विनोद भारद्वाज ने फ़ेसबुक में अपने समकालीन रचनाकारों पर अपने संस्मरणों का सिलसिला लिखना शुरू ही किया था कि यकायक वह खत्म भी हो गया . वे...
विनोद भारद्वाज ने फ़ेसबुक में अपने समकालीन रचनाकारों पर अपने संस्मरणों का सिलसिला लिखना शुरू ही किया था कि यकायक वह खत्म भी हो गया. वे लिखते हैं -
हिंदी में दूसरी भाषाओँ के मुकाबले में अच्छी आत्मकथा या जीवनी क्यों नहीं है?क्यूंकि सब अच्छी बातें देखना और पढ़ना चाहते हैं. मरने के बाद भी लम्बे समय तक तथ्य छिपाए जाते हैं, परिवार के सदस्यों, जीवनी लेखकों द्वारा. मंटो ने सितारा देवी पर जिस साहस से लिखा वह हमारे यहाँ दुर्लभ है. हम एक प्रसिद्द चितेरी पर दूरदर्शन के लिए फिल्म बना रहे थे पर वर्तमान पति ने शर्त रख दी कि पूर्व पतियों का नाम तो दूर, ज़िक्र भी नहीं होगा. टॉलस्टॉय या हेमिंग्वे पर अच्छी जीवनियां कैसे लिखी गयीं?लिखने क़ी आज़ादी और दस्तावेज़ों तक पहुँचने क़ी सुविधा के कारण. इसलिए मेरे संस्मरणों का सिलसिला फ़िलहाल समाप्त.
बचे हुए दोस्त भी नहीं रहेंगे.
बहरहाल, उन संस्मरणों को यहाँ संजोया गया है, ताकि सनद रहे -
संस्मरण 1
श्रीकांत वर्मा अभी राजनीति में कम सक्रिय थे, उनमें परिहास भाव मौजूद था. विशेष संवाददाता होने के कारण दिनमान के दफ्तर थोड़े समय के लिए ही आते थे. रघुवीर सहाय से उनकी बनती नहीं थी. नई गाड़ी खरीदी तो बहुत तेज़ चलाते थे. बोले, गंगाप्रसाद विमल ने लिफ्ट मांगी, तो मैंने कहा साहित्य में आपको लिफ्ट मिले न मिले, कार में मिल जाएगी. एक बार दो लड़कियों ने लिफ्ट मांगी. श्रीकांतजी नर्वस दिख रहे थे. जब वे उतर कर धन्यवाद देने जा रही थीं, तो नर्वस श्रीकांतजी ने उन्हें ही थैंक्यू कह दिया. उन्हें महंगे पेन कलेक्ट करने का बेहद शौक था. बच्चों की तरह अपने नए खरीदे पेन एक एक कर के दिखाते थे. पर मुझे सस्ते पेन अच्छे लगते थे, उपयोगी और खोने के डर से मुक्त.
संस्मरण 2
अज्ञेय से कई बार मुलाकात हुई, पर बात ज्यादा नहीं हो पाती थी. शुरू में लखनऊ में कुंवर नारायण के यहाँ आनेवाले थे, तो उनका ड्राइवर परेशान था. बोला, क्या डालमिया जी आनेवाले हैं. मैंने कहा साहित्य के तो डालमिया ही हैं. उनके साथ पैदल घूमने का मौका मिला, तो वो लगभग एक एग्जामिनर की तरह रास्ते के पेड़ों के नाम पूछते रहे. बाद में मैंने एक कविता में एक पंक्ति लिखी, पेड़ जिनके नाम मैं नहीं जानता. अंतिम दिनों में इलाजी ने जोर दिया, कभी घर आ कर पेड़ पर बने मकान को देखिये. दिलचस्प मकान था. मैंने अज्ञेय को बताया, अक्सर मैंने दिल्ली की ठुंसी हुई बस में टिकट के पीछे कवितायेँ लिखी हैं. वो मुस्कुराये. बोले, मैंने भी कई बार एयर टिकट पर कवितायेँ लिखी हैं.
संस्मरण 3
भवानी प्रसाद मिश्र को मैंने 1965 में लखनऊ के कान्यकुब्ज कॉलेज के एक साहित्यिक कार्यक्रम में गीतफरोश कविता पढ़ते हुए देखा था. उस कार्यक्रम में केदारनाथ सिंह, हरिशंकर परसाई आदि कई बड़े नाम थे पर भवानी भाई ज़बरदस्त हिट थे. मैं तब ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था. कॉलेज स्टेशन से दूर नहीं था और भवानी भाई को दिल्ली की रात की गाड़ी पकड़नी थी. वो मंच से उतरे तो ऑटोग्राफ लेनेवालों की भीड़ में मैं भी शामिल था. लेकिन मैं अपने मिशन में सफल नहीं हो सका. 1967 में मैं जब लघु पत्रिका आरम्भ से जुड़ा तो मैंने पता खोज कर उन्हें एक प्रति भिजवाई. मेरे पास 25 अगस्त 1968 का उनका हाथ का लिखा एक पोस्टकार्ड आया. एक छोटी सी कविता थी और साथ में एक छोटा सा पत्र, अब तक आरम्भ के दो अंक मिल चुके हैं. लगातार बीमार हूँ. कुछ भेज नहीं पाया. लिख तो लेता हूँ मगर उसकी नक़ल करना कठिन हो जाता है, इसलिए एक छोटी सी रचना भेज रहा हूँ. काम के लायक लगे तो कृतज्ञता का अनुभव करूँगा. नीचे ब्रैकेट में लिखा था उपयोगी न लगे, तो सूचित करना भी जरूरी नहीं है. घर में बच्चे सूचना पढ़ेंगे तो उन्हें क्या कह कर समझाऊंगा. और यह कविता आरम्भ में छप नहीं पाई. 1974 में नेमिचन्द्र जैन की बेटी कीर्ति जैन दूरदर्शन में काम करती थीं. उन्होंने एक कविता पर बातचीत में अज्ञेय, शमशेर, भवानी भाई, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे के साथ एक युवा प्रतिनिधि के रूप में मुझे इन दिग्गजों के बीच बैठा दिया. मेकअप रूम में भवानी भाई को मैंने नमस्कार किया पर पुरानी यादें उन्हें नहीं बताईं. मैंने नोट किया वे अपने मेकअप को ले कर काफी चिंतित थे.
मैं उन दिनों अपने मामा के यहाँ ठहरा हुआ था, उन्होंने कार्यक्रम देख कर यही कहा, विनोद तुमने टाई क्यों नहीं पहन रखी थी.
संस्मरण 4
कुंवर नारायण से मेरी पहली मुलाकात 1967 में लखनऊ में गंजिंग करते हुए हुई. मैं और कृष्णनारायण कक्कड़ शाम को बातें करते हुए हज़रत गंज में घूम रहे थे. कुंवर नारायण अपनी छोटी बीटल कार चलाते हुए दिखे और उन्होंने गाड़ी रोक कर कक्कड़ से कहा, आओ घर चलो. मुझे भी निमंत्रण मिल गया. कुंवरजी के महानगर स्थित प्रसिद्द घर का नाम था विष्णु कुटी. आज कोई चाहे तो खोज कर के विष्णु कुटी पर पूरी किताब लिख सकता है जहाँ अमीर खान, जसराज, बिरजू महाराज, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, कारंत, सयुंक्ता पाणिग्रही, सत्यजित राय, श्रीलाल शुक्ल आदि आ कर ठहरते थे या लम्बी शामें बिताते थे. कुंवरजी ने एक नई कविता सुनाई सूत्रधार और हमसे राय मांगी और मैंने अपने युवा उत्साह में कविता की कुछ आलोचना कर दी. रात को हम रिक्शे से जब लौट रहे थे, तो कक्कड़ लखनवी अंदाज़ में बोले, अमां तुम भी अजीब आदमी हो, इत्ते बड़े कवि की आलोचना कर रहे थे. उस दिन के बाद विष्णु कुटी के दरवाजे मेरे लिए हमेशा के लिए खुल गए. कुंवरजी का निजी पुस्तकालय बड़ा अद्भुत था, टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट की फाइल्स बहुत काम की साबित हुईं. अमीर खान की उनके घर की हंसध्वनि की रिकॉर्डिंग, रघुवीर सहाय की दे दिया जाता हूँ कविता की महान रिकॉर्डिंग मैंने वहीँ सुनी थीं. मैं दोपहर में गेस्ट रूम में सो जाता था और शाम को कुंवरजी से बातचीत में इक्कीस साल की उम्र का फासला कभी महसूस नहीं होता था. हम दोनों का सिनेमा प्रेम भी मित्रता का बड़ा आधार था. आज कुंवरजी दिल्ली में रहते हैं, अट्ठासी साल के हैं, आँखों की रोशनी कम है पर हमारी अद्वितीय दोस्ती में आज भी दम है. 67 में उनके बेटे अपूर्व को पालने में देखा था पर अब उससे भी दोस्त की तरह बहसें होती हैं. वो अक्सर कहता है आपको विष्णु कुटी पर किताब लिखनी चाहिए, पर मैं शायद उस पर अब उपन्यास ही लिख सकता हूँ. अपूर्व को विष्णु कुटी के बिक जाने का हमेशा अफ़सोस होता है. मुझे भी.
संस्मरण 5
विष्णु खरे पर लिखना जितना मुश्किल है उतना ही उन्हें समझना. उनकी गिद्ध दृष्टि कुख्यात भी है. मेरा परिचय मुंबई से दिल्ली आने के बाद 1974 में उनसे हुआ. वह प्राग में रहने के बाद दिल्ली आ गए थे और उनके पास पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के कुछ अच्छे रिकॉर्ड थे. इस संगीत का मैं भी मुरीद था इसलिए उनके घर आना जाना शुरू हो गया. 1976 में देवप्रिया से मेरे विवाह के बाद उनकी पत्नी कुमुद भी मेरी पत्नी की अच्छी दोस्त बन गयीं. जब मैं अविवाहित था, तो एक बार दोपहर को खरे के घर चला गया, तो उन्होंने मुझे प्यार से डांट लगाई की मेरी अनुपस्थिति में तुम मेरे घर क्यों गए?अपनी सुन्दर पत्नी को ले कर वे बहुत पोज़ेसिव थे. लेकिन योग्यता और मानवीयता को अगर आधार बनाया जाये तो मैंने उन जैसा कोई व्यक्ति नहीं देखा. उनके काम भी अनोखे होते थे. नामवर सिंह से एक बार अनबन हो गई तो लम्बे समय के लिए वे गायब हो गए. नामवरजी को अपने दोस्त पुलिस अधिकारी मार्कण्डेय सिंह की मदद से उन्हें खोजना पड़ा. श्रीकांत वर्मा उनकी योग्यता के बहुत प्रशंशक थे पर अंतिम दिनों में उनकी खरे से बात नहीं होती थी. लेकिन जब न्यूयॉर्क से उनका शव दिल्ली आया, तो वही अकेले लेखक थे जो शव दुर्गन्ध से भरे बॉक्स को खोलने में लगे हुए थे. किसी को दिखाने के लिए नहीं, एक मित्र अग्रज कवि के प्रति श्रद्धांजलि के लिए. खरे के जीवन से कई तथ्य निकाल कर उन्हें बदनाम किया जा सकता है, आखिर कौन है जो आदर्श पुरुष हो?
इधर मुझे खुद उनकी गुस्से की उबलती उफनती भाषा से कभी कभी निराशा होती है पर अचानक उनका कोई अच्छा स्कॉलरली लेख पढ़ कर या अच्छी कविता पढ़ कर सब भूल जाता हूँ. उदय प्रकाश के पुरस्कार लौटाने के विवाद में हम दोनों की राय बिलकुल अलग थी पर हमारा संवाद बराबर बना हुआ था. एक बार जब मैं लंदन से लौटा, तो मालूम पड़ा की जनसत्ता में मेरे नई दुनिया में छपे हुसेन के इंटरव्यू पर उन्होंने मेरी जम कर धुनाई की थी. मैंने उन्हें बताया की आपका लेख मैंने पढ़ा ही नहीं. वे बोले यही तो तुम्हारी स्नॉबरी है.
. इस समय हिंदी में उन जैसा आधुनिक विद्वान मुझे तो नहीं दीखता. पर उनकी विवादास्पद काली ज़ुबान उन्हें अलोकप्रिय बनाये रखेगी. लेकिन शहद वाली ज़ुबान से आज कुछ बदलेगा क्या?अशोक वाजपेयी अपनी किताब में अपने परिचय में खुद अपने को सर्वाधिक विवादास्पद संस्कृतिकर्मी कहते रहे हैं. विष्णु खरे कहे बिना ही सर्वाधिक विवादास्पद साहित्यकर्मी हैं. उन्होंने 75 की उम्र के प्रस्तावित शानदार जलसों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया. अपने कस्बे छिंदवाड़ा में पड़े अपना काम किये जा रहे हैं. वो पंख फ़ैलाने वाले बूढ़े गिद्ध नहीं हैं.
इस संस्मरण पर विष्णु खरे ने अपनी लंबी टिप्पणी दी -
(Vishnu Khare writes about my memoir on him )
मुझे यह अजीब लगता है कि विनोदजी अपनी इन बेहद खफीफ़ टिप्पणियों को संस्मरण या memoirs कह कर उस विधा को बदनाम और हास्यास्पद करते हैं. उनकी समस्या यह है कि वह साहित्य और पत्रकारिता में long-distance runner या बड़े ख़याल के गायक हैं ही नहीं. पत्रकारिता के पतन के इस युग में वह लगातार घटिया संपादकों की दर्ज़ीगीरी को सर-आँखों पर रख कर डाक-टिकट साइज़ का लेखन करते रहे हैं. वह उनके सुभीते का भी है. उन्होंने अपनी सर्जनात्मक काहिली को अपना सद्गुण समझ और बना डाला है.
जब विनोदजी कहते हैं कि मुझे ( विष्णु खरे को ) समझना मुश्किल है तो मुझे यह पुरानी हिंदी फिल्मों और माया-मनोहर कहानियाँ का रोमांटिक-सा जुमला समझ में नहीं आता. मैंने खुद कभी यह नहीं कहा कि मुझे समझा नहीं गया. मैंने हिंदी और अंग्रेजी दोनों में जो भी जितना भी लिखा है वह ''दो अर्थों के भय'' से मुक्त है. स्पष्ट गद्य लिखना यदि मैंने सीखा भी है तो हिंदी में अन्य के अलावा प्रेमचंद, मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई से, गीताप्रेस गोरखपुर के सम्पूर्ण 'महाभारत' के अनुवाद से, और अंग्रेज़ी में थैकरे, डिकेंस, हार्डी और फ़ोर्स्टर जैसे बरतानवी उपन्यासकारों और एफ़. आर. लीविस, टी एस एलिअट, टैरी ईगिल्टन और फ़्रैंक कर्मोड जैसे महान आलोचकों से. मेरे यहाँ शायद इसीलिए भाषा का जर्मन, फ्रैंच या अमरीकी घटाटोप नहीं है, मैं अंग्रेज़ों और कुछ अमरीकियों की कॉमनसैंस का पक्षधर हूँ, इसीलिए मार्क्सवाद का.
विनोदजी जिन्हें पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के कुछ अच्छे रिकॉर्ड कहते हैं वह करीब 90 लॉन्ग-प्लेइंग एक्रिलिक तवे थे. वैसा संग्रह हिंदी में शायद आज भी किसी के पास नहीं है. अब तो मेरे पास सीडी पर बेटहोफ़ेन और मोत्सार्ट के कम्प्लीट वर्क्स भी हैं . वैसे आइट्यून्स ने इस सब को सामान्य बना डाला है. हिंदी के कुछ लेखक हिन्दुस्तानी संगीत में दिलचस्पी और गति का स्वांग तो करते हैं, पश्चिमी क्लासिकल संगीत को लेकर तो एकदम सिलपट हैं. यूँ वह प्रतिष्ठा का प्रश्न भी नहीं बनाया जा सकता - कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन. जहाँ तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का सवाल है, मेरे पिता एक साधारण स्वशिक्षित गायक-वादक थे, हमारे यहाँ सितार, बांसुरी, हार्मोनियम शुरू से थे, मेरे दादा छिंदवाड़ा में रामलीला के एक स्तम्भ थे, और मैं पलुस्कर, विष्णुपंत पागनीस और मनहर बर्वे को सुनता बड़ा हुआ हूँ. सहगल और जूथिका राय को तो सुना ही है. मेरा मूल नाम विष्णुकांत विष्णुपंत के वज़न पर रखा गया था क्योंकि मेरे प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर मुन्नू खान मास्साब को विष्णुपंत नाम न समझ में आया था न जँचा था. ग्रामोफोन को बचपन से देखा-बजाया है और प्रभूलाल गर्ग उर्फ़ काका हाथरसी द्वारा स्थापित-संपादित मासिक संगीत हमारे यहाँ 1945 से आता रहा.
मेरी सुन्दर पत्नी, अल्लाह करे जोरे-हुस्न और जियादा, अब भी मेरे समकालीन और बाद के हिंदी साहित्यकारों की पत्नियों से अधिक सुन्दर है. दरअसल वह भारत की एक सुन्दरतम औरत है. उसे लेकर possessive होने की ज़रूरत मुझे इसलिए कभी नहीं हुई क्योंकि हमारा बहुत ही रोमांचक और फ़िल्मी-औपन्यासिक अंतर्जातीय प्रेम-विवाह है, लेकिन वह लंबा किस्सा है. दुर्भाग्यवश उसके कारण ही मैं दूसरों की पत्नियों को लेकर possessive नहीं हो सका. यह एक तमीज़दारी की बात है कि यदि आप मेरी पत्नी के मित्र नहीं हैं तो उसके बिन-बुलाए आप मेरी गैर-मौजूदगी में उसके यहाँ नहीं जाएँगे. आप इतने बेतकल्लुफ और आत्म-मुग्ध हो कैसे सकते हैं कि मेरी पत्नी की प्राइवेसी की परवाह न करें ? लेकिन विनोदजी में एक Peter Pan और Narcissus ग्रंथि हमेशा से देखता आया हूँ - यह तब जबकि वह स्वयं को साइकोलॉजी का एम. ए. बतलाते हैं.
मैं वाक़ई जानना चाहूँगा कि मेरे जीवन से कौन से कई तथ्य निकालकर मुझे बदनाम किया जा सकता है ? मैं तो वर्षों से चुनौती दे रहा हूँ और प्रतीक्षा में हूँ कि ऐसा कोई मरजीवड़ा अपने असली नाम से उन ''तथ्यों'' का भंडाफोड़ करे तो सही. लेकिन हिंदी में ऐसा इशारिया चरित्र-हनन आम चटखारेदार बात हो चुकी है. यह आकस्मिक नहीं है कि विनोदजी, जो अभी कुछ ही दिनों पहले तक 'अज्ञेय' से भी ज्यादा चुप्पा हुआ करते थे, आज Faecesbook के सबसे सक्रिय हिंदी सदस्यों में गिने जाते हैं.
यह कहना गलत है कि श्रीकांतजी के अंतिम दिनों में मेरी उनसे कुछ अनबन हो गई थी. यही है कि मैंने कभी किसी की नवधा-भक्ति नहीं की. खुद श्रीकांतजी इसकी कद्र करते थे और उन्होंने मिनीमाता और इंदिरा गांधी को छोड़ किसी को आराध्य नहीं माना. उनकी पत्नी और बाद में राज्य सभा की सांसदा वीणा वर्मा को मैं अब भी अपनी बहन मानता हूँ, वह बता सकती हैं. मैं मृत श्रीकांतजी को देखनेवाला पहला लेखक ही नहीं था, मैं उन्हें जीवित विदा करनेवाला अंतिम लेखक भी था. सिर्फ वह और मैं देर रात तक ब्लैक लेबल पीते बैठे रहे. वह बहुत अकेले और उदास थे लेकिन उनकी सैंस ऑफ़ ह्यूमर बरकरार थी. रात को ही उन्हें एक लंबा फोन आया. मैं बैठा सुनता रहा. ख़त्म होने पर बोले, देखिए विष्णुजी लोग कितने राक्षस, स्वार्थी और कमीने हो गए हैं. इस साले ने मेरी तबियत के बारे में न पूछा और न कोई तसल्ली दी, जब कि जानता है मैं क्यों अमेरिका जा रहा हूँ. हरामजादा कह रहा है मुझे राज्य सभा का मेम्बर बनवा दीजिए. मैंने पूछा है कौन, तो बोले वही असमिया का उपन्यासकार अकादेमी का वाइस-प्रेसिडेंट वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य.
मैंने अपनी शैली में जीवन जिया है और उसमें शायद इतना खोया है जितना लोग दस जन्मों में कमा नहीं सकते. लेकिन इसमें मुझे हमेशा मज़ा आया है. वर्ना हम कबीर, निराला, मुक्तिबोध आदि की बातें करते ही क्यों हैं ? काहे को अपमानित और exploit करते हैं मार डाले गए दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी को ? क्यों बनाते हैं शहीद हुसैन को, पढ़ते हैं उस पर कविता सुर्खरू होने के लिए ?
संस्मरण 6
मंगलेश डबराल मुझसे उम्र में कुछ ही महीने बड़े हैं यानी मेरी मित्र सूची के वे अपवाद हैं. जब मैं छोटा था, तो मेरे मित्र उम्र में काफी बड़े थे और अब जब बड़ा हूँ तो मेरे अधिकांश मित्र कम उम्र के हैं. 13 अक्टूबर 1967 को मंगलेशजी ने मुझे अपने गाँव काफलपानी से एक पत्र लिखा यह सोच कर कि मैं कोई वरिष्ठ संपादक हूँ. उन्होंने लिखा कि अपने अभाव दंशित परिवेश क़ी असुविधाओं और असामयिकताओं ने इस कदर तोड़ दिया है कि इस उन्नीस साल क़ी अवस्था में ही एब्सर्ड सा हो गया हूँ. मंगलेश अपनी उम्र के व्यक्ति को ही एक नए उभरते छोकरे की छटपटाहट बता रहे थे.
खैर, यह हमारी दोस्ती क़ी अच्छी शुरुआत थी. दिल्ली में लम्बे समय तक मंगलेशजी मेरे घर के पास ही रहते रहे हैं इसलिए अस्सी और नब्बे के दशक में उनके साथ कई यादगार शामें बीती हैं. अमीर खान और भीमसेन जोशी क़ी दुर्लभ रिकॉर्डिंग्स वे खोज खोज कर लाते रहते थे और शाम जब मस्ती के शिखर पर होती थी तो वे खुद भीमसेन जोशी का मंगलेश अवतार बन जाते थे. मैंने जनसत्ता के पहले अंक में उनके कहने पर चित्रकार स्वामीनाथन का इंटरव्यू किया था और कई साल तक उनके लिए कला का कॉलम लिखा. उन दिनों मैं अपनी हर नई कविता उनके संपादन में छपवाता था. मेरे विचार से अगर मंगलेशजी नियमित सिनेमा और कला पर लिखते तो बहुत अच्छे कवि होने के अलावा चोटी के फिल्म और कला समीक्षक भी होते. नेरुदा ने अपनी आत्मकथा में रूस में युद्ध के बाद पायी गयी वाइन क़ी बोतलों के मुफ्त वितरण का ज़िक्र किया है. हर व्यक्ति को लाइन में खड़े हो कर अपने हिस्से क़ी बोतल लेनी होती थी. नेरुदा ने लिखा है आखिर कवि तो कवि होते हैं. बार बार लाइन में खड़े हो जाते थे. हम लोगों ने इस आवारगी का काफी आनंद उठाया है
. सिर्फ एक किस्से का बयान करूँगा. मैं एक बार ब्रिटिश कौंसिल के निमंत्रण पर लंदन गया, तो मंगलेशजी ने अपने लिए पार्कर पेन मंगवाया. मैंने उसे ला दिया. कुछ साल बाद एक कवयित्री मुझे एक लिफाफा दे गयी कि मंगलेशजी ने आपके लिए भेजा है. उसके जाने के बाद मैंने लिफाफा खोला, उसमें वही पेन था, एक पत्र कि आपका पेन लौटा रहा हूँ और 250 का एक चेक भी था कि यह पेन इस्तेमाल करने का शुल्क है. इस भावुकता का कारण? वो कवयित्री जो अपनी कवितायेँ मंगलेशजी को दिखाने आती थी वो मंडी हाउस में मेरे साथ एक दिन देखी गयी. आखिर कवि, तो कवि होते हैं. अब आप पूछेंगे चेक भुनाया कि नहीं? जाहिर है वो आज भी मेरे संग्रह में है. पर मंगलेश के साथ शाम हमेशा एक अद्भुत अनुभव है. मेरे प्रिय कवि और संपादक.
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