अँधेरे दौर में रोशनी दिखाती कविताएँ -------------------------------------------------- -समीक्षक : एम. एम. चन्द्रा क्या अँधेरे दौर में ...
अँधेरे दौर में रोशनी दिखाती कविताएँ
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-समीक्षक : एम. एम. चन्द्रा
क्या अँधेरे दौर में भी कविता लिखी जायेगी ?
क्या अँधेरे दौर की कविता लिखी जायेगी ?
हाँ! अँधेरे दौर में भी कविता लिखी जाएगी.
अरविन्द कुमार का काव्य संग्रह इस अँधेरे दौर की वह कविता है जो सिर्फ अँधेरे की गहराई और विस्तार का मुआयना ही नहीं करती बल्कि अपने समय के साथ संवाद करती है. इनकी कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह उनके और हमारे समय का यथार्थ है और इससे बढ़कर पाठक की जिन्दगी से ऐसे मिल जाता है जैसे कि लेखक और पाठक एकमय हों. वे अपने दर्द को इस प्रकार बयाँ करते हैं -
क्या कहूँ तुमको
तुम तो खुद ही
दर्द का एक
ठहरा हुआ समन्दर हो
अरविन्द की शुरुआती कविताओं में मनुष्य मन की झुंझलाहट, असंतुष्टि, भय, संशय और विरोधाभास की अभिव्यक्ति को सहजता से महसूस किया जा सकता है.
हर रात की काली चादर
फटने के बाद सुबह का सूरज
सुंदर, नया और पाक तो जरूर लगता है
पर बेकार
शाम के धुँधकले में वह भी
थक, हार कर
समन्दर में डूब जाता है
और फिर कुछ भी नहीं बदलता
ठीक कल की तरह
शहर की हर हलचल पर कवि की पैनी नजर है. वह उसकी आबोहवा से वाकिफ हैं. शहर का मिजाज़ पढ़ने और गढ़ने का यही शिल्प पाठक को अपने साथ शहर की सैर कराता है.
सच तो यह है कि
दिन भर इस शहर में
संकल्प फूलते हैं
और शाम तक बजबजा कर
सड़ जाते हैं
पल-प्रतिपल
पोस्टर चिपका दिए जाते हैं
यहाँ वहाँ हर तरफ
लोगों की पीठ पर
भोथरे आक्रोशों की अलसाई खड़-खड़
और टूटी पत्तियों की
फंफूदी लगी भीड़ में
पेड़ अब आग प्रूफ हो चुके हैं
अरविन्द अपनी कविताओं में मनुष्य के अंतर्मन में पैदा होने वाले प्रश्नों से संघर्ष करते हैं. लेकिन वह बड़ी आत्मीयता के साथ स्वीकार करते हैं कि मैं पल-प्रतिपल हजारों प्रश्न करता हूँ और उन्हें हल करता हूँ, लेकिन कुछ न कुछ रह जाता है जो लोगों की आँखों में चुभता है-
पर जानते हो,
जब तक वह औजार
उन्हें मिलेगा
मेरे भीतर भी
उग आएगी
एक और दाढ़ी
ठीक नागफनी की तरह
कविता यथार्थ का मात्र चित्रण ही नहीं बल्कि उस दुनिया का सपना भी है जिसे कवि मनुष्यता के लिए चुनता है, उसका ख़्वाब बुनता है. आधुनिक कविता का यह नया स्वरूप अरविन्द कुमार की कविताओं में धीरे-धीरे विचरण करने लगता है.
और गुलाम पड़ी फसलें
आज़ाद होकर
निडर चाँदनी में
लहलहाने लगती हैं
सपनों में यूँ ही
मिटती है पुरानी दुनिया
और जन्म लेती है
एक नई सुहानी सुबह
एक तरफ वे नई सुबह को लाने का ख़्वाब बुनते हैं तो दूसरी तरफ उन लोगों की तमाम लड़ाईयों की तरफ इशारा भी करते हैं कि आने वाली पीढ़ी हमसे सवाल करेगी कि इस अँधेरे दौर में हमने क्या किया? हम लड़े क्यों नहीं और इतनी गहरी चुप्पी क्यों है ? शायद इसीलिए लेखक अपने और अपने जैसे लोगों से संवाद करते हैं-
ऐसा न हो
कि हमें अपनी गर्दनें झुका लेनी पड़ें
अपराधियों की तरह
क्योंकि आज
हम या तो मौन हैं
या लड़ रहे हैं
सिर्फ कायरों की तरह
हमारे आस-पास सामाजिक बदलाव के नाम पर ढोंग-पाखंड इत्यादि करने वालों की सुध-बुध इन्होने बड़े ही सहज, सरल लेकिन तीक्ष्ण तरीके से ली. अरविन्द दिखावटी बुद्धिजीवियों की रोजमर्रा की जिन्दगी का वर्णन इस प्रकार करते हैं जैसे उन्हें वे रोज-ब-रोज होने वाली चर्चाओं-परिचर्चाओं में देखते हों-
आओ, चलो कहीं बैठकर...
उसकी बखिया उधेड़ दें ...
आसमान को अपनी मुट्ठी में कस लें ...
शोर मचाते हुए
भीड़ में तबदील हो जाएँ ...
और चाय के गिलासों में डूबकर
कोई तूफ़ान खड़ा कर दें ...
और टाँगे फैलाकर
क्रांति की अगवानी करें ...
रचनाकार कभी भी निरपेक्ष नहीं रह सकता, उसको अपना पक्ष चुनना ही पड़ता है. पक्षधरता ही रचनाकार को अपने कर्तव्यों पर चलने के लिए प्रेरित करती है. अरविन्द ने बीच का रास्ता चुनने वाले लोगों के लिए लिखा-
बीच के लोग
बीच में रहते हैं...
और हवा के रुख को भाप कर
बातें करना इनकी समझदारी है ...
हमेशा दुम हिलाते हैं
और पीठ पीछे जुबान ...
और यात्राओं को हमेशा कमजोर करते हैं ...
निरंतर रोशनी को
दूर धकेलते रहते हैं
उपभोगतावादी संस्कृति ने जहाँ सबकुछ बाजार के हवाले कर दिया वहीं प्रेम को भी लाभ हानि के स्तर पर पहुँचा दिया गया. लेकिन अरविन्द कुमार की कविताएँ प्रेम को नया आयाम देने में सफल रहीं. प्रेम व्यक्तिनिष्ठ नहीं बल्कि वह पूरी दुनिया से प्रेम करना सिखाती है-
मैं तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
इस आग के विशाल दरिया को बेखौफ पार करना चाहता हूँ
और रचना चाहता हूँ
तुम्हारी छाँव में बैठ कर
प्यार और शांति की नई इबारतें
एक नई दुनिया के लिए
बड़ा लेखक बड़े विचारों से बनता है. लेखक ने भी अपनी विचार यात्रा को कविताओं में सहजने का काम किया है. उनकी कविताओं में प्रेम, संघर्ष, स्वतंत्रता और विश्वबंधुत्व का पक्ष तो है ही साथ ही साथ उन्होंने विचारों की तमाम अभिव्यक्तियों की स्वतंत्र चेतना का निर्माण पथ को मजबूत करने का इरादा जाहिर किया है.
कवियों को लिखने दो
अपनी पूरी ईमानदारी
और जीवंत दृष्टि सपन्नता के साथ
प्रकट करने दो उन्हें
जन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति
नहीं तो वे तंग आकर
मौन धारण कर लेंगे
और समूची धरती
तब किसी स्पष्ट रोशनी के बिना
अराजक हो जायेगी
अरविन्द कुमार ने अँधेरे दौर की उस परम्परा को कायम किया है कि दुनिया में सिर्फ अँधेरा ही नहीं है अँधेरे को दूर करने वाली रोशनी भी है. आधुनिक कविताओं में प्रतिरोध की कविताओं में मदन कश्यप, आलोक श्रीवास्तव के साथ-साथ अरविन्द कुमार का नाम भी अवश्य आएगा.
कुमार की कविताएँ इस अँधेरे दौर की वो कविताएँ हैं जो आगे रोशनी दिखाती हैं. नये समाज के निर्माण में पाठक को साझीदार करती हैं. ये वो कविताएँ हैं जो एक ऐसा ख्वाब बुनती हैं जिसकी माध्यम से मनुष्यता के उच्चतम मूल्यों को प्राप्त किया जा सकता है.
आओ कोई ख्वाब बुने : अरविन्द कुमार | प्रकाशन : शब्दारंभ | कीमत : 100 | पेज :116
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