शिक्षक दिवस विशेष - प्रमोद यादव आठवीं क्लास में पहुँचते- पहुँचते पैसा और पद की ताकत का अंदाजा हो गया जब मैंने टीचर्स को क्लास के चंद ...
शिक्षक दिवस विशेष
- प्रमोद यादव
आठवीं क्लास में पहुँचते- पहुँचते पैसा और पद की ताकत का अंदाजा हो गया जब मैंने टीचर्स को क्लास के चंद खास गधों को घोड़े बनाने वक्त-बेवक्त मेहनत-मशक्कत करते देखा. उस वक्त तो इस मेहरबानी का रहस्य जान नहीं सका पर बाद में राज खुल ही गया. ‘खास’ के अलावा जो अन्य गधे थे,उनसे उनका व्यव्हार हमेशा दोयम दर्जे का होता. बेचारे कुछ भी पूछते कि सीधे डस्टर फेंक मार देते. हर वक्त उन्हें गधे होने का ताना मारते, फेल होने का शाप देते, ट्यूशन पढ़ने की सलाह देते.
खास गधों की फेहरिस्त मे एक था सचिन- एकदम गोरा, चिकना, लड़की-टाईप का लड़का - डिस्ट्रिक्ट जज का बेटा. एक लड़की थी शिखा - बेहद ही गोरी, ऊंची-पूरी और सुन्दर - डी.एफ.ओ. की बेटी. एक सोहन था - शहर के सबसे बड़े ज्वेलर्स का सबसे छोटा बेटा. एक हीरो टाईप मारवाड़ी लड़का था मोहन - जिसके बाप की शहर मे सबसे बड़े कपडे की दूकान थी. यही सब कारण थे कि टीचर्स उन गधों पर बेपनाह मुहब्बत बरसाते. उन्हें एक बार नहीं, दो बार नहीं...कई-कई बार गणित के सूत्र समझाते.फिजिक्स समझाते..केमेस्ट्री समझाते.. समझाते- समझाते थक जाते पर ‘ इरिटेट ‘ न होते...पर दूसरा कोई अन्य कुछ समझाने कहता तो गुस्से से बिलबिलाते कहते-क्लास में ध्यान रहता नहीं तो कहाँ से समझोगे ? ट्यूशन में आ जाओ..घर में समझा दूंगा..टीचर का यह दोमुंहा बर्ताव समझ में तो आता पर क्या करते ? इतनी हैसियत नहीं थी कि ट्यूशन पढ़ सकते...
जज का बेटा अक्सर चुपके से सारे टीचर्स को कभी डायरी तो कभी पेन, कभी केलेंडर तो कभी पर्स आदि देता और कहता-‘ पापा ने भिजवाया है.’ टीचर्स फूले न समाते..मोहन अक्सर टीचर्स को घर इनवाइट कर चाय-नाश्ता करवाता..और एवज में दिन भर क्लास में हो-हुल्लड़ मचाता..मजाल कि कोई टीचर उसे मना करे.. सोहन सभी टीचर्स के घर घूम-घूम कर ट्यूशन पढता...अनाप-शनाप रूपये बांटता..कभी-कभार उन्हें लोन भी दे देता..प्रायः सभी खास गधे इसी तरह कुछ न कुछ तिकड़म करते और टीचर्स पर हमेशा हावी रहते...बाकी बच्च्रे ये सब देख-सुन भौचक्के रहते...
स्कूल के दिनों के सहपाठी ही जिंदगी भर जेहन में रहते हैं. उन्हीं दिनों पता चल जाता है कि कौन आगे जाकर क्या बनेगा..उस जमाने में सारे होशियार या तो डाक्टर बनते थे या फिर इंजीनियर. मध्यम श्रेणी के बच्चे- शिक्षक या बाबू...और जिन्हें कुछ नहीं सूझता , वे वकील बन जाते. मेट्रिक का रिजल्ट उन दिनों बच्चों का भविष्य तय करता कि कौन क्या बनेगा. मेट्रिक पढते- पढते ही मैं कुछ सहपाठियों के उज्जवल भविष्य परख लिया था, मसलन- कि प्रकाश, नवीन, मनसुख, अकील ,शेखर आदि डाक्टर बनेंगे...अनिल, जयसिंह, हीरालाल, मंजू आदि इंजीनियर और रतन, राघवेन्द्र, जीवन, देवेन्द्र आदि टीचर्स या बाबू...पर बीस साल बाद देखा- सब उल्टा-पुल्टा हो गया. प्रकाश कोर्ट में बाबू हो गया था ( पर डाक्टरों से ज्यादा कमा रहा था- ऐसा मैंने सुना ) नवीन , बाप-दादे की तर्ज पर वकील बन गया...अलबत्ता मनसुख , अकील और शेखर जरुर डाक्टर बने. केवल शेखर ही सरकारी अस्पताल में नौकरी पर लगा, लेकिन वह नौकरी में कम होता - निलंबन में ज्यादा...कभी नसबंदी कांड के चलते तो कभी आँख-फोड़वा काण्ड के चलते.. बाकी दोनों को सरकारी नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने शहर में ही निजी डिसपेंसरी खोल ली. दो-तीन साल किसी तरह मैनेज किये (डिसपेंसरी को भी और खुद को भी ) फिर दोनों अपनी- अपनी बीबियों की रिश्तेदारी में क्रमशः अमरीका और दुबई चले गए. बताते गए कि वहाँ ‘फ्यूचर’ ज्यादा ‘ब्राईट’ है.भगवान ही जाने कि वहाँ वे डाक्टरी ही करते हैं या कुछ और ? वैसे भी हिन्दुस्तान से जो लोग जिस काम के लिये विदेश जाते हैं, वही काम भर वहाँ नहीं करते- बाकी सब करते हैं.
जिनके इंजीनियर बनने की उम्मीद थी – सभी नाकाम रहे. अनिल एम. आर. बन डाक्टरों के यहाँ जूते रगड रहा था , हीरालाल पास के कस्बे में किराने की दुकान चला रहा था , मंजू बी.एस.सी. के बाद किसी सिरफिरे कवि से शादी कर ‘फुलस्टॉप’ हो गयी , जिससे शादी की वह चार बच्चों का बाप निकला. वह पगला गई.. केवल जयसिंह ही बना इंजीनियर और स्टील प्लांट में लग गया पर एकाएक एक दिन वह ‘ढूढते रह जाओगे’ की तर्ज पर ऐसे गायब हुआ कि फिर कभी नहीं मिला. उसके पारिवारिक सूत्रों से ज्ञात हुआ कि वह आनंदमार्गियों के संगत में पड़ जीते-जी ‘ श्मशानवासी ‘ हो गया...
मेरे साथ का पढ़ा ऐसा कोई नहीं मिला जो टीचर बना हो. टीचर्स की एक्टिविटी ही ऐसी कि कोई भी बच्चा आगे जाकर कुछ भी बनना पसंद कर ले पर टीचर कतई नहीं. राघवेन्द्र से उम्मीद थी लेकिन बी.एस.सी.के बाद वह ‘ आउट आफ आर्डर ‘ हो गया..किसी लड़की के चक्कर में चकरा गया और कुछ दिनों बाद सीधे ‘ऊपर’ ज्वाइन कर लिया. व्यवसायियों के सारे बच्चे बी.ए. , बी.एस.सी., कर अपने-अपने बाप की गद्दियों में बैठ गए. समझ नहीं आया- बाप की गद्दी में ही बैठना था तो डिग्री की क्या जरुरत थी ? मेट्रिक के बाद ही बैठ जाते. एक मारवाड़ी लड़के से कारण पूछा तो उसने डिग्री की महत्ता को समझाया कि अच्छी डिग्री यानी अच्छी सुन्दर- सुशील लड़की और दहेज़ में अच्छा-खासा रुपया. अपना अनुभव बताया कि बी.एस.सी. करने से उसे ससुराल में सीधे एपॉइंटमेंट मिला. बैठे-ठाले दो राईस-मिलों का एम.डी. हो गया...
खैर, जिसके नसीब में जो लिखा था-वो वही बना. उल्टा-पुल्टा तो दुनिया का दस्तूर है..थोडा-बहुत चलता है लेकिन एक-दो सहपाठी को जिस अविश्वसनीय पद-प्रतिष्ठा में देखा तो आँखें फटी की फटी रह गयी. इनके विषय में तो कभी सोचा तक न था कि ये क्या बनेंगे ? कई सालो बाद जज के बेटे को अपने शहर में एडीशनल कलेक्टर के रूप में अवतरित पाया तो विश्वास ही नहीं हुआ...अपनी आँखों से जाकर निहारा तब विश्वास हुआ. स्कूल के दिन याद आ गए – वही डायरी...पेन...कलम. केलेंडर.आदि..आदि..इस मुकाम तक पहुँचते- पहुँचते न मालूम क्या-क्या क़ुरबानी (रिश्वत) नहीं दिये होंगे उसने. उसे देख पैसे की ताकत का अंदाजा पहली बार शिद्दत से हुआ.
इस झटके से अभी उबरा भी न था कि एक दूसरे सहपाठी ने जोर का झटका बड़े जोरों से दिया. उसके भविष्य के विषय मे तो उसके माँ-बाप ने भी शायद कभी कुछ सोचा हो तो फिर भला हम क्यों सोचते ? मालगुजार का बेटा था, गधा था..थोडा तोतला भी था..उसके लिये सोचने का कोई औचित्य भी न था. अचानक शहर में एक दिन वह ‘ छाती रोग विशेषज्ञ ‘ के रूप मे एम. बी. बी. एस. , एम. डी.’ का बोर्ड लटकाए प्रगट हुआ तो मैंने छाती पीट ली...जो-जो उनके साथ पढ़े होंगे,उन्हें इस बात का पता चला होगा तो सभी की छाती में दर्द जरूर उठा होगा कि ‘ये क्या हुआ, कैसे हुआ ‘..कभी सुना था कि उसकी बड़ी बहन जो पढाई में बिलकुल जीरो थी, उसने भी थर्ड डिविजन मेट्रिक करने के बाद पटना से डाक्टरी की थी ( सोलह लाख डोनेशन देकर ). एक दिन भी उसने प्रेक्टिस नहीं की. डिग्री देख एक अच्छे घर का गरीब बन्दा फँसा..उससे शादी रचा ली और इस तरह शहर में कई मरीजों की जान बच गयी. शायद बहन वाला फार्मूला भाई ने भी दोहराया...
मैं जानता था- ‘ छाती रोग विशेषज्ञ ‘ वाला बोर्ड ज्यादा दिन नहीं टंगा रहेगा...और यही हुआ भी...इस बीच उसे एक बड़ा ही सुखद फायदा हुआ..एक दूसरे प्रांत वाली सचमुच की एक गोल्ड-मेडलिस्ट एम. बी. बी. एस. लड़की उसकी डिग्री के मकडजाल में फंस गई..और उसकी दुल्हन बन गई.. लकिन शादी के तुरंत बाद (शायद सुहागरात को ही ) वह जान गयी कि उसकी जान गयी... जान बचाने, जान छुडाकर जो विदेश भागी कि लौटकर कभी नहीं आई. बीबी के बिछोह में उसने अपना डाक्टर वाला बोर्ड उतार लिया ( जैसा कि मैंने सुना ) फिर वह नेतागिरी के चक्कर में कुछ महीने रहा. वी आई. पी’स के साथ घूमने-फिरने का शौक चर्राया....पर इससे भी बात कुछ बनी नहीं ( पार्टी वालों ने उसे कोई तवज्जो (पद) नहीं दी ) तो उसने घर के सामने वाले हिस्से को तोड़-फोड कर खूब बड़े आकार का काला शीशा लगा,उसके ऊपर एक टू – व्हीलर स्कूटी कंपनी के नाम का बड़ा सा बोर्ड लगा ( जो पूरी तरह और बुरी तरह फेल्योर कंपनी थी ) उसकी एजेंसी ले ली. मैंने तो उसका ‘ एक्सपायरी डेट ‘ छः महीने रखा था लेकिन तीन-चार महीने में ही वहां ताला लटक गया. अब पूरी तरह ‘ ठलहा ‘ है वह. पर पैसेवाला है...न जाने अभी और क्या-क्या सूझेगा उसे ( पैसा ही सुझाएगा उसे, उसकी अपनी क्या औकात ? )
इसी तरह और न जाने कितने सहपाठी होंगे , जो पद-पैसे के बलबूते कहीं और भी काबिज होंगे. मैं तो केवल दो केस देख दंग हूँ. अब पुराने सहपाठियों को ढूँढना बंद कर दिया है...लेकिन आज भी शिक्षक-दिवस पर मैं स्व.राधाकृषणनजी से ज्यादा उन शिक्षकों को याद करता हूँ जो उन दिनों ख़ास किस्म के गधों पर अपनी सारी ऊर्जा खर्चते..और हमें बात-बात पर टार्चर करते.. मैंने एक बार इनकी भी खोज-खबर ली तो रिटायरमेंट के बाद उनकी हालत देख स्तब्ध रह गया..अधिकाँश टीचर्स के बच्चे बेरोजगार निकले ..उनसे कारण पूछा तो बोले- जिंदगी भर दूसरों के बच्चे ही पढ़ाते रहे..ट्यूशन करते रहे..अपने बच्चों पर ध्यान ही नहीं गया..उनसे जब पूछा कि बड़े-बड़े पद-प्रतिष्ठा वालों के गधे बच्चों को घोड़े बनाने का क्या कोई इनाम नहीं मिला ? तो बोले- हरेक के पास गए कि बेटे को कहीं छोटी-मोटी सरकारी नौकरी दिलवा दें.. पर सबने दो टूक जवाब दिया- डिविजन ठीक नहीं.. मार्क्स अच्छे नहीं..पुअर बच्चों के लिए आज की तारीख में कोई जॉब नहीं..बेहतर होगा कि इन्हें अभी से किसी काम-धंधे में लगा दें..
मैंने पूछा– ‘फिर?’
‘ फिर क्या ?’ सभी टीचर्स एक स्वर में बोले- ‘बच्चे तो काम- धंधे में लगे नहीं हमीं लग गए..सब मिलकर कोचिंग क्लास चलाते हैं..अब केवल होशियार बच्चों को ही पढाते हैं..’
सुनकर अच्छा लगा..गधे बच्चों के लिए राहत भरी खबर..अब कोई उन्हें ट्यूशन के लिए ताने नहीं मारेगा..कोई टीचर उन्हें टार्चर नहीं करेगा..कहते हैं-घूरे के भी दिन फिरते हैं..इनके भी फिर गए पर टीचर्स के दिन कभी नहीं फिरने वाले..ये ताउम्र बस टीचर ही रहेंगे..केवल टीचर..
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प्रमोद यादव
गयानगर , दुर्ग, छत्तीसगढ़,
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