डॉ0 दीपक आचार्य सृजन और विध्वंस प्रकृति का शाश्वत सिद्धान्त है। इसी प्रकार संयोग और वियोग का भी शाश्वत सिद्धान्त है। प्रकृति का प्र...
डॉ0 दीपक आचार्य
सृजन और विध्वंस प्रकृति का शाश्वत सिद्धान्त है। इसी प्रकार संयोग और वियोग का भी शाश्वत सिद्धान्त है। प्रकृति का प्रत्येक कण अणु-परमाणुओं से निर्मित है और इनकी हलचल हर क्षण होती रहती है। एक तरफ सृजन का माहौल रचा रहता है दूसरी तरफ विध्वंस का कोई न कोई स्वरूप किसी न किसी रूप में सामने आता रहता है।
यह पूरी सृष्टि संयोग और वियोग की धुरी पर चल रही है। आवश्यकता के अनुरूप संयोग होता है और यही संयोग एक समय बाद बिखरकर वियोग मेंं बदल जाता है। कभी-कभार दैवीय और जगत के कार्यों के लिए संयोग होता है, कभी वैयक्तिक लेन-देन और हिसाब चुकाने अथवा पुरातन चक्र का पुनरावर्तन करने के लिए संयोग की भावभूमि बनती है।
संयोग में कभी भी यह शर्त नहीं होती कि कोई एक समान है, समानधर्मा या समानकर्मा है अथवा स्वभाव, गुणावगुणों और चरित्र में कोई समानता है। यह कहीं भी, किसी से भी होना संभव है जिसमेें सम-सामयिक परिस्थितियां और मिलन का अवसर उत्प्रेरक की ही तरह होते हैं।
यहाँ उत्प्रेरक संबंधों का स्रष्टा न होकर अनासक्त द्रष्टा होता है जो स्वयं अपरिवर्तित रहता है। बात किसी पदार्थ, धातु या तत्वों की हो अथवा किन्हीं दो आत्माओं की, व्यक्तियों की अथवा किसी भी प्रकार के जड़-चेतन की।
हर मामले में समय सापेक्ष संयोग होता है। संयोग निर्मित मिश्रण का अपना प्रभाव असरकारी रहता है, नवीन सृजन की भावभूमि रचता है और फिर एक न एक दिन वियोग का वह समय आ ही जाता है जब विखण्डन हो जाता है और तत्व, धातु या विचार अपने मौलिक स्वभाव में आ जाते हैं जहाँ मिश्रित स्वभाव का असर पूर्णरूपेण समाप्त होकर सभी स्वतंत्र हो जाते हैं।
हर तत्व और पदार्थ का संयोग-वियोग स्वाभाविक क्रम है जो प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुरूप चलता रहता है और इस पर किसी का कोई नियंत्रण न रहा है, न रहेगा। काल सापेक्ष हर गतिविधि अपने हिसाब से चलती और नियंत्रित रहती है और इसे अपने हिसाब से ढालने का काम थोड़ी सूझ-बूझ से कर लिया जाए तो इसके असर को निश्चित समय में अधिक से अधिक अनुभव किया जा सकता है।
संवेदनाओं से भरे इंसानों की ही बात की जाए तो दुनिया में स्त्री और पुरुष आधे-अधूरे पैदा होते हैं और जीवन में एकात्मता और अद्वैत भाव का अनुभव होने पर पूर्णता का अनुभव किया जा सकता है। यही स्थिति सभी प्रकार के प्राणियों की है।
मनुष्यों के मामले में मुद्राओं, भावों, संवेदनाओं, विचारों, तन्मात्राओं, चक्रस्थ प्रवाहों, मानसिकता और सभी प्रकार के कई पहलू काम करते हैं इस कारण आदमी जब भी किसी से संबंध बनाता है तक काफी सोच विचारकर अपने सारे हिताहितों को ध्यान में रखकर बनाता है।
अक्सर संबंध बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है लेकिन यह यथार्थ उन्हीं संबंधों का होता है जिसमें कोई न कोई अपेक्षा या स्वार्थ भरा हो। अन्यथा बहुत सारे संबंध बिना किसी स्वार्थ के अनायास हो जाते हैं जिनकी पहले से कभी कोई सोच संभव होती ही नहीं। अचानक कोई सा कारण उपस्थित हो जाने पर आकस्मिक रूप से संबध बन जाते हैं।
यह भी देखा गया है कि सायास संबंधों के मुकाबले अनायास बन जाने वाले तमाम प्रकार के संबंध ज्यादा टिकाऊ और मीठे होते हैं तथा दोनों पक्षों के लिए सुकूनदायी और लाभ देने वाले होते हैं।
संबंध चाहे सायास हों अथवा अनायास, इन सभी में शाश्वत मौलिकता देखी जाती है। कुछेक दैवीय कृपा से भरे रिश्तों को छोड़ दिया जाए तो सारे संबंधों में जहाँ-जहाँ संयोग देखा जाता है वहाँ कालान्तर में वियोग आता ही आता है।
जिस अनुपात में हम संयोग का आनंद पाते हैं उसी के अनुपात में वियोग का दुःख प्रदान करने वाला समय आता ही है। बात पति-पत्नी, पिता-पुत्र या पुत्री, भाई-बहन के रिश्तों की हो या कोई सा कौटुम्बिक रिश्ता हो, एक समय तक ही स्थिर रह पाता है। इसके बाद इसमें बिखराव आने लगता है। चाहे वे खून के रिश्ते ही क्यों न हों। पारिवारिक संस्कारों की मजबूत जड़ों से जो लोग बंधे होते हैं वहाँ संबंधों में चाहे कितना वियोग हो, कभी अनुभव नहीं होता।
मोटी बात यह है कि जिन संबंधों को हम अपना स्वत्वाधिकार या एकाधिकार मानकर कसकर पकड़े रखना चाहते हैं वे सारे संबंध हमारी मुट्ठी से छूटते ही हैं, लेकिन जिन संबंधों को ईश्वरीय कृपा या सहजता के साथ हम स्वीकारते हैं उन संबंधों का स्थायित्व अपेक्षाकृत अधिक ही होता है।
संयोग अवस्था में जो लोग पूरी दुनिया से अपने आपको अलग मानकर बौराने लगते हैं, संबंधों को ही पूरी दुनिया समझते हैं, दूसरों को कुछ नहीं समझते, दो दिलों के संबंधों के आगे अपने सारे दूसरे पारिवारिक, सामुदायिक और सामाजिक रिश्तों को भुला बैठते हैं, वे सारे के सारे संबंध निश्चित कालावधि में संयोग का चरम आनंद दे जरूर सकते हैं मगर इनका कोई स्थायित्व नहीं रहता।
एक न एक दिन इन संबंधों की कड़ी को टूटना ही है। और जब बिखराव आ जाता है तो ऎसा कि एक-दूसरे की तरफ देखने को जी नहीं चाहता। संंबंधों का पूरा का पूरा गणित आसक्ति से जुड़ा हुआ है। संबंधों की माधुर्यता का स्तर चरम होना चाहिए लेकिन सामाजिक जीवन जीते हुए हमें अपने दूसरे सारे संबंधों के समीकरणों की हत्या कर डालने का कोई अधिकार नहीं है।
संबंधों का एकतरफा पलड़ा जब बहुत भारी हो जाता है और दूसरे सारे पक्षों की घोर उपेक्षा होने लगती है तब हमारे संबंधों के सारे संतुलन गड़बड़ा जाते हैं और इससे हमारा जीवन तो असंतुलित होकर बेकार हो ही जाता है, हमारे साथ संबंध निभाने वाले, परिवारजनों और सामाजिक बंधुओं से भी हमारा नाता करीब-करीब टूट जाता है।
अपने आस-पास के लोग भले ही हमें अपना मानें लेकिन इस अवस्था में अपना कोई नहीं होता क्योंकि वियोग की चरमावस्था भी हमें ही भुगतनी है। अथाह प्रेम रखें, अपार श्रद्धा-आस्था और स्नेह का बर्ताव करें लेकिन प्रत्येक क्षण यह भी याद रखें कि संयोगजन्य आनंद का दूसरा पहलू भी है जिसे आना ही आना है, और एक समय आएगा ही।
जो लोग इस परम सत्य को जानते हैं वे अनासक्त होकर संबंधों को निभाने की कोशिश करते हैं। संयोगों का चरम आनंद पाते रहने के बावजूद इस सत्य का स्मरण हमेशा बनाए रखते हैं कि यह नित्य नहीं है।
कोई कारण नहीं बनेगा तो प्रकृति किसी न किसी प्रकार शरीर का क्षरण कर डालेगी, तब तो मजबूरी में ही सही वियोगावस्था का दुःख भोगना ही भोगना है। अच्छा हो कि हर स्थिति में समत्व को अपनाएं, अनासक्त रहकर आनंद पाएं और प्रेम की गंगा में डुबकी लगाते हुए नहाते रहें।
असल में जो लोग संयोगावस्था को मर्यादित और अनुशासित रहकर बिना बौराये निरहंकारी रहते हुए व्यतीत कर आनंद पाते हैं उन्हें वियोगावस्था का दुःख भारी नहीं लगता क्योंकि यहाँ दोनों ही कालजयी स्थितियों का भान होता है जो अपने आप समत्व भाव ले आता है।
संयोग और वियोग का यह सनातन चक्र युगों-युगों से यों ही चला आ रहा है, चलता रहेगा, समझना हमें ही है। जो समझ जाते हैं वे निहाल हो जाते हैं और नासमझ अपनी पूरी जिन्दगी को शोक-संताप तथा रुदन में व्यतीत करते हुए यह जन्म भी खराब करते हैं और आने वाले जन्मों को भी।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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