डॉ0 दीपक आचार्य कितना अद्भुत और आनंददायी संयोग बन पड़ा है। भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी भी है और शिक्षक दिवस भी। दोनों के बीच जबर्दस्त साम...
डॉ0 दीपक आचार्य
कितना अद्भुत और आनंददायी संयोग बन पड़ा है। भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी भी है और शिक्षक दिवस भी। दोनों के बीच जबर्दस्त सामंजस्य है।
श्रीकृष्ण से बड़ा गुरु और कौन होगा, अर्जुन से बड़ा कोई शिष्य और कौन हो सकता है। गुरु-शिष्य तथा भगवान और भक्त के बीच का यह द्विआयामी पर्व अनकहे ही बहुत कुछ कहना चाहता है।
हालांकि गुरु-शिष्य परपंरा का प्रतीक पर्व गुरु पूर्णिमा है लेकिन आधुनिक संदर्भों में शिक्षक दिवस भी लगभग उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति करता प्रतीत होता है। दोनों में जमीन-आसमान का अंतर जरूर है पर शिक्षक की भूमिका का भरपूर प्रयोेग दोनों में होता है।
श्रीकृष्ण जैसा गुरु और सारथी मिल जाए, अर्जुन जैसा अनुगामी और शिष्य प्राप्त हो जाए तो जीवन के हर संग्राम में विजयश्री से कोई नहीं रोक सकता। यह विजय शाश्वत, कालजयी और हजारों वर्षों तक स्मरणीय बनी रहती है।
कहा भी गया है - यत्र योगेश्वर कृष्ण, यत्र पार्थों धनुर्धर, तत्रश्रीर्विजयोर्भूतिधु्रवानीतिमतिर्मम्। अर्थात जहाँ योगेश्वर कृष्ण हों, जहाँ धनुर्धर पार्थ हो, वहाँ विजय निश्चित ही है।
गुरु और शिष्य, शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के लिए यह परंपरा आदर्श कही जा सकती है लेकिन कितने लोग ऎसे हैं जो इन संबंधों को जानते, समझते और मानते हैं। भारतीय जीवन पद्धति में आरंभ से ही पौराणिक ग्रंथों, भगवदीय अवतारों के चरित्र और गीता का पठन-पाठन अनिवार्य होता तो आज हमारा देश दुनिया में सर्वश्रेष्ठ होता, किसी भी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती।
पर ऎसा हो नहीं पाया। कुछ हमारे दुर्भाग्य से, और कुछ उन लोगों के कारण जो अपने भोग-विलास और ऎषणाओं में डूबे रहने की वजह से देश की संस्कृति को न अंगीकार कर पाए, न समझ पाए। हमें न देवी-देवताओं के जीवन चरित्र की समझ है, न गीता का ज्ञान समझ पाए हैं।
गीता पढ़ने और पढ़ाने वाले, गीता पर प्रवचन देने वाले तो खूब सारे हैं, गीता पर बोलने और मजमा लगाने वाले कथाकारों की भी अपने यहाँ कोई कमी नहीं है लेकिन गीता को आत्मसात करने वाले, गीता के मर्म को समझने वालों का अकाल ही है तभी तो हम तेजस्वी संस्कृति और गीता जैसे ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग के होते हुए भिक्षुकों की तरह व्यवहार कर रहे हैं, अंधकार में जीने को अपनी विवशता मान बैठे हैं।
हमें लगता है कि पश्चिम ही हम आत्महीन भिखारियों को कुछ देगा, वरना हम किसी काम के नहीं हैं। हर बात में पश्चिम की ओर देखते हैं, पश्चिमी संस्कृति और पाश्चात्यों की सीख से हमारा दिन उगेगा और पाश्चात्यों की लौरी न सुनें तो हम शायद कभी सो भी न पाएं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस का यह संयोग शिक्षकों और ज्ञानार्थियों सभी के लिए सीख देने आया है। हममें से हर कोई शिक्षक है और हर कोई शिक्षार्थी भी। कोई पूर्ण नहीं है तभी तो शिक्षा की जरूरत है।
हममें से हर इंसान जीवन भर या यों कहें कि मृत्यु आने के अंतिम क्षण तक कुछ न कुछ सीखता ही रहता है, अपने अहंकार और पाखण्ड में भरकर इसे स्वीकार भले ही हम नहीं कर पाएं, मगर सच यही है कि हम सारे के सारे आधे अधूरे हैं और पूर्णता पाने के लिए ही संसार में आए हैं। यह हम पर है कि पूर्णता पाने की डगर पर बढ़ते चलें या अधजल गगरी की तरह दिखावे और आडम्बर करते हुए छलक-छलक कर खाली हो जाएं।
श्रीकृष्ण जैसा गुरु और अर्जुन जैसा शिष्य मिल पाना दुर्लभ है लेकिन इस रास्ते पर चलकर ही देखने की तनिक सी कोशिश भर कर लें तो हम अपने जीवन को दिव्यताओं के साथ सँवार सकते हैं। पर इसके लिए शर्त यही है कि दोनों पक्षों को अपनी-अपनी सीमा रेखाओं और मर्यादाओें का पूरा-पूरा परिपालन करना होगा और अनुशासन में बंधे रहकर साथ-साथ चलना होगा।
तभी यह संभव है कि हम गुरु-शिष्य परंपरा को धन्य करते हुए समाज और संसार को कुछ दे पाने या पाने की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा भाव, पूर्ण समर्पण और एकाग्रता के संस्कार जरूरी हैं वहीं गुरु को भी चाहिए कि वह गुरुत्व से पतित न हो, अपनी मर्यादाओं और श्रेष्ठताओं का स्मरण करता हुआ समुदाय में ऎसा काम करे कि सभी उसका अनुकरण करते हुए गर्व एवं गौरव का अनुभव करें।
आजकल गुरुओं और शिष्यों का ज्वार उमड़ा हुआ है। किसम-किसम के गुरु शिष्यों और शिष्याओं की फौज के साथ वह सब कुछ कर रहे हैं जिसमें आनंद आता है, पैसा और वैभव प्राप्त होता है और लोकप्रियता के शिखरों का सुखद स्पर्श भी।
शिष्यों को भी क्या चाहिए। बिना मेहनत के गुरुओं के प्रशस्ति गान, पालतुओं की तरह पीछे-पीछे घूमने से सब कुछ यों ही हासिल हो ही जाता है। गुरुओं के भाग्य से लोभी-लालचियों का धन और संसाधन यदि गुरुद्वारों से होकर अपने घर-आँगन तक आते रहें तो कौन नहीें चाहेगा दिन-रात गुरु महिमा में रमे रहना।
आधुनिक संदर्भों में आज का दिन शिक्षकों के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करने, उनका आदर-सम्मान करने और उनके प्रति समर्पण का दिन है। शिक्षक अपने आप में शिक्षक है, वह गौरवशाली पद है जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
हम सभी सदियों से कहते रहे हैं शिक्षक समाज का निर्माता होता है, बच्चों का भगवान होता है, देश का निर्माता होता है। आज का दिन शिक्षकीय गरिमा और गौरव के सार्वजनीन प्राकट्य का अवसर है जब श्रीकृष्ण की भक्ति में रमते हुए हमें अपने आपको वह प्रतिष्ठा देनी है जहाँ शिक्षक श्रीकृष्ण की भूमिका में हो और हमारे सारे शिष्य अर्जुन की। तभी अधर्म का नाश और धर्म का अभ्युदय के लिए हमारा संसार में आना सार्थक हो सकेगा।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी एवं शिक्षक दिवस की सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ .....
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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