डॉ0 दीपक आचार्य इंसान को वाणी की शुद्धि और सच्चाई पर सर्वाधिक गंभीर रहना चाहिए। जो इंसान सत्यभाषी, कर्मठ और न्यायप्रिय होता है वही विश्...
डॉ0 दीपक आचार्य
इंसान को वाणी की शुद्धि और सच्चाई पर सर्वाधिक गंभीर रहना चाहिए। जो इंसान सत्यभाषी, कर्मठ और न्यायप्रिय होता है वही विश्वास करने योग्य है।
तनिक भी झूठ का सहारा लेने वाला इंसान हर दृष्टि से विश्वासहीन होता है और ऎसे लोगों पर जो विश्वास करता है उसका डूबना और दुःखी होना निश्चित ही है।
सत्यवादी होना अपने आप में सबसे बड़ा तप है जिसे बिरले ही अपना पाते हैं, सामान्य लोगों के बस में सत्य का आचरण कभी नहीं होता। हमारी कही हुई बातें कभी कभार ही सत्य हो पाती हैं उसका मूल कारण यही है कि हम अपने छोटे-मोटे स्वार्थों और मामूली सांसारिक ऎषणाओं की प्राप्ति के लिए असत्य का सहारा लिया करते हैं।
इस वजह से हमारी वाणी और चित्त शुद्धता खो देता है और फिर शब्दों या वाक्यों में वह ताकत समाप्त हो जाती है जो अपनी कही हुई या सोची हुई बातों को मूर्त रूप दे सके।
यही कारण है कि आजकल के मनुष्य की वाणी का प्रभाव समाप्त होता जा रहा है और अक्षर ब्रह्म हम सभी के लिए अब साक्षर भ्रम की अवस्था पा चुका है।
इंसान अपने आप में कोई बात कहे तो उसकी पुष्टि की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए यदि वाकई इंसान है और इंसानियत का पूरा-पूरा वजूद है।
लेकिन अब इंसानियत के साथ सारे गुण, संवेदनाएं और प्रभाव समाप्त होते जा रहे हैं और यही कारण है कि बहुत सारे लोगों को अपनी कोई सी भी बात कहने के साथ जोर देकर कहना पड़ता है कि वे जो कह रहे हैं, वह सच है।
इसके साथ ही खूब सारे लोग ऎसे हैं जो अपनी हर बात की पुष्टि में बार-बार किसी न किसी की कसम खाते रहते हैं। ये कसमें सच्ची हों झूठी, इससे कोई सरोकार नहीं है मगर इतना तो तय है कि हम जो कुछ कहते हैं उसकी पुष्टि के लिए किसी दूसरे या खुद की कसम खाने की जरूरत ही क्यों पड़ती है।
या तो लोग हमारे असत्य भाषण की परंपरागत आदत को जान गए हैं इसलिए उन्हें हमारी हर बात का विश्वास दिलाने के लिए कसम खाने की जरूरत पड़ती है अथवा हम स्वयं अपने मन-मस्तिष्क और आत्मा से यह स्वीकार चुके हैं कि हम झूठे हैं और जो कुछ कह रहे हैं उसमें न्यूनाधिक मिलावट जरूर है।
अपनी वाणी, सोच और कर्म के प्रति आत्महीनता ही वह कारण है जिससे हमारे शब्द अपनी ऊर्जा खो देते हैं और इनकी प्रभावशीलता समाप्त हो जाती है। इस अवस्था में हमारे शब्द निरर्थक होकर रह जाते हैं।
किसी भी बात की पुष्टि और सामने वाले को भीतर तक अहसास कराने के लिए बार-बार अपनी कसम खाना, बीवी-बच्चों और पति, माता-पिता या संबंधों की कसम खाना उचित नहीं कहा जा सकता।
फिर आजकल लोग छोटी-छोटी बातों में भगवान की कसम तक खा लेते हैं। इन्हें पता होता है कि भगवान को क्या फर्क पड़ता है हमारी खायी कसमों का। इसलिए सबसे ज्यादा किसी की कसम खायी जाती है तो वह भगवान की ही, क्योंकि भगवान पर किसी कसम का कोई प्रभाव कभी नहीं पड़ सकता, इस बात को दुनिया भर के सारे शातिर, धूर्त, मक्कार और झूठे लोग अच्छी तरह जानते हैं।
जो लोग सीधे और सरल शब्दों में साफ-साफ बात किया करते हैं उनकी बातों में मिलावट कम होती है, जबकि जो लोग लच्छेदार और चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं और किसी भी छोटी सी बात को लम्बी-चौड़ी खींचकर परोसते हैं , उन लोगों का मकसद अपने किसी काम या स्वार्थ को भुनाने के लिए सामने वालों को प्रभावित करने, भ्रमित करने अथवा उल्लू बनाने की मंशा अधिक हावी होती है।
हालांकि मनोविज्ञान के जानकार समझदार लोग इस आडम्बर को अच्छी तरह समझ लेते हैं लेकिन सामान्य लोग इस रहस्य को जान नहीं पाते हैं और झाँसे में आ जाया करते हैं और बाद में पछताते रहते हैं।
कई इंसान ऎसे भी होते हैं जो मुँह से कोई बात कहेंगे और अपना हाथ दूसरे के सामने रख देंगे ताकि सामने वाला अपने हाथ से उनके हाथ पर ताली देकर यह सिद्ध कर दे कि वो जो कुछ कह रहे हैं वह एकदम सही है और अच्छी तरह दिल और दिमाग में उतरता जा रहा है।
कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बात-बात में किसी न किसी की कसम खाने वाले लोग अव्वल दर्जे के झूठे, निर्मोही और संवेदनहीन होते हैं और इन लोगों की पूरी जिन्दगी अपने स्वार्थ पूरे करने और अपनी ही अपनी वाहवाही कराने के इर्द-गिर्द घूमती रहती है।
जिस किसी इंसान को अपनी बात कहने के लिए बार-बार सौगंध खाने की जरूरत पड़ती हो वह हीन इंसान माना गया है क्योंकि उस इंसान का क्या भरोसा जिसे अपने मुँह से निकलने वाले शब्दों तक को सही ठहराने के लिए कसम खाने का कोई संपुट लगाना पड़े।
इसी प्रकार किसी भी सामने वाले इंसान को तब तक कोई बात सही नहीं लगे जब तक कि किसी न किसी की कसम न खा ली जाए, तो इसका मतलब यही है कि वक्ता और श्रोता दोनों अविश्वसनीय और झूठे हैं तथा शंकाओं-आशंकाओं एवं भ्रमों में जीने के आदी हैं। इस मामले में दोनों उन्नीस-बीस ही हुआ करते हैं।
जहाँ कहीं किसी भी बात को लेकर कसम खाने और खिलाने की जरूरत पड़े, यह तय मानकर चलें कि वहाँ झूठ की बुनियाद पर लफ्फाजी और एक-दूसरे को मूर्ख बनाने के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं।
कसम खाने और खिलाने की जहां जरूरत होती है वहाँ से विश्वास उठ जाता है और जब कहीं विश्वास ही नहीं रह जाए तब उन सम्पर्क, संबंधों और सान्निध्य का क्या महत्त्व रह जाता है।
बिना कसम खाये या खिलाये भी सच बोलने की आदत डालनी जरूरी है तभी हमारे बारे में लोगों के दिमाग में घर कर गई यह पक्की धारणा समाप्त हो सकती है कि हम झूठे हैं और झूठ को प्रमाणित और पुष्ट करने-करवाने के लिए कसम खा या खिलाते रहे हैं। यह उन सभी पर लागू होता है जो कसम खाते या खिलवाते हैं और किसी बात को तभी सच्ची मानने की आदत पाल बैठे हैं जब कि उसकी पुष्टि कसम से न हो।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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