प्राची - सितम्बर 2015 - संपादकीय : देश और धर्म के मारे लोग

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संपादकीय देश और धर्म के मारे लोग भा रतवासियों का देशप्रेम और धर्म के प्रति उनकी आस्था और विश्वास जगजाहिर है. इन दोनों क्षेत्रों में उनके अस...

प्राची - हिंदी साहित्य की लोकप्रिय पत्रिका - सितम्बर 2015

संपादकीय

देश और धर्म के मारे लोग

भारतवासियों का देशप्रेम और धर्म के प्रति उनकी आस्था और विश्वास जगजाहिर है. इन दोनों क्षेत्रों में उनके असीम प्रेम का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. आप चाहें तो खुद जांच-परखकर इसे देख सकते हैं.

जब भी मौका मिलता है, वह देश प्रेम में सबसे आगे रहते हैं. ऐसा लगता है जैसे उनकी किसी से होड़ लगी हो और वह अपने देशप्रेम का प्रदर्शन कुछ इस प्रकार करते हैं कि अगला उनसे आगे न निकल जाए.

यह अलग बात है कि पूरे साल वह देश के नियम कानून तोड़ते रहते हैं. परन्तु 15 अगस्त आते ही उनका देश-प्रेम पूरे उफान के साथ बरसाती नदी की तरह जोर मारने लगता है. गली-मुहल्ले और चौराहों में लाउड-स्पीकर लगा कर वह जेट की ध्वनि को पछाड़ने वाली तीखी और तेज आवाज में छम्मक छइयां वाले गीत गाते-बजाते हैं और अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हैं. इस दिन वह देशभक्ति के नाम पर युवाओं के दल बना कर मोटर साइकिलें लेकर सड़कों पर आवारा कुत्तों की तरह दौड़ते हैं, यातायात को बाधित करते हैं और राह चलते आम लोगों को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

पन्द्रह अगस्त के दिन छोटा-बड़ा हर व्यक्ति देश-भक्ति के गाने गाता हुआ ठुमके लगाता है और ठुमकों-ठुमकों में ही बगल वाले को गिराने का प्रयास करता है. युवा व्यक्ति आधुनिक फिल्मी रोमांटिक गीत बजाकर देशभक्ति की आड़ में युवतियों को रिझाने के यत्न करते हैं. भारतवासियों की यह देशभक्ति केवल स्वतंत्रता दिवस को ही दिखाई पड़ती है. साल के बाकी दिनों वह सुप्तावस्था को प्राप्त हो जाती है.

परन्तु हमारे देश के नागरिकों-इसमें हर वर्ग और आयु का व्यक्ति सम्मिलित है-की धर्म में बहुत आस्था है. धर्म की आस्था और विश्वास में लिंग भेद नहीं किया जाता है और यह पूरे वर्ष जागृत अवस्था में रहती है. साल के हर महीने, हर दिन कोई न कोई तीज-त्योहार पड़ता ही रहता है और उसमें लोगों की भक्ति देखते ही बनती है. उदाहरण के लिए हम यहां कुछ प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं

सावन आते ही भक्तगण कांवड़ लेकर गंगा जल लेने के लिए निकल पड़ते हैं. रास्ते में भगवान शंकर को याद करते हुए सुरापान करते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता है कि भगवान शंकर भी नशेड़ी थे. ऐसे आस्तिक लोग नशे के अतिरेक में भगवान शंकर की तरह कुपित होकर रास्ते में लूटपाट करके अपनी यात्रा-भत्ता का इंतजाम भी कर लेते हैं. यह भक्त शराब से भी विषैले गंगाजल को लेकर वापस लौटते हैं और उन्हीं भगवान शंकर की मूर्तियों पर अर्पित करते हैं, जिनकी जटा से ही गंगा का जन्म हुआ है. अब सोचिए जिनकी जटा से शुद्ध गंगाजल प्रवाहित होता है, उन्हीं को विशाक्त गंगाजल से नहलाया जाएगा तो वह कुपित अवश्य होंगे. इसीलिए कई कांवड़िये उनके कोप का भाजन बनते हैं और कांवड़ यात्रा के दौरान ही मोक्षगति को प्राप्त हो जाते हैं.

सावन खत्म होते ही भगवान शंकर के प्र्ति लोगों की भक्ति समाप्त हो जाती है. फिर वह कृष्णमय हो जाते हैं. कहते हैं कि-कृष्ण, भगवान विष्णु के अवतार हैं. लोग विष्णु जी की पूजा कभी नहीं करते (शायद इसका कहीं अपवाद हो और भारत के किसी स्थान पर विष्णुजी का मंदिर हो) किंतु उनके अवतारों की पूजा करते हैं. भगवान विष्णु ने कोई लीला नहीं की, जबकि कृष्णजी लीलावतार हैं. वह नानाप्रकार की लीलाओं से अपने भक्तों को खुश रखते थे. इसीलिए लोग उनकी पूजा करते हैं. कुछ लोग उनके रासरंग से प्रभावित होकर स्वयं भगवान बन जाते हैं और मधुर प्रवचन देकर पढ़ी-लिखी सुंदर महिलाओं के साथ अपने भव्य दरबारों में रासलीला करवाते हैं.

जन्माष्टमी के दिन कृष्ण के भक्त उपवास रखकर उनके प्रति अपनी असीम भक्ति का प्रदर्शन करते हैं और रात 12 बजे गोले-पटाखे दगा कर छप्पन-प्रकार के व्यंजनों का भोग लगा कर असीम निंद्रा में लीन हो जाते हैं और अगले दिन कृष्ण भगवान को भूल जाते हैं.

इसके बाद बारी आती है श्री गणेश जी की. इनका जन्मदिन लोग 14 दिन तक लगातार मनाते हैं. यह चूंकि शंकर जी के पुत्र हैं, शायद इसीलिए जगह-जगह पंडाल लगाकर इनकी मूर्तियां सजाई जाती हैं. इनके पंडाल लगाने के लिए इनके भक्त आम लोगों से जबरदस्ती चंदा उगाहते हैं और पंडाल लगाने का ताम-झाम करते हैं. चंदे में उगाहे गए पैसों में से कुछ पैसा बचाकर वह रात्रि में शराब पीकर गणेश जी के सामने नाचते-गाते हैं. इससे पता नहीं श्री गणेशजी कितना खुश होते हैं, परन्तु उनके पिताश्री अवश्य खुश होते होंगे, क्योंकि वे एक सिद्धि प्राप्त नशेड़ी, गजेड़ी और भंगेड़ी थे. इस तरह ये तथाकथित भक्त एक साथ पिता और पुत्र दोनों को खुश करते हैं.

श्री गणेश जी को गहने पहनने का कितना शौक था, यह तो पता नहीं, परन्तु हमारे कुछ भक्त जो गलत-सही तरीकों से अनाप-शनाप पैसा कमा लेते हैं. इस तरह अनाप-शनाप कमाए गए धन को सरकार काला धन कहती है, क्योंकि इसका लाभार्थी सरकार को कोई टैक्स नहीं देता है. सरकार ऐसे लोगों के प्रति कोई काररवाई नहीं करती, क्योंकि यही लोग नेताओं को चुनाव के समय चंदा देकर देश के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर लेते हैं. ये लोग इसी काली कमाई का एक अंश गहनों के रूप में गणेशजी के ऊपर अर्पित करके भगवान से अपने पापों की क्षमा मांग लेते हैं.

चौदह दिन बाद गणेश जी तालाब, नदी और समुद्र के रास्ते कैलाश पर्वत पर चले जाते हैं और उनके ऊपर चढ़ाये गये आभूषण परम भक्तों द्वारा अपनी पत्नियों को भेंट कर दिये जाते हैं.

नवरात्रों के दिनों में भक्तगण दुर्गा माता और भगवान रामचंद्र की भक्ति में लीन हो जाते हैं. पूरे नौ दिन पूरे बाजे-गाजे और कानफोडू संगीत के साथ पंडालों में दुर्गा माता की मूर्ति के सामने नाच-गाना होता है, जिससे प्रमाणित होता है कि दुर्गा माता नाच-गाने की बहुत शौकीन थीं. कुछ भक्तगण पूरे नौ दिन उपवास करते हैं, परंतु दिनभर फलाहार करते रहते हैं, जिससे इन दिनों फलों की कीमत आसमान छूने लगती है.

इन्हीं दिनों कुछ विशेष खाद्य पदार्थ जो उपवास के दौरान खाये जाते हैं, भी महंगे हो जाते हैं; क्योंकि भक्तगण उपवास में रहते हुए भी इन पदार्थों का भरपेट भक्षण करते हैं और भगवान को धन्यवाद देते हैं कि वो अगर न पैदा हुए होते तो उपवास के नाम पर उनको इतने अच्छे भोज्य पदार्थ कहां से खाने को मिलते. इन लोगों को उन विद्वान पंडितों के प्रति भी आभार प्रकट करना चाहिए, जिन्होंने वेद-पुराणों में ऐसे व्रत-उपवास की व्यवस्था की थी. अगर ऐसी व्यवस्था न होती, तो हमारे देश से धर्म का विनाश हो चुका होता.

दीवाली आते ही लोग धन-यानी लक्ष्मी की पूजा करने लगते हैं. मनुष्य नाम के जीव में धैर्य नाम की बहुत कमी पाई जाती है. गणेश चतुर्थी में जितने आभूषण और नोटों की गड्डियां वह गणेश जी के ऊपर चढ़ाता है, उससे दुगुनी-चौगुनी मात्रा में प्राप्त करने के लिए वह लक्ष्मी जी की पूजा करता है. आश्चर्य की बात ये है, कि लक्ष्मीजी तत्काल किसी को कुछ नहीं देती, बल्कि कुछ घरों में चोरी अवश्य करवा देती हैं. बेचारे भक्त लक्ष्मीजी के स्वागत के लिए अपने घर के खिड़की-दरवाजे खुले छोड़कर निश्चिन्त होकर सो जाते हैं, कि लक्ष्मीजी सूना घर पाकर चुपके से आएंगी और उनके घर को धन-सम्पदा से भरकर वापस अपने देश लौट जाएंगी. लेकिन इस अवसर का लाभ कुछ अपराधी प्रवृत्ति के भक्तगण उठाते हैं, और वह भक्तजनों के घर की काली-सफेद कमाई उठाकर चम्पत हो जाते हैं. इससे यह बात प्रमाणित होती है कि लक्ष्मीजी किसी न किसी भक्त को धनलाभ अवश्य करवाती हैं, चाहे किसी भी तरीके से.

हिन्दु धर्म के अनुयायी देश से अधिक धर्म को प्यार करते हैं, क्योंकि देश एक है और देवी-देवता 33 करोड़. बेचारा आदमी करे तो क्या करे. इसलिए एक दिन वह देशभक्ति का प्रदर्शन करता है तो बाकी दिन वह देवी-देवताओं की पूजा में व्यस्त रहता है. फिर भी वह समस्त देवी-देवताओं की पूजा नहीं कर पाता है, क्योंकि सभी देवी-देवताओं के न तो उसे नाम याद हैं और न तो वह उनकी जन्म तिथि के बारे में कुछ जानता है. अलबत्ता कुछ देवी-देवताओं ने उन घूसखोर अफसरों की तरह, जो अचानक ही रिश्वत और बेईमानी के पैसे से धनवान बनकर समाज में अचानक ही ऊंचा स्थान प्राप्त कर लेते हैं, भक्तों के चढ़ावे को पाकर हिन्दू समाज में घुसपैठ बना ली है. उन्हीं की हर साल

धूम-धाम से पूजा होती है. जिस प्रकार अफसर को घूस देकर व्यक्ति कुछ न कुछ प्राप्त करता है, उसी प्रकार देवी-देवताओं के ऊपर रुपया-पैसा और आभूषण चढ़ाकर उससे दोगुना प्राप्त करने की कामना करता है.

मुझे तो लगता है सांसारिक व्यक्तियों ने घूस लेने की प्रेरणा हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं से ही प्राप्त की है. जब देवी-देवता ही बिना चढ़ावे के भक्तों को आशीर्वाद नहीं देता तो मनुष्य ही बेचारा बिना पैसा लिए किसी का काम क्यों करे. भगवान तो अजर अमर है जब कि मनुष्य को भूख प्यास भी लगती है सांसारिक जीव होने के नाते उसकी और भी बहुत सारी जरूरतें होती हैं; जबकि मनुष्य के पास रिश्वत के अलावा अतिरिक्त कमाई का कोई साधन नहीं होता. कहते हैं मेहनत का फल मीठा होता है, परन्तु वह बहुत देर से मिलता है. कभी-कभी तो मिलता ही नहीं है, क्योंकि उसको दूसरे लोग हड़प कर जाते हैं.

इसीलिए मनुष्य को रिश्वत का फल अधिक स्वादिष्ट लगता है, क्योंकि यह तत्काल प्राप्त हो जाता है और इसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती. हालांकि रिश्वत का फल ज्यादा चबाने से कड़वाहट से भर जाता है और जब यह फल अत्यधिक कड़वा हो जाता है, तब व्यक्ति अपने मुंह का स्वाद बदलने के लिए जेल चला जाता है. यह मनुष्य का दुर्भाग्य ही कहिये कि वह रिश्वत खाते-खाते जेल की सलाखों के पीछे पहुंचता है, जबकि देवी-देवताओं को चढ़ावा रूपी रिश्वत खिलाने के लिए मनुष्य हमेशा उनको मंदिरों में कैद करके रखता है.

देश-भक्ति हो या धर्मभक्ति...मनुष्य बिना स्वार्थ के नहीं करता. स्वतंत्रता दिवस के दिन वह झंडा हाथ में लेकर बच्चों के साथ पिकनिक मनाने जाता है. फिर उसी झंडे को-यदि वह कपड़े का हुआ तो-धरती पर बिछाकर, उसी पर बैठकर खाना-पीना करता है, और यदि वह कागज का हुआ तो उस पर पित्जा, बर्गर और कबाब रखकर खाता है. इस प्रकार मनुष्य अपनी देशभक्ति प्रदर्शित करके एक सच्चा नागरिक बनने का सबूत देता है.

और दूसरी तरफ हमारे भक्तगण धर्म के लिए क्या-क्या नहीं करते, इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. हालांकि सभी

धार्मिक कर्मकाण्डों का उल्लेख यहां संभव नहीं है. यह तो उदाहरण मात्र हैं.

इस लेख को पढ़ते हुए कुछ व्यक्ति धार्मिक आस्था के बारे में प्रश्न कर सकते हैं कि यहां पर केवल हिन्दू धर्म का ही क्यों उल्लेख किया गया है, दूसरे धर्मों का क्यों नहीं? तो मेरा कहना है कि धार्मिक उन्माद, घृणा, भेदभाव, अन्धविश्वास और असहिष्णुता सभी धर्मों में है. यह सर्वविदित है. आज जिस प्रकार का धार्मिक उन्माद और आतंकवाद समस्त विश्व में व्याप्त है, उसका एकमात्र कारण धाार्मिक असहिष्णुता है.

दुनिया में जितने भी धर्म हैं, उनमें कोई धर्म-परिवर्तन करके अपने धर्म का प्रसार करते हैं, कोई धर्म-परिवर्तन के साथ-साथ अहिंसात्मक तरीके अपनाकर दूसरे धर्म को कुचलने का प्रयास करता है. एकमात्र हिन्दू धर्म ऐसा है, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता सबसे अधिक है. इसमें दूसरे धर्मों को कुचलने की प्रवृत्ति नहीं है, परन्तु यह आपसी भेदभाव, छुआदूत, पाखण्ड और ढोंग का मारा हुआ धर्म है. इसके 33 करोड़ देवी-देवता उस समय थे, जब हिन्दुओं की इतनी जनसंख्या भी नहीं थी. आज इनके अतिरिक्त करोड़ों देवी-देवता गली-मुहल्लों में स्थापित हो गए हैं. धर्म के नाम पर हम ढोंग और पाखण्ड करते हैं.

जीवन भर हम गलत काम करते हैं और भगवान की पूजा करके उससे अपने पापों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं. अपनी कमाई उसके ऊपर अर्पित करके हम यह आशा करते हैं कि भगवान हमारे पाप माफ करके हमें मोक्ष प्रदान करेंगे. यह कौन सी आस्था है? कौन से भगवान धन और गहनों के लोभी हैं और उनको धन की क्या आवश्यकता? जो भगवान अपने भक्तों को देता है, वह बदले में उनसे धन क्यों प्राप्त करेगा? क्या कोई पुजारी या भक्त इस बात का प्रमाण के साथ जवाब देगा?

राकेश भ्रमर

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रचनाकार: प्राची - सितम्बर 2015 - संपादकीय : देश और धर्म के मारे लोग
प्राची - सितम्बर 2015 - संपादकीय : देश और धर्म के मारे लोग
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