डॉ0 दीपक आचार्य परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। हर परिवर्तन अवश्यंभावी है और इसके लिए हरेक जीव को तैयार रहना ही चाहिए। हर समय एक ...
डॉ0 दीपक आचार्य
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। हर परिवर्तन अवश्यंभावी है और इसके लिए हरेक जीव को तैयार रहना ही चाहिए। हर समय एक जैसा नहीं होता, उसमें निरन्तर बदलाव का दौर चलता ही रहता है।
परिवर्तनों का हर किसी पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। कुछ के लिए परिवर्तन सुखद होते हैं और कुछ के लिए दुःखद। कुछ लोग परिवर्तन से प्रसन्न हो जाते हैं लेकिन बहुत सारे लोग परिवर्तनों से परेशान हो जाते हैं।
मूल बात यही है कि जो परिवर्तन हमारे मनचाहे होते हैं वे हमें पसंद आते हैं और जो परिवर्तन अनचाहे होते हैं उन्हें हम नापसंद करते हैं।
हर प्रकार के परिवर्तन का अपना प्रभाव होता है और इसका असर भी भिन्न-भिन्न लोगों पर अलग-अलग तरीकों से होता है। कुछ लोग परिवर्तनों को स्वीकार कर उनके अनुरूप ढल जाते हैं और अपने हाल में मस्त रहते हुए जीवन निर्वाह करते रहते हैं।
बहुत सारे लोग ऎसे होते हैं जो अपने आपको एक सीमित परिधि में ढाल कर अपना आभामण्डल निर्मित कर दिया करते हैं और चाहते हैं कि दूसरे लोग भी उनके आभामण्डल की तरह अपने आपको ढाल लें। लेकिन ऎसा हो नहीं पाता।
संसार नित्य परिवर्तनीय है और परिवर्तन का यह दौर हर दिन किसी न किसी रूप में अपने आपको परिमार्जित करता हुआ आगे बढ़ता रहता है, अपने स्वरूप और कार्यशैली में बदलाव लाता रहता है। हमेशा तरोताजा रहने और हर परिवर्तन के प्रति तैयार रहने वाले लोग मौज-मस्ती के साथ आनंद पाते रहते हैं।
सामाजिक प्राणियों की एक असामाजिक प्रजाति ऎसी भी है जिसे कोई परिवर्तन पसंद नहीं आता। यह प्रजाति मलिन सोच-विचार और हीन कर्मों में इतनी लिप्त रहती है कि किसी और को स्वीकार कर ही नहीं पाती।
इस प्रजाति के लोग अपने आपको सर्वस्व, संप्रभु और सर्वज्ञ होने का इतना बड़ा भ्रम हमेशा पाले रहते हैं कि अपने अहंकारी व्यक्तित्व के झण्डे के नीचे सभी को नत मस्तक खड़ा हुआ देखना चाहते हैं और यही कारण है कि ये कहीं भी किसी भी प्रकार का समन्वय स्थापित नहीं कर पाते हैं।
ऎसे लोगों की स्थिति जिन्दगी भर उस द्वीप की तरह होती है जिसे चारों तरफ से खारे पानी का समुद्र घेरे हुए रहता है और द्वीप पर विषैले और हिंसक जानवरों तथा जहरीले पेड़-पौधों के सिवा और कुछ नहीं होता।
इस प्रजाति के लोग हर युग में दुःखी, संतप्त और आत्महीन बने रहते हैं। न और लोग इनसे सामंजस्य स्थापित करने की कल्पना कर पाते हैं, न ही ये दंभी स्वभाव वाले औरों के पास जाने की उदारता रख पाते हैं।
ऎसे बहुत सारे द्वीप लोक में विद्यमान हैं जिनकी वजह से लोग परेशान हैं और इनकी वजह से पूरा का पूरा समुदाय। इस प्रजाति के लोग पूरी दुनिया को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं लेकिन ऎसा होना संभव नहीं हो पाता। इस कारण ये हमेशा खिन्नता और मायूसी में जीने के आदी रहते हैं।
इन लोगों को हमेशा लगता है कि हर बार होने वाला परिवर्तन उनके लिए लाभकारी या सुकून देने वाला साबित होगा लेकिन थोड़े दिन गुजर जाने के बाद वही स्थिति - ढाक के पात तीन के तीन। इसका कारण यही है कि इनमें किसी भी परिवर्तन को उदारतापूर्वक स्वीकार करने और अच्छाइयों को आत्मसात करने का माद्दा नहीं होता।
इसलिए ये बार-बार परिवर्तन के पहले वाली स्थिति में आ जाते हैं और अपनी अहंकारी सत्ता को बनाए या स्थापित रखने के फेर में हर बार परिवर्तन की आकांक्षा में जायज-नाजायज ताने-बाने बुनते रहते हैं, नापाक समीकरणों और समझौतों का सहारा लेते रहते हैं।
इससे परिवर्तन हो भी जाता है मगर इनके लिए हर परिवर्तन कुछ दिन बाद बेमानी ही साबित होता है क्योंकि ऎसे लोग जीवन में कभी भी खुश नहीं रह सकते। यही इनके जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप होता है।
चाहे परिवर्तन कैसा भी हो, इन लोगों के लिए इसका कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि किसी भी प्रकार का परिवर्तन इन्हें बर्दाश्त नहीं होता। दूसरी तरफ ये इतने दंभी होते हैं कि खुद में किसी भी प्रकार बदलाव लाने को कभी राजी नहीं होते। इनके स्वयं द्वारा अपने लिए बनाया गया अदृश्य खोल इन्हें बाहर निकलने नहीं देता और ये हमेशा उस खोल के भीतर रहकर ही जमाने भर को अपने अनुरूप ढालने और चलाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।
इस वजह से जमाना और संगी साथी तो निरन्तर बहुत आगे बढ़ चलते हैं और ये लोग जहाँ होते हैं वहीं ठहरे होते हैं। अहंकार के लंगर इनकी हर हरकत को बांधे रखते हैं। और अहंकार भी ऎसा कि इसके आगे और सब कुछ गौण ही बना रहता है। दुनिया में जहाँ-जहाँ इस मानसिकता के लोग मौजूद रहते हैं वहाँ हर तरफ मायूसी और शोक के सिवा और कुछ भी नहीं होता।
अच्छा यही होगा कि हम अपने मिथ्या भ्रमों और अहंकारों को खत्म कर हर प्रकार के परिवर्तन के प्रति सजग रहें और जो-जो परिवर्तन हमारी तरक्की, हुनर विकास और प्रतिभा विस्तार के लिए लाभकारी हैं उन्हें अपनाने में कंजूसी न रखें।
उदारतापूर्वक जो हितकारी परिवर्तनों को स्वीकारता है वही आगे बढ़ सकता है, दुनिया पर राज करने का सामर्थ्य पा सकता है। किसी और को या जमाने को दोष न दें, अपनी गलतियों को देखें, अपने अहंकारों के खोल से बाहर निकल कर देखें, अपने आपको किसी अच्छे आईने में देखें, और फिर तय करें कि खराब कौन है, जमाना या हम। पूरी गंभीरता और ईमानदारी के साथ समय-समय पर यह भी सोचते रहें कि आखिर लोग हमें ही खराब क्यों मानते और कहते हैं। कुछ तो कारण होगा ही इसका।
दूसरों को दोष देने या खराब कहने से पहले यह सोचें कि जिन लोगों को हम खराब बताते हैं उनकी छवि जमाने में कैसी है, हमारे सिवा और कौन है जो उन्हें खराब कहता है। दूसरी तरफ हममें से बहुत से लोग ऎसे हैं जिन्हें कोई अच्छा नहीं कहता, सभी हमारी छवि, स्वभाव और व्यवहार को खराब बताने से कोई परहेज नहीं रखते।
अपने आपको देखें, सुधारने के प्रयास करें और हर परिवर्तन से कुछ सीखें तथा अपने आप में बदलाव लाएँ। अन्यथा हम जिन्दगी भर बदलाव करते रहकर भी कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। और अन्त में लोग यह कहने को मजबूर हो ही जाएंगे कि ये हैं ही ऎसे खराब कि किसी को न पसंद आते हैं, न कोई इन्हें पसंद करता है।
हर बदलाव से सीखें और अपने गिरेबान में पूरी ईमानदारी के साथ कम से कम एक बार तबीयत से झाँक लें, अपने आप सच सामने आ ही जाएगा। फिर भी न सुधर पाएं तो दोष भगवान को देने में कोई आपत्ति नहीं जिसने मनुष्य का शरीर भूल से ही दे दिया लगता है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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