डॉ0 दीपक आचार्य लोगों के पैदा होने और मरने का क्रम निरन्तर बना हुआ है। पहले संख्या कम थी। अब आने वाले पूरी स्पीड़ से आ रहे हैं लेकिन जान...
डॉ0 दीपक आचार्य
लोगों के पैदा होने और मरने का क्रम निरन्तर बना हुआ है। पहले संख्या कम थी। अब आने वाले पूरी स्पीड़ से आ रहे हैं लेकिन जाने वालों की स्पीड़ धीमी हो गई है। इस वजह से सब तरफ हालात विस्फोटक होते जा रहे हैं।
इंसान के रूप में पैदा होने वालों की कोई कमी नहीं है। अब कमी इंसानियत की होती जा रही है। वर्तमान पीढ़ी को पूर्वजों की ओर देखकर उनके सम्मान और गौरव की रक्षा को अपना कत्र्तव्य मानकर ऎसे कर्म करने चाहिएं कि पूर्वजों की ही तरह स्वाभिमान के साथ जीते हुए सेवा और परोपकार के आदर्श स्थापित करें। भविष्य की पीढ़ियों के लिए कुछ ऎसा करके जाएं कि आने वाले कल में भी हम याद किए जाते रहें।
आजकल सभी लोग पीढ़ियों तक के लिए बहुत कुछ करके जा रहे हैं, खूब सारा कर रहे हैं, जमा भी कर रहे हैं लेकिन यह सारा कुछ आने वाली केवल उन पीढ़ियों के लिए है जो उनके अपने परिवार से ही ताल्लुक रखती है।
इस मायने में हम इंसानियत को खो चुके हैं। पहले हर वर्तमान भविष्य के लिए सार्वजनीन संसाधनों और उपयोगी वस्तुओं का भण्डार देकर जाता था और आने वाली कितनी ही पीढ़ियां इनका उपयोग किया करती थीं और वह भी बिना किसी संघर्ष या भेदभाव के।
अब हमारे भीतर से इंसानियत और संवेदनाओं का दौर समाप्त होने लगा है। हम जो कुछ कर रहे हैं उसमें न सेवा का कोई भाव है, न परोपकार का। हम इतने गिरे हुए और खुदगर्ज बीते किसी युग में कभी नहीं रहे।
ज्यों-ज्यों कलियुग की छाया का प्रभाव बढ़ रहा है, हम सभी अपने आपको भुलाते जा रहे हैं, अपनों को भुलाते जा रहे हैं और यही नहीं तो इससे भी आगे बढ़कर अपनी मातृभूमि, अपने क्षेत्र तक को भुलाते जा रहे हैं। इनके प्रति हमारे क्या कत्र्तव्य हैं, यह किसी को नहीं पता, हमें सिर्फ अपने स्वार्थ, अपनी समृद्धि और अपनी ही अपनी प्रतिष्ठा से सरोकार रह गया है।
जीवन, समुदाय और परिवेश के सारे आनंदों को भुलाकर हम पैसा ही पैसा बनाने और कमाने की टकसाल होकर रह गए हैं जहाँ हम दिन-रात मशीन की तरह अपने आपको ऎसे झोंक चुके हैं जैसे कि भगवान ने हमें इसी के लिए पैदा किया हो।
जिन्हें पैसों और प्रतिष्ठा, लोकप्रियता और वाहवाही पाने का भूत सवार है वे सारे के सारे दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगे हुए हैं। बाकी जो लोग बचे हैं उनके लिए फिजूल की चर्चाओं में रमे रहना, बेतुकी बातें और निंदा करना, सुनना और विश्लेषण करते हुए एक-दूसरे तक इन्हें पहुंचाना, गेम खेलना, एमएमएस और वाट्सएप के संदेशों को पढ़ना, औरों को पढ़वाना तथा किसी गली-कूचे, डेरे, मन्दिरों के खाली पड़े पत्थरों, पेढ़ियों और इंसानी भीड़ वाले इलाकों से लेकर पाकोर्ं, सार्वजनिक स्थलों आदि में जमा होकर ताश खेलने या कि किसी न किसी विषय पर अनथक चर्चाएं करते हुए बहस दर बहस करने और टाईमपास करने के सिवा और कोई काम नहीं है।
इन लोगों के पास इतना अधिक समय है कि घड़ियां भी इन्हें समझ नहीं पायी हैं। संतुलन और समन्वय का अभाव सभी तरफ है। इन सारे झंझावातों के बीच हम सभी को यह सोचने की जरूरत है कि आखिर हम जो कुछ कर रहे हैं उससे अपनी मातृभूमि, अपने लोगों या समाज तथा देश का कौनसा भला हो रहा है।
हम आने वाली पीढ़ियों को ऎसा क्या कुछ देकर जा रहे हैं कि जिससे हमें याद रखा जाए। हम अपने वर्तमान को सिर्फ और सिर्फ हमारे अपने लिए ही जीने का साधन बना चुके हैं । इससे आगे न हम सोच पा रहे हैं, न कुछ कर पा रहे हैं।
आखिर हम सभी को हो क्या गया है। हम किसी भी मामले में ऎसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं जिसे हमारी आने वाली पीढ़ी हमारी देन या वरदान के रूप में स्वीकारे और आदर दे। वर्तमान को सामने रखकर मौज उड़ाने और अपनी ही अपनी ढपली बजाते हुए माल जमा करने की हमें ऎसी महामारी लग गई है कि हम किसी काम के नहीं रहे।
वो जमाना चला गया जब पुरखे दिन-रात पूरी मेहनत से कमाते थे, पसीना बहाते थे और फिर उन्हें कुछ हासिल हो पाता था। इसके बावजूद वे अपने क्षेत्र, आस-पड़ोस और समाज तथा देश के लिए इतने उदार, सेवा भावी और परोपकारी थे कि जरूरत पड़ने पर दिल खोलकर मदद करते थे और एक-दूसरे के सुख-दुःख में काम भी आते थे।
आज हम जो कुछ कमा रहे हैं उसमें हमारे पुरुषार्थ का प्रतिशत ढूँढ़ा जाए तो खुद को हैरानी होगी और लज्जित भी होना पड़ेगा। कई बार हमारी आत्मा भी हमें धिक्कारती ही होगी कि जो कुछ पा रहे हैं उसके कितने फीसदी पर हमारा अधिकार है।
बहुत सारे लोग भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी, बेईमानी और नाजायज धंधों से पैसा बना रहे हैं। बिना पसीना बहाए अनाप-शनाप पैसा लोगों के पास आ रहा है। बावजूद इसके इन पूंजीपतियों में इतनी उदारता भी नहीं है कि वे बिना पुरुषार्थ के अपने पास जमा हो गए पैसों को जरूरतमन्दों या क्षेत्र की सेवा के लिए लगाएं और अपना योगदान दें।
सेवा भावना, परोपकार और उदारता की भावनाओं का ऎसा भयानक ह्रास इससे पहले कभी नहीं देखा गया। बहुत सारे ऎसे लोग खर्च करते भी हैं लेकिन इसके पीछे अपनी वाहवाही से बढ़ कर कुछ नहीं होता।
धन लिप्ता और पद-प्रतिष्ठा में व्यामोह में फंसे पड़े सांसारिकों को छोड़ भी दिया जाए तो धन-दौलत और संसार से वैराग्य पाकर भगवान को पाने के लिए संन्यासी बन चले बाबाओं के पास कितनी अकूत संपदा है। इसका न धर्म में कोई खर्च हो पा रहा है, न सेवा में।
इन सभी स्थितियों ने सामाजिक असंतुलन की भयावह स्थितियां पैदा कर डाली हैं और यही कारण है कि भारतमाता आज दुःखी और संतप्त है और वह भी अपनों के कारण, जिनकी वजह से आज मानवता पर संकट के बादल मण्डराने लगे हैं।
संसार की चक्की अहर्निश चल रही है। बहुत सारे आ रहे हैं, बहुत से जा रहे हैं। अपने लिए ही जीने की आदत में थोड़ी ढील दें और समाज के लिए जीने का माद्दा पैदा करें। ऎसा कुछ करके जाएं कि जो आने वाली पीढ़ियोें तक के लिए काम आए।
अपनी मातृभूमि और वहाँ के जरूरतमन्दों के लिए स्थायी गतिविधियों में पैसा लगाएं, रोजगार और सेवा के क्षेत्रों से जोड़ें और अधिक से अधिक लोगों की जिन्दगी बनाएं, यही आज का युगधर्म है। जो ऎसा कर पा रहे हैं वे धन्य हैं लेकिन जो लोग पूंजीवादी होकर या बड़े लोगों के चरणदास बने हुए अपने अहंकारों के साथ गुब्बारे बने हुए आसमान में उड़ने के आदी हो गए हैं उनकी जिन्दगी धिक्कार है। इन लोगों से कोई अपेक्षा न रखें।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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