08 सितंबर साक्षरता दिवस पर..... साक्षरता को प्राथमिकता में शामिल करना जरूरी सिद्धांत विहीन कार्यक्रम है घातक .... -डॉ. सूर्यकांत ...
08 सितंबर साक्षरता दिवस पर.....
साक्षरता को प्राथमिकता में शामिल करना जरूरी
सिद्धांत विहीन कार्यक्रम है घातक ....
-डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
साक्षरता और शिक्षा के मामले में हमारे देश की स्थिति ऐसी नहीं है कि हमें वही सदियों पुरानी लार्ड-मैकाले की बतायी हुई लीक पर चलना पड़े। समाज और व्यक्तित्व निर्माण वाले इस अहम क्षेत्र में हमारा अपना नजरिया कमजोर नहीं है। भले ही बदली हुई परिस्थिति में हम जगतगुरू बनने की अपनी क्षमता को भूल चुके हों, फिर भी इतना अवश्य है कि अपनी निजी सामयिक आवश्यकताओं की प्रति-पूर्ति कर सकने वाली साक्षरता और शिक्षा प्रणाली की कमी हमारे अपने देश में नहीं है। वास्तव में हम वर्तमान में अपनी आवश्यकता को सही ढंग से पहचान नहीं पा रहे हैं, और शिक्षा के मामले में प्रयोग-दर-प्रयोग हमें और अधिक भटकने की स्थिति प्रदान कर रही है। वास्तव में क्या पढ़ा जाये? कितना पढ़ा जाये? क्यों पढ़ा जाये? इन प्रश्नों के साथ ही यह सवाल भी उठता है कौन पढ़ाए और किस प्रकार पढ़ाए? आज इन सभी प्रश्नों का एक प्रमाप उत्तर समय की बड़ी माँग के रूप में दिख रहा है। इन सारी समस्याओं के निरीक्षण-परीक्षण के बगैर साक्षरता का दीप प्रज्ज्वलित करना ही इस क्षेत्र में हमारे मानसिक दिवालियापन का प्रमाण है। आज सिद्धांत विहीन शिक्षा और ऐसा ही साक्षरता कार्यक्रम पूरे समाज को हैरान और परेशान कर रहा है।
साक्षरता को विकास और सभ्यता की बैशाखी बनाने के लिए जरूरी है कि शिक्षा का वातावरण और अनुशासन अपनी व्यवस्था के आधार पर तय किया जाये। अनुशासन की नियमावली बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि बनायी गयी नीति का पालन अध्यापक और विद्यार्थी द्वारा किये जाने पर उपयुक्त ढांचे में ढलकर नीतिवान और पराक्रमी विद्यार्थी देश और समाज को दिशा दे सकें। छात्रों के व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की प्रभावकारी विधि-व्यवस्था भी हमारे पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होनी चाहिए। भारतवर्ष के सबसे बड़े मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले शिक्षा मंत्रालय और उसके कर्णधार भारसाधक को यह पता होना चाहिए कि पाठ्य पुस्तकों में किस तरह का पाठ्यक्रम सम्मिलित किया जाये? जहाँ तक मेरी अपनी समझ है पाठ्यक्रम का स्वरूप इस प्रकार का हो जो भावी जीवन की समस्याओं का समाधान ढूंढ सके। वह व्यवहारिक होने के साथ भविष्य की कठिन परिस्थितियों का ज्ञान करा सके। इतिहास को विस्तृत रूप में पढ़ाने से अच्छा छोटी-छोटी कहानी के रूप में समझाया जाना ज्यादा लाभकारी हो सकता है। सामान्य स्तर के छात्रों पर ऐसे विषयों का लादा जाना उचित नहीं कहा जा सकता जिनकी जरूरत जीवन में न पड़ने वाली हो। हमारे साक्षरता और शिक्षा कार्यक्रम ऐसे ही उल जुलूल विषयों से भरे पड़े हैं। इससे श्रेष्ठ तो यह है कि उन्हें शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक विषयों की ऐसी जानकारी दी जाये जिसके आधार पर उन्हें भावी जीवन के समाधान में सहायता मिल सके। वह अपने और अधिकारों की परिधि से भली प्रकार अवगत होकर सुयोग्य नागरिक बन सके। भारतवर्ष की शिक्षा पद्धति पर कटाक्ष करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार श्री लाल शुक्ल ने अपनी ख्यातिप्राप्त कृति रागदरबारी में लिखा है :-
आधुनिक शिक्षा पद्धति सड़क किनारे पड़े - डिस्पोजल की तरह है,
जिसे कोई भी लात मारकर आगे बढ़ सकता है।
शिक्षा के क्षेत्र में गति और विकास लाने के उद्देश्य से ही शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल किया गया। हमारा साक्षरता कार्यक्रम और दशकों पूर्व बनायी गयी पूर्ण साक्षरता की योजना धूल-धूसरित दिखायी पड़ रही है। हमने यह कल्पना की थी कि सन् 2001 से 2011 के बीच हम योजना को भली प्रकार लागू करते हुए पूर्ण साक्षरता का दर्जा पा लेंगे, किन्तु जैसी हमारे देश की अन्य योजनाऐं असफल होती रही हैं, वैसी ही हालत साक्षरता के मामले में भी दिखायी पड़ रही है। हमने सन् 2015 के 8 माह भी पार कर लिये हैं, बावजूद इसके साक्षरता का प्रतिशत 60 से 65 के बीच ही अटका पड़ा है। अभी भी हमारे देश की लगभग 45 करोड़ जनता ऐसी है जिसके लिए अक्षर ज्ञान- काला अक्षर भैंस बराकर से कम नहीं है। यह कहना गलत हो सकता है कि देश की सरकार ने साक्षरता के लिए प्रयास नहीं किया बल्कि अरबों रूपये का बजट भी इस मद में खर्च हो चुका है। बावजूद इसके साक्षरता का प्रतिशत न बढ़ना अथवा निरक्षरता का कलंक न धुल पाना कहीं न कहीं मिशन को सौंपी गयी जवाबदारी का सही ढंग से पालन न होने का ही प्रतीक है। औपचारिक शिक्षा के जरिये प्रौढ़ों और बुजुर्गों को शिक्षित करने की मुहिम अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक गयी। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही है कि हम शिक्षा और साक्षरता के लिए बनाये जाने वाले बजट की पूरी राशि भी योजनाओं में खर्च नहीं कर पा रहे हैं, जबकि यह कुल आय का महज तीन से चार प्रतिशत ही होती है। यदि हम अन्य देशों के शिक्षा बजट की राशि पर नजर दौड़ाएं तो वह हमारे रक्षा बजट की राशि से तीन से चार गुना ज्यादा ही है।
विभिन्न संगठनों द्वारा कराये गये सर्वे के आँकड़े बताते है कि विशेष रूप से छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में साक्षरता की समस्या विकराल रूप में मौजूद है। इस प्रकार की स्थिति स्कूलों में खराब बुनियादी ढांचा, ग्रामीण इलाकों में ज्यादा पढ़ने वाली लड़कियों की शादी की समस्या तथा शालाओं में अध्यापन कार्य के लिए शिक्षक - शिक्षिकाओं की कमी से उत्पन्न हो रही है। इसी तरह बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखण्ड, राजस्थान और जम्मु कश्मीर में हर दूसरी छात्रा पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती है। लड़कियों को घर के रोजमर्रा के काम और छोटे भाई-बहनों की देखभाल में हाथ बंटाना पड़ता है। सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाएं निचले स्तर पर सही हकदारों तक नहीं पहुंच पा रही है।
भारत वर्ष में जहाँ सबको निःशुल्क व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने में तमाम मुश्किलें आ रही हैं, वहीं सबको अच्छी माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा मुहैया कराना एक खयाली पुलाव बनकर रह गया है। वर्तमान की बात करें तो सवा अरब की जनसंख्या वाले भारत वर्ष में महज 2 करोड़ युवा ही उच्च शिक्षा के अवसर हासिल कर पा रहे है। कुल मिलाकर शिक्षा और साक्षरता के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। समस्याओं का निराकरण एक बड़ी चुनौती है।
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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