समीक्षक : माहेश्वर तिवारी हिन्दी ही नहीं संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओं में भी विद्वानों ने गीत क्या है, उसकी रचना प्रक्रिया क्या है-...
समीक्षक : माहेश्वर तिवारी
हिन्दी ही नहीं संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओं में भी विद्वानों ने गीत क्या है, उसकी रचना प्रक्रिया क्या है- इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। यही नहीं कई गीत-कवियों ने भी गीतों के उन पद्यों के माध्यम से इन प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। गीत की विषय-वस्तु कैसी हो और उसकी सीमाएँ क्या हों, इसे निराला से लेकर वीरेंद्र मिश्र तक की गीत-यात्रा की पड़ताल करते हुए देखा जा सकता है।
हिन्दी के वरिष्ठ गीत कवि स्व. पंडित रूपनारायण त्रिपाठी ने अपने मुक्तक संग्रह ‘रमता जोगी- बहता पानी’ में गीत को केंद्र में रखकर कुछ मुक्तक लिखे हैं, जिसमें गीत क्या है इसकी चर्चा तो है ही, गीत लिखने की प्रक्रिया और उसके प्रेरक तत्वों की भी चर्चा की है। उनके दो मुक्तक हैं-
हार लिखता हूँ जीत लिखता हूँ
आँसुओं से अतीत लिखता हूँ
सैकड़ों गम निचोड़ता हूँ तो
एक रंगीन गीत लिखता हूँ।
इसी आशय से जुड़ी बात उन्होंने अपने एक अन्य मुक्तक में भी कही है-
फूल का एहतराम करता हूँ
चाँदनी को प्रणाम करता हूँ
आँसुओं के नगर में रहकर मैं
गीत का इंतज़ाम करता हूँ
गीत कविता की चर्चा करते हुए हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान डा. आनंद प्रकाश दीक्षित ने लिखा है- ‘गीत वास्तव में सृष्टि की प्रकृति है। वायु की सनसनाहट, पानी की कल-कल, पक्षियों की काकली, सभी कुछ तो संगीतमय है। मनुष्य तो हँसता-जीता भी गीत के साथ है। चाहे वह अकेला सुनसान पथ पर चले, चाहे स्नानागार में नहाए, चाहे कारख़ाने में मज़दूरी करे और चाहे खेत-खलिहान में चरे-विचरे, सभी कहीं वह गाता है। चक्की पीसती, धन कूटती, पानी भरती महिलाएँ गीत गा-गाकर अपना मन बहला लेती हैं। गीत गाना मानव का स्वभाव है।’ यह गीत की जीवन में व्याप्ति की ही स्वीकृति है। गीत की इसी व्याप्ति की ओर प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ने भी संकेत करते हुए लिखा है, ‘गीत काव्य की परिध् िमें विशाल मानव समाज और व्यक्ति मात्रा दोनों से संबंध् रखने वाली सभी अनुभूतियाँ आ जाती हैं। प्रेम, आशा, आकांक्षा, निराशा, वेदना, उल्लास, देशभक्ति सभी गीत का विलय बन सकते हैं। यथार्थ अनुभूति, गहरी भावना के साथ-साथ भाषा सौंदर्य और कल्पना सौष्ठव तो गीत में होना ही चाहिए।’
गीत के संदर्भ में व्यक्त इन अवधरणाओं पर गहराई से विचार करने पर आनंद गौरव के गीत-जनपद में प्रवेश करें तो उनके गीत इन्हीं साँचों में ढलकर निकलते हुए लगते हैं। आनंद गौरव ने कविता के लगभग सभी रूपों, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहा की छांदसिकता को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना है। यही नहीं, उन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं, लेकिन मूलरूप से उनका व्यक्तित्व एक गीतकवि का ही है। अब तक उनकी चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
गीत कैसे हों, उनकी विषय वस्तु कैसी हो, ‘साँझी-साँझ’ के रचनाकार आनंद गौरव अपने एक गीत में ही उसकी चर्चा करते हैं।
द्वेष-क्लेश मिट जाएँ ऐसा गीत रचें
मैं तुम हम हो जाएँ ऐसा गीत रचें
भौतिकता का ताना-बाना झूठा है
नैतिकता का वैभव गान अनूठा है
तम उजले हो जाएँ ऐसा गीत रचें।
तमस को उजाले से मारना ही तो सच्चा सृजन-धर्म है। हमारे ऋषियों ने भी तो यही कल्पना-कामना की है, जब उन्होंने रचा- तमसो मा ज्योतिर्गमय। इस उदात्त चेतना के कारण ही तो कवि को कवि-मनीषी, परिभू, स्वयंभू कहा गया है।
आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी में इस तरह फँसा है कि वह अपनी आकांक्षाओं, अपने सपनों को साकार करने के लिए यहाँ से वहाँ भागता फिर रहा है, एक बंजारे की तरह। इस भाव स्थिति पर हिंदी नवगीत के एक चर्चित हस्ताक्षर डा. सुरेश ने लिखा है-
इस नगर हैं, उस नगर हैं
पाँव से बाँधे सफर हैं
हैं थके हारे,
हम तो ठहरे यार बंजारे।
इसी भावबोध् को आनंद गौरव अपने शब्दों में इस तरह व्यक्त करते हैं-
नगर-नगर, गाँव-गाँव
धूप-धूप छाँव-छाँव
बंजारा बन भटका मन।
इसी गीत में वे आगे लिखते हैं-
दूरियाँ मिटा न सके युग-प्रवाह सपनों से
मोड़ हर गली के बिछड़ा कोई अपनों से
अपनों की खोज में परायों से अटका मन
बंजारा बन भटका मन।
और इस बंजारे मन की त्रासदी यह है कि-
सपनों की चाहत सपना बन गई हमको
हर झूठी आहट घटना बना गई हमको
मत पूछो कितनी बार शूली पे लटका मन
संवेदनशील मन दूसरों से सुख में से भी अपने दुःख की पीड़ा को कम कर लेता है, क्योंकि उसके भीतर स्व और पर का विभेद नहीं होता है। वह टीस और हँसी दोनों को समभाव से ग्रहण करता है। गीता के इस श्लोक की तरह- सुख-दुख समौहृता, हानि-लाभो जया-जयी। कवि गौरव के पास भी ऐसा ही उदात्त मन है, तभी तो वह कह उठते हैं-
काँटों को भी गले लगाया
फूलों का भी मन बहलाया
सबके सुख में मैंने छिपकर
अपना दुःखता मन बहलाया।
महाप्राण निराला ने कभी लिखा था-
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
भीतर से भर दिया गयाहूँ।
लेकिन ‘साँझी साँझ’ के गीतकवि का समय, बोध् और चुनौतियाँ अलग हैं, यहाँ तो-
स्वप्न नए लेकर सोते हैं
अपनों को हर पल खोते हैं
बाहर से स्वस्थ दीखते पर
भीतर से घुने हुए हैं हम।
यह इस कारण है कि लबादे ओढ़े गए हैं और अपनी अस्मिता को आध कर दिया गया है। सब सुविधाभोगी हो गए हैं। अपने को साफ-सुथरा सि( करने के लिए दूसरों के दामन से अपने काले हाथों की कालिख पोतने के अभ्यासी लोगों के बीच कोई कीचड़ से कमल चुनने की ज़हमत क्यों उठाए।
सब सफलता चाहते हैं
कौन दुर्गम-खोजता है
दूसरों के दामनों से
हाथ मैले पोंछता है
कीच से कंचन निकाले
है कहाँ वह कर्म वंदन
ऐसी त्रासदियाँ इस लिए भी संभव हैं कि समय अर्थप्रधान हो गया है। हवा में सिर्फ नारों की भीड़ है। पीड़ा के होठों पर सत्ता के ताले जड़ दिए हैं। यह इसलिए भी हैं क्योंकि-
नित्य समाचारों में, पर्चों-अख़बारों में
सेवा का भाषण और त्याग है उभारों में
मेहनत पर है फिर भी सत्ता अंध्यिारों की।
हिन्दी गीत में महानगरीय जीवन के बीच संवेदनशील व्यक्ति की पीड़ा का चित्रा बार-बार उकेरा गया है। आनंद गौरव भी लिखते हैं-
भीगे हैं नम यादों से
रेतीले स्वर जैसे हैं
हम महानगर जैसे हैं।
हाथ रोज़ मिलते भी हैं
पाँव साथ चलते भी हैं
दौड़-भाग शंकाओं में
सँभलते फिसलते भी हैं
भीड़ में अकेले हम हैं
घर में बेघर जैसे हैं।
ऐसे में अपनी आकांक्षाओं, अपने सपनों को साकार करना संभव ही नहीं है। वे आँखों में आकर भी फिसल-फिसल जाते हैं, समय मुट्ठी से रेत-सा फिसल जाता है-
एक स्वप्न भी नहीं जिया
युग हाथों से फिसल गए
जाने कब आजकल गए।
लोग अपनी जड़ों से कट गए हैं- नवता के खोखले आग्रहों में अपनी पहचान खोते जा रहे हैं और इसका भान भी नहीं है-
भूले पुरखों की भाषा
हम नए प्रयोग हो गए
केवल उद्योग हो गए।
गाँव रहे न रहे शहर
लक्ष्यों से बेख़बर हुए
करुणा तज वर ली निंदा
स्वार्थ सने हर प्रहर हुए
त्याग कर्म का नारा थे
सामाजिक रोग हो गए।
व्यवस्था इतनी संवेदनहीन हो गई है कि अपनी स्वार्थसिद्धि से बाहर निकलकर कुछ देखना ही नहीं चाहती। देश का युवा शिक्षित वर्ग बेरोज़गार है। गाँव से शहर तक उसके ख़ाली हाथ जूझते नज़र आते हैं-
शहरों गाँवों में, गलियों में चैराहों पर
भटक रही शिक्षित पीढ़ी निरीह राहों पर
कवि को विवश होकर लिखना पड़ता है-
कविता का हर शब्द व्यथित है
कुम्हला रहे छन्द गीतों के।
समकालीन जीवन की त्रासदियों पर कवि की दृष्टि बार-बार जाती है और आहत हो उठती है। जब देखता है कि आदमीयत मर रही है और बस्तियाँ स्पन्दनहीन अपनी जगह हैं-
आदमी मरता रहा पर बस्तियाँ जिन्दा रहीं
यूँ शहर में ज़िन्दगी की तख़्तियाँ ज़िन्दा रहीं।
स्वहित की लिप्सा इतनी प्रबल हो गई है कि उसे अपने लोभ-लाभ से अलग कुछ भी दिखलाई नहीं दे रहा, वह यह देखने में असमर्थ है-
नृत्य नंगा हर दिशा वातावरण पर स्वार्थ का
चुक गया जैसे अनूठा हौसला परमार्थ का
सभ्यता के हाथ में बैसाखियां जिन्दा रहीं
लेकिन सारी असंगतियों-विपरीतताओं के बावजूद गीतकवि निराश नहीं होता। उसे विश्वास है कि यदि लोग सचेत और संकल्पबद्ध हो जाएँ तो स्थितियाँ बदल सकती हैं। इसलिए वह आह्वान करता है-
ग़लतियों को सुधर लेते हैं
आइए कल सँवार लेते हैं
धूल दरपन की साफ़ करनी है
भूल आपस की माफ़ करनी है
दूर नफरत दिलों से करनी है
दोस्ती चाहतों से करनी है
और तब्दीलियाँ भी करनी हैं
बैठते हैं विचार लेते हैं।
‘साँझी-साँझ’ का कवि पर्यावरण की भी फिक्र करता है। जो है उसे वह बदलना चाहता है-
यूँ अपमान प्रकृति का सहना
हमें नहीं स्वीकार
करे हरियाली हाहाकार
चिपको और अप्पिको जैसे
आंदोलन बिसराए
महाजनी पोषण के हित में
स्वारथ-शोध् जगाए
वन-निगलन की नीति बनी
जीवों पर अत्याचार
करे हरियाली हाहाकार
बाज़ारवाद के ख़तरों से भी कवि अनजान नहीं है। उसे मालूम है कि आज बाज़ार हमारे नातों-रिश्तों तक पहुँच गया है। यहाँ सब कुछ, यहाँ तक कि रागात्मकता भी बाज़ार की गिरफ्त में आ गई है। इसे वह अनदेखा नहीं कर सकता। इसलिए लिखता है-
बिकने के चलन में यहाँ
चाहते उभारों में हैं
हम-तुम बाज़ारों में हैं
बेटे का प्यार बिका है
माँ का सत्कार बिका है
जीवन साथी का पल-पल
महका शृंगार बिका है
विवश क्रय करे जो पीड़ा
ऐसे व्यवहारों में हैं
आनंद गौरव ने लोकधुन की परंपरा का एक गीत भी इस संग्रह में दिया है- ब्रज होली की मिठास से घुला- इसमें लोकस्वर भी है और लोकोत्सव की महक भी-
अबकी होरी पै आय जइयो
झूठी बात बनइयो ना जी
मोय भले जी भर तड़पइयो
मुन्ना को तरसइयो ना जी
कुछ गीत देश के प्रति भी हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह विविध् अनुभूतियों का गुलदस्ता बन गया है जो अपने पाठक को रसमग्न भी करेगा और सचेत भी। एक और बात विशेष रूप से ध्यातव्य है कि कुछ गीतों में कवि ने परंपरागत तुकों के आग्रह को शिथिल करके स्वरान्त से काम लिया है, किन्तु लयवत्ता के प्रति सावधन रहते हुए। यह लोकगीतों की परंपरा में छान्दसिक व्याकरण का प्रयोग कहा जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि स्व. केदारनाथ अग्रवाल ने अपने चर्चित गीत ‘माझी न बजाओ वंशी / मेरा मन डोलता’ में किया है।
‘साँझी-साँझ’ कवि आनंद ‘गौरव’ की अद्यतन श्रेष्ठ कृति है। मुझे विश्वास है कि हिन्दी जनपद के सुधी पाठकों में वह पूर्व कृतियों की तरह ही चर्चित और समादृत होगी। शुभकामनाओं सहित-
समीक्ष्य संग्रह- साँझी साँझ, रचनाकार- आनंद कुमार 'गौरव' (मुरादाबाद), प्रकाशक- नमन प्रकाशन, 4233/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण-२०१५, मूल्य- २०० रूपये , पृष्ठ- १२८,
समीक्षक : माहेश्वर तिवारी , हरसिंगार’, ब/म-48, नवीननगर, मुरादाबाद-244001
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