गजानंद प्रसाद देवांगन व्यंग्य कविताएँ 1 बापू तेरे बंदर बापू तेरे बंदर कभी बाहर , कभी अंदर । तेरे स्वर्गवासी होने का इन्हें है शोक । ...
गजानंद प्रसाद देवांगन
व्यंग्य कविताएँ
1
बापू तेरे बंदर
बापू तेरे बंदर
कभी बाहर , कभी अंदर ।
तेरे स्वर्गवासी होने का
इन्हें है शोक ।
जीविकोपार्जन के लिये
ये कर रहे दलाली थोक ।
आपके पुराने सीख
नीलाम हो गये ।
धरम करम उनके लिये
बेकाम हो गये ।
इसीलिये ये तीनों
स्वर बदल रहे ।
लोग भले ही कहते हैं
कि ये दल बदल रहे ।
कभी राज घाट
कभी शांतिवन ।
कभी अयोध्या
कभी वृन्दावन ।
खा रहे देश को
जैसे चुकंदर ।
बापू तेरे बंदर
कभी बाहर कभी अंदर ।
खा रहे भालू
साझे की खेती ।
बंदरों को बांट रहे
उस्तरा की पेटी ।
राम के लिये फिर
बनायेंगे सेतु ।
घायल लक्ष्मणों को
जिलायेंगे कालकेतु ।
कैकेई जगा रही
कहीं राष्ट्र भक्ति ।
दिखा रहे भरत कई –
अपनी भी शक्ति ।
राम के राज्य में भी
था , बानर का तंत्र ।
आज वर्चस्व उनका
करें जो स्वतंत्र ।
कभी दिल्ली की किल्ली
कभी भीगी सी बिल्ली ।
दुविधा में पड़ा देश
जैसे सांपनी छुछंदर ।
बापू तेरे बंदर
कभी बाहर कभी अंदर ॥
2
ऐसी जयंतियां मनाइये
पहले अपने सिर को
हाथ धर आइये ।
माता के चरणों में
सादर चढ़ाइये ।
बलिदानी पथ में
कदम फिर मिलाइये ।
दमखम हों ऐसे –
तब जयंतियां मनाइये ।।
हर जख्म करबला –काशी
श्रेष्ठ तीर्थ कर आइये ।
आंसुओं की गंगा में
डूबकर नहाइये ।
निर्मलता - नमाज
ध्यान-सच्चाई , जानिये ।
ईमान को पूजकर
फिर जयंतियां मनाइये ।
शौर्य के सूर्य को
शीश नित झुकाइये ।
पसीने की अर्ध्य
निष्ठा से चढ़ाइये ।
साधना – उपासना
आराधना दुहराइये ।
जय की न अंत हो –
ऐसी जयंतियां मनाइये ।
गजानंद प्रसाद देवांगन , छुरा
----.
योगेन्द्र प्रताप मौर्य
बाल कविता
गांव में मेरे
लगा है मेला
चलो देखने
सजा है ठेला
बोलो मीनू तुम
क्या खाओगी
क्या-क्या लेकर
घर आओगी
मीनू बोली पहले भैया
हम झूला पर झूलेगें
फिर चाट जलेबी खा करके
थोड़ा मेले में घूमेगें
पर भैया यह कैसा पुतला
बहुत बड़ा व भारी है
कौन इसे खरीदेगा
बोलो किसकी मति मारी है
मीनू तुम भी भोली हो
यह तो रावण का पुतला है
इसे जलाना ही तो
विजयादशमी का मेला है
राम ने रावण को मारकर
पापी का पाप मिटाया है
तभी से विजयादशमी पर्व
शहर गांव में छाया है
चल मीनू अब लौट चलें
खरीद खिलौना और मिठाई
अम्मा रस्ता तकती होगी
देख अँधेरा हो आई
योगेन्द्र प्रताप मौर्य
बरसठी ,जौनपुर
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सुधीर पटेल “सृजन"
छुपकर गुनगुनाती हो मेरा नाम,
शौक तुम भी लाजवाब रखती हो..
बहक जाता हूँ देखकर तुम्हें,
आँखों में तुम शराब रखती हो..
इल्तजा है हुकूमत की अपनी,
माँ तुम रोज मुझे नवाब कहती हो...
चाँद सितारे जलते है फूलों से,
बालों में जब तुम गुलाब गुंथती हो..
अनकहे अफसानों के भी कुछ कायदे है,
क्यों बीते दिनों का हिसाब पूछती हो..
तोड़ दिया रोजा चाँद देखे बगैर,
आँगन में तुम आफताब रखती हो...
सुधीर पटेल “सृजन"
खरगोन, मध्यप्रदेश
---------.
क़ैस जौनपुरी
तुम होती तो
तुम होती
तो तुम्हें अपने कंधे पे घुमाता
ख़ूब हँसाता
तुम होती
तो तुम्हें दौड़ने से कभी न रोकता
कि तुम्हें चोट लग जायेगी
तुम होती
तो तुम्हें बड़ों के बीच भी बोलने देता
तमीज़ के नाम पे तुम्हारी आवाज़ को न दबाता
तुम होती
तुम होती
तो तुम्हें पूरी आज़ादी देता
दोस्त बनाने की
तुम्हारा जब जी चाहता घर वापस आने की
तुम होती
तुम होती
तो तुम्हें तेज़ाब का डर भी न दिखाता
खुलके जीना सिखाता
अपनी बात कहना सिखाता
तुम होती
तो तुम पर अपने फैसले न लादता
तुम्हारी ज़िन्दगी में दख़ल भी न देता
तुम्हारा मालिक भी न बनता
तुम होती
तुम होती
तो मुस्कुरा के तुम्हारे
ख़ुद से चुने हुए
जीवन साथी को गले से लगाता
तुम होती
तुम होती
तो तुम्हें ख़ुद का कोई हुनर भी सिखाता
किसी के ऊपर बोझ न बनाता
तुम होती
तुम होती
तो तुम्हें अपने होने पे ख़ुशी होती
कितना अच्छा होता
जो मेरे घर भी एक बेटी होती
qaisjaunpuri@gmail.com
*******
------.
अरूण कुमार झा
एक मरीचिका ने हमें जिन्दा रखा है
समय साक्षी है
आदि काल से देखा है हमने
कैसे-कैसे अत्याचार हुए हैं हम पर
अहंकारों की विजय की खातिर
व्यवस्था के क्रूर हाथों हम
हमेशा छले गये हैं।
समय साक्षी है
देवासुर संग्राम हो या
महाभारत का संग्राम,
लंका विजय हो या आधुनिक
विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों में
युद्ध के इस खेल में
मरता कौन है?
वही जिसे इस अहंकार-महासंग्राम
से कोई मतलब नहीं होता।
समय साक्षी है
जो पैदा हुआ
वह मरना नहीं चाहता
लेकिन उसके अपने अहंकार ने
उसके अंदर के मनुष्यत्व को
मार डाला क्यों?
यह सिलसिला अनवरत जारी है
युगों-युगों से!
समय साक्षी है
पहरूए हमें जगा-जगा कर
लूटते रहें, हम पिटते रहें
सावधान! जागते रहो! के ढोंग से
हमारा विश्वास जीतते रहे
ये न सोने देते, न जागने देते
हमारे मन-मस्तिष्क में
हमारे विचारों में छलिया-पहरूए
पहरूए की तरह पलते रहे
हम हमेशा छलते रहें हैं, छलते रहेंगे।
समय साक्षी है
यह सब आखिर इस लिए कि
व्यवस्था इनके क्रूर हाथों में
खिलौने की तरह रहे
वे उनसे खेलते रहें,
हम दर्शक की भूमिका में
हम खेल देखते रहें हैं, देखते रहेंगे
कई-कई वेशों में होते हैं ये
कभी खिलाड़ी के वेश में तो
कभी कबाड़ी के वेश में तो
कभी जुआरी के वेश में
कभी मदारी के वेश में।
समय साक्षी है
आज तक कोई रहबर नहीं हुआ
जन-नायक नहीं हुआ
नाम और काम इनके
जन-नायकों के जैसे
मायावी बने महाभ्रम में डाल हमें
युगों-युगों से छलते रहे ऐसे
समाज के उत्थान के लिए
मसीहा के वेश में जमीन पर
उतरा हो जैसे।
समय साक्षी है
एक मरीचिका ने हमें
जिन्दा रखा हुआ है युगों-युगों से
कि एक दिन हम
बोलने के काबिल जरूर बन जायेंगे
बोलने कौन देगा
महाबलियों के इस मायाजाल में
कानफोड़ू आवाज हमारी बुद्धि
को गुलाम बना रखी है
युगो-युगों से।
समय साक्षी है
गुलामी की जंजीरों को तोड़ने
के लिए बड़े-बड़े नाटक होते रहे हैं
इस धरा पर
युगों-युगों से इस नाटक में
अहंकार हमेशा विजयी होता रहा।
परास्त हुए हैं हम
युगों-युगों से
शांति के लिए बड़े-बड़े यज्ञ हुए
इस धरा पर, महा-हवन हुए
लेकिन हमारे अंदर के अहंकार ने
लील लिया शांति के
मूल-मंत्र के आह्वान को।
समय साक्षी है
सारा खेल जमीन के टुकड़ों
के बहाने
हमारे लिए खेले, लड़े गये
हमें क्या मिला इस खेल में
सिर्फ मौत, प्रताड़ना और गुलामी।
आदि युग में रहे तब भी
पाषाण युग में रहे तब भी
मध्य युग में रहे तब भी
आधुनिक युग को भी देख रहे हैं।
समय साक्षी है
समय खबरदार करता है
युग करवटें ले रहा है
सम्हलने और सोचने का समय
आ गया है
गुलामी की जंजीरों को
तोड़ स्वतंत्र होने का
युग प्रारंभ हो गया है
गुलामी की नीम तंद्रा को तोड़ना होगा
पेट तो उनका भी भर जाता है
जो सोये-पड़े रहते हैं।
सिर्फ पेट भरने के लिए गुलामी
की जिंदगी जीना ही हमने
अपनी नियति बना ली है तो
कोई बात नहीं
समय साक्षी है
पहले की गुलामी नंगे बदन और
भूखे पेट रह की जाती थी
अब सूट-बूट में जारी है गुलामी
रूप और रंग अत्याचार के लिए
बदल गये हैं सिर्फ
मोटी-मोटी रकम बैंक में
और खर्च करने की पूरी आजादी
बाजारवाद जीवन पर इतना भारी
कि आप भाग भी नहीं सकते कहीं
राजनीति रास्ते में लुटेरी बनी बैठी है।
अरुण कुमार झा,
प्रधान संपादक, दृष्टिपात हिंदी मासिक
-------------.
नन्दलाल भारती
ओल्डएज होम
अरे नव जवानों धर्म-कर्म काण्ड त्यागो
धरती के जीवित भगवान को पहचानो
ओल्डएज होम का पता पूछना उनका
तुम्हारी उड़ान पर सवाल खड़ा कर रहा है
धरती का भगवान क्यों बेघर हो रहा है ……
कांपते हाथ,आँखों में अँधियारा,
लुटाया जीवन का बसंत तुम्हारे लिए
वही नाथ अनाथ हो रहा है
दर्द में जीया,स्वर्णिम भविष्य सीया
किस गुनाह की सजा ,
धरती का भगवान छाँव ढूढ़ रहा है ……
कितने हो गए मतलबी ,
पत्थर के सामने सिर पटकते अब
जीवित भगवान बोझ लग रहा है ,
घुटने बेदम लिए
वही शाम ढले सहारा खोज रहा है ……
जाए कहा लाचार कब्र में पाँव लटकाये
ओल्डएज होम का पता पूछ रहा है
ये उड़ान , ऊंचा मचान देन किसकी
श्रम से बोया लहू से सींचा ये मुकाम किसका
स्वार्थ के सौदागरों सोचो जरा
क्या गुनाह, वही भगवान बेबस आज
दर्द का जहर पी रहा है ……
धरती के जीवित भगवान माँ-बाप
मान दो सम्मान दो,ढलती शाम में ,
भरपूर छाँव दो ,
वक्त पुकार रहा है
नव जवानों धरती के भगवान को पहचानो
ना खोजे ओल्डएज होम का सहारा वे
खा लो कसम ,ना हो
धरती के भगवान का निष्कासन
वक्त धिक्कार रहा है
ये अदना गुहार कर रहा है……
डॉ नन्द लाल भारती 23 .09. 2015
---------.
अखिलेश कुमार भारती
“जीवन की कठिनता से सरलता की नयी परिभाषा”
“राहों से गुज़रते हमने,
कांटों पे चलना सीख लिया अब तो...
“सुबह की नयी किरणों से,
उम्मीदों की लकीर खींचना….
भी सीख लिया हमने”.
निकल चला अकेला सा,
ना आस लिए था... ना कोई दूजा पास था,
अकेले के सफ़र में खुद ही एक खास था…!!
“जो ना पाया वादों से हमने....
वो हमें मिला इन रास्तों के मुकामों से !!
"सुना है किसी ने उसे नहीं देखा...,
उसकी अनुभूति हमने जिंदगी में,
हमेशा आवाज़ देती है.”!!
"सुबह की किरणों से,
अब तो जिंदगी जीना भी…
सीख लिया हमने”…….
--
"जिंदगी" (दो टूक)
"दुनिया में जीने का एक मुकाम होता है,
हर किसी के जिंदगी का इस दुनिया में हिसाब होता है...
"जीना जानते है सही से कुछ लोग,
पर जिंदगी जीने का अंदाज कुछ को ही होता है.
"तकदीर लिखती नहीं...,
बनाई जाती है………!
मंज़िल पाने के लिए हमेशा हर किसी की...,
जिंदगी को रुलाई नहीं जाती".
"दुनिया में जीने का एक मुकाम होता है,
हर किसी के जिंदगी का सा दुनिया में हिसाब होता है...!!
--
("विद्युत उर्जा का संकल्प गीत")
बिजली है उर्जा की रानी,
दुनिया में है उसकी नयी-नयी कहानी.
पानी, खेती, रोशनी, संचार आदि...
है उसकी सही पहचान !!
.विद्युत रक्षा, राष्ट्र रक्षा,..! .हित रक्षा ..
यही संकल्प ..ले हम सब का रक्षा.
सही समय पे सही उपयोग;
उसकी विशेषता है, निराली..
राष्ट्र रक्षा हम सब है, मिलजुल कर करे विद्युत रक्षा.
विद्युत की बचत धर्म की रक्षा समान,..संकल्प अपनाये..
हम सब जन ऐसा..!
ना हो नष्ट दुरुपयोग से, हम दे इसे अपनी पहचान, राष्ट्र हित में ...
विद्युत बचाव, जन- जन की यही पुकार..,
विद्युत है हम सब का,
राष्ट्रहित! राष्ट्र निर्माण में करे हम मिलजुलकर इसकी रक्षा...,
संकल्प ले! जन- जन तक पहुंचाये ..इसकी उपलब्धि....नयी जोश, संकल्प से इसकी रक्षा....
नयी उर्जा हमें पैदा करना है.,
यही हमारा, हम सब का नारा है..
-----.
कैलाश यादव सनातन
अपराध हो गया है..........
फूलों की ओट लेकर, फिर चुभ गया है कांटा।
मंदिर भी जाना अब तो, अपराध हो गया है॥
साहिल पे आकर अक्सर, डूबी है देखो कश्ती।
उस पार भी जाना अब तो, इक ख्वाब हो गया है॥
जलजले में अक्सर, खुलती नहीं हैं आँखें,
क्या खाक तुम लिखोगे, किस्सा-ए-जिंदगी का॥
अश्कों में तुमने यूंही, गम को बहा दिया है।
पलकों पे उसको थामा, इक मोती बन गया है॥
मंदिर भी जाना अब तो, अपराध हो गया है.......
कैलाश यादव ‘‘सनातन’’
----.
दिनेश कुमार जांगड़ा
एक ही गलती दुबारा खूब होता है,
अक्सर ये नज़ारा खूब होता है।
तक़दीर का रोना क्यूँ रोते हो दोस्त?
मेहनती का गुज़ारा खूब होता है।
बुलंदी किरदार में यूँ ही नहीं आती,
आज का विजेता हारा खूब होता है।
अँधेरी रात में मुसाफिर हार ना हिम्मत,
सुबह सूरज का उजाला खूब होता है।
सफर के संघर्ष को उठकर बता देता,
पाँव का छाला हमारा खूब होता है।
उसूल वाला राह से जाता है बेदाग़,
यूँ तो फिसलन ने पुकारा खूब होता है।
सूखा होकर भी बड़ा सुकून देता है,
ईमानदारी का निवाला खूब होता है।
कल की फ़िक्र में आज दुखी होता,
नादान इन्सां भी बेचारा खूब होता है।
--
1. बेटी बचाओ बेटी पढाओ
नाज करो तुम ना शर्माओ,
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ।
बेटी आँगन का अनमोल मोती होती है,
आशाओं के दीपक की ज्योति होती है।
नयी सोच से दो घर का कल्याण करो,
पढा-लिखा के बेटी का उत्थान करो।
इसी मुहीम में तुम भी आगे आओ,
बेटी बचाओ बेटी पढाओ।
कमजोर-अबला अब शब्द पुराने होने दो,
फूलों को ए माली! अब फौलादी होने दो।
बेटी घर की रोशनी, बेटा घर का उजियारा है,
बेटी हमको प्यारी, बेटा भी हमको प्यारा है.
बेटा-बेटी का भेद मिटाते जाओ,
बेटी बचाओ बेटी पढाओ।
बेटी बेटों से कदमों से कदम मिलाती है,
सरहद से घर तक ये हरेक फर्ज निभाती है।
बेटों ने बुढापे में जब भी बुरा हाल किया,
बेटी ने आकर माँ-बाप का ख्याल किया।
बुढ़ापे की लकड़ी को और मजबूत बनाओ,
बेटी बचाओ बेटी पढाओ।
क्यों बेटी को गर्भ में मारा जाता है?
बेटी को बेटों से कम क्यूँ दुलारा जाता है?
क्यूँ हम बेटी की शिक्षा का ध्यान नहीं देते?
क्यूँ हम बेटी को उचित सम्मान नहीं देते?
बेटी की गरिमा को और बढाओ,
बेटी बचाओ बेटी पढाओ।
2.पढने दो बेटी को
आगे बढाती सोच का नया आगाज होने दो,
पढने दो, बेटी को आजाद होने दो।
भ्रूण-हत्या का पाप कह दो नहीं करेंगे,
उकसाने वालों को बेशक नाराज होने दो।
बेटियों ने साहस से पर्वत भी लांघे हैं,
फूलों को माली अब फौलाद होने दो।
पढाया तो बेटी आगे बहुत बढेगी,
कैद पंछी को उड़ता जहाज होने दो।
बेटा-बेटी में अंतर कह दो नहीं करेंगे,
जो कल ना किया ‘दिनेश‘ वो आज होने दो।
आगे बढाती सोच का नया आगाज होने दो,
पढने दो, बेटी को आजाद होने दो।
कवि परिचय
नाम-दिनेश कुमार जांगड़ा (डी जे)
सम्प्रति- भारतीय वायु सेना में वायु योद्धा के रूप में कार्यरत
तिथि - 10.07.1987
शिक्षा- १. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कनिष्ठ शोध छात्रवृत्ति एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण २. समाज कार्य में स्नातकोत्तर उपाधि
३. योग में स्नातकोत्तर उपाधिपत्र
लिखित पुस्तकें -दास्तान ए ताऊ, कवि की कीर्ति एवं प्रेम की पोथी
पता- मकान नंबर 1,बाडों पट्टी, हिसार (हरियाणा)- 125001
फेसबुक प्रोफाइल. www.facebook.com/kaviyogidj
-----.
अतुल कुमार मिश्रा
उधेड़-बुन
पल-छिन, पल-छिन बीतता है दिन,
दिन व दिन, बीतता है दिन।
तू चाहे तो भी,
और न चाहे तो भी,
दिन को बीतना है, बीतता है दिन,
तू क्यों थकता है,
तू क्यों रूकता है,
पल भर ही हंसी-खुशी है,
पल भर ही, दुःख की घड़ी है,
घड़ी-घड़ी कर बीतता है दिन,
पल-छिन, पल-छिन बीतता है दिन,
दिन व दिन, बीतता है दिन।
पल में कुदरत की मेहर है,
पल में काल का कहर है,
जो वर्तमान की बाती है,
वो कल भूत की थाती है,
भविष्य की आंशाकाओं को,
क्यों रहा है-- गिन,
पल-छिन, पल-छिन बीतता है दिन,
दिन व दिन, बीतता है दिन।
दिन व दिन की कीमत, कहां कर छुपी है,
ये बात, कब तूने समझी है,
कब खुद से कही है,
दिनों की दूरी में--
एक दिन को जन्मा, एक दिन को मरेगा,
क्या आशय है तेरा, किस धारणा को धरेगा,
या सांसों की रवानगी को,
रहता रहेगा बस--- गिन
पल-छिन, पल-छिन बीतता है दिन,
दिन व दिन, बीतता है दिन।
अतुल कुमार मिश्रा
369 , कृष्णा नगर
भरतपुर, राजस्थान
---------
देवेन्द्र सुथार
गांधी अब इस मुल्क में तेरी जरुरत नहीं है
एक गाल पर खाकर दूसरा गाल आगे करने वाली नहीं है
अहिंसा तो रोज रोती हिंसा के दरवाजे पर
अब लाठी के बलबूते पर आजादी नहीं है
रामराज्य तो राम के साथ ही चला गया
तेरा चरखा और चश्मा विदेशों में चला गया
तेरे ही देश में तेरा अपमान करना अब मजबूरी है
तेरे नाम को लेना आज लगता सबको गद्दारी है
कुछ लोग तुझे कोसते है देते है गाली सरेआम
आखिर गांधी तूने ऐसा क्या किया है काम
तू भी अपने आप को बहुत कोसता होगा
किन लोगों के लिए तू लड़ा खायी तूने गोली
आजादी के लिए तूने आखिर क्यों खेली खूनी होली
अब लगता नहीं गांधी फिर इस देश में लेगा जन्म
जहां गांधी एक गाली हो गोडसे के लिए हो श्रद्घा व मन।।
- बालकवि देवेन्द्रराज सुथार‚ बागरा‚ जालौर‚ राजस्थान।
ईमेल- devendrasuthar196@gmail.com
---...
अंजली अग्रवाल
जिन्दगी उस घड़े का नाम है ॰॰॰॰॰॰
जिसमें ढेरों पत्थर डालने के बाद पानी ऊपर आता है ॰॰॰॰॰॰
और हम वो पक्षी हैं जो आकाश में उड़ते वक्त तक तो बड़े खुश रहते है‚
पर प्यास लगने पर ये पत्थर डालना हमारी परेशानी बन जाती है ॰॰॰॰॰॰
हम अपने हाथ का सही उपयोग तब कर पाते है‚
जब हमें पता होता है कि हमें इस समान उठाना हैं॰॰॰॰
ठीक उसी प्रकार हम अपने दिमाग का सही उपयोग तब कर पाते है‚
जब हमें यह पता होता है कि हमें क्या करना हैं।
एक पक्षी के उड़ने में उसकी सबसे बड़ी बाधा हवा हैं ‚
पर सच यह भी है कि हवा के बिना एक पक्षी ढंग से उड़ नहीं सकता॰॰॰॰
ठीक उसी तरह मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी बाधा ये परेशानियाँ है ‚
पर सच यह भी है कि इन परेशानियों के बिना मनुष्य जी भी नहीं सकता॰॰॰॰
जिन्दगी की राह में चलते — चलते जब लगे कि थक गये हैं आप ‚
और थोड़ा रूकने का मन करे‚
तो समझ लेना कि अभी तक तो सिर्फ जिन्दा थे आप‚
और अब जीना चाहते हैं आप।
मंजिल उसी को मिलती हैं‚
जिसे रास्तों से प्यार होता हैं‚
जो दर्द को भी मरहम बना ले‚
कारवां उसी का होता हैं।
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