-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी नन्हे-मुन्नों के विद्यालय खुल गये। हमारे ऊपर नन्हे-मुन्नों की किताबों से भरे झोलों से कई गुना बोझ लद गया, क्योंकि...
-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
नन्हे-मुन्नों के विद्यालय खुल गये। हमारे ऊपर नन्हे-मुन्नों की किताबों से भरे झोलों से कई गुना बोझ लद गया, क्योंकि हम सरकार की नीतियोें के सख्त विरोधी जो ठहरे। घर में बच्चों की फौज तैयार कर लिया है। आज वही बच्चे हमारे लिये सिर दर्द हो गये है। काश! हमने अपने पड़ोसी पट्टीदार से भविष्य में मुकाबला करने की बात न सोची होती तो सरकार की नीति को मानकर जनसंख्या वृद्धि न करते।
खैर, अब तो जो होना था, हो गया। छोटा किड जो मात्र 3 वर्ष का है, वह भी किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर ‘तालीम‘ लेना चाहता है। इस बार पाँचो बच्चों को स्कूल जाते देखकर अपनी तोतली बोली में बोला- ‘पापा हम भी स्कूल जायेंगे। हमारे लिये टाई सहित स्कूल की ड्रेस बनवा दीजिये और अमुक स्कूल में पढ़ने भेजिए।‘ उसकी जिद ने हमारी कमर पतली कर दी और पैण्ट खिसक कर नीचे चली गयी, लेकिन पिता जो ठहरे, इसीलिए उसे अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में भर्ती कराने हेतु ले ही जाना पड़ा। अंग्रेजी स्कूलों की इस बाढ़ मेें पहले तो हम बच्चे को लिए तैरकर एक तथाकथित इंग्लिश मीडियम के स्कूल में पहुँच गए। उस स्कूल की प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुँचे और आवेदन पत्र भरकर जेबें खाली कर दी। बच्चे की नाप-तौल करायी गयी। बच्चा नापतोल में ठीक-ठाक निकला। यह सब कार्य संपादित कराकर हम विद्यालय के गेस्ट रूम में थोड़ा ‘सुस्ताने‘ के लिए बैठ गए। उसी बीच एक ‘मैडम‘, जो उस स्कूल की अध्यापिका थी, ने प्रधानाचार्य के कक्ष में प्रवेश किया। हमने अपना कान उधर ही लगा दिया और ‘अपश्रव्य ध्वनि‘ को भी सुन पाने की पुरजोर कोशिश की। सफल भी हुआ। उक्त ‘मैडम‘ ने अपनी बड़ी मैडम से जो बातें की, उन्हें सुनकर हमें ऐसा लगा कि हमारी जेब नन्हें बच्चे की जिद ने पूर्णरूपेण कटवा दी।
बात कुछ यों थी कि प्रधानाचार्या के आफिस में उक्त ‘मैडम‘ ने जो बात की उसने हमें चौकन्ना कर दिया। मैडम ने कहा था ‘बड़ी मैडम, मेरे बच्चे ने कल से कुछ खाया-पिया नहीं‘। इस पर बड़ी मैम ने सहानुभूति दिखाते हुये कहा कि क्या हुआ, तबीयत खराब है क्या? यदि ऐसी बात हो तो किसी अच्छे डाक्टर को दिखाकर इलाज करवा लीजिए, वर्ना बच्चा स्कूल में गैरहाजिर होकर पढ़ायी नहीं कर पायेगा। बड़ी मैडम की बात सुनकर सहायक अध्यापिका ने कहा कि ऐसी बात नहीं हैं। बात यह है कि मुहल्ले की लाइब्रेरी बन्द हो जाने से हमारा बच्चा ‘कामिक्स‘ पढ़ नहीं पा रहा है और ‘कामिक्स‘ का ‘एडिक्ट‘ होने के कारण उसने खाना-पीना छोड़ दिया। बड़ी मैडम ने उनकी बात सुनकर कहा कि देखिए, मैडम हमारा स्कूल बच्चों को शिक्षा देने के लिए अवश्य हैं, लेकिन यहां कामिक्स, फिल्में एवं उपन्यास आदि पढ़ने-देखने की शिक्षा नहीं दी जाती। कृपा करके अब अपनी बातें समाप्त करें वर्ना कोई ‘गार्जियन‘ यह बातें सुन लेगा तो हमारे विद्यालय पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बड़ी मैडम की बातें सुनकर सहायक अध्यापिका ने बातें आगे नहीं बढ़ायी, लेकिन हम सचेत हो गए। इसी बीच प्रधानाचार्या के कमरे से जब सहायक अध्यापिका निकल गयीं तो फिर हमने किसी बहाने उनके आफिस में प्रवेश किया। हमारे घुसते ही प्रधानाचार्या की प्रश्नवाचक दृष्टि हम पर उठी। हमने कहा बड़ी मैडम हम थकान मिटाने के लिए आप के आफिस के बाहर ‘गार्जियन कक्ष‘ के सोफे पर बैठे थे, लेकिन क्षमा करें, हमने आप-दोनों लोगों की बातों को सुनने की धृष्टता की है।
जब प्रधानाचार्या महोदया को यह मालूम हो गया कि विद्यालय की ‘पोल‘ खुल गयी हैं तो उन्होनें कहा कि देखिए जनाब, हमारा विद्यालय आदर्श विद्यालयों मे गिना जाता हैं और ऐसी सह अध्यापिकाओें को हम आज ही नोटिस देकर आदत सुधारने के लिए निर्देश देंगे। आप निश्चिन्त रहें, आपका बच्चा अब आपसे अंग्रेजी में ही बातें करेगा, यह हमारा दावा है। अनुभवी प्रधानाचार्या की बातों के प्रभाव में हमने अपने ‘नन्हें‘ को स्कूल में डाल तो दिया है और प्रतिदिन सुबह ‘ड्रेस‘ पहनाकर‘ साइकिल से पहंुचाते भी हैं लेकिन ‘फीस‘ अधिक होने की वजह से लग रहा है कि ‘नन्हें‘ को दो-एक माह में इस स्कूल से निकाल लेना पड़ेगा। अंग्रेजी मीडियम स्कूल में दाखिला दिलाने के बाद ‘नन्हें‘ को पढ़ाई के नाम पर कुछ भी तो अभी तक नहीं आया।
हमें यह भय बना रहता है कि यदि पढ़ाने वाली उक्त अध्यापिकाओं के बच्चे ‘कॉमिक्स‘ एवं ‘फिल्म स्टोरी‘ की तरफ ध्यान दे रहें हैं, तो क्या हमारे ‘नन्हें‘ में वे आदतेें नहीं आ जायेंगी। फिलहाल, नन्हें की जिद के आगे ‘धनुषबाण‘ रखकर ‘सरेण्डर‘ किए हुए हैं, लेकिन यदि ‘नन्हें‘ में ‘परिवर्तन‘ नहीं आया तो किसी हिन्दी माध्यम के स्कूल में डाल देंगे। जहाँ फीस भी कम लगेगी। पता किया तो हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी हालात बद्तर हैं। परिषदीय स्कूलों में भी यदि पढ़ाने का मूड बने तो मानक व गुणवत्ता विहीन मिलावटी एम.डी.एम. बच्चों को परोसने की खबर सुनकर रूह कांप जाती है। साथ ही अड़ोसी-पड़ोसी, हित-मित्रों, रिश्तेदारों की तुलना में अपनी हैसियत भी कम आँकी जाने लगेगी। यही सब सोंच कर कथित कान्वेण्ट (अंग्रेजी माध्यम) स्कूल में लाडले की पढ़ाई जारी रखा हूँ। जिस विद्यालय में वह पढ़ रहा है वहाँ के प्रबन्धतन्त्र के तुगलकी फरमानों से हमारी हालत बद्तर हो गई है। और अब जो हम पर बीत रही है वह आप के साथ शेयर कर रहा हूँ ताकि मेरे दिल पर पड़ा बोझ कुछ हल्का हो सकेगा।
वैसे मुझे मालूम है कि आप भी कान्वेण्ट टाइप के स्कूलों मे अपने पाल्यों को पढ़ाने में गर्व महसूस करते होंगे, यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आप की ‘स्टेटस’ सोसाइटी में नगण्य ही कही जाएगी। बहरहाल! कान्वेण्ट स्कूल प्रबन्धन हमारे किड्स की पढ़ाई पर कम ध्यान देकर अपनी तिजोरियाँ भरने में ज्यादा रूचि ले रहा है। हर माह किसी न किसी बहाने ‘डे’/पर्वों का हवाला देकर हमारे ऊपर आर्थिक बोझ डालने से नहीं चूक रहा है। कॉपी-किताब अपनी सेट दुकानों से ही परचेज करने को बाध्य किया जाता है। प्रत्येक शिक्षा-सत्र में बुक पब्लिकेशन बदल दिए जाते है, इससे कई गुना मुनाफा होता है। हफ्ते में दो-तीन तरह/रंग के स्कूली ड्रेस, टाई, बेल्ट आदि पहनने पड़ते हैं, ये ड्रेस भी स्कूल के अगल-बगल की दुकानों पर महंगी कीमतों पर ही मिलते हैं।
क्या किया जाए- जब बच्चे को अंग्रेज बनाना है तो दीगर है कि इस सब में पैसा खर्च करके मुझ जैसे ‘गार्जियन’ की स्थिति निकट भविष्य में एक ‘बेगर’ (अंग्रेजी में) और हिन्दी में भिखमंगे की तरह जल्द ही होने वाली है। क्या करें- अंग्रेज बनाने, अंग्रेजी बोलने अंग्रेजों जैसा दिखने के लिए मिशनरी के स्कूलों के हर नियम जो हमेशा परिवर्तनशील होते हैं को मानना जरूरी है। पड़ोसी के बच्चे फिरंगी बन रहे हैं, इसी प्रतिस्पर्धा के चलते मैंने भी अंग्रेज बनाने के लिए अपने बच्चों को कान्वेण्ट स्कूल में एडमिशन दिलाने की सोचा था। कहते हैं कि जिसे अपने व्यक्तित्व को निखारना हो उसे अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा। अब जब परसनैलिटी निखार की बात हो तो पैसे खर्च करने में संकोच किस बात की। वैसे देश से 1947 में ही अंग्रेज अपने मुल्क वापस हो गए थे। नारों में कहा जाता है कि ‘बी इण्डियन एण्ड बाई इण्डियन।’ हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है, लेकिन अब भी बगैर अंग्रेजी के कोई कार्य ही नहीं होता है। बट मेरा अपना मानना है कि ‘दैट व्हिच आल ग्लिटर्स इज नाट गोल्ड’ यानि हर चमकरने वाली वस्तु सोना नहीं होती है। आप पर थोप नहीं रहा, आपकी अपनी मर्जी मानें या न मानें।
अंग्रेजी का मतलब-पैण्ट-शर्ट, कोट-बूट और टाई, सिर पर हैट, मुँह में श्वेत धूम्रदण्डिका (सिगरेट) भोजन में जो मिले सब कुछ (सर्वाहारी)। सुना था ग्रेट ब्रिटेन विकसित देश है जहाँ लोग भीख नहीं मांगते हैं, परन्तु एक फिल्म देखी थी, जिसमें लोग अंग्रेजी तरीके से बेगिंग कर रहे थे। जब अपने यहाँ (विकासशील देश) के भिखारी पैसे दस पैसे माँगा करते थे, तब अंग्रेज बेगर पाउण्ड, 10 पाउण्ड भीख में दिए जाने की डिमाण्ड करते थे। मतलब यह कि चाहे अंग्रेज हों या फिर इण्डियन जो भी काम (वर्क) नहीं करेगा वही भीख मांगेगा। हाँ तरीके अलग-अलग हो सकते है। बहरहाल कुछ भी हो मुझे और मुझ जैसे गार्जियन्स को मिशनरी स्कूलों के प्रबन्धकों/प्रबन्धतन्त्रों ने भिखारी बनाने की ठान लिया है। पहले गार्जियन्स इण्डियन बेगर्स बनेंगे बाद में इन स्कूलों में अंग्रेजी की तालीम हासिल करके हमारे पाल्यों (बच्चे) अंग्रेजों की तरह परिधान पहनकर, अंग्रेजी बोल कर ‘भिक्षाटन’ करेंगे। मेरी बात अभी अटपटी लग सकती है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब हमारे जैसे भारतीयों के बच्चे अंग्रेजी पढ़ लिखकर बेरोजगार हो जाएँगे और बेगिंग करेंगे.....?
भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
वरिष्ठ पत्रकार/स्तम्भकार
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)
आत्मकत्थ्य
उत्तर प्रदेश के अम्बेडकरनगर जनपद अन्तर्गत ग्राम- अहलादे (थाना बेवाना) में 26 जून 1952 को एक मझले किसान परिवार में जन्म। गंवई परिवेश में पला-बढ़ा और ग्रामीण स्तर तक के स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। विगत 45 वर्षों से लेखन कार्य।
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