- प्रमोद यादव उस दिन उसकी अपार जिद पर उसके साथ शाम को आखिरी बस में सवार हो उसके गांव पहुंचा. बड़े दिनों से वह अपनी दाऊगिरी दिखाने मुझे गांव...
- प्रमोद यादव
उस दिन उसकी अपार जिद पर उसके साथ शाम को आखिरी बस में सवार हो उसके गांव पहुंचा. बड़े दिनों से वह अपनी दाऊगिरी दिखाने मुझे गांव ले चलने को बेताब था...अक्सर बताता कि गांव में उनकी तीन सौ एकड़ जमीन है...बाईस कमरों वाला भव्य मकान है...और एक अदद ‘होटल‘ भी जिसका कि ‘ फिश-फ्राई ‘ और ‘ चिकन-मसाला ‘ पूरे इलाके में फेमस है. जब कभी हम शहर के किसी रेस्तरां में खाते-पीते तो वह अपने होटल के ‘ फिश-फ्राई ‘ और ‘ चिकन-मसाला ‘ का जिक्र व तारीफ करना कभी नहीं भूलता..और तब ऐसे मौकों पर हर बार मुझे अपने गांव चलने को कहता. आखिर जैसे-तैसे उसके गांव पहुँच ही गया. सबसे पहले बस से उतरते ही मेनरोड पर स्थित अपने होटल को दूर से दिखाया फिर ढेर सारी सकरी गली-कूंचों, नाली ,पुल-पुलिओं को पार कर घर ले गया. घर सचमुच बड़ा और हवेलीनुमा था..पर काफी पुराना..मुर्गी के दडबे जैसे कई छोटे- छोटे कमरे दिख रहे थे. अपने एक अदद दाऊजी (पिताजी) व चार-पांच सीनियर नौकरों से मिलवाया. दाऊजी काफी विनम्र लगे. उन्होंने नौकरों को आदेश दिया कि रात में मेरे सोने का इंतजाम उसके कमरे में किया जाये .फिर दूध ही दूध से अच्छी चाय बना लाने का आर्डर दिया. मीठी चाय पीते ही मनमोहन भंडार के गुलाबजामुन की चाशनी याद आ गया... चाय के बाद वह गांव घुमाने ले गया.
घूमते-घुमाते रात के नौ बज गए तो खाने के लिए सीधे अपने होटल ले गया. दो-तीन बटलरों ने बड़ी ऊँची आवाज में ‘ जैराम ‘ कहते उन्हें सलाम ठोंका तो वह “जानी” वाली स्टाइल में थोडा अकड सा गया...अभिवादन का कोई जवाब न देते केवल हाथ उठाते एक बटलर को आदेश दिया-‘अरे रमेशर...हमारे लिए एक टेबल तो लगा..’ खड़े-खड़े मैंने एक नजर होटल पर डाला...ढाबानुमा होटल था..लकड़ियों के सात-आठ पुराने टेबल-कुर्सी लगे थे..लगभग सभी टेबल ग्राहकों से भरे थे..मछली-मुर्गे की तेज खुशबू से तर-बतर था होटल...नथुनों में खुशबू के घुसते ही भूख हिलोरें मारने लगा.. रमेशर ने कोने के एक टेबल पर पोंछा मार हमें आमंत्रित किया. हम बैठ गए. दोस्त ने ‘ फिश-फ्राई ‘ और ‘ चिकन-मसाला ‘ लगाने का आर्डर दिया और उठकर कहीं चला गया. मैं सर्व करने वाले गांव के बेरोजगार बटलरों को देख रहा था कि एकाएक वह एक अधेड , दुबले-पतले सज्जन के साथ टेबल पर प्रगट हो बोला - ‘ ये हमारे बड़े भैया हैं....चन्द भैया.. होटल देखते हैं..’ फिर मेरी ओर इशारा कर कहा- ‘ और आप हैं...फलां- फलां...मेरे घनिष्ठ मित्र...’
मैं अभिवादन में हाथ जोड़ खड़ा हुआ तो उसने भी हाथ जोड़ते कहा- ‘ बैठिये... बैठिये..आप शायद पहली बार हमारे गाँव आये हैं.. आपका नाम जरुर कई बार सुना..अच्छा लगा..आप आये...कोई मेहमान आये तो बड़ी खुशी होती है..’ तभी एक बटलर की तेज और ऊंची आवाज-‘ टेबल नंबर दो का एक सौ बत्तीस ले.....’ ने उन्हें गल्ले की ओर खींच लिया.
टेबल सजने लगा...पानी, सलाद, पापड़ के बाद बहु-प्रतीक्षित ‘ फिश-फ्राई ‘ और ‘ चिकन-मसाला ‘ मुंह के सामने महकने लगा..तंदूरी रोटी का इंतजार था कि वह उठकर बाजूवाले दरवाजे के भीतर घुस गया...शायद हाथ धोने...बेसब्री से इंतजार करता रहा कि होस्ट आये तो गेस्ट खाए..पेट में चूहे काफी जंप मार रहे थे..पल-पल कटना मुश्किल हो रहा था कि अचानक बाजूवाले दरवाजे के बाहर गाली-गलौज के शोर के साथ दो लोग आपस में गुंथे , मारपीट करते टेबल के पास धडाम से गिरे. एकबारगी मैं चौंक गया.. कुछ समझ नहीं आया...जब दोनों लड़ाकू खड़े हुए तो देखा, दोनों भाई ही आपस में गुंथे, एक-दूजे पर मुक्का चलाते, गाली-गलौज कर रहे थे...इस अप्रत्याशित सीन से मैं हडबडा कर खड़ा हो गया... मुक्का खाते दोस्त ने बैठने का इशारा करते कहा- ‘ बैठो.. बैठो...तुम खाना शुरू करो..( मैं तो खा ही रहा हूँ ) ‘ तभी दोस्त ने बड़े भाई का कालर पकड़ उसे जोर का धक्का दिया,वह दूर फेंका गया....गिर गया. मैं फिर घबराकर खडा हो गया. दोस्त का भाई उठकर मेरे पास आया, बोला- ‘ आप बैठ जाइये...खाना शुरू कीजिये...’ मैं पुनः बैठ गया और वे फिर गूँथ गए...जब-जब मैं खड़ा होता, दोनों में से कोई एक आता और मेहमाननवाजी निभाते कहता- ‘ आप इत्मीनान से खाएं ...कुछ चाहिए तो रमेशर से मगवाएँ..‘
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? सामने लजीज फिश-फ्राई, चिकन-मसाला महक रहा था...पेट में पर्याप्त से भी ज्यादा भूख थी...और मैं इतना लाचार कि चख भी नहीं पा रहा था. चुपचाप लड़ाई खत्म होने की प्रतीक्षा में था....पर लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रहा था. लड़ते-लड़ते दोनों होटल से बाहर हो गए... मेहमान के लिए यक्ष प्रश्न छोड़ गए कि ऐसी स्थिति में मेहमान क्या करे ? पेट में लगी आग की लपटें बार-बार फिश-फ्राई को छूने करता पर मेहमान होने की मजबूरी इस बात के लिए निषेध करता. अंततः बिना कुछ खाए टेबल से उठ खड़ा हुआ. एक समझदार टाईप के बटलर ने जोर की आवाज में कहा- ‘ आप खाओ ना साहब...खाना ठंडा हो रहा है...इनका दिमाग अभी गरम है...ठंडा होते ही दोनों गरम खाना मांगेंगे...आप गरम खाने को क्यों ठंडा कर रहें हैं ? ‘ उसकी बात सुन बड़ा सुकून मिला. मैं बैठ गया.. .एकबारगी सोचा कि एक ही निवाले में सब साफ़ कर दूं पर सभ्यता नाम की चीज ने फिर मुझे विवश कर दिया...मैं बिना खाए-पिए उठकर होटल से बाहर आ गया. किसी बटलर ने रोका तक नहीं.
बाहर दाहिनी ओर के पानठेले में रमेशर खड़ा गुटका चबा रहा था. उससे पूछा कि माजरा क्या है ? तब उसने बताया कि यहाँ होटल में ‘ दारु ‘ भी मिलता है...जिस दरवाजे के भीतर दोस्त घुसा था, वहीँ दारू रखा होता है..अक्सर छोटा भाई जब भी आता है, चोरी से ‘ नीट ‘ पी जाता है और उसी अनुपात में उसमे पानी मिला देता है..कई दिनों से ग्राहक बिफरे पड़े थे कि यहाँ के दारू में नशा ही नहीं चढ़ता..पानी मिलाकर बेचते हैं.. बड़े भैय्या काफी दिनों से परेशान थे कि ये सब करता कौन है ? आज छोटे को रंगे हाथ नीट पीते और पानी मिलाते पकड़ा तो ये धमाल हुआ. बातें खत्म कर रमेशर होटल की ओर बढ़ा कि अचानक दोस्त फिर प्रगट हुआ- ‘ खाना हो गया ना ? चलो..चौरसिया के यहाँ बढ़िया पान खिलाता हूँ..’ वह एकदम ही नार्मल था जैसे कुछ हुआ ही ना हो..मैं आश्चर्यचकित और नतमस्तक था उसके इस असाधारण साधू-संतों वाले भाव पर. उसने नहीं बताया कि क्यूं धमाल हुआ..मैंने भी नहीं पूछा.
घर लौटते- लौटते रात के ग्यारह बज गए...दोनों का बिस्तर आजू – बाजू लगा था..मैं बिस्तर मे पसर गया..पर खाली पेट नींद कहाँ से आये ?..करवटें बदलता रहा..इस बीच वह फिर लापता हो गया..मुझे लगा, ‘ दुक्की ‘ गया होगा..बहुतों की आदत होती है..,खासकर गांववालों की. .पांच मिनट ही बीते होंगे कि अचानक बाजूवाले कमरे से फिर गाली-गलौज, मार-पीट का शोर उभरा.. ध्यान से सुना तो समझ गया कि ‘ गतांग से आगे ‘वाला पार्ट है... होटल वाले सीन का दूसरा भाग...
इस बार लड़ाई दो भाइयों के बीच नहीं थी शायद..कुछ और लोग भी जुड़ गए थे इस एपिसोड में...एकाध नारी-कंठ भी चीख रही थी...मैं दोस्त के लौटने का इन्तजार करता रहा...वह नहीं आया...मुझे नींद आ गयी.
सुबह उठा तो चाशनी वाली चाय लिये वह सामने ‘ गुडमार्निंग ‘ करते खड़ा था. मैंने झपटकर चाय सुड़क ली. डर था कि कहीं ये भी बेवफाई ना कर जाये. रात भर वह कहाँ था, न उसने बताया...न ही मैंने पूछा. चाय पीकर घर से बाहर निकले तो उसने मेहमांनवाजी का धर्म निबाहते कहा- ‘ चलो..नाश्ता करते हैं..’ घुमाते-फिराते फिर अपने होटल की ओर ले गया. पर होटल से पचास गज पहले ठिठका और जेब से एक दस का तुडा-मुड़ा नोट देते कहा- ‘ भैय्या मुझसे नाराज है यार..मैं नहीं जाऊंगा वहां...तुम जाकर भजिया-समोसा ले आओ..कहीं बैठकर खा लेंगे..’ मैंने तुरंत मना किया- ‘ अरे नहीं यार..कल रात मेहमान बनकर गया था..अब ग्राहक बनकर जाना अच्छा नहीं लगेगा..वैसे भी नाश्ता जरुरी नहीं...वो देख बस आ रही है मैं निकलता हूँ..घर जाकर कर लूँगा..’
‘ अरे नहीं यार...आज और रुक ना..कल साथ-साथ चलेंगे.. आज रात को रवेलीवालों का नाच है..खूब कामेडी वाला है..पूरी रात चलेगा..मजा आ जायेगा..’
मैंने मन ही मन कहा- कल रात का कार्यक्रम भी भला किसी ‘ कामेडी सर्कस ‘ से क्या कम था ? हाँ..मजा जरुर कुछ कम आया , पेट जो खाली था...पेट को याद करते ही फिर चूहे तांडव करने लगे.. बिना कोई उत्तर दिये मैं चलती बस में लटक गया.. वह पीछे- पीछे दौड़ रहा था और ऊँची आवाज में चिल्ला रहा था–‘ हमारे होटल का फिश-फ्राई कैसा लगा ? चिकन-मसाला पसंद आया ना.. और आना....बाय... बाय...’
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प्रमोद यादव
दुर्ग, छत्तीसगढ़
मोबाइल-०९९९३०३९४७५
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