नरेन्द्र जैन की कविता लगभग चार दशकों से हमारे ज़ेहन में दस्तक दे रही है। हिन्दी की आधुनिक प्रगतिशील कविता की अगर बात करें तो हम सहज ही इस नि...
नरेन्द्र जैन की कविता लगभग चार दशकों से हमारे ज़ेहन में दस्तक दे रही है।
हिन्दी की आधुनिक प्रगतिशील कविता की अगर बात करें तो हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वह कविताएँ जिनका राजनीतिक दृष्टिकोण तो सही होता है पर उनमें कलात्मक प्रतिभा का अभाव होता है। अतः वह शक्तिहीन हो जाती है। दूसरी ओर हम कविता में एक अमूर्त और बिल्कुल अपरिवर्तनीय कलात्मक मापदंड को भी मानने से इनकार करते हैं। हम फिर उसी कविता की बात करते हैं जो थोकबंद हिसाब से लिखी गईं और लिखी जा रही हैं जो प्रगतिशीलता की बात करते हुए भी नारेबाजी और पोस्टरबाजी की कविता बन कर रह जाती है और जिनमें कलात्मकता का नितांत अभाव होता है। नरेन्द्र जैन की कविता इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का विरोध करती हैं और भाषाई चमत्कार, आडम्बर, छंदात्मकता आदि से एक सतर्क परहेज़ बरतते हुए आधुनिक भावबोध से लैस कविता के रूप में हमारे सामने आती है। हम कह सकते हैं कि नरेन्द्र जैन शब्दों की मितव्ययिता के भी कवि हैं। लंबी कविताएँ उन्होंने कम ही लिखी हैं, इसीलिए उनकी कविता का बड़ा कॉम्पेक्ट (सघन) प्रभाव पड़ता है। नरेन्द्र जैन की कविता जीवन, समाज और समय की सहज अभिव्यक्ति से उपजे सौन्दर्यबोध की कविता है। उनकी वैचारिक प्रतिब(ता स्पष्ट है। उनका हर शब्द प्रतिपक्ष का शब्द है। उनकी अनेक कविताओं में जो फंतासी और अमूर्तन दिखता है वह भी वस्तुतः हमारे जीवन का ही आख्यान है।
नरेन्द्र वामपंथी राजनीति के कायल हैं। फिर भी वह अलग से कोई राजनैतिक कविता लिखने नहीं बैठते। कविता में किसी राजनैतिक घटना-क्रम को इंपोज़ नहीं करते बल्कि राजनीति उनकी कविता में सहज रूप से समाहित होती है। इसलिए उनकी कविता में विचार का फेन तैरता नज़र नहीं आता। नरेन्द्र जैन ने पाब्लो नेरुदा, बर्तोल्त ब्रेख़्त, लोर्का, निकोनार पारा, नाज़िम हिकमत तथा अफ्रीकी, अमेरिकी और विश्व के अनेक देशों के कवियों की कविता का अनुवाद किया है तथा ज्याँ पाल सार्त्र उनके प्रिय लेखक रहे हैं। यहीं से उनका मार्क्सवाद से सरोकार और विश्व-दृष्टि बनती है। नरेन्द्र जैन की कविता में हमारे समय का धूसर परिदृश्य और बीहड़ चित्रांकन है जो अत्यंत मानवीय और संवेदनशील तरलता के साथ हमारे समय का साक्षात्कार कराता है। नरेन्द्र का पहला प्रेम संगीत है। किसी ने लिखा है कि नरेन्द्र जैन की कविता संगीत के पड़ोस में रहती है। उन्होंने चित्र भी बनाए हैं जिन्हें देख कर कविता की स्मृतियां उभरती हैं। उनकी कविता में जो लय है, आंतरिक संगीत है वह उर्दू की तरक्कीपसंद शायरी की बरबस याद दिलाता है।
नरेन्द्र जैन की कविता हमारे समय की वह आधुनिक कविता है जो खुले अंतरिक्ष में विचरती है। उनके यहाँ परंपरा का कोई कट्टर आग्रह नहीं है पर उनकी जड़ें हमारी ही ज़मीन में फैली हैं। उनकी कविता हमारे समय का एक दुर्लभ दस्तावेज़ भी है जो जीवन और संघर्ष के सभी सजीव रूपों को आकार देती है।
2 अगस्त 1948 में जन्मे नरेन्द्र जैन 132, श्रीऔष्ण नगर, विदिशा में रहते हैं। दरवाज़ा खुलता है, तीता के लिए कविताएँ, यह मैं हूँ पत्थर, उदाहरण के लिए, सराय में कुछ दिन, काला सफ़ेद में प्रविष्ट होता है काव्य संग्रहों के साथ पुनरावलोकन कहानी संग्रह आपकी प्रकाशित पुस्तकें हैं।। इसी के साथ अनुवाद कार्य है जो प्रकाशनाधीन है। नरेन्द्र जैन बैंक से सेवानिवृत्त ज़रूर हो गए हैं लेकिन नौकरी में रहते हुए भी जैसे पूरी तरह लेखन को समर्पित थे, आज भी यही आलम है।
- अखिल पगारे
नरेन्द्र जैन की कविताएँ
एक काला रंग
एक काला रंग चुनो
उसमें जो
लाल हरी नीली ऊर्जा है
उसे बाहर लाओ
उसमें जो
लगातार दौड़ रहे हैं घोड़े
स्त्री, पुरुष, बच्चे
हँस रहे हैं
उनके संग झुंड बनाकर
नाचो
एक पत्थर उठाओ
उसमें चेहरे हैं
शुरू करो उनसे
बातचीत का सिलसिला
है उसमें
पानी का विस्तार
वहाँ उतर जाओ
कुछ आग बाक़ी होगी
इस अंधेरे में ले आओ
एक
काला रंग चुनो
तुम एक पत्थर उठाओ
न 1975
मेरे घर के सामने रहती है एक औरत
मेरे घर के सामने
रहती है एक औरत
जो शाम को संजा कहती है
और नवम्बर को कार्तिक
मुझे बहुत अच्छा लगता है
जो संजा होते ही
एक दीया जलाती है
और पड़ोस के एक कुत्ते के लिये,
जिसे वह मोती कहती है,
रोज़ एक रोटी बनाती है
मुझे बहुत अच्छा लगता है
जो इफ़्ते में एक दिन
गेरू और खड़िया से
आँगन और दीवार के हाशिये को रंगती है
और सुबह शाम
गमले में लगे पौधे को पानी देती है
मुझे बहुत अच्छा लगता है
मेरे घर के सामने रहती है एक औरत
न 1974
हज़ारासिंग का गिटार
(70 के दशक के प्रख्यात गिटारवादक हज़ारासिंग के सम्मान में यह कविता)
मेरी गली में
रहने वाला
बिजली मैकेनिक
हज़ारासिंग की बजायी
गिटार की धुन में डूब गया है
वह कहता है
हज़ारासिंग मेरा प्रिय वादक है
कल बिजली की
भारी मशीनों पर झुका
वह ज़रूर इसी धुन को गुनगुनाएगा
मैं खु़श होता हूँ
और मैकेनिक की सिगरेट से
अपनी सिगरेट सुलगाकर
हज़ारासिंग के गिटार में
डूबने की कोशिश करता हूँ
न 1972
आलमपनाह के बाद आलमपनाह
वे आये
उन्होंने पूछा
आलमपनाह के बाद कौन?
यहाँ से वहाँ तक दौड़ गई
मुल्क में चिंता की एक लहर
आलमपनाह के बाद कौन?
ज़रूरी थे आलमपनाह
ज़रूरी थी उनकी मौजूदगी
शुरुआत से वे
इतना मौजूद रहे
किसी ने कभी सोचा तक नहीं
आलमपनाह हो सकते हैं ग़ैरमौजूद भी
आलमपनाह जानते थे
आलमपनाह के आगे और पीछे
सिफर् आलमपनाह हो सकते हैं
आलमपनाह ने उनसे पूछा
मेरे बाद कौन?
उन्होंने आपस में पूछा
आलमपनाह के बाद कौन?
उन्होंने तय पाया
आलमपनाह के बाद सिफर्
आलमपनाह
उन्होंने कहा
कल आज और कल
सब आलमपनाह
सबने ली चैन की एक सांस
आलमपनाह के बाद आलमपनाह
न 1977
ख़बर
ख़बर जैसी होगी
उसी रफ़्तार
उसी आकार में फैलेगी
जंगल की आग
अचानक बारिश
और धूल के बवंडर सी उड़ेगी वह
ख़बर दौड़ती है
उड़ती है यहाँ अफ़वाह
अफ़वाह है कि राजा लापता है
ख़बर है कि मुक़ाबला कर रहा है
अफ़वाह है कि सेना ने हथियार डाल दिये
ख़बर है कि सेनापति कै़द कर लिया गया
अफ़वाह है कि क़ातिल को फाँसी होगी
ख़बर है कि मुठभेड़ में मारा गया
ख़बर बेशक अफ़वाह से
बेहतर चीज़ है
लेकिन यह भी सच है कि
यहाँ कोई ख़बर आती ही नहीं
देखा जाये तो
यहाँ हर शख़्स
एक
ख़बर के इंतज़ार में है
न 1978
एक दिन शिनाख़्त
एक दिन
हमसे पूछा जायेगा
हम क्या कर रहे थे?
एक दिन
हमसे पूछा जायेगा
हमारी नींद कितनी गहरी थी?
एक दिन
हमसे पूछा जायेगा
हमारी आवाज़ कौन छीनकर ले गया?
एक दिन
हमसे पूछा जायेगा
हमारी आँखों को एकाएक क्या हुआ?
एक दिन
हमारी नब्ज़
टटोली जायेगी
एक दिन
क़तार में खड़े
हम
अपनी अपनी सज़ा का
इंतज़ार कर रहे होंगे
संदर्भ : आपातकाल, 1975
वे
एक दरवाज़ा
वहाँ खुला हुआ है
उन्होंने एक दरवाज़ा
मेरे लिये खुला रखा है
वे
सब
एक दरवाज़े के पीछे खड़े
मेरा
इंतज़ार करते हैं
वे सोचते हैं
मैं कभी खुले दरवाज़े में
प्रवेश करूँगा
वे सब
बेहद चालाक हैं
उन्होंने एक दरवाज़ा
मेरे लिये
खुला रख छोड़ा है
न 1975
बूढ़े आदमी औरत की बातचीत
(जॉर्ज फ्लेमिंग की औति ‘‘इन द कैसल ऑव माय स्किन’’ के दो पात्रों से प्रेरित)
माँ
हाँ पा
पा
हाँ माँ
कितना जी लिये हम है ना
हाँ माँ कभी कभी बहुत अंधेरा लगता है
हाँ पा रोशनी कब रही हमारी दुनिया में
क़ब्र में लटके हैं
गाँव कहता है
हाँ माँ क़ब्र में लटके हैं
ग़ुलाम अब भी बिक रहे
हाँ पा सौ बरस गुज़र गये यही देखते
माँ
हाँ पा
तुम कहती थीं सब ठीक हो जायेगा
हाँ पा सब ठीक हो जायेगा
पा
हाँ माँ
हम फिर क़ब्र से लौटेंगे इधर
हाँ माँ हम लौटेंगे
पा
हाँ माँ
तुम ठिठुर रहे हो आओ गोद में
याद है जब तुम बच्चे थे
गर्म गर्म नींद, मीठे सपने
हाँ माँ याद है जब बच्चे थे
माँ
हाँ पा
हम फिर बच्चे होंगे
हाँ पा
नये नये बच्चे
नयी नयी ज़मीन
हाँ
माँ
हाँ पा
न 1977
जोख़िम का शब्द
क्या है जो
शब्द है कहीं
लेकिन अनुभव नहीं
जोख़िम का शब्द है यहाँ
पर जोख़िम कहाँ
कितनी मुश्किल से पहुँचा
मैं भाषा तक यहाँ
और अब कितनी आसानी से
भाषा को चलाता हूँ
मैं इस तरह
एक षड्यंत्र करता भाषा में
ऐसा लगता है
मेरे बच्चे
पढ़ते हैं एक निचुड़ी हुई भाषा
वे होते हैं बड़े
एक बासी पाठ्यक्रम को लादे-लादे
वे देखते हैं
इतिहास के खोखले चित्र
और विस्मय में डूब जाते हैं
न 1976
अकेला आदमी
फूलों के बाग़ीचे उसकी कमज़ोरी हैं
मद्धिम रोशनी सुनता है वह
रात-रात भर संगीत
नज़र अराजक है उसकी
ढूँढती है पत्थरों में चेहरे
होने को हो सकता है वह एक ग़ुलाम
हालाँकि, मौजूद है उसमें
तानाशाह होने की सारी संभावनाएँ
लड़ सकता है निहत्था वह ईश्वर से
मौत से अपना पंजा मिला सकता है
राष्ट्रव्यापी शोक के अवसर पर
आपको रुला सकता है
बेरहमी से नोंच सकता है पंख परिन्दों के
मुस्कराता हुआ
प्रेम में डूबा हुआ
बेरहमी से पीट सकता है औरत को चाबुक से वह
रंग उसकी कमज़ोरी है
दिमाग़ अराजक
बचा सकता है समुद्र में डूबते आदमी को
हालाँकि, हत्यारा होने की
सारी सँभावनाएँ मौजूद हैं उसमें
न 1972
ग्यारहवाँ घर
घर से बाहर का दुख
घर के अंदर के दुख से बड़ा था
इसे उसने इस तरह कहा कि
घर का दुख घर भर दुख था
और बाहर का दुख देश भर दुख
घर के अंदर दुख के नाम पर उदासी थी
भांय भांय करती थीं दीवारें
घर दुखी है उसने कहा
देश दुखी है उसने बतलाया
उसकी दृष्टि में देश भी एक घर ही था
एक विशालकाय मध्यकालीन हवेली
जिसके बुर्ज़ टूट रहे थे
और नींव दरक रही थी जगह-जगह से
ज़ंग खाये बंद पड़े थे हज़ारों दरवाज़े
एक आदमी का सुख
कारण था करोड़ों के दुख का
घर में कमाता था एक
खाते थे दस
देश में कमाते थे करोड़ों
और खाते थे दस
सुख था ज़रूर
और सुखी होने के लिए ज़रूरी था
कि बनाया जाये देश में ग्यारहवाँ घर
न 1977
क और ख
क ने भाषण दिया
ख ने गोली दागी
ग ने गाली दी
घ ने शिकायत लिखी
ड ने प्रार्थना की
ट ने दिया चंदा
जनतंत्र में चलता रहा सब निर्विकार
जैसे घास उगती ही रही
पच्चीस वर्षों से लगातार
क ने चार श्रोताओं के समक्ष भाषण दिया
ख ने मारी गोली चार नागरिकों को
ग ने दी एक फूहड़ गाली
घ ने लिखी अख़बार में शिकायत
ड ने प्रार्थना की
ईश्वर सहला रहा था क के खुट्टे
ड ने हर बार चंदा दिया
क ने राष्ट्र के नाम
अपना संदेश
न 1974
कोयला खान
(बिहार प्रवास : 5 जून 1976 से 30 जून 1976 के दौरान लिखी एक शृंखला)
एक
पहले ज़मीन, ज़मीन थी
ऊपर घास, नीचे, बहुत नीचे कोयला
ऊपर हवा, नीचे बहुत गहरे एक आग
आदमी जो वहाँ आया
तलुओं के नीचे आग महसूस करता रहा
देखता रहा ज़मीन का जादू
कोयले का काला सपना
कुछ और लोग आये
गैंती, फावड़े और बेलचे लिए
रोटी की तलाश उन्हें ज़मीन के नीचे ले गयी
एक सड़क ज़मीन से शुरू होकर
नीचे पाताल में उतरती चली गयी
मज़दूरों ने ज़मीन पहाड़ एक किये
जिस्म काले और ख़ून काला किया
ज़मीन कोयला उगलती रही
ज़माना आगे बढ़ता गया
नीचे पाताल में एक अंतरिक्ष था
जहाँ गर्म रोटियाँ
कलाबाज़िया कर रही थीं
अपनी गैंती लिये मज़दूर
उनके पीछे भाग रहे थे निरंतर
दो
ज़मीन ऐसी
जैसे मेरे क़स्बे की ज़मीन
घास भी थी
जैसी होती है हर कहीं
सूखी और यहाँ वहाँ जली हुई
बेडौल रास्तों पर
भारी पहियों के नाज़ा निशान
उसने मुझसे कहा
यहाँ कोई तीन हज़ार मज़दूर
खान में काम कर रहे हैं
वहाँ ज़मीन पर कहीं
कोई भी नहीं था
कहीं दूर शहर की बत्तियाँ
खिलखिला रही थीं
उन्हें आमने सामने देखने के लिये
मेरा मज़दूर होना जरूरी था
वे सब
वहाँ थे नीचे
ख़ून पसीने की कार्यवाही में जुटे
सुनते हुए ट्रालियों और
विस्फोटों का शोर
सिर्फ़ देखकर उन्हें नहीं देख सकता था मैं
वहाँ
कोयले की काली दुनिया में उतरना
एक ज़रूरी शर्त थी
तीन
आबिद
जवानी में वहाँ
प्रविष्ट हुआ था
कोयले की मुश्किल दुनिया में
उतरने का साहस लेकर
आबिद को
उसके गाँव में फिर कभी
किसी ने नहीं देखा
उसके दोस्त सोचने लगे थे
आबिद कहीं चला गया है
आबिद कहीं चला गया था
बरसों बाद
एक काला आदमी
ऊपर दिखलायी दिया
वह नहीं जो नीचे उतरा था कभी
पर नाम वही आबिद
नम्बर भी वही 2720
फेफड़ों में ग़र्द और कालिख लग चुकी थी
किसी ने बतलाया
आबिद का नम्बर भी
2720 था
चार
वहाँ
उस दैत्याकार मशीन का
अपना विषाद था
उसकी समूची लौह आऔति
उदास थी
उस पर बन चुके थे
धूल और खरोचों के निशान
जैसा उससे कहा जाता रहा
वह करती रही
ज़मीन में अपने विशालकाय
पंजों को उतारकर
बारूद लगाती रही
उसका आविष्कार हुआ था
ग़ुलामी को मिटाने के लिये
वह बतलाती रही कोयले का पता
ताकि मज़दूर खुली हवा में जी सके
वहाँ
मशीन के दैत्याकार चेहरे पर
विषाद ही
विषाद था
पाँच
एक बहुत बड़ा
हमाम था वहाँ
पहली खेप से छूटे मज़दूर
वहाँ घुस रहे थे
काली हाफ पैंट
डबलसोल के जूते
और सिर पर रखा भारी टोप
उस हमाम में
देखा
सैकड़ों मज़दूरों को नहाते हुए
दामोदर का मटमैला पानी
एक सी रफ़्तार से
नालियों में बह रहा था
सामने
टीले पर बने
एक बंगले में
खदान का बड़ा अफ़सर
पानी के टब में डूबा
सिगार पी रहा था
छह
वह उन्नीसवीं सदी की बात है
सदियाँ कभी कभी बीतती नहीं
रुकी हुई हैं अब भी
शताब्दियाँ कहीं
पावेल कोर्चागिन
ऐसी ही किसी जगह काम किया करता था
माँ इसी तरह पावेल का टिफिन लिये
फैक्टरी के दरवाज़े पर जाती रही होगी
जिस तरह यह बच्ची
अपने पिता के लिए
अल्युमिनियम के डिब्बे में रोटी ले जा रही है
ठीक इसी तरह
तनख़्वाह के दिन
पावेल पंक्ति में खड़ा
अपनी बारी का इंतज़ार किया करता होगा
जिस तरह
यह मज़दूर
पावेल ज़रूर
दुनिया के हर मुल्क में
जन्म लेता रहा है
कोयला खान से लौटते इस हुजूम में
मैं आज पावेल को ढूँढ रहा हूँ
आज किसी किसी की आँखों में
वही चमक है
जो कभी
पावेल की आँखों में थी
तीसरा चेहरा
हज़ार मील दूर
एक चाबुक
हवा में उछल रहा है
यहाँ दर्द के मारे मेरी देह
ऐंठकर नीली पड़ रही है
हज़ार मील दूर
एक नंगा चाकू
अंधेरे में खिलखिला रहा है
यहाँ
परत दर परत
मेरी चमड़ी उतर रही है
हज़ार मील दूर
कारागार में
एक फंदा झूल रहा है
कहीं
मेरी गर्दन खिंचकर
बेतरह लंबी हो रही है
पत्थर
रात बारह बजे
सनसनाता हुआ एक पत्थर
मेरे घर की छत पर गिरता है
रात बारह बजे
एक पत्थर
जैसे
अचानक विस्फोट हो जाये भाषा में
देश का चेहरा झुलसने लगे अचानक
ठीक वैसे ही
सनसनाता हुआ एक पत्थर
मेरी छत पर गिरता है
मैं नहीं जानता
किस दिशा से वह आ गिरता है
कौन सी ताक़त उसे उछालती है हवा में
पूरी तरह से नींद में ग़कर् हो जाऊँ
उसी पल
ठीक बारह बजे
सनसनाता हुआ एक शब्द
मेरे ज़ेहन पर गिरता है
और एक पत्थर
मेरे घर की छत पर
न 1975
ख़लल
ख़लल सिफर् दिमाग़ में हो रहा है
धुआँ उठता नहीं, चटखती नहीं कोई चीज़
धीरे-धीरे सुलगती बारूदबत्ती वहाँ बढ़ती है
विस्फोट की तरफ़
कुछ मूल्य हैं जो गिरते लगातार
होने ग़र्क़ एक अंधकार में
दिमाग़ है जहाँ ख़लल पैदा हो रहा
नहीं दिमाग़ के कोई हाथ पाँव
निगाह भर है जो दिखती नहीं किसी को
हवा में मार दिया जाता है यह दिमाग़
मसल दिया जाता मच्छर की तरह
होता मच्छर यह दिमाग़ इस बेमानी तंत्र में
होता है छिड़काव हवा में विचारनाशक ज़हर का
इसे न दिन को चैन है न रात को
कालकोठरी में अपनी चीखता ही रहता है
भूस्खलन होता है और गिरती है विशालकाय चट्टान
करती ध्वस्त कोशिकाओं को
होता यह मस्तक भूकंपित
उठाता ज्वार रक्त में
छटपटाता है आदमी और उठता है अंधड़
पत्थरों में नहीं होता पैदा ख़लल
चीज़ें टूटती हैं, कुछ तोड़ दी जाती हैं
कोई ख़ामोश रहता है कुछ देर
किसी दिन उठ खड़ा होता है
न 1980
वह एक जो जा चुका है
एक अंधेरे घिरे कमरे में
शोकगीत गाती हैं औरतें
रोज़ यहाँ से गुज़रते समय
मैं महसूस करता हूँ
पकाये गये चमड़े की बू
यह घर जो आज नहीं तो
कल ज़रूर गिर पड़ेगा
वह एक जो जा चुका है
अपनी लंबी बीमारी के बाद
एक निश्चित राहत सबको बांटता हुआ
सब कुछ यहाँ वैसा ही है
झूलती चरमराती खाट
ख़ाली शीशियाँ, पुराने वस्त्र
राशनकॉर्ड पर दर्ज़ उसका नाम
जात बिरादरी की स्त्रियाँ
आ रही हैं लगातार इस अंधकार में
याद करती अपने पारंपरिक शोकगीत
वह एक जो अब जा चुका है
लगातार उसके लिये यहाँ
छाती पीटती हैं स्त्रियाँ
न 1977
पिंजारवाड़ी
उज्जयिनी में
एक पिंजारवाड़ी है
पिंजारवाड़ी में
एक उज्जयिनी भी है
पिंजारवाड़ी से गुज़रता शख़्स
अपना चेहरा छिपाकर चलता है
पिंजारवाड़ी से गुज़रता शख़्स
भूल चुका होता है
अपनी स्त्री और बहन का चेहरा
विक्रमादित्य अब भी गुज़रता है
जब सो रही होती है
उज्जयिनी
विशालकाय गनपति
एक भयावह जम्हाई लेते हैं
तब पिंजारवाड़ी के अंधकार में
खुलता है एक द्वार
और राहगीर प्रविष्ट होता है
रोज़
काम पर जाने से पहले
यह स्त्री
जलाती है अगरबत्ती
महाकाल के चित्र के सामने
यहाँ पिंजारवाड़ी में
न 1989
प्रक्रिया
कितनी मुश्किल से गढ़ी होगी
यह दुनिया
माइकेल एंजिलो, पाब्लो पिकासो
नंदलाल बोस और
सल्वाडोर डाली ने?
कितनी तेज़ी से
उड़ते जा रहे हैं रंग
यहाँ?
कितनी तेज़ी से
छाता जा रहा है
एक भयावह काला रंग
समूचे दृश्य पर
न 1987
रक़्स
कविता की भाषा में कहूँ
तो आत्मसम्मान ऐसा
जैसी किशोरी अमोनकर की गायकी
और
ताहिरा सैय्यद की आवाज़ सुनकर
कोई इसी बरबाद दुनिया में
बसना चाहेगा
मैं
इतना ख़ामोश रहा
समूचे दौर से निर्लिप्त
मेरा देश इत्मीनान से रहे
तो
कविता से पल्ला झाड़कर
मैं लकड़हारा बनूंगा
या मिट्टी के सख़्त ढूहों को
तोड़ता मिलूंगा कुदाल से
और लादे हुए अपने कंधे पर मशक
प्यासों को पिलाऊँगा पानी
शब्द से परे
एकदम
शब्द से परे
न 1993
आरी
कल
लकड़ी आरी और
हथौड़ा लेकर मैंने काम शुरू किया
मेरे हाथों में आरी थी
और मैं कुछ काम कर रहा था
लकड़ी के एक बडौल टुकड़े को
आरी ने काटा
एक आकार में मैंने उन्हें जोड़ा
कीलें सख़्त थीं
जैसे जोड़ रखा था कोलों ने
दुनिया को
ख़ून उबल रहा था
पसीना चुहचुहा आया था मेरे माथे
मैंने जाना
बढ़ई का काम
कविता से ज़्यादा कठिन है
और मैं,
उसका ग़ुलाम हुआ
न 1978
कमीज़
विशालकाय मशीनें चलती ही रहती हैं
कपड़ा लगातार बुनता चला जाता है
कपड़ा मिल से निकले कपड़े तक
एक लंबा सफ़र है
कपास के सफ़ेद फूल का
रातपाली के
अवसादपूर्ण घंटे
तार तार ज़िन्दगी
धागा धागा भूख
श्रमिक नंगा ही रहता है
ज़िन्दगी के सारे रंग
बग़ीचों के सारे फूल
यहाँ छपते हैं
कपड़ों पर
ये कमीज़ मेरी
किस क़दर तरबतर है
ख़ून और पसीने से?
न 1989
आलू
जब कुछ भी नहीं हुआ करता
आलू ज़रूर होते हैं
जब कुछ भी नहीं होगा
आलू होंगे ज़रूर
स्वाद से ज़्यादा
भूख से ताल्लुक रखते हैं
आलू
एक अदद आलू हो
तो पानीदार सब्ज़ी बना ही लेती हैं स्त्रियाँ
मिट्टी में दबे आलू
मिट्टी से बाहर आकर
प्रसन्नता व्यक्त करते हैं
जब
आँच में भूने जाते हैं वे
भूखा आदमी कह उठता है
‘ख़ुदा का शुक्र है
यहाँ आलू हैं’
न 1993
विलाप
(संदर्भ : दंगाग्रस्त भोपाल)
वनस्पतियों, फलों और
कोमल चीज़ों को काटता हुआ
जब प्रविष्ट होता है मनुष्य की देह में
तब विलाप कर रहा होता है चाकू
वह धार-धार रोता है
और दाँत पीसते हत्यारे मुस्कराते हैं
यातना बढ़ती है
और जले हुए कमरे में रखे
हारमोनियम से फूटती है एक
उदास धुन
जहाँ ख़ून जम रहा है दिसंबर में
टोकरी में पड़े आलुओं की
भयग्रस्त आँखें निकल आयी हैं
ईश्वर, अंततः
एक गुनाह ही साबित हुआ
जो मैंने किया
हे ईश्वर
अब तुझ से नहीं गढ़ी जायेगी
एक साफ़-सुथरी उजली जगह
हे ईश्वर
अपना मलबा उठा
और बख़्श मुझे
न 1993
आख़िरी गीत
वहाँ मीर तक़ी मीर थे
ग़ालिब, निराला, नेरुदा और
पाब्लो पिकासो
वहाँ भीमसेन जोशी आये
ज़ाकिर हुसैन और तीजन बाई
बेग़म अख़्तर और ग़ुलाम अली
लेकिन, अफ़सोस हम दुनिया को बचा न सके
वहाँ एक गेंद थी
उछलती धरती पर
एक सायकिल लगातार दौड़ती सड़क पर
मिट्टी के खिलौने रंग-बिरंगे
जिनसे खेलते थे बच्चे
दृश्य थे धूप से भरे हुए
लेकिन, अफ़सोस हम दुनिया को बचा न सके
वहाँ शब्द थे
आवाज़ें और संवाद
एक गीत लय में डूबा हुआ
गमलों में लगे फूल
और मैदानों की हरी घास
भुरभुरी मिट्टी और भोर की लाली
लेकिन, अफ़सोस हम दुनिया को बचा न सके
न 1991
बयान
मुझसे पूछकर, नहीं लिया गया था
तीस हज़ार करोड़ रुपयों का कर्ज़
मेरी सात पुश्तों से भी
इसका ब्याज़ चुकाया न जायेगा
मुझसे पूछकर
नहीं परोसा गया इस मुल्क को
बहुराष्ट्रीय निगमों के भोजन की थाली में
मेरी सात पुश्तों से भी
इसका खमियाज़ा न भुगता जायेगा
मुझसे
पूछकर कुछ भी नहीं किया गया
न संविधान लिखा गया
न भारतीय दंड संहिता
न स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास
अलबत्ता,
पेंशन देने से पहले कहा गया मुझसे
किसी राजपत्रित अधिकारी से
अपने जीवित होने का प्रमाणपत्र
लेकर आओ
न 1993
सावित्री
आठ बरस की सावित्री
बर्तन मांजती है
अपने सांवले हाथों से जमाती है बर्तन
खिलौनों की तरह
अभी दुबेजी के यहाँ से आयी है
अब गुप्ताजी के घर बासन मांजेगी
सावित्री की माँ राधोबाई भी यही काम करती है
अनुभवी है इसलिये निपटाती है पाँच घरों के बर्तन
राधोबाई कहती है कि उसकी माँ सन्तोबाई
और नानी मलकाबाई भी किया करती थी यही काम
मलकाबाई तो अंग्रेज़ साहब बहादुर की बरौनी थी
आज़ादी से पहले
वक़्त के इस लंबे दौर में बदलती गयी दुनिया
आठ बरस की सावित्री
फिर भी तपती धूप और जाड़े में बर्तन मांजती है
देखते देखते हो जायेगा
ब्याह सावित्री का
दुधमुंहे बच्चे को चिपटाये
साफ़ करेगी यह थालियों की जूठन
आज़ादी का अर्थ
फिर भी
सावित्री के लिये नहीं होगा
थालियों की जूठन से ज़्यादा
न 1987
अगली सदी तक
यूँ तो
सदियों से
ख़ामोश ही रहती आयी है
औरत ने
अभी ही
कुछ कहना
शुरू किया है
घर जाकर
देखो
कहीं
ख़ामोश तो नहीं वह
इतनी बातें हैं
कहती ही रहेगी
अगली सदी तक
न 1993
अंधेरे में वह
सकुचाते हुए
स्त्री ने
काग़ज़ पर अंगूठा लगाया
सिसकते हुए
बतलाया किसी तरह
दिवंगत पति का नाम
घटित हुआ यह प्रसंग
3 सितम्बर 1993 को
गोद में
लिये बच्चा
प्रविष्ट हुई
अंधेरे समाज में वह
न 1993
नश्तर
तारकोल की एक ताज़ा परत
बिछायी जा रही है सड़क पर
भट्टी की आँच में लगातार खदक रहा है
तारकोल
इस गर्म तारकोल से झुलस गया है बेतरह
किसी का पाँव
सड़क के एक ओर बनाये गये
तंबू में लेटा झुलसा हुआ पाँव लिये
देख रहा वह नयी ताज़ा सड़क से गुज़रता
महामहिम राष्ट्रपति का भव्य काफि़ला
और सोचता है
मवाद पक चुका है
बस नश्तर लगाने की देर है
न 1974
मांगपत्र
अब जो कविता लिखी जाये
वह एक
मांगपत्र हो
कविता को आज
मांगपत्र भी होना है
एक साफ़ आरोपपत्र
जो पढ़ा जा सके चौराहों पर
इतिहास कविता का
हज़ारों वर्ष पुराना
कवि चाहे तो
डाल सकता है मांगपत्र में
लयात्मक संवेदना
और साध सकता है
कलात्मक संतुलन भी
कविता को
ज़िरह होना है अब
एक फ़ौरी ज़रूरत के तहत
मांगपत्र होगा
तो कविता भी होगी
ख़तरा कविता को नहीं
जीवन को है
तलवार कविता पर लटके
शहादत कवि की होगी
कवि, लिख हुक़़्मरानों के लिए
कुछ ऐसा
कि जनमत तैयार कर सके तू
न 1988
सरकार का इस तरह होना
जहाँ तक सरकार की कार्य कुशलता
अथवा उसकी लोक कल्याणकारी मुद्रा का
प्रश्न है मैं ऐसी प्रजातांत्रिक प्रणाली
और छद्म विचार सरणियों का क़ायल
कभी नहीं रहा
लेकिन मैं यह कहने से भी रहा कि
इस तरह की सरकार या
सरकार का इस तरह होना
जनपदीय आदर्शों के विरु( है
लेकिन प्रश्न रह ही जाता है अनुत्तरित
कि कोई न कोई वजह तो ज़रूर रही होगी
जो अपने एक साक्षात्कार में
भोपाल गैस कांड में अपना सब कुछ गंवा चुकी
एक स्त्री, नाम : नफ़ीसा बेग़म उम्र अड़सठ साल,
निवासी : कैची छोला, पुराना भोपाल, म.प्र.
चिल्ला-चिल्लाकर कहती है
‘सरकार! सरकार की पूछते हो हमसे!
अगर मेरा बस चले तो जंगलात के सारे शेर
इस सरकार के पीछे छोड़ दूँ मैं’
हालांकि जंगलात के शेर किसी के पीछे
छोड़ देना हुआ एक भाषाई मुहावरा
लेकिन सवाल फिर भी सामने पेश आता है
कि आख़िरकार नफ़ीसा बेग़म के बस में
कब कुछ इस तरह होगा कि उसके
एक इशारे पर जंगलात के सारे शेर
कूच कर जायें सरकार के ख़िलाफ़
गोकि, नफ़ीसा बेग़म के इस हलफि़या बयान में
कूट-कूट कर भरी हिक़ारत तो
प्रकट होती ही है
न 1998
कबाड़
यहाँ से रोज़
गुज़रते हैं कबाड़ी
वे लगाते हैं गुहार
अख़बार की रद्दी और शराब की
ख़ाली बोतलों के लिये
मैं
हर बार सोचता हूँ
रद्दी अख़बार ही नहीं है
रद्दी क़ाग़ज ही नहीं है
रद्दी यह समय है
इसे किस तराजू में तौलेगा वह
रद्दी आवाज़ें जो भोंपुओं से
लगातार सुनायी देती
रद्दी उन्माद
और रद्दी धर्मांधता
रद्दी प्रार्थनाएं जो फि़ल्मी धुनों में बंधी
रद्दी लोग जो
सभ्यता को करते आहत
इस कबाड़ी का हाथठेला बहुत
छोटा है
और रद्दी सामान बहुत ठहरा
न 2002
धार-धार रुदन
इधर कुछ दिनों से
मैंने कई कई बार अपने आपको
रोते हुए देखा है
मैंने इस तरह अपने आपको रोते हुए पाया है
गोया मैं देख रहा होऊं किसी और शख़्स
को रोते हुए
और मैंने इस तरह थपथपाया है अपना कंधा
गोया, मैं अपना नहीं किसी और का
कंधा थपथपा रहा होऊं
मैंने
निपट जड़ता देखी है किसी की
और लगातार
धार-धार रोता रहा हूँ मैं
मैंने एक बार दूरदर्शन पर
नरेन्द्र मोदी की मुखाऔति देखी
और मेरी आँखों से लगातार पानी बहने लगा
एक बार क्या सुन लिया मैंने
साध्वी )तंभरा का दिव्य प्रवचन
मेरे भीतर एक शख़्स धाड़ मार-मारकर
रोने लगा
अब देखिये मैं इसमें क्या कर सकता हूँ
यहाँ इतना कुछ बेमानी घटित होते ही रहता है
कि आप रोयें तो रोते चले जायें
और आँसू हैं कि रुकने का नाम ही न लें
व्यवस्था
इस आदमी के सामने
ज़मीन पर एक थाली है
इसमें कोई रोटी नहीं है
लेकिन वह अंगुलियों से तोड़ता है कौर
और खाने लगता है
वह थाली की ओर देखता है
और व्यस्त रहता है चबाने की क्रिया में
उसकी थाली ख़ाली है
अब वह उठता है और एक
डकार लेता है
वह एक तृप्त व्यक्ति का अभिनय कर रहा
अब बिस्तर पर लेट गया है वह
उसकी आँखें खुली हैं
और वह सो रहा है
एक भूखे व्यक्ति की
दिनचर्या इस तरह होती है संपन्न
इस व्यवस्था में
न 2003
गुजरात
मुझे मुल्क का नाम ही नहीं पता
मैं इस मुल्क में रहता ही नहीं
अब मेरी कोई भाषा ही नहीं
अब याद नहीं मुझे शब्दों के अर्थ
उल्लास और रुदन जैसे शब्द
राष्ट्रवाद और फासीवाद जैसे शब्द
अब समानार्थी लगते हैं मुझे
मैं एक सुरंग में रहता हूँ
मेरी यात्रा यही सुरंग है
मेरा मुकाम यही सुरंग है
अब रास आ रही
इस सुरंग की बंद हवा
यहाँ मैं
रौशनी के बारे में नहीं सोचता
सुरंग में हुआ जाता मैं
अंधकार
मैं करता बातचीत इसी
अंधकार से
मेरा नया ठिकाना
अब यही सुरंग है
अब मैं ठहरा
इसी अंधकार का नागरिक
न 2003
टाटा का हँसिया
विदिशा का लोहा बाज़ार जहाँ से शुरू होता है
वहीं चौराहे पर सड़कें चारों दिशाओं की ओर
जाती हैं
एक बांसकुली की तरफ़
एक स्टेशन की तरफ़
एक बस अड्डे
और एक श्मशान घाट
वहीं सोमवार के हाट के दिन
सड़क के एक ओर लोहार बैठते हैं
हँसिये, कुल्हाड़ी, सरौते और
खुरपी लेकर
कुछ ख़रीदने के लिये हर आने-जाने वाले से
अनुनय करते रहते हैं वे
शाम गये तक बिक जाती हैं
बमुश्किल दो चार चीज़ें
वहीं आगे बढ़कर
लोहे के व्यापारी
मोहसीन अली फख़रुद्दीन की दुकान पर
एक नया बोर्ड नुमांया है
‘‘तेज़ धार और मज़बूती के लिये
ख़रीदिये टाटा के हँसिये’’
यह वही हँसिया है टाटा का
जिसका शिल्प वामपंथी दलों के चुनावी निशान
से मिलता जुलता है
टाटा के पास हँसिया है
हथौड़ा है, गेहूँ की बाली और नमक भी
चौराहे पर बैठे लोहार के पास क्या है
एक मुक़म्मिल भूख के सिवा
न 2010
यह ज़मीन
मेरी एक कविता में कहीं आया
ज़िक्र क्रांति का
और मैंने कविता की वह पंक्ति ही कर दी
ख़ारिज़
दरअसल, मैंने उस कविता को लिखा ही नहीं
दरअसल, मेरे पास वे शब्द भी नहीं थे
जो वह लिखी जाती
दरअसल, इधर कविता का पूरा परिदृश्य
आ चुका है जैसे आजिज़ इस एक लफ्ज़ से
अब जैसे
आसाराम बापू के प्रवचन और कुछेक कविताओं के
उ(रण लगते हैं यकसां
मेरे प्रदेश और क़स्बे में
राष्ट्रीय सेवक संघ, बजरंगदल और
विश्वहिन्दू परिषद की बहार है
लोग बाग अवाक् हैं
कितनी बंजर है यह ज़मीन
क्रांति के लिए
न 2010
भारत एक किसान प्रधान देश है
अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने उड़ा दिया था अपनी ही
पिस्तौल से अपना सिर
चे को भून दिया गया था सरेआम
भगतसिंह के फाँसी पर चढ़ने का एक मानी था
लखनऊ में एक युवा कवि कूद गया था एक
बहुमंज़िली इमारत से
फेदेरिको गार्सिया लोर्का को मार दी गयी थी
गोली बेहद क़रीब से
ये सारी घटनाएँ रखती हैं ताल्लुक मौत से
और तवारीख़ में होता है इनका ज़िक्र
अदब के संग
लेकिन इधर सिलसिला चल निकला है
कर्ज़ और फसल की बर्बादी के शिकार
किसानों की मुसलसल आत्महत्याओं का
और यह तादाद लगातार बढ़ती ही जाती है
एक नामी पत्रिका के सर्वेक्षण के मुताबिक़
बढ़ रही है देश में तादाद लखपतियों
करोड़पतियों और अरबपतियों की
अपने उजाड़ खेत के उजाड़ पेड़ पर
फंदा बनाकर लटक जाता है जो किसान
वहाँ दरकती हुई ज़मीन और ज़्यादा दरकती है
मिट्टी का विलाप और उसका छाती कूटना
सुनायी देता है निरंतर
उसके सख़्त ढूह हुए जाते नरम
उसके ही आंसुओं से
भारत एक देश है किसान प्रधान
क्या फ़कर् पड़ता है आख़िरकार
कुछ किसानों के इस तरह यकायक
गुज़र जाने से
न 2010
बच्चा हँस रहा है
एक
बच्चा हँस रहा है
ठीक इसी वक़्त
अमरीका ने किया है
समुद्र के गर्भ में परमाणु परीक्षण
ठीक इसी वक़्त
फ़रमा रहे हैं ज़िया उल हक़
मैं ख़ुदा की मर्ज़ी से
गद्दी पर बैठा हूँ
ठीक इसी वक़्त
इंदिराजी ने बयान दिया है
विदेशी ख़तरा देश के सिर
मंडरा रहा है
ठीक इसी वक़्त
आम आदमी के मूलाधिकार
स्थगित किये जाते हैं
बच्चा हँस रहा है
दो
बच्चा हँस रहा है
देखी नहीं दुनिया उसने अभी
माँ बाप आँगन
दुनिया उसकी
माँ बाप आँगन से परे
कैसी दुनिया
बच्चा चुप है
तीन
बच्चा
हँस रहा है
क्योंकि
सभ्यता
ख़ामोश
है
चार
बच्चा हँस रहा है
इस वक़्त देखा जाये
तो
सिफर्
हँसा ही जा सकता है
पाँच
बच्चा हँस रहा है
तानाशाह
मुँह छिपाये
भागा जा रहा है
छह
बच्चा
हँस रहा है
लो
एक बार
फिर बची
यह दुनिया
मरघट में
बदलने
से
न 1979
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