाभाविक है.’
अमृतराय अपनी कहानियों में ही नहीं इतः स्ततः भी, जब अवसर मिला है प्रगतिशील विचारधारा के मुखर और प्रखर प्रवक्ता दीख पड़ते हैं और बिना लाग-लपेट के अपनी बात रखते हैं. जीवन के पहलू में ‘कलावाद’ पर समीक्षा जगत में जो वैचारिक विमर्श चल रहा था, वहां भी एक अग्रणी विमर्शकर्त्ता के नाते अपना वैचारिक दृष्टिकोण ‘कलाकार’ शीर्षक कहानी में बड़े स्पष्ट शब्दों में रखते हैं. कलावादी धारणा की अमूर्तता और सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी निर्लिप्तता के बारे में कुछ कहने के पहले अमृतराय इस कहानी के नायक घोर कलावादी ‘कैटरपिलर’ की अतिरेकपूर्ण कट्टरता को पहले तो एक दर्शक के नाते देखते हैं लेकिन बाद में कहानी में हस्तक्षेप करते हुए बड़ी स्पष्टता से इस बात की वकालत करते हैं कि कला भले ही
साधना हो-लेकिन वह समाज सापेक्ष है. कलाकार जिस समाज में रहता है या जैसे भी उसका प्रतिनिधित्व करता है, या कर सकता है, उसके प्रति उसका अवश्य ही कुछ-न-कुछ दायित्व है. मात्र मनोेरंजन कला का धर्म नहीं इसलिए, मात्र कलावादी
अवधारणा के पोषक उक्त चित्रकार को अमृतराय ने अपनी कहानी में भूखों मरने दिया है-क्योंकि वह समाज से इस कदर निरपेक्ष रहता है कि लोग भी उसकी परवाह नहीं करते, उसे खाना नहीं देते और अंततः वह अपनी मौत मर जाता है3. अमृतराय, संभवतः उसकी मृत्यु से बहुत चिंतित या हैरान नहीं दिखते क्योंकि उसके जीवित रहने या रखने का यही आशय निकाला कि अमृतराय भी कहीं-न-कहीं उसकी कलावादी धारणा या सनक को प्रश्रय या समर्थन दे रहे हैं. ‘तीन चित्र’ कहानी अलग परिवेश की कहानी है-जिसका कैनवस उस किसान आन्दोलन से सम्बद्ध है-जो सफल नहीं हो पाता. सफल होने की संभावना लिए ऐसे आन्दोलन कभी-कभी विफलता से ही शुरू हेाते हैं-इस सुखद प्रत्याशा के बावजूद कथाकार ने इस कहानी में यह दिखाया है कि जमींदार वर्र्ग की शह पर पुलिसिया तंत्र किस प्रकार ऐसे आन्दोलन को कुचलने में सफल हो जाता है.
‘हम रखैल’ कहानी में नौकरी की जमीनी सच्चाई के बारे में बताते हुए अमृतराय का मानना है कि मनुष्य परिस्थिति के हाथों रखैल भर है. उसकी स्थिति एक नौकर या बंधुआ मजदूर से बेहतर नहीं है. इसी तरह ‘मरुस्थल’ कहानी उस मरीचिका के पीछे भागते रहने की बाध्यता या नियति है-जो व्यक्ति को शराब के अड्डों या कलालों के यहां भटकाकर ले जाती है. हमारा सामाजिक और आर्थिक ढांचा कुछ ऐसा है कि उसमें सच्चा सुख पाने से कहीं ज्यादा मरीचिका के पीछे भागते रहने की फितरत बनी रहती है. अमृतराय की कहानियों में बहुत गहरे मनुष्य की पेट की भूख-एक रचनात्मक प्रयुक्ति की तरह बार-बार सतह पर तैरती नजर आती है. ‘क्षुधा विक्षिप्त’ कहानी इसी छटपटाहट को व्यंग्य मुखर बनाती है. ‘बंगाल के अकाल’ की अभिशप्त छाया को अमृत ने बहुत करीब से देखा था. तब मुट्ठी भर भात के लिए दम तोड़ती लाखों की आबादी और मौत से जूझती भूखी जनता को दुःख-दर्द से राहत दिलाने के लिए अमृतराय ने व्यक्तिगत और पार्टी के स्तर पर भी व्यापक कार्य किया था. भूख को शर्तिया तौर पर समाज से मिटाना होगा तभी लोग बेहतर जीवन जी सकते हैं. भूख और लाचार समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता. यह किसी गुप्त रोग की तरह छिपा रहता है-लेकिन ऊपरी तौर पर यह एक व्यापक महामारी है. सारा देश इससे संत्रस्त है लेकिन बुद्धिवादी मुखौटा लगाए यह समाज इस अभाव के प्रति अपनी आंखें मूंदे हुए है. हमें बहुत-सी चीजें चाहिए-शिक्षा भी, दीक्षा भी. लेकिन अमृत के अनुसार पहले (शिक्षा की) ज्योति चाहिए-मोती तो बाद में भी ढूंढ़े जा सकते हैं. ‘प्रोफेसर साहब’ कहानी के प्रोफेसर की पात्रता में, बल्कि कहना चाहिए उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है. अहिंसा पर बातें ही नहीं, बहस की हद तक बढ़नेवाले प्रोफेसर एक दिहाड़ी पंखाकुली पर हिंसक व्यवहार करने से बाज नहीं आते. इसी संग्रह की एक और महत्वपूर्ण कहानी है-‘पति-पत्नी’. पारिवारिक इकाई की पूर्णता एक शिशु के जन्म के साथ ही ‘पति-पत्नी’ अपने जीवन में महसूस करते हैं. वही पूर्णता ऐसी इकाइयों के समन्वय से कोई समाज पाता है या पा सकता है. लेकिन कथाकार का मानना है कि अधिकारों के हनन-चाहे वह पति या पत्नी में से किसी का भी हो-परिवार में विष घोलकर वैमत्य, वैषम्य और वैमनस्य पैदा करता है. ऐसी दुःखद संभावना की छाया में यह कहानी लिखी गई है. ऐसे कई बल्कि लाखों परिवार हैं, जो बाहरी तौर पर बड़े शांत और शालीन हैं लेकिन अंदर-ही-अंदर उनके घरों की दीवारें-दरारों से पटी होती हैं.
इतिहास
यह कहानी-संग्रह 1947 में प्रकाशित हुआ. इसमें कुल 12 कहानियां संकलित हैं.4 इन कहानियों का मुख्य स्वर है, श्रमिक वर्ग का चौतरफा शोषण. कम्यूनिस्ट पार्टी के युवा कार्यकर्ता के नाते भी अमृतराय ने इस विषय को गंभीरता से उठाया है. जाहिर है, इसकी कथावस्तु एक प्रतिबद्ध लेखक के सरोकारों से भी जुड़ी है इसलिए उसमें एक स्वाभाविक आक्रोश है और कुछ नया करने का जोश भी. लेकिन वस्तुस्थिति कुछ भी हो जाए व्यवस्था किसी गुणात्मक बदलाव के लिए तैयार नहीं दिखती और वैचारिक आन्दोलन और सामाजिक अभियान अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पाते. अगर इस संकलन में संकलित ‘इतिहास’ शीर्षक कहानी पर ही ध्यान दें तो यह स्पष्ट होगा कि तत्कालीन युवक समाज के मन में एक तरह की हताशा इसलिए घर कर गई थी क्योंकि उसे उसके न्यूनतम प्राप्य से भी वंचित रखा जाता है. अपने परिवार की जिम्मेदारी निबाहनेवाला सुमेर इसी व्यवस्था या यथास्थिति का शिकार होता है-क्योंकि उसे प्रस्तावित मेहनताने से वंचित किया जाता है. इस संग्रह की अन्य कहानियां भी कमोबेश उस स्वप्न का पीछा करने से जुड़ी हैं जो अंततः एक मृगमरीचिका में जाकर खो जाती है.
‘झंखड़ बिरवा’ (1946 में लिखित) ऐसी ही एक समस्या केन्द्रित कहानी है-जो नये बनते-बिगड़ते सामाजिक मूल्यों पर सवालिया निशान लगाते हुए महीन चुटकी लेती है. इसमें पति उमेश एक फैशनेबुल मिजाज की नयी रोशनी का आदमी है. लेकिन उसकी बीवी सरला एक देसी ढंग और घरेलू किस्म की औरत है. पति चाहता है पत्नी भी अंग्रेजी में गिट-पिट करती, सोसायटी में घूमती-फिरती और तो आधुनिक कही जानेवाली औरतों में वह भी शुमार होती. उसका भी कोई ‘स्टेटस सिम्बल’ होता. इसी बात पर, स्वाभाविक है परस्पर तनाव और टकराव की नौबत आती है जिसे बड़े नाटकीय और कलात्मक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है.
‘सती का शाप’ एक जवान विधवा रमा की दुःखभरी गाथा है, जिसका पति तपेदिक (टी.वी.) से अभी-अभी गुजरा है. उसकी लाश के साथ खुद घरवाले बड़ा अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं. घर की मालकिन चाहती है कि लाश जल्दी से हटे तो उस जगह को धुलवा दिया जाये. बेहोश पड़ी रमा को इस बात की खबर नहीं थी कि उसके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है? महरी उस जगह पर पानी डाल देती है ताकि उसे होश आने पर वहां से उठे और कहीं चली जाए. हमारे समाज में पुरुष की सत्ता ही सर्वोपरि है-अमृतराय ने इस कहानी में इसी मानसिकता का बेबाक और यथार्थ चित्रण किया है जिसमें विवाह जैसा पवित्र बंधन भी स्त्री के शोषण का ही एक प्रतिरूप बन जाता है. पति के अस्तित्व और अधिकार के बूते पर ही पत्नी या स्त्री को समाजिक संरक्षा या आर्थिक सुरक्षा मिलती है. इन सबसे वंचित इस कहानी में स्त्रियोचित स्वभाव के अनुरूप विधवा रमा अपने घर से उठकर मायके जाते हुए रोते स्वर में यह शाप दे जाती है कि इस घर के मुंडेर पर जल्द ही उल्लू बोलेंगे और इसकी एक-एक ईंट ढह पड़ेगी लेकिन इस स्यापे या शाप का कोई असर नहीं दिखता और बरसों बाद भी सत्रह नं. शंकर रोड पर यह घर सही सलामत खड़ा रहता है और इसमें कोई अंतर नहीं आता. वस्तुतः रमा जैसी स्त्रियां दूसरों की बनाई हुई जिंदगी जीती है. आज भी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि लड़की का जन्म लेना दुःखद और मरना सुखद माना जाता है. उन्हें भोग की ‘परगालियां’ समझा जाता है और उनकी विवशता का फायदा उठाने से लोग बाज नहीं आते. विधवा रमा की आकस्मिक दुरवस्था का मार्मिक अंकन इस प्रश्न को अनुत्तरित ही पाता है कि आखिर ‘स्त्री’ हमारे समाज में उसकी नियति कौन निर्धारित करता है? इस पुरुषशासित व्यवस्था को क्यों नहीं बदला जाता? समाज में स्त्रियों और महिलाओं को शास्त्र में इतनी ऊंची मर्यादा देनेवाला समाज आखिर उन्हें इतना निरुपाय और निराश्रय क्यों देखना चाहता है?
‘लोग’ भी एक विधवा की व्यथा-गाथा है. उसकी मुसीबत यह है कि वह सुन्दर है. वह अपने दो बच्चों के साथ दूसरों के घरों में झाड़ू पोंछा कर और बर्तन मांजकर किसी तरह अपना गुजारा कर रही है. बस्ती के धनी-मानी लोग, जिसमें पेशकार, मुखतार-जैसे ओहदेदार भी हैं- जो उसे पैसे और दिलासा देकर उसकी सहायता करना चाहते हैं. उसकी सहायता में उसे कौन कब क्या-क्या देगा, इसकी एक सूची भी बनती है-लेकिन बीतते समय के साथ सारे वादे सिर्फ कोरी बातों में बदल जाते हैं और ठंडे बस्ते डाल दिए जाते हैं. दूसरे, समाज में निःस्वार्थ सेवा करनेवालों का रवैया कब कैसा हो जाय-इसके प्रति भी उस
विधवा को सतर्क रहना पड़ता है. इस कहानी में अमूर्त लेकिन उस संभावित आतंक की बड़ी प्रामाणिक तस्वीर उकेरी गई है. ‘लोग’ कहानी में लोगों की ‘कथनी’ और ‘करनी’ का आलम यह है कि कथाकार को अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती-जबकि वह अपनी तरफ से हस्तक्षेप करता हुआ कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता था. यह अनकहा या ‘अकथित’ ही अमृत के कथ्य और शिल्प को महत्वपूर्ण बनाता है.
लाल धरती
वर्ष 1950 में प्रकाशित यह कहानी-संग्रह युवा कथाकार अमृतराय के अंदर बैठे एक सजग रचनाकार और समाज-समीक्षक की जुझारू तैयारी से परिचित कराता है. आजादी के पहले से ही स्थानीय शासन-प्रणाली में खोट और नये राष्ट्र के उन्नयन के नाम पर नौकरशाहों, थैलीशाहों और तोन्दियल नेताओं के खोखलेपन पर अमृत ने सीधी चोट की है. इसका एक कारण उनकी नजर में यह भी रहा कि नये भारत का नवनिर्माण समाजवादी आस्था और अवधारणा लाल धरती की अनदेखी कर भूखे, कमजोर और अभावग्रस्त लोगों के निरंतर शोषण और उनकी अवहेलना द्वारा किया जा रहा है. ‘लाल धरती’ कहानी में ही जेल के जीवन को नोट की तरह भुनानेवाले नेताओं के मन में आजादी के माध्यम से अपने घरों को सोने से भरने की अभिलाषा होती है. जिनके मन में यह चाह नहीं होती वो अनुचित अनुशासन और लल्लो-चप्पो की राह न अपना कर सीधे, स्वस्थ और स्वच्छ मार्ग पर चलकर देशसेवा करते हैं. अमृत स्पष्ट तौर पर इस बारे में जनता को जागरूक करने के आग्रही हैं.
जैसा कि पहले भी कहा गया, अमृतराय की पहली तैयारी है कि भूखे को खाना कैसे मिले. भोजन से अघाए और भरपेट लोगों को अपने चोंचलों, लुभावने नारों से और हाथीदांत की मीनारों से बाहर निकलकर आना चाहिए. भूख से त्रस्त जनता को अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी नहीं बल्कि पेट भर भोजन, तन ढंकने के लिए कपड़े और सर पर छत चाहिए. ‘कथाकार मुंशी के नाम’ कहानी में खाद्यमंत्री पर गहरा व्यंग्य करते हुए अमृत ने लिखा है, ‘‘जनता के लिए उनकी त्वचा गैंडे की त्वचा के सदृश मोटी हो गई है, जिस पर उसके आर्त्तनाद का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. जहां पूर्णिया और अहमदनगर में निरीह जनता अन्न के अभाव में पत्ते खा रही है, वहां खाद्यमंत्री वनमहोत्सव मनाने पर जोर देते हुए भोजन की समस्या हल करने का उपाय बता रहे हैं. यह भूख ही अनेक जघन्य अपराधों का कारण है.’’5 इसलिए ‘‘जो प्रशासन, अमृतराय की ‘अभियोग’ कहानी के अनुसार, ‘‘यह प्रदान करने में असमर्थ है, उसका विनाश शीघ्र ही होगा.’’6
लेकिन अमृतराय यह अच्छी तरह जानते थे कि उन्होंने अपनी कहानियों में जिन ज्वलंत प्रश्नों और समस्याओं को उठाया है, वे मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज से जुड़ी हैं-और उनके उत्तर और समाधान स्वयं ऐसे समाज को आगे बनकर ढूंढ़ने होंगे. एक रचनाकार ज्यादा से ज्यादा यही कर सकता है कि वह उन सवालों को समस्याओं को रचनात्मक और संवेदनशील ढंग से और अपनी विवेक-बुद्धि से रचनाओं में निर्विष्ट करे.
कस्बे का एक दिन
अमृतराय ने ‘कस्बे का एक दिन’ कहानी से अपना औपचारिक लेखन शुरू किया था. इस रचना को रेखाचित्र (स्केच) बताते हुए भी उन्होंने इसे मेरी प्रिय कहानियां और सरगम (कहानी संचयन) में सम्मिलित किया है. रेखाचित्र बताते हुए भी, संभवतः इसमें संक्रमित कथावस्तु और पात्रता के नाते 1945 में लिखित इस प्रिय रचना को उन्होंने अपने उक्त कहानी संकलनों में सम्मिलित किया होगा. इसके लिखे जाने की प्रेरणा वे इन शब्दों में बताते हैं-‘‘कस्बे का एक दिन’ लिखते समय मुझे मैक्सिक गोर्की का ‘कामरेड’ स्केच याद आया था और मैंने चाहा था कि अपने स्केच में समाज के उन तथ्यों की ओर संकेत कर सकूं जो कस्बे की गड्ड-मड्ड जिन्दगी को सुचारू और सुव्यवस्थित रूप देने के लिए प्रयत्नशील हैं और एक दिन जिनकी जीत होगी.’’7
1953 में प्रकाशित इस संग्रह में तेरह काहनियां संकलित हैं. जिनमें शीर्षक कहानी विशेष उल्लेख्य और चर्चित रही. यह जानते हुए कि व्यक्ति समाज का अनिवार्य हिस्सा तो होता है लेकिन वही उसे बदल भी सकता है-इसी उद्देश्य को लेकर ‘कामरेड’ लिखा गया था. अमृत भी उसी प्रेरणा या अवधारणा को सामने रखकर अपने समाज या इर्द-गिर्द फैले कस्बे की बेतरतीब जिन्दगी, पुराने सांचे और चरमराते ढांचे में सकारात्मक बदलाव लाना चाहते हैं. हालांकि एक लेखक के रूप में उसे यह प्रत्याशा, चाहे जितनी सुखद और संभव जान पड़े-सामाजिक तंत्र और मूल्यादर्श-जो अमूर्त और अदीठ शक्तियों द्वारा संचालित और नियंत्रित होते हैं-उन पर अंकुश नहीं लगा सकते. अमृतराय ने इस संग्रह की भूमिका में अपनी इन सीमाओं को स्वीकारा भी है और लिखा है, ‘‘लेकिन तब भी वैसा नहीं कर सका. यह कुछ अंशों में मेरी अक्षमता भी है. मेरे पास वह तेज निगाहें नहीं हैं जो समाज के उन तत्वों को जो अभी केवल बीज रूप में हैं, देख सकें. लेखक जिस सामाजिक परिवेश, जिन पात्रों और जिस कथावस्तु को लेकर चलता है वह भी एक हद तक लेखक को एक खास निष्पत्ति की और जाने पर विवश करते हैं.’’8
‘कस्बे का एक दिन’ कहानी जिस सामाजिक यथार्थ को लेकर आगे बढ़ती है, उसकी विश्वसनीयता को लेकर कहीं कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता. लेकिन इससे भी आगे बढ़कर लेखक ने विभिन्न पात्रों की सामाजिक यथार्थता, मानसिकता और उनके कार्यकलापों में परिवेशगत मनोविज्ञान ढूंढ़ने की कोशिश की है. इसका नायक भाई वंशलोचन (एक तरह से प्रस्तोता) अपनी बहन के परिवार के आईने में उस सामाजिक ढांचे की बात करता है-जहां लोग जाने-अनजाने एक तरह के अपराध में लिप्त हैं. वे खुद किसी बदलाव में शरीक होना नहीं चाहते, भले ही स्थितियां उनके विरुद्ध या प्रतिकूल हों. अपनी बीमार बहन को देखने देर-सवेर जब वंशलोचन उसके घर पहुंचता है तो पाता है कि बीमारी में भी उसे ही घर का सारा काम करना पड़ता है. उसका बहनोई रियासती कचहरी में पेशकार अहलमद है, जो कभी होमिओपैथ भी था. लेकिन उसकी भानजी मुनिया का, लीवर की बीमारी के चलते पेट काफी आगे को निकल आया है. इसी के साथ जुड़ी है एक दुर्घटना. इसी कस्बे में, पास के ही घर में रात में हुई चोरी-जिसके बारे में तमाम गांव-कस्बे के लोग आकर घंटों बेतरतीब और बेमतलब की चर्चा करते रहते हैं. वंशलोचन अपनी बहन के घर में भी यही माहौल देखता है. दरवाजे के पास ही मुनिया, आधे पेट का फ्राक पहने चने की घुघनी खा रही है. घाट की ओर बढ़ता वंशलोचन विदाभरी आंखें से उस कस्बे को निहारता रहता है-जो वैसे तो पीछे छूट रहा था लेकिन बहन के परिवार के बहाने वह उस काली त्रासदी की अनदेखी नहीं कर पा रहा था जो हर जगह हर कस्बे को लीलने को तैयार बैठी है. किसी भी कुशल और सक्षम कथाकार की तरह अमृतराय यही तो कर सकते थे कि वे ऐसी तमाम छबियां पाठक के सम्मुख रखें और उन विभीषिकाओं और विडम्बनाओं को सामने लाएं-जो अपने आप सब कुछ कह देती हैं. इसलिए छोटी-मोटी तमाम घटनाओं और प्रसंगों और प्रश्नों- जिनमें बहन की बमारी, शराबखोरी, चोरी या मास्टर साहब के क्रूर व्यवहार, कस्बे के उनींदे स्वभाव और उसके ऊबाऊ रोजनामचे का संकेत लेखक देता चलता है-लेकिन वह यह पाता है कि एक एकरस लय ही है-जो रहट की तरह चर्र...चूं...करती हुई, एक ही जगह पर चल या घिसट रही है. जहां के लोग यह नहीं जानना चाहते कि वे गरीबी, बीमारी, लाचारी,
अंधरूढ़ियां या भैयाचार के शिकार क्योंकर हैं? इन्हें दूर भगाना या इनसे लड़ना तो दूर की बात है.
भोर से पहले
1953 में प्रकाशित अमृतराय का अगला कहानी-संग्रह था, जिसमें कुल दस कहानियां संकलित थीं.8 अपनी भूमिका में अमृतराय इस बात को रेखांकित करना नहीं भूलते-‘‘उन कहानी प्रेमियों के नाम, जो ‘नयी कहानी’ के धंधे में भी अच्छी कहानी का मजा नहीं भूले हैं.’’ उनके कहने का स्पष्ट आशय यह था कि कहानी पाठकों तक और पाठक कहानियों तक ही नहीं पहुंचे-बल्कि कहानियां पढ़ी भी जायें. उनका जोर कहानियों की पठनीयता और रोचकता पर रहा और कहानी विधा में किस्सागोई के पक्ष की अनदेखी से चिन्तित होकर ही उन्होंने ‘नयी कहानी’ की, चुटकी ली थी. इस संग्रह की चर्चित कहानियों में ‘सत्यमेव जयते’, ‘जम्बूद्वीपे भारतखण्डे’, ‘थक-हारे’ तो हैं ही, ‘भोर से पहले’ कहानी भी हमारे समाज के उस घिनौने कोने की ओर रोशनी डालती है-जहां तथाकथित इज्जतदारों और भूखे भेड़ियों के सामने अपनी ही बेटियों को चारा डालनेवाले लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है. कथालेखक के लिए सारा परिदृश्य भले ही नहीं बदला हो, लेकिन मूल्य अवश्य बदल गए हैं. आर्थिक विवशता और पारिवारिक विपन्नता ही व्यक्ति को तोड़ देती है लेकिन हमारे समाज में सामर्थ्यवान लोग भी अपनी वर्गीय सीमाओं को तोड़ नहीं पाते और ‘हाशी’ सरीखी कई किशोरियां अपनी इज्जत बेचने को लाचार हो जाती हैं.
सामान्य कहानियों से हटकर ‘भोर से पहले’ एक अलग पात्र-परिवेश ओर अप्रत्याशित मानवीय स्वभाव की कहानी है. भारत विभाजन के बाद, पूर्वी पाकिस्तान (अब बाङलादेश) से एक परिवार जैसे-तैसे भारत की सीमा में प्रवेश करता है और फिर बनारस में ठौर पाता है. इस परिवार में मामा दो बड़ी भानजियों को वेश्यावृत्ति के धंधे में ढकेल देता है. कहानी में मोड़ तब आता है, जब यह किसी संपन्न आदमी को तीसरी ओर कमसिन भानजी भी सौंप देना चाहता है ताकि वह न केवल सम्मानित जीवन जी सके, बल्कि उसकी अपनी नियत आमदनी भी पक्की हो सके. इन्हीं आते-जाते परिचित लोगों में एक ऐसा युवक इन्दुभूषण भी है, जो इस गलाजत में नहीं पड़ता और सहज स्वाभाविक रूप से इस परिवार की सहायता करना चाहता है. यह देखकर कि उसने कभी कोई नाजायज फायदा नहीं उठाया, मंझली बहन पुतुल उसके पास यह अनुरोध लेकर आती है कि वह उसकी छोटी बहन हाशी को अपना ले ताकि वह इस पापाचार में न पड़े. हालांकि पुतुल और उसकी बड़ी बहन माधवी हालात के हाथों पहले ही बिक चुकी थीं. इन्दुभूषण हर तरह से पुतुल के इस अनुरोध की रक्षा करना चाहता है लेकिन उसके संस्कार और सामाजिक अंधाडम्बर सामने खड़े हो जाते हैं-जिनके सामने वह बौना बन जाता है. कहना न होगा, किसी भी सुखद और संभावित ‘भोर के पहले’ हाशी को वही वहशी अंधेरा लील जाने को तत्पर है-जिसका संकेत कथाकार ने अपने शीर्षक में कर दिया है. इस कहानी के इन्दुभूषण और पुतुल दो तरह की मानसिकता के प्रतिनिधि पात्र हैं. इन्दुभूषण जहां अपनी वर्गीय सीमाओं में ठहरा या स्थिर बना रहता है-वहां पुतुल प्रदत्त परिस्थितियों से ऊपर उठकर अपनी ठहरी पात्रता को गति देती है और इसे सकारात्मक बनाना चाहती है. इस दृष्टि से अमृतराय की बहुत-सी कहानियों में एक ही परिवेश में दो ध्रुवीय मानसिकता वाले पात्रों को एक-दूसरे के सम्मुख या बरक्स देखा जा सकता है.
कटघरे
वर्ष 1954 में प्रकाशित इस कहानी-संग्रह में कुल ग्यारह कहानियां संकलित हैं.9 आजादी के साथ, देश में नई योजनाओं और विकास के लिए किए जा रहे प्रयत्नों के बावजूद, धरोहर में मिली अनगिनत समस्याओं और दुरभिसंधियों से आहत अमृतराय ने एक सच्चे लेखक के नाते आम आदमी की हताशा, दैनंदिन अभाव, कुंठा और व्यर्थता को वाणी दी है. समकाल के सवालों से बोध से जुड़ी कई कहानियां इस संग्रह को उल्लेख्य बनाती हैं. ‘सावनी समां’ में डाकबाबू चन्द्रिका प्रसाद की सारी जिन्दगी डाकटिकट बेचते-बेचते ही समाप्त होने को है. घर में बीमार पत्नी शकुन्तला की तीमारदारी और पांच-पांच शरारती बच्चों की जिम्मेदारी उन्हें तोड़ देने के लिए काफी है. इस कटोरेनुमा घर में वही घिसी-पिटी जिन्दगी, पिटती हुई पत्नी, अधेड़ सास की गलीज गालियां और डरे-सहमे बच्चों का भूखे पेट सो जाना और ऐसे में चन्द्रिका बाबू का घर से निकल पड़ना-जैसी आमफहम स्थितियों को तेज और पैनी निगाहवाले कथाकार ने कई रूपों में सामने रखा है. उनका कुशल व्यंग्यकार एक डाक बाबू के एकरस जीवन को सरस बनाने के लिए यह रूपक गढ़ता है, जब उकताहट और कार्य से एकरसता तोड़ती कभी कोई हल्के फालसई की रेशमी साड़ी स्त्री खिड़की पर कोई डाकटिकट या पोस्टकार्ड लेने आती है तो ‘पथरीली चट्टानों में भी वनस्पति’ के दर्शन होते हैं. और यही डाक बाबू जब थके-मांदे घर लौटते हैं तो पाते हैं-‘‘...पांच मिनट बाद पांच-सात टेढ़ी-मेढ़ी मठरियां और एक प्याली में चाय लेकर उपस्थित हुई-मैली-कुचैली, गतयौवना, बदन से प्याज और पसीने की दुर्गन्ध छूटती हुई...’’
ऐसे ही कई विवरण इस कहानी को विशिष्ट बनाते हैं. निम्नमध्यवित्त परिवार की घिसटती और दमघोंटू त्रासदी की यह आलम अन्य कहानियों की तरह अमृत की इस संग्रह की कहानियों में भी व्यंग्य मुखर है. ‘डाकमुंशी की एक शाम’ कहानी इसी त्रासदी की सहोदरा है. रोज-रोज की घरेलू चिकचिक और कठिनाइयों के अलावा मुंशीजी अपनी आत्म-कुंठा से इतने ग्रस्त रहते हैं कि कोई भी खाता-पीता परिवार उनकी आंखों में चुभने लगता है. तब उन्हें अपनी परेशानियां और भी बड़ी लगने लगती हैं. जब उन्हें कहीं से किसी के खुशी की खबर मिलती है. उनका अपना बेटा नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता है और आखिर में उसे होटल में जूठे रकाबियां साफ करने के लिए रख लिया
जाता है.
निराशा, हताशा, टूटन-घुटन और बेचारगी ही संकलित कहानियों की केन्द्रीय विषय-वस्तु है. विसंगति, विवशता और विडम्बना ने जहां निम्न मध्यवर्गीय जीवन को नरक सरीखा बना दिया है, वहां इस नरक में जीने को अभिशप्त हर आदमी जैसे बतौर अपराधी पैदा होता है और आजीवन एक नामालूम और नादीद कटघरे में खड़ा न्याय की गुहार करता रहता है जबकि सत्ता या व्यवस्था उसे यह देने को तैयार नहीं. ‘नंगाा आदमीः नंगा जख्म’ सभ्य और सामाजिक कहे जानेवाले उस नागरिक का घिसा-पिटा संसार है, जो लगातार मान-मूल्यों के दो पाटों के बीच पिसता चला जा रहा है. जिस परम्परागत भावबोध के दो चिरपरिचित किन्तु अनिवार्य केन्द्र या ध्रुव हैं-वे परस्पर खिंचाव या तनाव पैदा कर किसी को भी यहां तक कि स्वीकृत मूल्यों और मर्यादाओं को भी संक्रमित, विकृत या दूषित कर देते हैं. आम आदमी की इसी विवशता और फिर थक-हारकर समझौता कर लेनेवाली वृत्ति को अमृतराय सिरे से खारिज कर देते हैं और तभी ऐसी तिलमिलानेवाली कहानियां लिखी जाती हैं. उनकी बेबाक और सतेज भविष्य दृष्टि इन कहानियों को एक नया शिखर प्रदान करती हैं.
गीली मिट्टी
वर्ष 1957 में प्रकाशित हुए प्रस्तुत संग्रह में कुल सोलह कहानियां संकलित हैं.10 अमृतराय ने इस संग्रह में ‘आंखिन देखी’ स्थितियों और परिघटनाओं को ही सहज और विश्वसनीय शैली में सामने रखा है. इसमें ‘गणितज्ञ’-जैसी कहानी का विशेष उल्लेख इस मायने में जरूरी है कि युवा पत्नी उत्पला और विश्वप्रसिद्ध किन्तु वृद्ध गणितज्ञ मंथनसेन के बीच जो महीन हिसाब-किताब कथाकार ने लक्ष्य किया है, वह आधुनिक दौर की आधुनिकाओं की मानसिकता को समझने के लिए ही. उत्पला जानती है कि बूढ़ा आदमी पके आम की तरह अब टपका कि तब टपका. इसके विदा होते ही मैं ऐशोआराम से जी सकूंगी. यहां बात केवल सुविधाभोगी या सुविधाजीवी आधुनिक महिला की ही नहीं, उस अजीब मां की भी है जो अपना पेट काटकर एक लंबा-चौड़ा मकान बनवा लेती है. लेकिन इसके लिए उसे अपने दो-दो बेटों को खोना पड़ता है, जो पैसे के अभाव में ठीक समय पर अपने क्षयरोग का इलाज नहीं करा पाते. डॉक्टर जब उन्हें पहाड़ पर भेजने की सलाह देते हैं तब पैसे के अभाव में वैसा कर पाना संभव नहीं हो पाता. मां इस बात पर भले ही खुश हो ले कि उसने पैसे-पैसे जोड़कर मकान मालकिन कहलाने की हैसियत तो जुटा ली.
चित्रफलक
1960 में प्रकाशित यह अमृतराय का आठवां कहानी-संग्रह है.11 इन कहानियों को ‘नयी कहानी’ आन्दोलन की तेज-तर्रार बहस के समानान्तर या बरक्स रखे जाने का एक सतर्क प्रयास अवश्य देखा जा सकता है. तभी वे संग्रह की भूमिका जोर देकर कहते हैं-‘‘ये नई कहानियां मगर ‘नई कहानियां’ नहीं हैं. कहानियां अच्छी हैं, खूबसूरत हैं और ऐसी हैं जो यकीनन आपके मन पर अपनी लकीर छोड़ जाएंगी, मगर इनका नयापन कोई स्वयंभू नयापन नहीं है, पुराने के गर्भ में आकर लेनेवाली नई सृष्टि का नयापन है, जिस अर्थ में हर सुंदर : सप्राण कृति नई होती है. सत्य का कोई नया कोश : सौंदर्य की कोई नई भंगिमा : शिवत्व का कोई नया आयाम, जब जो चीज जैसे मेरे मन को छू गई, उन्हीं की तस्वीरें.’’12
वस्तुतः अमृतराय इस संग्रह के साथ एक नये स्वर और तेवरवाली मुद्रा के साथ आक्रोशपूर्ण और आक्रामक ढंग से सामने आते हैं. ‘एक सांवली लड़की’ में युवा नायिका का विद्रोही स्वर उस गलाजत और गफलत से दो-दो हाथ करने को तैयार है-जिन्हें समाज सदियों से औरतों के गले में गलफांस की तरह डालता रहा है. इस जहालत से बगावत पर उतारू यह सांवल लड़की दो टूक जवाब देती है-‘‘पुरुष नारी के रूप-रंग को नहीं बल्कि देह को ज्यादा चाहता है, इसलिए मैं लज्जा को छोड़कर आनंद देने के लिए तैयार हूं...नारी का आभूषण लज्जा नहीं, निर्लज्जता है-जो जितना निर्लज्ज है वह उतना ही अजेय है-गालियां खाकर भी अजेय है-सब उसकी चौखट पर आकर नाक रगड़ते हैं.’’13
‘गीली मिट्टी’ जहां व्यक्ति के असमंजस और अंतर्द्वन्द्व की तस्वीर है वहीं इस संग्रह की ‘मंगलाचरण’ कहानी स्त्री जाति के प्रति समाज के अन्यायपूर्ण रवैये के खिलाफ लिखी गई है. यह विवाहयोग्य युवतियों के साथ मोलतोल करनेवाले भैयाचार, विशेषकर लड़कियों को वर पक्ष के लोगों द्वारा बार-बार देखे जाने और इस क्रम में बेचारी लड़की जात पर ढाये जानेवाले अत्याचार से जुडी है. इस प्रपंच या आडंबर की आड़ में लड़के वाले मनमाना सौदा तो करते ही हैं-लेकिन नापसंद किए जाने की स्थिति में किसी भी लड़की के दिलोदिमाग पर क्या असर पड़ता है, इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता. इस रस्म अदायगी के मुखर विरोध में कथाकार अमृत ने लड़की की बड़ी बहन का पात्र गढ़ा है, जो अपनी मां से शिकायत के स्वर में कहती हैं, ‘‘...इस तरह से दिखाने से अच्छा है कि एकदम खोलकर दिखा देते. ये कोई देखने-दिखाने का तरीका नहीं है. नन्हीं-सी लंगोटी लगाए जो लड़का घूम रहा है उससे अच्छा मुझे वह लड़का लग रहा है, जो नंगा घूम रहा है. हटा दो ये जो बेकार के परदे हैं.’’ जबकि दूसरी ओर इन तमाम विवाद के मूक साक्षी और द्रष्टा बाबू अम्बिकाशरण के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.
इन कहानियोें से कुछ अलग हटकर एक और महत्वपूर्ण कहानी है ‘समय’. इसका उल्लेख अमृतराय की प्रिय और प्रतिनिधि कहानियों में होता रहा है. है तो यह आम गली-मोहल्ले में होनेवाली प्यार की ही कहानी. युवक और युवती का प्यार परवान चढ़कर भी ब्याह में तब्दील नहीं हो पाता. बरसों बाद वह युवक उसे युवती के घर मिलने जाता है. अटक-अटक कर वहीं घरेलू किस्म की दो-चार बातें होती हैं और दोनों के बीच समय का अंतराल-ठहरी हुई चुप्पी में शामिल हो जाता है. वक्त के साथ घिसटती हुई निरर्थक जान पड़नेवाली गूंगी बातें भी दोनों के अकेलेपन को, उनकी घुटन को गहरे व्यंजित करती जाती हैं. दम घुटने के अहसास के साथ युवक भारी मन से लौट आता है. बाद में, मिले एक पत्र के माध्यम से यह पता चलता है कि युवती को बांझ जानकर उसे ससुराल में प्रताड़ित किया जाता रहा है. युवती द्वारा पत्र में लिखी गई एक पंक्ति जो पाठकों को झकझोर जाती है, वह है-‘‘मां कहती थीं, बच्चा शरीर से नहीं मन से होता है.’’ जाहिर है, एक गहरी टीस के साथ भी यह कहानी खत्म नहीं होती. असफल प्रेम की काली त्रासदी, जिसे कई विवाहित युगल झेलते हैं, उसकी गवाही देती हुई यह कहानी ‘समय’ को भी जैसे कटघरे में पेश करने की मांग करती है.
इसके बरक्स ‘एक नीली तस्वीर’ कहानी एक ऐसी अनब्याही युवती की कहानी है, जो सामाजिक दंडभय के कारण अपने बच्चे को जन्म देकर एक अनाथालय में छोड़ आने को अभिशप्त है. यह सब कोई नयी बात नहीं जान पड़ती लेकिन युवा शरीर में उगी नई भूख, अभाव के चलते समय पर विवाह न हो पाने की विवशता और अंततः पुरुष के समक्ष समर्पण-इन भयावह स्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन उसका शिकार कौन होता है? ऐसी और ऐसी ही कई भोली-भाली किशोरियां और अनब्याही युवतियां.
विद्रोह
एक लंबे अंतराल के बाद अमृतराय का कहानी संग्रह, जो 1992 में प्रकाशित हुआ.14 इस संग्रह की नौ कहानियों में से कुछ पहले की लिखी गई कहानियां हैं और कुछ आठवें-नौवें दशक की. शीर्षनाम कहानी ‘विद्रोह’ में चम्पा को उसके यौवन का रसलोलुप भ्रमर-समाज ही उसके पति की अकाल मृत्यु पर जात-बाहर कर देता है. मृत पति के बदले, बतौर मुआवजा वह रेलवे में किसी तरह नौकरी पा जाती है. चूंकि वह जवान है तो स्वभावतः उसका किसी अन्य पुरुष से देहसंपर्क भी हो जाता है. तब, उसे अभी हाल तक दुरदुरानेवाला समाज अचानक नैतिकता का ठीकरा उसके सिर फोड़ना चाहता है. अगर उसका पति एक ट्रक की चपेट में आकर चल बसा तो उसमें उसका क्या कसूर है? समाज यह याद क्यों नहीं रखता कि एक जवान औरत की मांग का सिंदूर धुल-पुंछ जाने के बाद क्या उसे दूसरा घर बसाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए? ऐसे ही अप्रिय लेकिन अनिवार्य प्रश्न लेकर अमृतराय की संकलित कहानियां, नई भूमिका के साथ यहां उपस्थित हुई हैं. उक्त कहानी में रखे गए सवाल का जो शर्तिया जवाब अपनी सामाजिक हैसियत के लिए प्रसिद्ध अस्पताल की बड़ी डॉक्टर कुंती सेन से मिलता है-वह कुछ कम हैरान नहीं करता-‘‘जहां साठ साल का बुड्ढा तो चार दिन जोरू के बिना नहीं रह पाता...लेकिन लड़की के दूसरे ब्याह की मनाही है...उन्हें तो अकेले ही जिंदगी काटनी होगी और कहीं जो एक बार उस बेचारी का पैर फिसल गया तो फिर समाज में उसके लिए जगह नहीं, जाए रंडी के कोठे पर बैठे! मैं तो ‘सहेली’ की कुछ लड़कियों के साथ दो-चार बार वहां घूम चुकी हूं. तुम भी एक बार चलकर देख आओ कुंती, ऐसी ही नसीब की मारी लड़कियों से आबाद हैं ये कोठे.’’15 ‘मातमपुर्सी’ कहानी समाज में ‘नम्बर दो’ बने रहने की होड़ का पर्दाफाश करती है. यहां राधेमोहन-जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ और ईमानदार आदमी की खिल्ली ‘महात्मा जी’ कहकर उड़ाई जाती है. दूसरी ओर आबकारी महकमे के दारोगा रामसुंदर चाहे जितनी घूस ले लें. कानूनगो आफताब हुसैन और बी.डी.ओ. सिन्हा जैसे भ्रष्टाचारी अफसरों की चांदी है. राधेमोहन का अपनी ईमानदारी के हाथों एक दिन मारा जाना तय ही था. और तब सारा भ्रष्ट समाज घड़ियाली आंसू साथ लिये उसकी ‘मातमपुर्सी’ में मुंह लटकाए सम्मिलित था. व्यवस्था की विडम्बना ने मृत्यु को भी अब अपने काले एजेंडें में शामिल कर लिया है.
घायल की गति जाने
अमृतराय का अंतिम कहानी-संग्रह है, जो 1992 में ही प्रकाशित हुआ. इसमें अधिकांश कहानियां पूर्वप्रकाशित संग्रहों से ली गई थीं. संभवतः किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर इसका प्रकाशन किया गया था. तो भी संपूर्ण महाभारत-दो सर्गों में तथा मेरी शराब जैसी कोई शराब नहीं-आदि चौदह रचनाएं-जिनमें व्यंग्य और रम्य रचना भी सम्मिलित हैं-लेखक के सुविस्तृत अनुभव संसार को ही एक बार नये कलेवर में प्रस्तुत करती हैं. इन सबमें उनकी किस्सागोई की अनूठी शैली सहज ही विन्यस्त है.
कहानी कहते हुए जिस सरल और सहज विधा का बोध होता है वस्तुतः वह अत्यंत जटिल विधा है. उसकी सहजता भी कथाकार से एक खास तरह की तैयारी की मांग करती है. वांछित कथावस्तु निर्माण, परिस्थिति एवं परिवेश तथा काल और पात्र के अनुरूप उसके संवाद या एकाधिक पात्रों के बीच कथोपकथन की प्रमाणिकता ही किसी कहानी को विश्वसनीयता या पाठकीय स्वीकार्यता प्रदान करती है. इस दृष्टि से अमृतराय ने प्रेमचन्द की यशस्वी परम्परा को ही आगे बढ़ाया और उनकी कहानियां जिस परिवेश की उपज थीं-उनमें हम वैसी ही ताजगी और अनन्यता पाते हैं, जैसी कि प्रेमचन्द में. वैसे प्रेमचन्द की कहानियों का केन्द्रीय परिवेश जहां ग्रामीण और निम्नवर्गीय पात्रों से सम्बद्ध रहा है वहां अमृतराय की कहानियां अंशतः शहरी और मुख्यतः कस्बाई जीवन और मानसिकता को उकेरनेवाली रही हैं. अपनी इस प्राथमिकता की अमृतराय ने पुष्टि भी की है, ‘‘जिसको कि शहरों में भी एक मंझोला छोटा कहा जाता है, वैसा शहर और जो क्लास (वर्ग) है, वह क्लास भी बहुत ही गरीब, अभावग्रस्त, संघर्ष करता हुआ है. वही मेरा क्लास है, उसी वर्ग से मैं आया हूं, उसी वर्ग को पास से जानता हूं, वही आज भी मेरे मन में वैसे का वैसा बैठा है.’’16
कहानियों में ही नहीं, दूसरी विधाओं-उपन्यास, निबंध, नाटक और अनुवाद में भी अमृतराय जो भाषा वैचित्र्य, मुहावरेदानी और विराट शब्द-संभार लेकर उपस्थित होते हैं, वे उनकी विपुल और भावप्रवण रचनाधर्मिता की साक्षी हैं. इसी तरह उनकी कहानियों में संवाद या कथोपकथन का प्रश्न हो या वातावरण निर्माण का या फिर परिवेश से जुडी पात्रता का-वे पाठकों को पलक झपकते-उस प्रसंग-विशेष या अभिप्रेत घटना-बिंदु पर ले जाते हैं-जहां कोई वैचारिक या सक्रिय कार्यव्यापार घटित होनेवाला है या हो रहा है. कभी-कभी वे अपने दिलो दिमाग में उग या उभर आए किसी विचार को ही परिवेश का एक अंग बनाकर पाठकों को उसमें प्रवेश करने का आमंत्रण देते हैं.
यह अमृतराय से अधिक कौन जानता होगा कि देशकाल या वातावरण निर्माण में उपन्यास-विधा के मुकाबिले संक्षिप्त्ता और क्षिप्रता से काम लेना पड़ता है. इसमें उसे पर्याप्त सतर्कता बरतनी पड़ती है और विस्तारभय से विन्यस्त विवरण जहां ऊबाऊ और नीरस हो सकता है, वहां कोई भी सुधी पाठक तत्काल यह भांप जाता है कि यहां कोई बात पैदा नहीं हो रही, बस बात का बतंगड़ भर है. तभी पहले दौर में लिखित कहानियों के आख्यानमूलक या इतिवृत्तात्मक पक्ष से आधुनिक हिन्दी कहानियों के देशकाल को इन मायने में विशिष्ट बताते हुए यह कहा गया कि पिछली कहानियों में वातावरण का चित्रण बाह्य अलंकरण के रूप में यथार्थ को खुरदरा, सघन और चटकीला बनाने के लिए होता था जबकि आज और अब कहानियों की मूल संवेदना को गहराने के लिए.
अमृत की अधिकांश कहानियों का परिवेश शहराती के साथ कस्बाई है-जिसमें थोड़े-बहुत संभ्रांत वर्ग के लोगों के अलावा
मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग और अभावों से निरंतर जूझता मजदूर या श्रमजीवी वर्ग उपस्थित है. बड़े शहर या महानगर की गलाकाट प्रतियोगिता ओर दमघोंटू स्थितियां यहां नहीं है. लेकिन वे सारी वंचनाएं और विडम्बनाएं विद्यमान हैं-जो व्यक्तिजीवन को विषाक्त और समाज को दूषित कर सकती हैं. अमृत की कहानियों में निश्चय ही एक बात का जोर रहता है कि अभावग्रस्त संत्रस्त और शोषित आमजन, हरिजन और दलित वर्ग से कहीं अधिक शोषित रहा है. विशेषकर उस स्त्री-वर्ग, पर लगातार जुल्म किया जाता रहा है, उन्होंने प्रश्नाकुल दृष्टि से विचार किया है. अपनी प्रगतिशील चेतना और संघर्षशील वृत्ति को गति देते हुए शोषित और प्रताड़ित मध्यवर्ग से ऐसे पात्र एवं पात्रा को बतौर नायक या नायिका चुना है, जो उनकी लेखकीय जिजीविषा और संघर्ष यात्रा को स्वर दे सकें.
सरगम (1977)
विभिन्न कहानी-संग्रहों से अपनी चुनिन्दा कहानियों का एक वृहत संचयन अमृतराय ने 1977 में सरगम शीर्षक से प्रकाशित किया. इसमें उनकी 1938 से लेकर 1975 तक प्रकाशित पचास कहानियां संगृहीत हैं. विविध रंग शैली और विषयवस्तु में ढली विभिन्न समस्याओं पर लिखी गई कहानियों का यह समुच्चय सर्वथा पठनीय और सचमुच संग्रहणीय बन पड़ा है. पूर्वप्रकाशित सामग्री को थोड़ा-बहुत व्यवस्थित करते हुए संकलित कहानियों का अनुक्रम प्रकाशन वर्ष के अनुरूप ही रखा गया था. लाल धरती- जैसे अप्राप्य संग्रह से भी दो कहानियां इसमें संकलित हुई. इस संचयन की अधिकांश कहानियां बहुपठित और पहले से ही चर्चित रही हैं.
सरगम में संकलित एक सुप्रसिद्ध कहानी ‘यंत्रणाओं की घड़ी’ अमृतराय मार्क्सवाद के प्रमुख प्रवक्ता की हैसियत से ‘आंखों देखी’ रिपोर्ताज वाली शैली में प्रस्तुत करते हैं-जिसमें उनकी पीड़ा साफ झलकती है और उस मनोदशा पर भी वे गहरी चुटकी लेते हैं जो प्रतिपक्ष पर हमला करने से बाज नहीं आती-‘‘राष्ट्रीय झंडा, कांग्रेस, सब जैसे धोखा मालूम पड़ता है...दो दिन आगे बंबई में हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर पर बहुत से गुंडों ने कांग्रेस के नाम पर, कांग्रेस के नारे देकर एक संगठित आक्रमण किया था. लाइनोटाइप मशीन तोड़-फोड़ डाली थी, पुस्तकें और फर्नीचर चला दिया था और आग बुझाने के लिए साथी जब लपके तब उन्हें बुरी तरह मारा था. साठ कम्युनिस्ट घायल हुए थे; कुछ को बहुत सख्त चोट आई थी. एक लाख रुपये का नुकसान हुआ था.’’ इसी तरह ‘प्राकृत’ कहानी में सुनन्दा के वैधव्य की पीड़ा तो व्यक्त हुई ही है, उसके मन में उठनेवाला हाहाकार लगातार उसे छीलता रहता है. साथ ही, स्त्री-तन की दाह और इसकी स्वाभाविक भूख को भी बड़ी गहरी अभिव्यक्ति मिली है-‘‘तीन हजार ...मरघट-जैसी सूनी रातें...सड़क कूटनेवाले इंजन की तरह उस पर से गुजर चुका है. उसे पता है जिस स्पर्श से देह की कली मुंह खोल देती थी, उस स्पर्श के लिए अब वह सदा यों ही तरसती रहेगी, लेकिन उसके बाद भी किसी के सीने से लग जाने की, किसी को अपनी छाती से लगा लेने की, किसी की गोंद में दुबक जाने की, किसी को अपनी गोद में दुबका लेने की, यह भूख शायद कभी शमित नहीं होगी.’’17
अमृतराय की कहानियां उनके देखे-सुने और जाने-पहचाने अनुभव संसार से संपृक्त हैं. ऐसे अच्छे-बुरे कई प्रसंग और प्रकरण इन कहानियों में निविष्ट हैं-जो एक प्रश्नाकुल और प्रतिश्रुत कथाकार को अवश्य ही विचलित कर सकते हैं. कभी एक किस्सागो, कभी प्रखर प्रवक्ता और कभी एक खामोश पात्र की तरह अमृत ने अपनी अद्वितीय शिल्प-संरचना के माध्यम से व्यक्त किया है. कहीं एकदम सीधे, तो कभी वक्र कथा-शिल्प द्वारा तो कभी सांकेतिक विधि से, ताकि इन कहानियों में विविधता के साथ प्रयोगशीलता तो बनी रहे, विन्यासगत पुनावृत्ति न हो. अमृतराय के पास अनुभव का जो विराट संसार है उसे उन्होंने अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों में भी ढाला है.
समय-समय पर अमृतराय ने अपनी तथा दूसरों की कहानियों के बारे में टिप्पणियां भी की हैं. अपनी स्केच-नुमा कहानी ‘कस्बे में एक दिन’ को लेकर उन्होंने डॉ. रामविलास शर्मा के तर्क का उत्तर देते हुए कहा है-
‘‘बहुत पहले की बात है, डॉ. रामविलास शर्मा ने मेरी कहानियों के बारे में 40-50 फुलस्केप शीट का बड़ा-सा लेख पढ़ा था. ...ये मीटिंग यशपाल वाले घर पर, विप्लव कार्यालय में, हीवेट वाले मकान पर लखनऊ में हुई. वहां उन्होंने इसके ऊपर बहुत धुआंधार आक्रमण किया था कि इसकी क्रांतिकारिता जो है, टुटपुंजिया समझदारी है...(आदि...आदि) ‘कस्बे का एक दिन’ को लेकर खास तौर पर कहा कि इसमें कस्बे के एक दिन की ठहरी हुई तस्वीर है. उस ठहरी हुई तस्वीर के भीतर नये जीवन का जो जोश है, उबाल है, जो थ्रिल है, प्रक्षेपण है, वहां कहीं कुछ नहीं हो रहा है. वह सो रहा है, उसी दिव्य नींद में...ये कौन सी प्रगतिशीलता है?...बुरा तो मुझको बहुत लगा लेकिन मैंने-चूंकि वो आक्रमण मेरे ऊपर था, मैंने अपने डिफेन्स में ज्यादा कुछ नहीं कहा. ...लेकिन मन में रखा कि इनको जबाव दूंगा. ...जब वह कहानी संग्रह छपा तो संग्रह में दो शब्द लिखते हुए मैंने डॉ. शर्मा के आरोपों का उत्तर दिया.’’
अमृतराय ने इस प्रकरण-क्रम में जो उत्तर रखा है उसे विस्तारभय के बावजूद उद्धृत करना आवश्यक है ताकि साहित्य के बारे में उनकी दृष्टि का परिचय मिल सके-
‘‘लेखक जिस सामाजिक परिवेश, जिन पात्रों और कथा-वस्तु को लेकर चलता है, वे भी एक हद तक लेखक को एक खास निष्पत्ति की ओर जाने पर विवश करते हैं. ‘कस्बे का एक दिन’ में नवनिर्माण के तत्वों की सूचना न होने के पीछे मेरी अक्षमता के साथ-साथ उस सामग्री की आंतरिक अक्षमता भी है, जिसने स्केच के ईंट-गारे का काम किया है. ...लेखक भविष्य को वर्तमान के परदे पर फेंक पाता है या नहीं फेंक पाता है, इससे ज्यादा बड़ी बात यह है कि वह अपने साथ छल नहीं करता.’’18
अमृतराय ने इसी तरह, नयी कहानी आन्दोलन के मामले में खुद को ‘बाहर का आदमी’ बताने के बावजूद कहानी के क्षेत्र में गुटबाजी और घेरबन्दी पर धारदार व्यंग्य-वार भी किया था, ‘‘नये कहानीकारों की टोली बढ़ना तो दूर रहा, वह बराबर घटती जा रही है....पहले उसमें अठारह-बीस लोग थे फिर और छंटनी हुई तो पांच ही रह गए, फिर तीन और बस तीन...लेकिन सुना है, उन तीन में से अब एक जल्दी ही बाहर जानेवाला है और भगवान ने चाहा तो वह दिन भी आ ही जाएगा जब एक ब्रह्म के समान एक ही नया कहानीकार होगा.’’19
आलोचकों को ध्यान में रखना होगा कि मार्क्सवादी
अवधारणा के साथ सामाजिक यथार्थ को अनुभव प्रामाणिक बनाते हुए अमृतराय ने कहानियों द्वारा सामन्ती शोषण, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और फासीवादी ताकतों का जमकर विरोध किया. जातिप्रथा, धार्मिक उन्माद, सामाजिक भैयाचार, स्त्रियों पर होनेवाले अतिचार, अंधरूढ़ियों और वर्ग वैषम्य के प्रति उनका रवैया आरंभ से ही आक्रामक रहा. लेकिन अपनी लेखकीय प्रतिश्रुतियों को वे विषयवस्तुगत पात्र, परिवेश और समकाल के आईने में पूरी संजीदगी बरतते रहे और जहां जरूरी लगा-वहां तेज नश्वर से घावों को चीरकर मवाद निकालने का दायित्व भी ग्रहण किया. इतना ही नहीं, यथाप्रश्न और यथाप्रसंग समाज और जीवन की आलोचना करते हुए तेजाबी व्यंग्य का सहारा भी लिया
लेखकीय आग्रह या उसकी प्रतिबद्धता केवल राजनैतिक ‘एजेंडे’ के अनुरूप हो और उसमें मानवीय दृष्टि संकल्प और संवेदना का अभाव हो तो अमृत के अनुसार, वह ‘प्रकृत्या बहुत घटिया’ है. ऐसे लेखक निरा ‘कागदी’ या ‘कागजी’ होते हैं-जो संसार में हो रहे अन्याय, बुराई या तकलीफ देखकर रत्तीभर विक्षुब्ध या विचलित नहीं होते. दरअसल बाह्य राजनीति अगर रचनाकार की अंतर्दृष्टि बन जाए तो वह हर तरह के अन्याय और अधर्म को पहचान लेती है. वह ऐसी तमाम विडंबनाओं को विवेक की आंखों से भांप लेती है. मानवतावाद की यही परंपरा...न्यायपूर्ण अनुरोध के साथ सत्य के आग्रह की रक्षा करती है. आरंभिक कहानियों से लेकर अंत तक अमृत की यही साहित्यिक दृष्टि उनकी जीवन दृष्टि भी बनी रही.
कथा-सम्राट प्रेमचन्द की परम्परा (नाद और वंश-दोनों ही परम्परा) के सक्षम वाहक और वाग्मिता के अपूर्व धनी, एक सक्रिय पार्टी कार्यकर्ता, प्रबुद्ध सम्पादक, कई भाषाओं के जानकार और अनुवादक अमृतराय ने जितना लिखा है, और उसमें जो वैविध्य और रचनात्मक विस्तार है-वह न केवल प्रेरित या अभिभूत करता है बल्कि पाठकों को अपने साथ आगे ले चलता है. अमृतराय समय-समय पर दूसरों के बहाने अपने रचनाकर्म और अपनी लेखकीय भूमिका के साथ अपनी सीमाओं को भी रेखांकित करते रहे हैं. उनके समग्र लेखन को और लेखकीय अवदान को अभी भी पूरी तरह सामने नहीं रखा गया है.
टिप्पणियां
1. संकलित कहानियां-हम रखैल, मरुस्थल, पति-पत्नी, फीका कागज, मां, उड़ानें, क्षुधाविक्षिप्त, अभिशप्त, असलियत की रोशनी में, शरीफें, प्रोफेसर साहब, मुंशीजी, मजहब का गेटअप, चार बटन, एक गिलहरी, तीन चित्र, प्रेम-अंगूठी त्र इयररिंग, ताकत और खुदा, प्रेम का बंटवारा, प्रश्न, आकर्षण, जब अक्ल जुम्बिश करती है और कलाकार.
2. आमुखः पति-पत्नी.
3. ‘‘मैं अपने बारे में बहुत स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूं कि मैं कला-धर्मी बिल्कुल नहीं हूं. मेरे भीतर से लेखन सृजन का जो रस निर्झरित होता है, वह निर्झरित ही नहीं हो सकता जब तक कि उसके साथ कहीं कोई सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, सुन्दर-असुन्दर-ये जो मूलभूत चीजें हैं, इनका प्रश्न न जुड़ा हुआ हो.’’...‘‘दूसरे वह राजनीतिक चेतना, जो सर पर चढ़के बोले, मैं ऐसे लेखन से सख्त नफरत करता हूं. और कभी मैंने ऐसा लेखन नहीं किया.’’
4. संकलित कहानियांः इतिहास, नफरत, चावल मीठे और खुशबूदार, झंखड़ बिरवा, विलायती शराब, सती का शाप, अजीज मास्टर, प्याज के छिलके, मसान घाट, जांगरचोर, परजाते का फूल और लोग.
5. लाल धरती.
6. लाल धरती.
7. संकलित कहानियांः आह्वान, अंधकार के खंभे, गोडसे के नाम खुली चिट्ठी, कीचड़ बाबू, मोहन गोपाल, बेचारा, व्यथा का सरगम, खाद और फूल, फिर सुबह हुई, कोंपलें, कस्बे का एक दिन और तिरंगे कफन.
8. कस्बे का एक दिन, (भूमिका): अमृतराय.
9. संकलित कहानियांः भोर से पहले, वंशदीप उर्फ घोड़े हंसते हैं, सत्यमेव जयते, शाम की थकान, सपने और सपने, इति जम्बूद्वीपे भारतखण्डे, प्रेतलीला, एक कामयाब आदमी की तस्वीर और थके-हारे.
10. संकलित कहानियां : नंगा जख्म, किस्सा आलिफ लैला, गोबर गणेश, दूरियां, पहाड़-यात्रा, रेल की खिड़की से, सावनी समां, डाकमुंशी की एक शाम, रामकहानी के दो पन्ने और चक्रवर्ती अथ इति.
11. संकलित कहानियों का क्रम हैः लाशें, यावच्चनद्र दिवाकारौ, मशीन का खेल, विस्टारिया के फूल, सगे-संबंधी, नाजुक आपरेशन, तराजू, गणितज्ञ, ईंट-पत्थर, मछली चारा ले भागी, ए गुमनाम आदमी, चमार की औलाद, लाटसाहब की आमद, हजार मन राख और एक चिनगारी, रसगंध और गीली मिट्टी.
12. संकलित कहानियांः चित्रफलक, समय, एक सांवली लड़की, गीली मिट्टी, एक नीली तस्वीर, स्टिल लाइफ, संतुबंध, अमलतास, काली मोटर, मंगलाचरण और सितारे.
13. चित्रफलकः विचारणीय (भूमिका)
14. एक सांवी लड़की-सरगम.
15. संकलित कहानियांः मातमपुर्सी, फटी बनियान, भेड़िया, अतिथि, आतंक, कस्तूरी का मिरग ज्यों, आईना, एक झोंका ताजी हवा का और विद्रोह.
16. 1938 से लिखी जा रही ये कहानियां-कमोबेश कस्बाई जिन्दगी के सवालों से जुड़ी थीं. गुलाम भारत और बाद में आजाद भारत में कस्बा कहने पर एक ऐसे इलाके का बोध होता है, जहां शहर एक निकट संभावना की तरह मौजूद रहता है, अभावों में पलता-बढ़ता है, संघर्ष करता है-और स्थानीय मुद्दों के साथ मध्यवर्गीय या निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता और लगातार खंडित होते जा रहे मूल्यों में जीता है.
17. विद्रोह.
18. एक अंतरंग बातचीत.
19. कस्बे का एक दिन (दो शब्द): अमृतराय.
20. अमृतराय की साहित्य साधना, प्रीती रामटेके,.
(भारतीय साहित्य के निर्माता से साभार)
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