डॉ0 दीपक आचार्य किसी भी कर्म का श्रेय मिलना या न मिलना भाग्य के साथ ही अपने स्वभाव और कार्यशैली पर भी निर्भर करता है। दुनिया में बहुत...
डॉ0 दीपक आचार्य
किसी भी कर्म का श्रेय मिलना या न मिलना भाग्य के साथ ही अपने स्वभाव और कार्यशैली पर भी निर्भर करता है। दुनिया में बहुत सारे लोग दिन-रात खूब सारी प्रवृत्तियों में रमे रहते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं कि सभी को उनका पूरा-पूरा लाभ मिल ही जाए और श्रेय प्राप्त हो ही जाए।
भाग्यहीन, दरिद्री, आलसी, अनुदार और कामटालू लोगों को श्रेय पाने की आशा जीवन में कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि ये लोग हर काम को आगे से आगे टालने के आदी होते हैं । कई बार अपार श्रेय हमारे द्वार तक आकर लौट जाता है और हम खाली हाथ लिए भिखारियों की तरह मन मसोस कर रह जाते हैं।
इसका मूल कारण हमारा प्रमाद और आलस्य ही है जिसकी वजह से हम कभी भी अपने जीवन पर संतोष नहीं कर पाते हैं और जिन्दगी भर खुद भी असंतोष में जीते रहते हैं और अपनी वजह से दूसरे लोगों को भी असंतोष भरा जीवन जीना पड़ता है।
दुनिया में बहुत सारे लोग ऎसे स्थानों पर बैठे हुए होते हैं जहाँ रहकर वे उदारतापूर्वक असंख्य लोगों को कुछ न कुछ दे पाने और लुटाने की स्थिति में रहते हैं, बहुत से लोगों का भला करने की स्थिति में होते हैं और दुनिया भर का श्रेय प्राप्त कर सकते हैं।
लेकिन ये लोग अपनी हीन हरकतों और घृणित आदतों से मजबूर होते हैं इस कारण ये न किसी का भला कर पाते हैं और न श्रेय प्राप्ति ही कर पाते हैं। हद दर्जे के ये दरिद्री, आलसी और कामटालू लोग हर काम को कल के लिए टालते चले जाते हैं और इसका असर यह होता है कि जो लोग इनके सम्पर्क में आते हैं रोजाना इन्हें बददुआएं देते हुए इनके रहे-सहे पुण्य का भी क्षरण कर देते हैं।
जो काम आज करना है उस काम को कल-परसों और आगे से आगे टालते रहने वाले लोग जीवन भर अपयश के भागी होते हैं और इसी कारण से आम लोग इनसे चिढ़ते भी हैं और इनके प्रति रोजाना कई-कई बार नकारात्मक टिप्पणियों का सहारा भी लिया करते हैं।
ये सारी बददुआएं इनके खाते में जमा होती चली जाती हैं। एक समय ऎसा आता है कि जब ये लोग अपने दुराग्रहों, पापों और विकृत मानसिकता की वजह से अपने आभामण्डल को इतना अधिक प्रदूषित कर लिया करते हैं कि सारी आकस्मिक आपदाएं इन्हें घेर लिया करती हैं और ये घोर संकट में फंस कर रह जाते हैं।
अपने आपको ये लोग कितना ही महान समझते हुए अहंकार में भले फूले न समाएं पर हकीकत यही है कि ये सभी की नज़रों में गिरे हुए होते हैं। जिनके ये खास समझे जाते हैं वे लोग भी इन्हें अच्छी तरह समझ जाते हैं लेकिन अपने अंधे स्वार्थों की वजह से सत्य को बयाँ करने या दूरी बनाए रखने का साहस नहीं कर पाते हैं।
बहुत से लोग दिन-रात मेहनत करते हैं, पूरे समर्पण के साथ फर्ज निभाते हैं इसके बावजूद इन्हें श्रेय नहीं मिल पाता। इसका कारण यह नहीं है कि इन लोगों की मेहनत का कोई मूल्य नहीं है। बल्कि तथ्य यह है कि ईश्वर इन लोगों को कोई बड़ा पुरस्कार देना चाहता है और इसीलिए किसी बड़ी उपलब्धि दिलाने तक इंसानी श्रेय से दूर रखता है ताकि ये बीच रास्ते में किसी मोह पाश में आकर भटक नहीं जाएं।
सच्चे, नैष्ठिक कर्मयोगियों और ईमानदारों में से एक भी ऎसा देखने को नहीं मिलेगा जिसे अपने कर्म का कोई कालजयी यश प्राप्त नहीं हुआ हो। पौराणिक युगों से लेकर हमारा इतिहास तक इस बात का गवाह है।
असली समस्या कर्म करने वालों की नहीं है बल्कि समाज और देश की सबसे बड़ी और भयावह समस्या यह है कि कुछ लोग काम करना नहीं चाहते। सारी सुख-सुविधाएं, बिना मेहनत का धन और यश प्राप्त करना सभी चाहते हैं लेकिन काम करना पड़े तो नानी याद आ जाए।
कुछ रो रोकर काम करते या निकालते हैं, कुछ मुर्दानगी का पर्याय बने हुए कुर्सियाँ तोड़ रहे हैं और बहुत सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें पैसों और भोग से ही सरोकार है, चाहे कुछ भी हो जाए। प्रकृति का नियम है कि जो कुछ करेगा वह जरूर पाएगा। हर परिश्रम अपना मूल्य निर्धारित करता है और वह किसी न किसी रूप में प्राप्त होता ही है।
प्रकृति और ईश्वर अपने पर किसी का कोई ऋण कभी बाकी नहीं रखते। ऋण नहीं चुकाना और अहसान फरामोश रहते हुए कृतघ्नता दर्शाना इंसानों की ही फितरत में होता है।
जिन लोगों को ऎसे कर्मों में लगाया हुआ है जो कि समाज और क्षेत्र की सेवा के लिए जाने जाते हैं वह उन लोगों के भाग्य के कारण से है। यह अलग बात है कि उदारतापूर्वक बाँटते हुए भलाई करने वाले कर्मों में लगे हुए लोग भी अपने फर्ज से विमुख होकर किसी को कुछ न दे पाएं, लोगों की सेवा न कर पाएं, किसी के अरमानों को पूरा न कर पाएं, आशा-आकांक्षाओं पर खरे न उतर पाएं, तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि इन लोगों का दुर्भाग्य का उदय हो चुका है।
इन्हें एक धेला अपनी ओर से खर्च करने की जरूरत नहीं है सिर्फ अपने कर्म को ईमानदारी के साथ निभाते हुए आगे बढ़ने की आवश्यकता है। बावजूद इसके ये अपने कत्र्तव्य कर्मों के प्रति उपेक्षा और शिथिलता का रुख अपनाते हैं जिसकी वजह से इन्हें श्रेय प्राप्त होना तो दूर की बात है, लोग इनके बारे में कभी अच्छी बातें कहते नहीं सुने जाते।
और तो और इनसे पीड़ित और हताश लोग ईश्वर को यह कहकर कोसते रहते हैं कि इनकी बजाय कोई दूसरे होते तो इतनी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता। हममें से अधिकांश लोग इन निकम्मों के बारे में बिन्दास होकर यह बोलने में कभी कंजूसी नहीं करते कि ये लोग मर क्यों नहीं जाते। कम से कम दूसरे लोग इनकी तरह तो नहीं होते।
एक इंसान के लिए ऎसी बातें कहा जाना सचमुच शर्मनाक और इंसानियत के नाम पर कलंक ही है। इन सारी स्थितियों के बावजूद आज भी लज्जाहीन, नुगरों और बेशर्मों की कोई कमी नहीं है। इन्हें कितना ही कुछ कह डालो, कोई फर्क नहीं पड़ता, ये वैसे ही रहेंगे जैसा इन्हें सूझता है।
यश नहीं मिल पाने का रोना न रोएं, कत्र्तव्य कर्मों को ईमानदारी से पूर्ण करें, अपने संपर्क में आने वाले हर इंसान के काम तत्काल पूर्ण कर देने की मानसिकता के साथ काम करें और जो काम कल करना है उसे आज पूरा करने की भावना से समर्पित होकर कर्मयोग का परिचय दें।
यह भी ध्यान में रखें कि पैसा या प्रतिष्ठा में से एक ही प्राप्त हो सकता है। वैभव और प्रतिष्ठा उन बिरलों को ही एक साथ प्राप्त हुआ करते हैं जिन पर ईश्वरीय कृपा होती है, जो लोग समाज और देश के लिए जीते हैं। अपने लिए जीने वालों के भाग्य में न यश होता है न कीर्ति। अपने आपको देखें, हम क्या हैं, क्या कुछ कर रहे हैं, क्या करना चाहिए और इंसान होेन की कसौटी पर कितने खरे उतर रहे हैं। अपने आप सब कुछ समझ में आ जाएगा।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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