-ललित गर्ग- मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी होती है उसका अहंकार। अहंकार प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्व है। जो साधक विनम्र एवं ऋजु नहीं होता, उसक...
-ललित गर्ग-
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी होती है उसका अहंकार। अहंकार प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्व है। जो साधक विनम्र एवं ऋजु नहीं होता, उसके लिये सत्य के दरवाजे नहीं खुल सकते। अहंकार के वशीभूत हुआ व्यक्ति यह सोचता है कि यदि मैं झुक गया और सह लिया तो लोग मुझे छोटा एवं कमजोर समझकर मेरी उपेक्षा करेंगे परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। वास्तव में देखा जाये तो नम्र या विनीत होना कमजोरी या कायरता की नहीं, महानता की निशानी है और इसमें से ही जीवन की सार्थकता उजागर होती है।
भगवान महावीर की आर्षवाणी -‘धम्मो शुद्धस्थ चिट्ठई’ जो ऋजुता और विनम्रता की गुणवत्ता को उजागर करती है। ईसा मसीह के अनुसार ईश्वर का साम्राज्य वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसका मन बच्चे की भांति निश्छल, पवित्र एवं ऋजु होता है। ऋजु व्यक्ति ही सत्य की साधना कर सकता है क्योंकि ऋजुता और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैंे। अहंकार सत्य साधना की सबसे बड़ी बाधा है। प्रत्येक मनुष्य के मन में यह आकांक्षा रहती है कि वह महान कहलाये, यशस्वी कहलाये, लोग उसकी प्रशंसा करें, उसके बड़प्पन का गुणगान करें। कोई भी व्यक्ति छोटा नहीं कहलाना चाहता। वस्तुतः हमारी सरलता, विनम्रता तथा ऋजुता जीवन की सार्थकता का मुख्य आधार है।
महापुरुषों का कथन है कि झुकने वाला व्यक्ति कभी छोटा या कमजोर नहीं होता बल्कि वह बड़ा और मजबूत होता है। विनम्र एवं सत्यशोधक दृष्टि का ही परिणाम है कि महापुरुषों पर अहंकार हावी नहीं हो पाता है। फल से लदी हुई डाल झुकी हुई होती है साथ ही सहनशील भी। तराजू का वजनदार पलड़ा कम कीमतवाला तथा महत्वहीन होता है और उसी की कीमत भी अधिक होती है। इसके विपरीत उठा हुआ पलड़ा कम कीमतवाला तथा महत्वहीन होता है। इसी प्रकार अहंकारी आदमी भी अपनी कृत्रिमता, चापलूसी से तना और अकड़ा होता है। वस्तुतः वह कमजोर होता है। इसलिए शीघ्र ही क्रुद्ध और उत्तेजित होकर भभकने लगता है। अहंकारी व्यक्ति अनुकूलता में अपनी मनुष्यता को छोड़ देता है। पैसे, प्रतिष्ठा, पदवी और पांडित्य को वह हजम नहीं कर सकता। अतः उसे अपच हो जाता है और वह निरंकुश हो जाता है। एल्बर्ट आइंस्टीन ने इसी सन्दर्भ में कहा है कि सफल व्यक्ति होने का प्रयास न करें, अपितु गरिमामय व्यक्ति बनने का प्रयास करें।’
एक बार एक सेठ ने दो विद्वानों को भोजन पर आमंत्रित किया। आमंत्रित विद्वानों का सेठ ने खूब आदर-सत्कार किया। उनमें से एक विद्वान जब स्नान करने गया तो सेठ ने दूसरे विद्वान से कहा, ‘महाराज! आपके मित्र तो महाज्ञानी लगते हैं।’ वह विद्वान यह प्रशंसा बर्दाश्त न कर सका, उसका अहंकार आहत हुआ। उसने कहा, ‘अरे काहे का महाज्ञानी, यह तो निरा बैल है।’ यह सुनकर सेठ चुप हो गया। जब दूसरा विद्वान स्नान करने गये तो सेठ ने पहले विद्वान से कहा, ‘महाराज, आपके मित्र तो बहुत विद्वान मालूम पड़ते हैं।’ इस पर पहले विद्वान का अहंकार भी फूफकराने लगा और उसने कहा, ‘सेठजी यह आप क्या कह रहे हैं। उसे विद्वान कहना तो विद्वता का अपमान करना है। वह तो कोरा गधा है गधा।’ जब दोनों भोजन करने बैठे तो एक विद्वान के आगे घास और दूसरे के आगे भूसा रख दिया गया। इस पर दोनों क्रोध में बौखलाकर बोले, ‘सेठ जी, आप हमें अपमानित कर रहे हैं।’ इस पर सेठ ने विनम्र भाव से कहा, ‘आप लोगों ने ही एक-दूसरे को बैल और गधा कहा। बस गधे और बैल के योग्य ही मैंने भोजन की व्यवस्था की है। इसमें मेरा क्या दोष। मैं तो आप दोनों को विद्वान समझता था पर आप तो घोर अहंकारी निकले।
श्री रामकृष्ण परमहंस ने सही कहा कि-‘‘ आपस में जो दूसरे को बड़ा समझता है, वास्तव में वही व्यक्ति बड़ा होता है।’’ लेकिन हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो इस कटु सत्य को मन से स्वीकार करने के लिए तत्पर होते हैं। महान चिंतक, विचारक और दार्शनिक रस्किन ने सच ही कहा है कि विनम्रता किसी भी महान व्यक्ति के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता होती है।
धन, वैभव और सत्ता के कारण मनुष्य अभिमानी और निरंकुश हो जाता है, इतिहास इस सत्य का साक्षी है। हिरण्याकश्यप, कंस, रावण, हिटलर, सिकन्दर, नादिरशाह, चंगेज खां, औरंगजेब, इदी अमीन, सद्दाम हुसैन आदि निरंकुश शासकों के नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं जिनके अत्याचारों की गाथा को कभी भुलाया नहीं जा सकता। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि अपनी अज्ञानता का अहसास होना ज्ञान की दिशा में एक बहुत बडा कदम है। ठीक इसी तरह अहंकार से मुक्ति पाएं बिना जीवन को सफल नहीं बनाया जा सकता।
अहंकार एवं अभिमानी के नाग को वश में किए बिना कोई भी व्यक्ति या साधक प्रगति नहीं कर सकता, जीवन की समग्रता को उद्घाटित नहीं कर सकता। भगवान बुद्ध से पूछा गया कि ध्यान किसे कहते हैं? बुद्ध ने एक शब्द में उत्तर दिया- विनम्रता।
भगवान बुद्ध के परम शिष्य आनन्द ने एक बार डरते-डरते उनसे पूछा-‘‘प्रभो, प्रवचन देते समय आप तो उच्च आसन पर बैठते हैं, परन्तु श्रोताओं को नीचे बैठकर श्रवण करना पड़ता है। क्या यह गुरु शिष्य में भेद की स्थिति को उत्पन्न नहीं करता?’’ बुद्ध ने मुस्कुराते हुए कहा-‘‘आनन्द, क्या तुमने कभी झरने का जल पिया है?’’ आनन्द ने उत्तर दिया-‘‘हां, अनेकों बार।’’ तब तुमने देखा नहीं कि जल सदैव ऊपर से नीचे गिरता है और पथिक को नीचे रहकर ही पीना पड़ता है। मान लो, तुम किसी पहाड़ी पर खड़े हो और यदि वहीं से नीचे बह रही नदी का जल पीने की इच्छा करोगे तो क्या तुम्हारी इच्छा पूरी होगी? नहीं न। इसका कारण यह है कि नीचे रहकर ही किसी वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है।
कभी-कभी आदमी अपनी सत्ता अर्जित करने के लिए झूठी और कृत्रिम शानशोकत का प्रदर्शन करने से भी नहीं चूकता। अपने बड़प्पन को स्थापित करने के लिए वह कुछ समय के लिए भला और नेक आदमी बनने का नाटक करता है, विनम्रता और ईमानदारी का व्यवहार भी करके दिखाता है लेकिन अन्दर से वह नहीं बदलता है। जैसे ही उसका स्वार्थ एवं लोभ सामने आता है वह सारे आदर्श को ताक पर रख देता है। जैसे ही अनुकूल अवसर मिलता है उसकी लार टपकने लग जाती है। परिणाम यह होता है कि उसकी तथाकथित ऋजुता और विनम्रता की पोल खुल जाती है। मार्क ट्वेन अहंकारी लोगों से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं। क्योंकि ऐसे लोग आपकी महत्वकांक्षाओं को तुच्छ बनाने का प्रयास करते हैं, छोटे लोग हमेशा ऐसा करते हैं। लेकिन महान लोग आपको इस बात की अनुभूति करवाते हैं कि आप भी वास्तव में महान बन सकते हैं।
जो व्यक्ति लचीला होता है, विनम्र होता है, समय पर झुकना जानता है, उसे कोई तोड़ नहीं सकता, झुका नहीं सकता। जिस व्यक्ति का अहं पुष्ट होता है, अहंकारी होता है, वह ग्रहणशील नहीं हो सकता। जो ग्रहणशील नहीं होता, वह प्रयत्न करने पर भी कुछ नहीं पा सकता। क्योंकि कुछ न जानने पर भी वह स्वयं को पूर्ण मानता है और यही अहंकारमय पूर्णता विकास की सबसे बड़ी बाधा है। ईश्वर की इंसान के संबंध में इच्छा सिर्फ यही नहीं है कि उसे खुश रहना चाहिए, बल्कि यह भी है कि वह खुद को खुश रखने के लिये नम्र एवं ऋतु बने।
(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
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