डॉ0 दीपक आचार्य अपना पूरा जीवन ही एक चुनौती है। जब तक जीना है तब तक चुनौतियाँ का सामना करना ही करना है। चुनौतियां भी तब तक बनी रहने...
डॉ0 दीपक आचार्य
अपना पूरा जीवन ही एक चुनौती है।
जब तक जीना है तब तक चुनौतियाँ का सामना करना ही करना है।
चुनौतियां भी तब तक बनी रहने वाली हैं जब तक घट में साँस है।
कभी हम भीतर से हताश-निराश हो जाते हैं, कभी बाहर वाले लोग हमें निराश कर दिया करते हैं।
कारण सिर्फ एक ही है, और वह है अन्दर-बाहर की चुनौतियाँ।
जब तक मनचाहा होता रहता है तब तक हम मस्त बने रहते हैं, पता ही नहीं चलता कि मस्ती और आनंद का समय कहाँ और कैसे इतनी जल्दी-जल्दी बीत गया।
सारा का सारा आनंद अकेले ही अकेले लूटते हुए जाने कब सब कुछ रिस कर शून्य आ जाता है, पता ही नहीं चला।
कोई अनचाहा हुआ नहीं कि लग जाते हैं शोर मचाने, चिल्लपों मचाते हैं, दुःखी होते हैं, औरों को याद करते हैं, सहयोग मांगते हैं और हर तरफ पीड़ाओं, समस्याओं और अभावों का रोना रोते रहते हैंं।
मौज-मस्ती का समय आ जाए तो खुद सारा एंजोय अकेले ही करते रहेंगे, किसी और की तरफ देखेंगे तक नहीं, न किसी को याद करेंगे, न कोई याद ही आता है। याद आए भी तो कैसे, हम दिमागी याददाश्त को परदा डाले सायास बाँधे रखते हैं, कहीं कोई याद न आ जाए।
हमेशा यही डर बना रहता है कि कहीं अपने एकान्तिक आनंद का कोई दूसरा-तीसरा भागीदार सामने नहीं आ जाए अन्यथा वो आनंद छीन भी जाएगा और बँटवारा हो जाने की पीड़ा अर्से तक सालती रहेगी, सो अलग।
फिर कुछ अनमना हो जाए, तो आसमान ऊँचा उठा लेंगे, उन सबको कोसेंगे जो हमारे साथ हैं, जिनसे हमारा साथ रहा है। तब हम किसी को भी नहीं छोड़ते। माता-पिता और गुरुजन हों या फिर कोई से नाते-रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र।
यहाँ तक कि हम भगवान को भी नहीं छोड़ते। उसे भी सुनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते जैसे कि भगवान हमारा बंधुआ मजदूर या नाबालिग घरेलू नौकर हो जिसने हमारी सारी समस्याएं अपने पर लेकर हमें जिन्दगी भर आनंद ही आनंद, लाभ ही लाभ प्रदान करने का ठेका ले रखा हो।
भगवान को इस तरह कोसते हैं जैसे कि उसने हमारे साथ किया हुआ कोई अनुबंध तोड़ दिया हो और हमारा परित्याग कर पराया ही हो गया हो।
बहुत सारे लोग अभावों, विपदाओं और मुश्किल प्रतिकूल परिस्थितियों में भगवान को धत्ता दिखा देते हैं, पूजा-पाठ और दर्शन-स्मरण छोड़ कर ठेंंगा ही दिखा देते हैं जैसे कि पूजा-पाठ या स्मरण के बिना भगवान का बहुत कुछ बिगड़ ही जाने वाला है या भगवान को हमारी गरज है।
ढेरों लोग सशर्त पूजा छोड़ देते हैं और यह उलाहना देते हुए कि जब तक वो हमारी समस्याओं और अभावों का खात्मा नहीं करेंगे तब तक सब बंद, बैठा रहे एक तरफ, हम पूछेंगे भी नहीं, न उस तरफ देखेंगे जहाँ भगवान को हमने छोटे से कोने में पड़ी आलमारी या मार्बल संरचना में कैद कर बिठा रखा है।
सर्वव्यापी को चंद फीट और इंच के घेरों में बांधे रखने का हुनर हमारे सिवा और किस प्राणी में हो सकता है।
बात जब अच्छे-बुरे वक्त की आती है तब यह समझना चाहिए कि अच्छा वक्त औरों को आनंद देने के लिए आता है जबकि बुरा वक्त अपने आपको निखारने का सुनहरा अवसर होता है जब सारे बहिर्मुखी और आडम्बरी लोगों की निगाह से दूर रहकर हम तसल्ली से आत्मचिन्तन कर सकते हैं, ईश्वर के निकट होने का अनुभव कर सकते हैं।
भीड़ और पाखण्ड के बीच न कोई आत्मस्थिति पा सकता है, न ईश्वरीय विभूतियों का अनुभव कर सकता है। इसके लिए एकान्त चाहिए और तीव्रतर कर्षण। यह तभी आता है जब आत्मा से कुछ संवाद हो। इस संवाद के लिए सांसारिक आनंद की बजाय आध्यात्मिक आनंद जरूरी होता है अथवा चरम स्तर का वैराग्यप्रदाता आत्मविषाद।
हम इंसानों की सबसे बुरी आदत यह हो गई है कि हम सभी यथास्थितिवादी हो गए हैं, जहां हैं, जैसे हैं वहां से न आगे बढ़ना चाहते हैं, न पीछे हटना। जीवन निरन्तर गतिमान है, कालचक्र अपनी निर्धारित धुरी पर लगातार घूमता हुआ समय को आगे से आगे खिसकाता जा रहा है।
काल के चक्र को न हमारे पुरखे रोक पाए हैं, न और कोई। सदियों का प्रवाह सदियों तक यहां तक कि प्रलयकाल और उसके बाद तक यों ही चलता रहने वाला है।
पुरखों ने तो काल के साथ-साथ चलते रहने और भागने की वह गणित सीख ली थी जिसकी वजह से आज हम संसार को आनंद का पर्याय मान बैठे हैं।
जहाँ जीवन है, वहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ हैं। ये चुनौतियाँ हमें क्षति पहुंचाने नहीं बल्कि हमें यथार्थ का बोध कराने, तपाने और निखारने के लिए आती हैं ताकि इनसे होकर गुजरने के बाद जो सुख और आनंद प्राप्त हो, उसका अनुभव सहस्रगुना हो तथा आनंद के इन क्षणों को हम अकेले ही लूट न लें बल्कि औरों में भी बाँटें, जगत और जीवन को सँवारें तथा सृष्टि को कुछ देकर ही जाएं ताकि आने वाली पीढ़ियां भी हमें याद कर प्रेरणा पा सकें और अगली पीढ़ियों के लिए कुछ नये से नया और कल्याणकारी करके जाएं।
कोई सी चुनौती ऎसी नहीं है जिसका कि समाधान इंसान के पास न हो। ये चुनौतियाँ बस यही कहने के लिए हमारे करीब आती हैं और सत्य का भान कराने के बाद गायब हो जाती हैं।
जीवन का कोई सा क्षण हो, इसकी सरसता, माधुर्य और उपलब्धि के लिए यह जरूरी है कि हम इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें और इसके प्रति समझ बनाते हुए इस पर विजय पाएं।
जिस किसी इंसान के जीवन में चुनौतियां नहीं आती, वे निरस, निढाल, आलसी, कामचोर और कामचलाऊ जिन्दगी पाकर बिना किसी उपलब्धि या श्रेय के ऊपर लौट जाते हैं।
जिनके जीवन में चुनौतियां होती हैं वे लोग निरन्तर सोने की तरह तपकर निखर जाते हैं और वह सब कुछ पा जाते हैं जिसके लिए भगवान ने इंसान को गढ़ा होता है।
चुनौतियां अपने आप में चुनौतियां हैं। चाहे वे अपने भीतर के स्वभाव और द्वन्द्वों से बाहर निकली हों या फिर आस-पास या बाहर वालों से मिली हुई हों। चुनौतियां बाहर-भीतर कहीं से भी हों, स्पन्दन और जागरण का दायित्व निभाती हुई वे व्यक्तित्व में सर्वांग निखार लाती हैं ।
चुनौतियों की गलियों से होकर जो निखार आता है वह मन-मस्तिष्क और चेहरे से लेकर अंग-प्रत्यंग तक दिव्यता और दैवत्व का ऎसा आभास कराता है जो कि हजारों-लाखों लोगों के लिए भी दुर्लभ होता है।
चुनौतियों के समरांगण में विजयश्री प्राप्त करने वाला इंसान अमर कीर्ति प्राप्त करता है और सदियों तक प्रेरणा पुंज के रूप में स्थापित रहता है।
फिर क्यों हम चुनौतियों को कोसें, क्यों उन लोगों को भला-बुरा कहें जो हमारे लिए वजह-बेवजह चुनौतियों का प्रजनन करते रहते हैं। इंसान के लिए वही चुनौतियों सामने आती हैं जिनसे निपटने का माद्दा उनके भीतर तभी से भरा होता है जब से भगवान उन्हें धरती पर पैदा करता है। वरना कोई चुनौती ऎसी नहीं है जिसका समाधान इंसान के हाथ में न हो।
चुनौतियां इंसान के पूर्ण जागरण का महाविज्ञान हैं जो इंसान के पूर्णत्व और सर्वसमर्थ होने का ठोस स्वर्णिम प्रमाण पत्र देती हैं।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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