डॉ0 दीपक आचार्य हिन्दी के नाम पर कमाने-खाने और प्रतिष्ठा पाकर वाहवाही करने-कराने वाले लोगों की बहुत बड़ी फौज के साथ ही हिन्दी सेवियों,...
डॉ0 दीपक आचार्य
हिन्दी के नाम पर कमाने-खाने और प्रतिष्ठा पाकर वाहवाही करने-कराने वाले लोगों की बहुत बड़ी फौज के साथ ही हिन्दी सेवियों, अनुरागियों, विद्वानों, हिन्दी के नाम पर चिल्लपों मचाने वाले लोगों के जबर्दस्त ज्वार, हिन्दी दिवस और साल भर हिन्दी के नाम पर आयोजनों के माध्यम से अपनी पहचान बनाकर अपार पब्लिसिटी पाने वाले लोगों की श्रृंखलाबद्ध और लम्बी-लम्बी पसरी रेवड़ों के बावजूद आज इतने साल बाद भी हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने, राजमान्य और विश्वमान्य करने के लिए हमें आन्दोलन चलाने पड़ते हैं, रैलियां करनी पड़ती हैं और हिन्दी विकास के लिए जतन करने पड़ते हैं, इससे बड़ी शर्मनाक बात भारतवर्ष के लिए कुछ नहीं हो सकती।
जब सभी छोटे-बड़े लोग हिन्दी के लिए बरसों से इतने समर्पित और प्रयासरत दिख रहे हैं, हिन्दी के नाम पर बहुत कुछ कर प्रचार पाते दिखाई दे रहे हैं, फिर आखिर क्या वजह है कि हिन्दी आज भी अपनी अपेक्षित प्रतिष्ठा और प्रचलन के लिए मोहताज है और दूसरी भाषाओं की चकाचौंध तले वह दबी हुई है।
हिन्दी के नाम पर जाने कितने वर्षों से हम हायतौबा मचा रहे हैं, बहुत कुछ कर रहे हैं फिर भी नतीजा सिर्फ निर्देशों और प्रचार तक सिमट कर रह जाता है। हिन्दी दिवस, सप्ताह और पखवाड़ा के नाम पर भी हर साल ढेर सारे आयोजन होते हैं, इसमें हम सभी की किसी न किसी रूप में भागीदारी होती ही है।
इतने सारे सघन और अभियानबद्ध प्रयासों के बावजूद आज हिन्दी को उतना अपेक्षित स्थान, महत्त्व और आदर क्यों नहीं मिल पाया है, इस दिशा में गंभीरता से सोचने के लिए प्रेरित कर रहा है आज का हमारा यह हिन्दी दिवस।
हिन्दी जगत में बहुत बड़े-बड़े लोगों से लेकर देहात तक पढ़ने-पढ़ाने, लिखने-लिखवाने वाले और विभिन्न विधाओं के सृजन तथा अभिव्यक्ति करने वाले लोगों की संख्या अपार है।
इन निष्ठावान हिन्दी सेवियों और हिन्दी प्रचारकों की भूमिका, भागीदारी और सेवाएं निश्चित तौर पर सराहनीय एवं अनुकरणीय हैं लेकिन हमें उन लोगों को पहचानने की आदत डालनी होगी जो लोग हिन्दी के नाम पर कमा-खा-पी रहे हैं, प्रतिष्ठा, पुरस्कार, अभिनंदन और सम्मान प्राप्त करने की दौड़ में सबसे आगे ही आगे रहते हैं, हिन्दी में विभिन्न विषयों की किताबों के धड़ाधड़ लेखन का व्यवसाय अपना चुके हैं और रायल्टी के लक्ष्य को लेकर हिन्दी को अपना चुके हैं अथवा हिन्दी संस्थानों में अहम् पद और प्रतिष्ठा पाने के लिए मुँह मारने वालों की कतारों में बने रहने को ही हिन्दी सेवा का चरम लक्ष्य मान चुके हैं।
हिन्दी के नाम पर आज भी बहुत सारे लोग हैं जो पूरी निष्ठा, ईमानदारी और समर्पण के साथ काम कर रहे हैं और हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भरपूर प्रयास कर रहे हैं मगर ऎसे लोग हैं ही कितने, जिनकी हिन्दी सेवा को ईमानदारी और समर्पण का पर्याय माना जा सकता है।
इससे अधिक संख्या में वे लोग हैं जिनके लिए हिन्दी के प्रति श्रद्धा और सम्मान की बजाय हिन्दी के सहारे वह सब पा लेना ज्यादा महत्त्व रखता है जो पाया जा सकता है। चाहे इसके लिए हिन्दी या हिन्दी के किसी न किसी माध्यम का सीढ़ी के रूप में संवेदनहीन और नाजायज इस्तेमाल ही क्यों न करना पड़े।
हिन्दी जगत से जुड़े लोगों में एक प्रजाति उन लोगों की भी है जो जिन्दगी भर हिन्दी की बातें तो करती है, लेकिन चाहती है कि हिन्दी सेवा के लिए सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं, स्वयंसेवी संगठन या दूसरे प्रतिष्ठान अथवा कोई न कोई भामाशाह आगे आए, सारा आयोजन खर्च उठाए, अपने स्तर पर तमाम उम्दा प्रबन्ध सुनिश्चित करे और इन लोगों के लिए प्रतिष्ठित मंच, आवाास, भोजन, यथायोग्य मनोरंजन, अभिनंदन और सम्मान की सारी व्यवस्थाएं उपलब्ध कराए ताकि ये तथाकथित हिन्दी सेवी या महान साहित्यकार, मनीषी, चिंतक और विचारक लोग अपनी बुजुर्गियत, ढेरों पुस्तकों के लेखन-प्रकाशन की प्रतिष्ठा, संस्थागत पदों की ऊँचाइयों, वरिष्ठ, वयोवृद्ध और मशहूर होने को भुनाते हुए अतिथियों के रूप में पधार कर इन मंचों को धन्य करें और चले जाएं, पब्लिसिटी भी प्राप्त कर लें और इसी तरह हिन्दी सेवा के नाम पर बरसों तक हिन्दी जगत के आकाश में कुण्डली मारकर बैठे रहें, पराये संसाधनों, मंचों और प्राप्त आदर-सम्मानों से आनंद पाते रहें।
ऎसे बहुत से लोग हैं जिनके लिए आम लोग यही समझते हैं कि दुनिया में इनसे बड़ा और समर्पित हिन्दी सेवी, विचारक या साहित्यकार और कोई नहीं हो सकता। बहुत से लोग ऎसे भी मिलते हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में हिन्दी के नाम पर परंपरागत विद्वान, मशहूर साहित्यकार या हिन्दी सेवी के रूप में जाने जाते हैं।
इन लोगों का यही रोना साल भर बना रहता है कि सरकार या दूसरी संस्थाएं हिन्दी के आयोजन करें, काव्य गोष्ठियों, विचार गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों और समारोहों में सम्मानजनक पारिश्रमिक के साथ सादर आमंत्रित करें और हर तरह से सम्मान, अभिनंदन और पुरस्कारों से भी नवाजें ताकि वे इन मंचों के माध्यम से हिन्दी की सेवा कर सकें और हिन्दी के प्रति अपना आत्मीय एवं अनन्य समर्पण भाव दर्शा सकें।
इस किस्म के हिन्दी सेवी हर जगह काफी संख्या में देखने को मिलते हैं जिनकी अक्सर यही शिकायत बनी रहती है कि कोई आयोजन नहीं करता, आयोजन होते हैं तो हमें बुलाया नहीं जाता और बुलाया भी जाता है तो बिना पारिश्रमिक के, सम्मान भी नहीं होता।
इस स्थिति को ये तमाम हिन्दी सेवी हिन्दी का दुर्भाग्य मानकर चलते हैं। बहुत सी संस्थाएं भी हैं जो हिन्दी की विभिन्न विधाओं में निरन्तर आयोजन करती रहती हैं वहाँ आतिथ्य और अहंकार का संकट ऎसा पैदा हो जाता है जैसे कि हीरे की खदान में सभी को मुक्त कर दिया हो कि कुछ घण्टे दिए जा रहे है, चाहे जितने हीरे ले जाओ। फिर देखो।
पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के लोभ-लालभ ने अच्छे-अच्छे लोगों का कबाड़ा कर दिया है, प्रतिष्ठित संस्थाओं को मटियामेट करके रख दिया है। संस्थाओं के आयोजनों में खींचतान और आरोप-प्रत्यारोप, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और दूसरी सभी स्थितियों में कई संस्थाओं और समझदार लोगों ने निरापद जीवन जीने के लिए अहंकारी और टकरावी लोगों से जुड़े आयोजनों में रुचि लेना ही बंद कर दिया है।
एक तरफ आयोजनों की कमी के कारण प्रतिभाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन के अभाव का रोना, दूसरी तरफ आयोजन होने की स्थिति में अध्यक्षता, मुख्य आतिथ्य, विशिष्ट आतिथ्य, अतिविशिष्ट आतिथ्य, मुख्य वक्ता और मुख्य भूमिका की अनचाही मांग और हर आयोजन में खास मेहमानवाजी के लिए समुत्सुक, उद्विग्न और उतावला रहने की स्थितियों ने आयोजकों से लेकर हिन्दी अनुरागियों तक को संकट में डाल रखा है।
हर हिन्दी सेवी अपने आपको विशिष्ट मेहमान, महान, प्रतिभावान और अन्यतम मानकर चलने का आदी होता जा रहा है। फिर इनमें भी स्टंटबाज लोग हिन्दी के नाम पर प्रतिभाशून्यता के बावजूद हर मामले में अग्रिम पंक्ति में आने को ऎसे उतावले बने रहते हैं कि न विद्वजनों की उन्हें कोई परवाह है, न वरिष्ठजनों के प्रति किसी भी प्रकार का आदर-सत्कार भाव।
हिन्दी के नाम पर साल भर मंचों और समारोहों में फबने वाले और अपने पूरे जीवन में हर साल ढेरों सम्मान-अभिनंदन और पुरस्कार पाते रहने वाले बहुत सारे लोग ऎसे हैं जो हिन्दी के आधार पर प्रतिष्ठा बनाते हैं मगर हिन्दी के प्रचार-प्रसार या किसी आयोजन के नाम पर पूरी जिन्दगी एक धेला भर खर्च नहीं कर पाते हैं जबकि विभिन्न माध्यमों और आयोजनों में हिन्दी के नाम पर काफी कुछ प्राप्ति करने में कभी पीछे नहीं रहते। हिन्दी और हिन्दी सेवियों की वर्तमान धाराओं को समझें और पूरे मन से अपनी भागीदारी अदा करें।
---000---
- डॉ0 दीपक आचार्य
COMMENTS