महावीर उत्तरांचली की छंदमुक्त कविताएँ

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छंदमुक्त कवितायें महावीर उत्तरांचली     १. पांव पाँव थककर भी चलना नहीं छोड़ते जब तक वे गंतव्य तक न पहुंच जाएं... थक जाने पर कुछ देर राह मे...

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छंदमुक्त कवितायें

महावीर उत्तरांचली
 

१. पांव
पाँव थककर भी
चलना नहीं छोड़ते
जब तक वे
गंतव्य तक न पहुंच जाएं...
थक जाने पर कुछ देर
राह में विश्राम कर
पुन: चल पड़ते हैं
अपने लक्ष्य की ओर...

जबकि
घोड़े के रथ पर सवार लोग
या फिर ईंधन से चलायमान
अत्याधुनिकतम गाड़ियों में बैठे लोग
बिना पहियों के
अगले पडाव तक नहीं पहुंच पाते...

मगर
पाँव सदियों से
यात्रा करते आये हैं
कई सम्यताओं
और संस्कृतियों की दास्ताँ कहते!!!

२. पतन
मानव को अनेक चिन्ताएं
चिन्ताओं के अनेक कारण
कारणों के नाना प्रकार
प्रकारों के विविध स्वरुप
स्वरूपों की असंख्य परिभाषायें
परिभाषाओं के महाशब्दजाल
शब्दजालों के घुमावदार अर्थ
प्रतिदिन अर्थों के होते अनर्थ
खण्ड-खण्ड खंडित विश्वास
मानो समग्र नैतिकता बनी परिहास
बुद्धिजीवी चिन्तित हैं
जीविकोपार्जन को लेकर!
क्या करेंगे जीवन मूल्यों को ढोकर?
व्यर्थ है घर में रखकर कलेश
क्या करेंगे मूल्यों के धर अवशेष?

३. मवाद
धर्म जब तक
मंदिर की घंटियों में
मस्जिद की अजानों में
गुरूद्वारे के शब्द-कीर्तनों में
गूंजता रहे तो अच्छा है
मगर जब वो
उन्माद-जुनून बनकर
सड़कों पर उतर आता है
इंसानों का रक्त पीने लगता है
तो यह एक गंभीर समस्या है?

एक कोढ़ की भांति हर व्यवस्था और समाज को
निगल लिया है धार्मिक कट्टरता के अजगर ने ।
अब कुछ-कुछ दुर्गन्ध-सी उठने लगी है
दंगों की शिकार क्षत-विक्षत लाशों की तरह
सभी धर्म ग्रंथों के पन्नों से!

क्या यही सब वर्णित है
सदियों पुराने इन रीतिरिवाजों में?

रुढियो-किद्वान्तियों की पंखहीन परवाजों में?

ऋषि-मुनियों पैगम्बरों साधु-संतों द्वारा
उपलब्ध कराए इन धार्मिक खिलौनों को
टूटने से बचने की फिराक में
ताउम्र पंडित-मौलवियों की डुगडुगी पे
नाचते रहेंगे हम बन्दर- भालुओं से...!

क्या कोई ऐसा नहीं जो एक थप्पड़ मारकर
बंद करा दे इन रात-दिन
लाउडस्पीकर पर चीखते धर्म के
ठेकेदारों के शोर को?
जिन्हें सुनकर पक चुके हैं कान
और मवाद आने लगा है इक्कीसवीं सदी में!

४. हकीकत
जब भी मैं समझता हूँ
बड़ा हो गया हूँ
अदना आदमी से
खुदा हो गया हूँ
तो इतिहास उठा लेता हूँ
ये भ्रम खुद-ब-खुद टूट जाता है
मौत रूपी दर्पण में
सत्य का प्रतिबिम्ब दिख जाता है
मिटटी में मिल गए
जितने भी थे धुरंधर
क्या हलाकू-चंगेज
क्या पोरस-सिकंदर
जिन्होंने कायम की थी
पूरी दुनिया में हुकूमत
कहीं नजर आती नहीं
आज उनकी गुरबत
तो ऐ महावीर तुझे
घमंड किस बात का!
दुनिया-ए-फानी में
भला तेरी औकात क्या?

५. दृढ़ता कभी आश्रित नहीं
जीवन कभी मोहताज नहीं होता
मोहताज तो होता है
हीन विचार, निजी स्वार्थ और क्षीण आत्मविश्वास ।

क्योंकि यह मृगमरीचिका व्यक्ति को
उस वक्त तक सेहरा में भटकती है
जब तक कि
वह पूर्णरूपेण निष्प्राण नहीं हो जाता
इसके विपरीत
जो दृढनिश्चयी, महत्वकांक्षी न् स्वाभिमानी है
वह निरंतर
प्रगति की पायदान चढ़ता हुआ
कायम करता है वो बुलंद रुतबा कि -
यदि वो चाहे तो खुदा को भी छू ले ।

वह शख्स घोर निराशा
एवम दु: ख के क्षणों को ऐसे मिटा देता है
जैसे -
किरणों के स्फुटित होने पर
तम का सीना स्वयमेव चिर जाता है ।

६. रामराज
गाँधी जी कहते थे
जब भारत स्वतंत्र होगा
तो रामराज आ जायेगा
अछूतोद्धार होगा
जातपात; छुआछूत; अस्पृश्यता का अंत होगा
सर्वधर्म एक नियम होगा
गोऊपूजा होगी
हर कोई एक-दूजे के हृदय में समा जायेगा
गाँधी जी कहते थे
ऐसा रामराज आ जायेगा ।
लेकिन--
स्वतंत्र भारत में
मार-काट होती है
गोऊ मांस बिकता है
जात-पात के नाम पर आरक्षण होता है
हिन्दू मस्जिद मुस्लिम मंदिर ढाता है

कौन जानता था
स्वतंत्रता प्राप्ति उपरान्त ऐसा हो जायेगा
जब भारत स्वतंत्र होगा
तो ऐसा रामराज आ जायेगा?

७. मौत
मौत तुम भी क्या खूब खेल खेलती हो?

जब हमारे दिल में जीने की चाह होती है
तुम आ टपकती हो; तमाशा करती मजा लेती हो ।
जब हम मरना चाहते हैं--
तुम ऊबा देने वाली प्रतीक्षा करवाती हो!
मानो सदियों तक आओगी ही नहीं ।
आज भी तुम गलत समय में आई हो
जब मैं ख्याति के शिखर से थोडा-सा दूर हूँ ।
जबकि मैं जानता हूँ
तुम बेवक्त नहीं आती? वक्त की पाबन्द हो
आग़ाज़ के दिन ही हमारा अंजाम भी तय हो चुका है
मगर क्या आज मेरे वास्ते
तुम्हारी वो घड़ी थोडा आगे नहीं खिसक सकती
मैं जानता हूँ तुम्हारी गोद में
असीम सुख है; महाशांति है
कभी न टूटने वाली निद्रा है
और है...
कभी न खत्म होने वाली खामोशी....!

8 दस्तक
काल के कपाल पर
अगर मेरी रचनाएँ दस्तक नहीं दे सकती
बुझे हुए चेहरों पर रौनक नहीं ला सकती

मजदूरों के पसीने का मूल्यांकन नहीं कर सकती
शोषण करने वालों का रक्त नहीं पी सकती
तो व्यर्थ है मेरा कवि होना
इन रचनाओं का काग़ज पर आकार लेना
और व्यर्थ है आलोचकों का
इन्हें महान रचनाएँ कहकर संबोधित करना

९. आसरा
कौन रोक सका है?
या रोक सकता है
तूफान या भूचाल को!
ये तो सदियों से आये
आते रहेंगे मनुजों....
ऐसे में  -
जो कमजोर हैं
उनका उखड़ जाना
स्वाभाविक है
किन्तु? फिर भी?
कम से कम
अपनी जगह
स्थिर रहने का प्रयास
हमें अवश्य करना है!
अन्यथा ..
किसी टूटे हुई दर्पण की भांति
हो जायेंगे हम खण्ड-खण्ड
अवशेष भी न बचेंगे हमारे
इतिहास बन जायेंगे -
यूनान मिश्र रोम की तरह...

बहरहाल  -
इन बुरे दिनों में भी
अनेक स्वार्थों के बीच
तेरी ही पुरातन परम्पराओं का
आसरा है ऐ भारत माँ...

१०. मत्रमुग्ध गढवाल
'गढ़वाल'
जैसे किसी चित्रकार की
कोई सुन्दर कलाकृति
बावजूद आधुनिक संसाधनों के अभाव में
यहाँ निरंतर प्राकृतिक सौन्दर्य के भाव में
छिपी है अध्यात्मिक भूख और आत्मतृप्ति
भौतिकवाद दिखावे के अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं
निर्धनता के पश्चात भी
यहाँ व्याप्त है / संतोष पर्याप्त
जंगलात के कंदमूल
शद्ध हवा और पानी में
है यहाँ के दीर्घ जीवन का सार ।

सनातन धर्म की प्रवाहमान धारा के तहत
यहाँ प्रचलित है अनेक लिखित-मौखिक किद्वान्तियाँ
रूढ़ियाँ और किस्से कहानियां...
यहाँ पशुबलि और भूत भात
पैतृक दोष और छुआछात
देव नरसिंह और नरकार
जागर-मागर और जात/घात
है पारम्परिक विरासत और सौगात

खड़े हैं युगों से स्थिर
न जाने कितने असंख्य अदभुत रहस्य
अपने गर्भ में छिपाये / सौन्दर्य बिखेरते
धृंखलावद्ध विशालकाय पर्वत
जिनकी गोद में ..
ये मंत्रमुग्ध गढ़वाल
और उत्तराखंड की संस्कृति
है पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित ।

११. जीवन आधार
फूल नर्म, नाजुक और सुगन्धित होते हैं
उनमें काँटों-सी बेरुखी कुरूपता और अकड़न नहीं होती
जिस तरह छायादार और फलदार वृक्ष
झुक जाते हैं औरों के लिए
उनमें सूखे चीड़-चिनारों जैसी गगन छूती
महत्वकांक्षा नहीं होती ।

क्योंकि ..
अकड़न बेरुखी और महत्वकांक्षा में
जीवन का सार हो ही नहीं सकता
जीवन तो निहित है झुकने में
स्वयं विष पीकर
औरों के लिए सर्वस्व लुटाने में
नारी जीवन ही सही मायनों में जीवनाधार है
माँ बहन बेटी पत्नी प्रेयसी आदि समस्त रूपों में
सर्वत्र वह झुकती आई है
तभी तो पुरुष ने अपनी मंजिल पाई है
उसने पाया है
बचपन से ही आँचल, दूध और गोद
ममता प्यार स्नेह, विश्वास वात्सल्य आदि

किन्तु सोचो..
यदि नारी भी पुरुष की तरह स्वार्थी हो जाये
या समझौतावादी वृति से निजात पा जाये
तो क्या रह पायेगा आज
जिसे कहते हैं पुरुष प्रधान समाज ।

१२. विरासत
जानते हो यार
मैंने विरासत में क्या पाया है?
जहालत मुफलिसी बेरुखी
तृषकार ईष्या, कुंठा आदि- आदि
शब्दों की निरंतर लम्बी होती सूची
जो भविष्य में...
एक विस्तृत / विशाल
शब्दकोष का स्थान ले शायद?

तुम सोचते हो
सहानुभूति पाने को गढ़े हैं ये शब्द मैंने!
मगर नहीं दोस्त
ये वास्तविकता नहीं है
भोगा है मैंने इन्हें
एक अरसे से हृदय में उठे मुर्दा विचारों के
यातना शिविर में प्रताड़ना की तरह
तब कहीं पाया है इनके अर्थों में अहसास चाबुक-सा
और जुटा पाया हूँ साहस इन्हें गढ़ने का

कविता यूँ ही नहीं फूट पड़ती
जब तक ' अंतर ' में किसी के
मरने का अहसास न हो
और सांसों में से लाश के सड़ने की सी
दुर्गन्ध न आ जाये...
तब तक कहाँ उतर पाती है
कारज पर कोई रचना ऐ दोस्त?

१३. महानगर में
कौन से उज्जवल
भविष्य की खातिर
हम पड़े हैं--
महानगर के इस
बदबूदार घुटनयुक्त
वातावरण में ।
जहाँ साँस लेने पर
टी ० बी ० होने का खतरा है
जहाँ अस्थमा भी
बुजुर्गों से विरासत में मिलता है
और मिलती है
कर्ज के भारी पर्वत तले
दबी सहमी-सहमी-सी
खोखली जिंदगी ।
और देखे जा सकते हैं
भरी जवानी में पिचके गाल/ धंसी आँखें
सिगरेट सी पतली टांगें

खिजाब से काले किये सफेद बाल
हरियाली-प्रकृति के नाम पर
दूर-दूर तक फैला
कंकरीट के मकानों का विस्तृत जंगल
कोलतार की सड़कें
बदनाम कोठों में हंसता एच ० आई ० वी ०
और अधिक सोच-विचार करने पर
कैंसर जैसा महारोग... गिफ्ट में ।

१४. टूटा हुआ दर्पण
एक टीस-सी
उभर आती है
जब अतीत की पगडंडियों
से गुजरते हुए
यादों की राख़ कुरेदता हूँ ।

तब अहसास होने लगता है
कितना स्वार्थी था मेरा अहम?
जो साहित्यक लोक में खोया
न महसूस कर सका
तेरे हृदय की गहराई
तेरा वह मुझसे आंतरिक लगाव

मैं तो मात्र तुम्हें
रचनाओं की प्रेयसी समझता रहा
परन्तु तुम किसी प्रकाशक की भांति
मुझ रचनाकार को पूर्णत: पाना चाहती थी
आह! कितना दु:खांत था
वह विदा पूर्व तुम्हारा रुदन
कैसे कह दी थी
तुमने अनकही सच्चाई
किन्तु व्यर्थ
सामाजिक रीतियों में लिपटी
तुम हो गई थी पराई

आज भी तेरी वही यादें
मेरे हृदय का प्रतिबिम्ब हैं

जिनके भीतर मैं निरंतर
टूटी हुई रचनाओं के दर्पण जोड़ता हूँ ।

१५. एक मई का दिन
कुछ भी तो ठीक नहीं
इस दौर में!
वक्त सहमा हुआ
एक जगह ठहर गया है!!
जैसे घडी की सुइयों को
किसी अनजान भय ने
अपने बाहुपाश में
बुरी तरह जकड रखा हो ।

व्यवस्था ने कभी भी
व्यापक फलक नहीं दिया श्रमिकों को
जान निकल देने वाली
मेहनत के बावजूद
एक चौथाई टुकड़े से ही
संतोष करना पड़ा
एक रोटी भूख को
सालों -साल ।... पीढ़ी-दर-पीढ़ी!!

एक प्रश्र कौंधता है -
क्या कीमतों को बनाये रखना
और मुश्किलों को बढ़ाये रखना
इसी का नाम व्यवस्था है?

रुसी क्रांति'' और ''माओ का शासन''
अब पढ़ाये जाने वाले
इतिहास का हिस्सा भर हैं ।
साल बीतने से पूर्व ही
वह ऐतिहासिक लाल पन्ने
कारज की नाव या हवाई जहाज
बनाकर कक्षाओं में उड़ने के काम आते हैं
हमारे नौनिहालों के -

जिन्हें पढाई बोझ लगती है!
एक मजदूर से जब मैंने पूछा -
क्या तुम्हें अपनी जवानी का
कोई किस्सा याद है?
वह चौंक गया!
मानो कोई पहेली पूछ ली हो?
बाबू ये जवानी क्या होती है!
मैंने तो बचपन के बाद
इस फैक्ट्री में सीधा अपना बुढ़ापा ही देखा है!!
मैं ही क्या
दुनिया का कोई भी मजदूर
नहीं बता पायेगा
अपनी जवानी का कोई यादगार किस्सा!!

अब मन में यह प्रश्र कौंधता है -
क्या मजदूर का जन्म
शोषण और तनाव झेलने
मशीन की तरह निरंतर काम करने
कभी न खत्म होने वाली जिम्मेदारियों को उठाने
और सिर्फ दु:ख-तकलीफ के लिए ही हुआ है?
क्या यह सारे शब्द मजदूर के पर्यायवाची हैं?

मुझे भी यह अहसास होने लगा है
कोई बदलाव नहीं आएगा
कोई इंकलाब नहीं आएगा
पूंजीवादी कभी हम मेहनत कशों का
वक्त नहीं बदलने देंगे!
हमें चैन की करवट नहीं लेने देंगे ।
हमारे हिस्से के चाँद-सूरज को
एक साजिश के तहत
निगल लिया गया है!

पूरे साल में
एक मई का दिन आता है
जिस दिन हम मेहनतकश
चैन की नींद सोये रहते हैं!

--

कविता संग्रह - छंदमुक्त रचनाएं से साभार

प्रकाशक : उतरांचली साहित्य संस्थान,

उत्तरांचली साहित्य संस्थान

दिल्ली – १६

 

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महावीर उत्तरांचली
जन्म : २४ जुलाई ११७१ ईस्वी को दिल्ली में
शिक्षा : स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशित कृतियाँ --
कहानी / कविता / गजल संग्रह--
(१.) ''आग का दरियां' (गजलें, २०09)
''आग यह बदलाव कीं' (गजले, २०13)
(३.) अन्तर चट तक प्यास (दोहे, २००9)
(४.) बुलन्द अशआर (चुनिंदा शेर, २०09)
(भू) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २००9,२०13)
(६.) तीन पीढियां : तीन कथाकार (कहानी संग्रह, २००7)

संपर्क -

m.uttranchali@gmail.com

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 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: महावीर उत्तरांचली की छंदमुक्त कविताएँ
महावीर उत्तरांचली की छंदमुक्त कविताएँ
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