प्रोफेसर महावीर सरन जैन सन् 2000 से 2003 की कालावधि में विश्व स्तर पर यह स्वीकार किया गया कि संसार में चीनी भाषा बोलने वालों के बाद सब...
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सन् 2000 से 2003 की कालावधि में विश्व स्तर पर यह स्वीकार किया गया कि संसार में चीनी भाषा बोलने वालों के बाद सबसे अधिक संख्या हिन्दी भाषियों की है।
सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आंकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् 1991 के सैन्सस ऑफ् इण्डिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ जुलाई, 1997 में प्रकाशित हुआ (दे0 Census of India 1991 Series 1 - India Part I of 1997,Language : India and states – Table C – 7)
यूनेस्को की ‘टेक्नीकल कमेटी फॉर द वॅःल्ड लैंग्वेजिज रिपोर्ट’ ने अपने दिनांक 13 जुलाई, 1998 के पत्र के द्वारा यूनेस्को-प्रश्नावली के आधार पर हिन्दी की रिपोर्ट भेजने के लिए भारत सरकार से निवेदन किया। भारत सरकार ने उक्त दायित्व के निर्वाह के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन को पत्र लिखा। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने दिनांक 25 मई, 1999 को यूनेस्को को अपनी विस्तृत रिपोर्ट भेजी।
प्रोफेसर जैन ने विभिन्न भाषाओं के प्रामाणिक आँकड़ों एवं तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया कि प्रयोक्ताओं की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद दूसरा स्थान हिन्दी भाषा का है। रिपोर्ट तैयार करते समय प्रोफेसर जैन ने ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया से अंग्रेजी मातृभाषियों की पूरे विश्व की जनसंख्या के बारे में तथ्यात्मक रिपोर्ट भेजने के लिए निवेदन किया। ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने इसके उत्तर में गिनीज बुक आफ नालेज (1997 संस्करण, पृष्ठ-57) फैक्स द्वारा भेजा। ब्रिटिश काउन्सिल द्वारा भेजी गई सूचना के अनुसार पूरे विश्व में अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या 33,70,00,000 (33 करोड़, 70 लाख) है। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी आबादी 83,85,83,988 थी। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या 33,72,72,114 है तथा उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने वालों की संख्या का योग 04,34,06,932 थी। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार हिन्दी एवं उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने वालों की संख्या का योग 38,06,79,046 बैठता था जो भारत की पूरी आबादी का 44.98 प्रतिशत था। प्रोफेसर जैन ने अपनी रिपोर्ट में यह भी सिद्ध किया कि भाषिक दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि सभी देशों के अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या के योग से अधिक जनसंख्या केवल भारत में हिन्दी एवं उर्दू भाषियों की है। रिपोर्ट में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण भारत में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार बहुत अधिक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक-समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है जो हिन्दी के सार्वदेशिक व्यवहार का प्रमाण है। भारत की राजभाषा हिन्दी है तथा पाकिस्तान की राज्यभाषा उर्दू है। इस कारण हिन्दी-उर्दू भारत एवं पाकिस्तान में सम्पर्क भाषा के रूप में व्यवहृत है।
विश्व के लगभग 93 देशों में हिन्दी का या तो जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रयोग होता है अथवा उन देशों में हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की सम्यक् व्यवस्था है। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा सीमित है। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु हिन्दी बोलने वालों की संख्या अंग्रेजी भाषियों से अधिक है।
भाषिक आंकड़ों की दृष्टि से प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर सन् 2003 में प्रकाशित ”द वःल्ड अल्मानेक एण्ड बुक ऑफ फैक्ट्स (The World Almanac and Book of Facts, World Almanac Education Group” में तथा सन् 2000 में प्रकाशित “ऍथनॉलॉग (Ethnologue, Volume 1. Languages of the World: Edited by Barbara F. Grimes, 14th.Edition, SIL International” में चीनी भाषा के बोलने वालो की संख्या 800 मिलियन (80 करोड़), हिन्दी भाषा के बोलने वालें की संख्या 550 मिलियन (55 करोड़) तथा अंग्रेजी भाषा के बोलने वालों की संख्या 400 मिलियन (40 करोड़) प्रतिपादित की गई है।
कहने का तात्पर्य यह है कि सन् 2000 में प्रकाशित “ऍथनॉलॉग (Ethnologue, Volume 1. Languages of the World: Edited by Barbara F. Grimes, 14th.Edition, SIL International)” में हिन्दी भाषा के बोलने वालों की संख्या पचपन करोड़ तथा अंग्रेजी भाषा के बोलने वालों की संख्या चालीस करोड़ प्रतिपादित की गई थी। सन् 2000 में हिन्दी भाषा बोलने वाले अंग्रेजी बोलने वालों से पन्द्रह करोड़ अधिक थे। क्या पन्द्रह सालों में हिन्दी भाषी की जनसंख्या का प्रतिशत इतना अधिक घट गया कि अब “ऍथनॉलॉग“ अंग्रेजी भाषियों की संख्या तो चालीस करोड़ के लगभग ही प्रदर्शित कर रहा है मगर उसने हिन्दी भाषा के बोलने वालों की जनसंख्या पचपन करोड़ से घटाकर छब्बीस करोड़ दिखा दी है।
सन् 2001 की जनसंख्या के जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उनकी दृष्टि से हिन्दी के वक्ताओं की संख्या 422,048,642 है। उर्दू के वक्ताओं की संख्या 51,536,111 है तथा मैथिली के वक्ताओं की संख्या 12,179,122 है। भाषिक दृष्टि से हिन्दी एवं उर्दू में कोई अन्तर नहीं है तथा भाषावैज्ञानिक दृष्टि से मैथिली सहित हिन्दी भाषा-क्षेत्र के समस्त भाषिक रूपों की समष्टि का नाम हिन्दी है। इस आधार पर हिन्दी-उर्दू के बोलने वालों की संख्या (जिसमें मैथिली की संख्या भी शामिल है) है – 585,763,875 ( अट्ठावन करोड़, सत्तावन लाख, तिरेसठ हज़ार आठ सौ पिचहत्तर) । यह संख्या भाषा के वक्ताओं की है। भारत में द्वितीय एवं तृतीय भाषा के रूप में हिन्दीतर भाषाओं का बहुसंख्यक समुदाय हिन्दी का प्रयोग करता है। इनकी संख्या का योग अब 1000 (एक हजार मिलियन) अर्थात भारत में सौ करोड़ से कम नहीं है। इस संख्या में यदि हम विदेशों में रहनेवाले हिन्दी के प्रयोक्ताओं की संख्या भी जोड़ दें तो हिन्दी भाषायों की संख्या कितनी अधिक है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
जिस प्रकार भारत अपने 29 राज्यों एवं 07 केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्टि का नाम हिन्दी भाषा है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग में व्यक्ति स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्तर-क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग होता है। आप विचार करेंकि उत्तर प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी, अवधी, बुन्देली आदि भाषाओं का राज्य है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है। इसी प्रकार बिहार हिन्दी भाषी राज्य है अथवा मगही, वज्जिका, भोजपुरी, मैथिली, तिरहुत, नगपुरिया आदि भाषाओं का राज्य है। जब संयुक्त राज्य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत जितने राज्य हैं उन सबकी समष्टि का नाम ही तो संयुक्त राज्य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है: मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्दी का विकास अवश्य हुआ है किन्तु खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है। तत्वतः हिन्दी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्टि का नाम हिन्दी है।
हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का षडयंत्र अब विफल हो गया है क्योंकि 1991 की भारतीय जनगणना के अंतर्गत जो भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या का प्रतिशत उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड राज्य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्ड राज्य सहित) में 80.86, मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ राज्य सहित) में 85.55, राजस्थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्ली में 81.64 तथा चण्डीगढ़ में 61.06 है।
हिन्दी साहित्य की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है, हिन्दी साहित्य के इतिहास की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की भी समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है। हिन्दी की इस समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को जानना बहुत जरूरी है तथा इसे आत्मसात करना भी बहुत जरूरी है तभी हिन्दी क्षेत्र की अवधारणा को जाना जा सकता है और जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं तथा हिन्दी की ताकत को समाप्त करने के षड़यंत्र कर रही हैं उन ताकतों के षड़यंत्रों को बेनकाब किया जा सकता है तथा उनके कुचक्रों को ध्वस्त किया जा सकता है।
वर्तमान में हम हिन्दी भाषा के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हुए हैं। आज बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। आज हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के जो प्रयत्न हो रहे हैं सबसे पहले उन्हे जानना और पहचानना जरूरी है और इसके बाद उनका प्रतिकार करने की जरूरत है। यदि आज हम इससे चूक गए तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। मुझे सन् 1993 के एक प्रसंग का स्मरण आ रहा है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री को मध्य प्रदेश में ‘मालवी भाषा शोध संस्थान’ खोलने तथा उसके लिए अनुदान का प्रस्ताव भेजा था। उस समय भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह थे जिनके प्रस्तावक से निकट के सम्बंध थे। मंत्रालय ने उक्त प्रस्ताव केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक होने के नाते लेखक के पास टिप्पण देने के लिए भेजा। लेखक ने सोच समझकर टिप्पण लिखा: “भारत सरकार को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है”। मुझे पता चला कि उक्त टिप्पण के बाद प्रस्ताव को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया।
हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं मंदारिन भाषा-क्षेत्र –
जिस प्रकार चीन में मंदारिन भाषा की स्थिति है उसी प्रकार भारत में हिन्दी भाषा की स्थिति है। जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। मगर मंदारिन भाषा के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। उदाहरण के लिए मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हो पाते। उनमें पारस्परिक बोधगम्यता का अभाव है। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इस क्षेत्रीय भाषिक रूपों को लेकर वहाँ कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी विवाद पैदा करने का साहस नहीं कर पाते। मंदारिन की अपेक्षा हिन्दी के भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषिक-रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत अधिक है। यही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-क्षेत्र में पारस्परिक बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि हम हिन्दी भाषा-क्षेत्र में एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करे तो निकटवर्ती क्षेत्रीय भाषिक-रूपों में बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ताओं को अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से संवाद करने में कठिनाई होती है। कठिनाई तो होती है मगर इसके बावजूद वे परस्पर संवाद कर पाते हैं। यह स्थिति मंदारिन से अलग है जिसके चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ता अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से कोई संवाद नहीं कर पाते। मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हैं मगर हिन्दी के एक छोर पर बोली जाने वाली भोजपुरी और मैथिली तथा दूसरे छोर पर बोली जाने वाली मारवाड़ी के वक्ता एक दूसरे के अभिप्राय को किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं।
“ऍथनॉलॉग” ने अपनी ताजा रिपोर्ट में चीनी भाषा-क्षेत्र के समस्त क्षेत्रीय भाषिक-रूपों को चीनी भाषा के ही अंतर्गत स्वीकार किया है। “ऍथनॉलॉग“ के द्वारा हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट क्षेत्रीय भाषिक-रूपों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ मानकर उसके बोलने वालों की संख्या को अप्रत्याशित रूप से घटा देने का विचार नितान्त अतार्किक और अवैज्ञानिक है। लेखक का स्पष्ट एवं निर्भ्रांत मत है कि हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षड़यंत्रों को बेनकाब करने और उनको निर्मूल करने की आवश्यकता असंदिग्ध है।
हिन्दी एक विशाल भाषा है। विशाल क्षेत्र की भाषा है। अब यह निर्विवाद है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी संसार में दूसरे नम्बर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन, सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान
Professor Mahavir Saran Jain
( Retired Director, Central Institute Of Hindi )
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