सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होते युवा

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संदर्भः- सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की सड़क दुर्घटना रिपोर्ट-2014 प्रमोद भार्गव      सड़क हादसों में मारे जा रहे युवाओं की दिल दहलाने व...

संदर्भः- सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की सड़क दुर्घटना रिपोर्ट-2014

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प्रमोद भार्गव

    सड़क हादसों में मारे जा रहे युवाओं की दिल दहलाने वाली रिपोर्ट आई है। सड़क परिवहन और राजमार्ग द्वारा सड़क हादसों से जुड़ी 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 34 आयु वर्ग के 75,048 युवा 2014 में सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए हैं। युवाओं के मरने का यह आंकड़ा 53.8 फीसदी है। इसी तरह 35 से 65 आयु वर्ग के लोगों में 49,840 लोग दुर्घटनाओं में मरे हैं। यह प्रतिशत कुल मरने वालों की संख्या में 35.7 बैठता है। मसलन देशभर में जितने लोग बीमारियों व प्राकृतिक आपदाओं से नहीं मरते, उससे कहीं ज्यादा सड़क दुर्घटनाओं में मर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में मौतों का छठा सबसे बड़ा कारण सड़क हादसे हैं। आम धारणा है कि बढ़ती आबादी,अनियंत्रित शहरीकरण, नशे में वाहन चलाना और दो व चार पहिया वाहनों की सड़कों पर बढ़ती संख्या इसके प्रमुख कारणों में हैं। अब तो हालात ये हो गए कि तेज रफ्तार वाहनों की आवाजाही के लिए सड़कों से पद-यात्री और साईकिल यात्रियों को विस्थापित किए जाने का सिलसिला चल पड़ा है। यहां तक की केवल इन वाहनों के लिए एक्सप्रेस हाइवे बनने लगे हैं। एक बड़ी और गरीब आबादी वाले देश के लिए इस तरह की असमानताएं संविधान विरुद्ध हैं


    राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने भी भारत में सड़क हादसों पर महत्वपूर्ण आंकड़े इकट्ठे किए हैं। पिछले एक दशक के दौरान में पूरे देश में सड़क दुर्घटनाओं में 13 लाख से भी ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। आंकड़ों के अनुसार हर दिन सड़क हादसे में 381 लोग मारे जाते हैं और 1287 घायल होते हैं। सड़क परिवहन की इसी खौफनाक हालत पर चिंता जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने देश की सड़कों को 'राक्षसी हत्यारे' (जायंट किलर) कहा था। अदालत ने यह संज्ञा सड़क हादसों में हुई मौतों की हकीकत से रूबरू होकर दी थी। दरअसल 2004 में सड़क हादसों में 92,618 मौतें हुई थीं। जबकि 2010 में यह आंकड़ा बढ़कर 1,35,485 हो गया और 2011 में 1,43,485 लोगों ने सड़क हादसों में प्राण गंवाए। 2013 में 4,86,000 और 2014 में 4,89,000 लोगों ने प्राण गंवाए। यानी जैसे-जैसे सड़कों पर वाहन बढ़ते जा रहे हैं,उसी अनुपात में दुर्घटनाओं में मौत के आंकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। उत्तर-प्रदेश में कुल मौतों के 11 फीसदी, तमिलनाडू में 10.9,महाराष्ट्र में 9.2,कर्नाटक में 7.5,राजस्थान में 7.4 प्रतिशत लोग मारे जाते है। इसके बाद मध्यप्रदेश, गुजरात, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब और हरियाणा का नंबर आता है। जाहिर है,यह रफ्तार देश के युवाओं को निगल रही है।


विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में केवल 28 देश ऐसे हैं, जहां सड़क हादसों पर नियंत्रण की दृष्टि से कायदे-कानून बनाए गए हैं। जिनका यथा संभव पालन भी होता है। लेकिन हमारे यहां जो कानून हैं, उनमें उदारता कहीं ज्यादा है। लिहाजा हादसे को अंजाम देने वाले चालक को कठोर सजा देने की बजाय, कानून उसे बचाने में ज्यादा सहायक साबित होते हैं। जानलेवा टक्कर होने के बावजूद ज्यादातर मामलों में पुलिस लापरवाही से हुई मौत मान कर जिन धाराओं में प्रकरण कायम करती है, उनमें तत्काल जमानत तो मिल ही जाती है, सजा का प्रावधान भी दो साल का है। इन्हीं वजहों के चलते फिल्म अभिनेता सलमान खान जैसे ताकतवर लोगों को कई जाने लेने के बावजूद अभी तक सजा नहीं हुई है। जाहिर है, सड़क दुर्घटनाओं से संबंधित जितने भी कानून हैं, आखिर में उनका फायदा वाहन चालक को ही मिलता है। खतरनाक ढंग से वाहन चलाने की इसी प्रकृति के मामलों के परिप्रेक्ष्य में शीर्ष न्यायालय ने कहा भी था कि जिस व्यक्ति के अनर्गल ढंग से वाहन चलाने की वजह से किसी इंसान की जान जाती है,उसे गैर-जमानती अपराध मानकर हिरासत में लिया जाए और 10 साल की सजा दी जाए। इस दिशा-निर्देश के बावजूद पुलिस व देश की निचली अदालतें पुराने कानूनी ढर्रे पर ही चल रही हैं।


    सड़क हादसों से संबंधित जो अध्ययन हुए हैं, उनकी पड़ताल करने पर पता चलता है कि ज्यादातर हादसे जल्दबाजी में चालक की गलती से होते हैं। शराब पीकर वाहन चलाने और सड़कों की खस्ता हालत भी दुर्घटना की वजहों में शामिल हैं। हालांकि दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में सड़कें अपेक्षाकृत बेहतर हैं, लेकिन यातायात संकेतों को नजरअंदाज करने और दूसरे  वाहन से आगे निकलने  की होड़ में घटनाएं घट रही हैं। पिछले साल पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे की मौत भी ऐसी ही लापरवाही के चलते हुई थी।


पिछले डेढ़ दशक में देशभर की सड़कों पर क्षमता से अधिक वाहन सड़कों पर आए हैं। सुप्रीम कोर्ट में दर्ज की गई एक याचिका में दिए आंकड़ों से पता चलता है कि 2010 में भारत में करीब 46.89 लाख किलोमीटर सड़कें और 11.49 करोड़ वाहन थे। नतीजतन 4.97 लाख सड़क हादसे हुए। इन हादसों में ज्यादातर मरने वाले लोगों में 40 फीसदी, 26 से 45 आयुवर्ग के होते हैं। यही वह महत्वपूर्ण समय होता है, जब इन पर परिवार के उत्तरदायित्व के निर्वहन का सबसे ज्यादा दबाव होता है। ऐसे में दुर्घटना में प्राण गंवा चुके व्यक्ति के परिजनों पर सामाजिक, आर्थिक और आवासीय समस्याओं का संकट एक साथ टूट पड़ता है। इन हादसों में 19 से 25 साल के इतने युवा मारे जाते हैं, जितने लोग कैंसर और मलेरिया से भी नहीं मरते। ये हादसे मानवजन्य विसंगतियों को भी बढ़ावा दे रहे हैं। आबादी में पीढ़ी व आयुवर्ग के अनुसार जो अंतर होना चाहिए,उसका संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। यदि सड़क पर गति को नियंत्रित नहीं किया गया तो 2020 तक भारत में 700000 और दुनिया में प्रति वर्ष 84 लाख से भी ज्यादा मौतें सड़क हादसों में होगी। नतीजतन संबंधित देशों को 235 अरब रुपए की आर्थिक क्षति झेलनी होगी। ऐसे में शायद आबादी नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन की जरुरत ही नहीं रह जाएगी ?


     हादसों पर नियंत्रण के लिए केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकारी ने मोटर वाहन अधिनियम में बदलाव के संकेत दिए हैं। तीन बार यातायात संकेत का उल्लंघन के बाद चालक का अनुज्ञा-पत्र (लायसेंस) छह माह के लिए निलंबित कर दिया जाएगा। इसके बाद संकेतक को ठेंगा दिखाया जाता है तो लायसेंस हमेशा के लिए रद्द कर दिया जाएगा। शराब पीकर वाहन चलाने और गाड़ी चलाते में मोबाइल पर बात करने वाले चालकों पर भी सख्त कार्रवाई की दरकार है। यहां सवाल उठता है कि ऐसी कार्रवाईयों की हकीकत कैसे जानी जाएगी ? हमारा यातायात अमला  एक तो भ्रष्ट है, दूसरे कर्त्तव्य स्थल से ज्यादातर समय नदारद रहता है, तीसरे कई बार यातायात कर्मियों को भी कर्त्तव्य पालन के दौरान नशे की हालत में पकड़ा गया है। इसलिए यातायात पुलिस को सुधारे बिना सख्त कानून बन भी जाएं, तो उनसे होगा क्या ? लिहाजा कानूनी सख्ती से कहीं ज्यादा यातायात पुलिस को सुधारने की जरुरत है।


    यातायात सुचारु रूप से संचालित हो, इसके लिए जापान, अमेरिका और सिंगापुर के यातायात कानून से भी सीख लेने की बात कही जा रही है। खासतौर से यूरोपीय देशों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक आचार संहिता लागू है, जिसका ज्यादातर देश पालन करते हैं। इस संहिता के मुताबिक यदि किसी कार की गति 35 किमी प्रति घंटा है, तो दो कारों के बीच की दूरी 74 फीट होनी चाहिए। 40 मील प्रतिघंटा की रफ्तार होने पर यह अंतर 104 फीट और 45 फीट की गति पर यह अंतर 132 फीट होना चाहिए। संहिता में चालकों के नियम भी तय किए गए हैं। यदि चालक की मुट्ठी बंद करने की ताकत पौने सोलह किलोग्राम से कम निकलती है तो माना जाना चाहिए कि यह व्यक्ति वाहन चलाने लायक नहीं है। संहिता की शर्त के मुताबिक वाहन चलाने लायक उस व्यक्ति को माना जाएगा जो 20 मीटर आगे चल रहे वाहन का नंबर आसानी से पढ़ ले। हमारे यहां तो 80 साल के शक्ति और दृष्टि से कमजोर हो चुके बुजुर्ग भी सड़कों पर वाहन चलाते खूब देखे जाते हैं। फिर वाहनों के अनुपात में हमारी सड़कों पर जगह भी नहीं है। 74 फीट दूरी बनाएं रखने की बात तो छोड़िए, देश के महानगरों में 2 से 5 फीट की दूरी वाहनों के बीच बनाए रखना मुश्किल हो रहा है।

जाहिर है, हम लायसेंस प्रणाली को श्रेष्ठ बनाने के लिए बात भले दुनिया के देशों का अनुकरण करने की करें, लेकिन नतीजे कारगर निकलें ऐसा नामुमकिन ही है ? लिहाजा सड़कों से वाहन कम किए बिना दुर्घटनाओं से छुटकारा मुश्किल है। किंतु कार लॉबी हमारे यहां इतनी मजबूती है कि वह कारों के उत्पादन में कमी लाने नहीं देगी, बल्कि उसकी तो कोशिश है कि कारें सड़कों पर निर्बाध चलें। इसके लिए पदयात्री, साइकिल और साइकिल रिक्शा को ही सड़कों से हटा दिया जाए ? इस परिप्रेक्ष्य में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में एक अधिवक्ता आदर्श मुनि त्रिवेदी ने पैदल चलने का अधिकार सुनिश्चित किए जाने की दृष्टि से जनहित याचिका दायर की हुई है। इसका फैसला आने में तो अभी वक्त लगेगा, लेकिन सड़क हादसों में निकट भविष्य में कोई अकल्पनीय कमी आए, असंभव ही है।

 

प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007
   
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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रचनाकार: सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होते युवा
सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होते युवा
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