(नए जमाने में, पारंपरिक रेडियो की अपेक्षा वाईफ़ाई रेडियो धूम मचा रहे हैं, जिनके मासिक सब्सक्रिप्शन शुल्क भी हैं!) डॉ.चन्द्रकुमार जैन रे...
(नए जमाने में, पारंपरिक रेडियो की अपेक्षा वाईफ़ाई रेडियो धूम मचा रहे हैं, जिनके मासिक सब्सक्रिप्शन शुल्क भी हैं!)
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
रेडियो का नाम आते ही एक रोमांटिक सा अहसास मन पर तारी हो जाता है। रेडियो से मेरे जुड़ाव की
याद मुझे बहुत दूर यानी बचपन तक ले जाती है। आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है कि सन1984 के पहले तक,जब हमारा परिवार, जन्म स्थान डोंगरगांव में रहता था,घर पर एक विशाल-सा रेडियो था। शायद बुश बैरन का,आठ बैंड का,चिकनी लकड़ी के कैबिनेट वाला,वाल्व वाला। उस जमाने में ट्रांजिस्टर नहीं आये थे, वाल्व के रेडियो आते थे, जिन्हें चालू करने के बाद लगभग 2-3 मिनट रुकना पड़ता था वाल्व गरम होने के लिये। उन रेडियो के लिये लायसेंस भी एक जमाने में हुआ करते थे, उस रेडियो में एक एंटीना लगाना पड़ता था। वह एंटीना यानी तांबे की जालीनुमा एक बड़ी सी पट्टी होती थी जिसे कमरे के एक छोर से दूसरे छोर पर बाँधा जाता था। उस जमाने में खासकर सातवें-आठवें दशक में,इस प्रकार का रेडियो भी हरेक के यहाँ नहीं होता था और खास चीज़ माना जाता था, और जैसा साऊंड मैने उस रेडियो का सुना हुआ है, आज तक किसी रेडियो का नहीं सुना। बहरहाल, उस रेडियो पर हम सुबह रामायण और चिंतन के आलावा बरसाती भैया के चौपाल और आप मन के गीत जैसे कार्यक्रम सुनने से नहीं चूकते थे। लिहाज़ा, रेडियो से बचपन और हमारे पूरे परिवार का गहरा नाता रहा।
उन दिनों सुबह हम लोग जैसे रेडियो की आवाज से ही उठते थे और रेडियो की आवाज सुनते हुए ही नींद आती थी। उन दिनों मनोरंजन का घरेलू साधन और कुछ था भी नहीं, हम लोग रात 10 पर सोने चले जाते थे। उस समय आकाशवाणी से रात्रिकालीन मुख्य समाचार आते थे, और देवकीनन्दन पांडेय की गरजदार और स्पष्ट उच्चारण वाली आवाज ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनन्दन पांडे से समाचार सुनिये…सुनते हुए हमें सोना ही पड़ता था, क्योंकि सुबह पढ़ाई के लिये उठना होता था और पिताजी वह न्यूज अवश्य सुनते थे तथा उसके बाद रेडियो अगली सुबह तक बन्द हो जाता था।
देवकीनन्दन पांडे की आवाज का वह असर मुझ पर आज तक बाकी है, यहाँ तक कि जब उनके साहबजादे सुधीर पांडे रेडियो/फ़िल्मों/टीवी पर आने लगे तब भी मैं उनमें उनके पिता की आवाज खोजता था। देवकीनन्दन पांडे के स्पष्ट उच्चारणों का जो गहरा असर हुआ, उसी के कारण आज मैं कम से कम इतना कहने की स्थिति में हूँ कि भले ही मैं कोई बड़ा उद्घोषक नहीं, किन्तु आवाज़ से
अपनी कुछ पहचान तो हासिल कर ही ली है। खैर, विभिन्न उदघोषकों और गायकों की आवाज सुनकर “कान” इतने मजबूत हो गये हैं कि अब किसी भी किस्म की उच्चारण गलती आसानी से पचती नहीं, न ही घटिया किस्म का कोई गाना, और न ही मिमियाती हुई आवाज़ में लोगों को कुछ सुनने के लिए विवश करने वालों का कोई असर होता है।
उस समय तक घर में मरफ़ी का एक टू-इन-वन ट्रांजिस्टर भी आ चुका था जिसमें काफ़ी झंझटें थी, कैसेट लगाओ, उसे बार-बार पलटो, उसका हेड बीच-बीच में साफ़ करते रहो ताकि आवाज अच्छी मिले, इसलिये मुझे आज भी ट्रांजिस्टर ही पसन्द है। हमांरे घर की सुबह आज भी आकाशवाणी के कार्यक्रमों को सुनकर होती है। इसके आकर्षण ने ही मुझे चिंतन के सैकड़ों आलेख लिखने की प्रेरणा भी दी।
मैं समझता हूँ कि मेरी उम्र के उस समय के लोगों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने रेडियो सीलोन से प्रसारित होने वाला बिनाका गीतमाला और अमीन सायानी की जादुई आवाज न सुनी होगी। जिस प्रकार एक समय रामायण के समय ट्रेनें तक रुक जाती थीं, लगभग उसी प्रकार एक समय बिनाका गीतमाला के लिये लोग अपने जरूरी से जरूरी काम टाल देते थे। हम लोग भोजन करने के समय में फ़ेरबदल कर लेते थे, लेकिन बुधवार को बिनाका सुने बिना चैन नहीं आता था। जब अमीन सायानी भाइयों और बहनों से शुरुआत करते थे तो एक समां बंध जाता था।
रेडियो सीलोन ने अमीन सायानी और तबस्सुम जैसे महान उदघोषकों को सुनने का मौका दिया। मुझे बेहद आश्चर्य होता है कि आखिर ये कैसे होता है कि इतने सलीके से, साढ़े हुए ढंग से बोल लेते हैं। मैं इस तरह बोलने वालों का कद्रदान तो हूँ ही,एक तरह से उनकी पूजा करता हूँ। उन दिनों ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस का दोपहर साढ़े तीन बजे आने वाला फ़रमाइशी कार्यक्रम हम अवश्य सुनते थे। ये ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस है, पेश-ए-खिदमत है आपकी पसन्द के फ़रमाइशी नगमें…, जिस नफ़ासत और अदब से उर्दू शब्दों को पिरोकर अज़रा कुरैशी नाम की एक उदघोषिका बोलती थीं ऐसा लगता था मानो मीनाकुमारी खुद माइक पर आ खड़ी हुई हैं।
इधर रेडियो के एक और योगदान की चर्चा के बगैर बात अधूरी रह जायेगी। यह कि मैंने इस आलेख को लिखने की जब मंशा क्या ज़ाहिर की तब अपने दावा के सूरज बुद्धदेव ने रेडियो का नाम सुनते ही कहा कि वो तो उनके प्रेस का सबसे पुराना और विश्वसनीय साथी रहा है। कैसे, पूछे जाने पर सूरज ने बताया कि आज के दौर के नए रंगीन आफसेट मुद्रण और दावा के नए प्रेस भवन से शुरू होने से पहले कई दशक तक इसका प्रकाशन व प्रबंधन गांधी चौक के पास स्थित एक छोटी-सी जगह से होता रहा। तब अपने पिता ( दावा के प्रधान सम्पादक श्री दीपक बुद्धदेव ) से चर्चा कर वे सन 1993 में फिलिप्स कम्पनी का एक रेडियो 1300 रु. में खरीदकर ले आये थे। फिर क्या, सूरज बताते हैं कि समाचारों व विचारों को सुनकर वे टेप कर लिया करते थे और बाद में उनके प्रेस के वरिष्ठ सहयोगी भाई संजय यादव रेकॉर्डेड सामग्री को सलीके से लिपिबद्ध कर दिया करते थे। फिर अखबार में उनका उपयोग कर लिया जाता था। इस तरह, दावा परिवार भी रेडियो को अपनी पत्रकारिता की दुनिया में नीव की ईंट की मानिंद एक यादगार ताकत मानता है।
बहरहाल मेरा नम्र सुझाव है कि साफ़ और सही उच्चारण में, प्रभावशाली अंदाज़ में,आवाज पहुँचाने की कला तथा श्रोताओं का ध्यान बराबर अपनी तरफ़ बनाये रखने में कामयाबी, ये सभी गुण यदि आपको सीखने हैं तो जाने-माने उद्घोषकों और एंकरों को सुनने की आदत डालें। कभी मेरी ज़िंदगी में रेडियो ने ही इस कला के करीब आने की ललक पैदा की थी और आज भी मैं तमाम तकनीकी तरक्की के ज़माने में भी रेडियो का मुरीद हूँ और रहूंगा।
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डॉ. चन्द्रकुमार जैन
राजनांदगांव। मो. 9301054300
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