समीक्षक - एम.एम.चन्द्रा डॉ. लवलेश दत्त की कहानी संग्रह की समीक्षा लिखना बहुत ही श्रमसाध्य रहा. वैसे तो इस कहानी संग्रह को दो अन्य साथियों ...
समीक्षक - एम.एम.चन्द्रा
डॉ. लवलेश दत्त की कहानी संग्रह की समीक्षा लिखना बहुत ही श्रमसाध्य रहा. वैसे तो इस कहानी संग्रह को दो अन्य साथियों ने भी पढ़ा और अपनी राय जाहिर की लेकिन उनका नजरिया इस पुस्तक को लेकर काफी भिन्न था. इस संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियाँ हैं जिन्हें बिना किसी भूमिका के प्रकाशित किया गया है. शायद नये लेखकों के सामने आने वाली कठिनाईयों को आप सभी सुधी लेखक एवं पाठक आसानी से समझ सकेंगे.
यह कहानी संग्रह संवाद शैली में लिखा गया अपने आप में अनोखा संकलन है जिसके माध्यम से कहानी सरपट दौड़ती है और अंत तक पाठक को बांधे रखती है. ‘सपना’ कहानी स्त्री होने के अपने दर्द को पाठक के सामने एक सवाल के रूप में प्रस्तुत करती है-“क्यों लोग उसकी भावनाओं को समझ नहीं पाते? वह तो दोस्ती करती है और लोग उसकी दोस्ती को क्या समझ बैठते हैं? बार-बार उसे यही लगता है कि क्या मेरा लड़की होना गलत है?” यह कहानी एकतरफा प्रेम की दुखांत कहानी है. आपको ऐसी ही कहानी ‘पत्थर के लोग’ पढ़ने को मिलेगी जिसमे एकतरफा प्यार और पागलपन है. प्यार में असफल होने के बाद भी वह समाज की सेवा करने में अपना जीवन समर्पित करने की सोचता है लेकिन उसके नेक इरादे, आज की दुनिया में उसको मुजरिम बना देती है. शायद ऐसी कानून व्यवस्था हमारे समाज में आज भी मौजूद है.
‘जरूरतें’ एक आम इन्सान की ऐसी कहानी है जो बॉस और उसके सहकर्मी के मध्य होने वाले तमाम तरह के समझौतेविहीन सम्मान को बचाय रखने की जद्दोजहद की दास्ताँ है– “जो भी नया बॉस आता है वह अपने अनुसार काम कराता है. रही बात नौकरी न करने की तो यह गलत है यार...तुम्हारा घर परिवार है...बच्चो का खर्च... अगर नौकरी छोड़ दी तो क्या करोगे?” आज शहरी जीवन बहुत ही कठिन हो गया है. अपने अस्तित्व को बचाय रखने के लिए एक आम इन्सान रात-दिन खटता है लेकिन वह अपने परिवार की परवरिश तक नहीं कर सकता- “अब तो घर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है. दो-तीन महीने से तो विवेक को वेतन में से कुछ धनराशि अग्रिम लेनी पड़ती है.” यह कहानी प्रत्येक मध्यम, निम्न मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों की अपनी कहानी लगती है.
‘अँधेरा’ जैसी कहानी ने यह साबित कर दिया है कि महिलाएं आज कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. खासकर पारिवारिक रिश्तों में महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न इसलिए भी अधिक पाया जाता है क्योंकि मान-मर्यादा की वजह से लड़की पक्ष कुछ नहीं बोल पाता नतीजन महिलाओं को विभिन्न तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है.
‘आइसक्रीम’ शहरी जीवन की वह महा-गाथा है जिसे कहीं भी सुना, पढ़ा और लिखा नहीं जाता है. डॉ. लवलेश ने शहर के नरकीय जीवन के ऐसे पहलू को उजागर किया है जिस पर हमारी नजर सिर्फ कभी-कभार ही पड़ती है- “आजकल तो ऐसी-ऐसी कालोनियाँ बन रही हैं जिसमें शोपिंगमॉल, सिनेमाघर, दुकानें, स्विमिंगपूल और न जाने क्या-क्या होता है. लेकिन धूप और वर्षा से बचने का कोई स्थान नहीं.”
आधुनिक तकनीक ने जहाँ दुनिया की दूरियों को कम किया है वहीं पारिवारिक रिश्तों को तोड़ने में भी अहम भूमिका निभाई है. ‘मैसेज’ नव दम्पत्ति की ऐसी कहानी है जिसमें एक मैसेज लड़की के चाल-चलन पर सवाल खड़ा करके रिश्तों में कड़वाहट पैदा करता है. यह कहानी पढ़े-लिखे सभ्य समाज में पैदा होने वाली ख़ास एवं नये तरीके की ऐसी बीमारी है जो शहरी जीवन के परिवारों में अविश्वास, इर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकृति के रूप में हमारे सामने आ रही है.
‘पराँठे’ और ‘रोंग नम्बर’ हमारे दौर की वो कहानियाँ हैं जिसमे भागदौड़ भरी जिन्दगी माँ-बाप के लिए बहुत ही दुखदायी होती है. ‘पराँठे’ कहानी के शर्मा जी मौत शहरी जीवन के पारिवारिक संबंधों में आ रही गिरावट की वह सडन है जिसकी बदबू धीरे-धीरे हमारे घरों तक पहुँच रही है. वहीं ‘रोंग नम्बर’ शहरों की उन परिवारों की कहानी है जो अपने परिवार, गाँव समाज से एकदम कट चुके हैं. “अरे अंकल आप किस चक्कर में पड़े हैं? यह दिल्ली है. आपका बेटा-बहू कोई आपको लेने आने वाला नहीं है. आप दोनों मेरी सलाह मानो... घर वापस चले जाओ. यह दिल्ली जितनी बड़ी है, यहाँ के लोगों के दिल उतने ही छोटे हैं.”
शहर सिर्फ अमीरों, मध्यवर्गीय परिवारों का नहीं होता. उसमें गरीब परिवार और उनका जीवन भी होता है. ‘भाजी’ कहानी को पढ़ने के बाद आपको देखने को मिलेगा कि गरीब, गरीब जरूर होते हैं लेकिन जिन्दा रहने की जद्दोजहद में ही सही, छोटे-छोटे सपनों के साथ वे आज भी जिन्दा और जीवंत हैं- “अँधेरा घिर रहा था. पैरों की चोट दर्द कर रही थी पर ख़ुशी इतनी थी कि किसी दर्द, किसी अँधेरे की परवाह किये बगैर मन में बुदबुदाता हुआ बालक राम साइकिल दौड़ाए जा रहा था. आज गुड्डो रानी खुश हो जाएगी. एक नहीं दो-दो फिराक, पैसे का क्या है, कल नहीं तो परसों काम मिल ही जायेगा. फिर चार-पांच दिन तो यह तेल-मसाला चल ही जायेगा...”
डॉ. लवलेश दत्त की कहानियाँ शहरी जीवन की उस मनोदशा का वर्णन करती हैं जिसमें लोभ-लालच, अलगाव, घुटन, बेगानापन आदि मनोवृतियों का यथार्थ चित्रण है. एक-दो कहानियों का कथा शिल्प एक जैसा होने कारण कहानियों में दोहराव सा महसूस होता है. इसके बावजूद कहानियों की बनावट, बुनावट और कथा शैली में एक नयापन है जो पाठक को शुरू से लेकर अंत तक बांधे बनाये रखने में सफल होती है.
सपना : डॉ. लवलेश दत्त | प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन | कीमत :120 | पृष्ठ 112
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