हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन उसने भगवान से पूछा – मेरे जीवन में अच्छे दिन कब आयेंगे? मेरी कोई सुधि क्यों नहीं लेता? कोई बड़ा आदमी , मेरी ओ...
हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन
उसने भगवान से पूछा – मेरे जीवन में अच्छे दिन कब आयेंगे? मेरी कोई सुधि क्यों नहीं लेता? कोई बड़ा आदमी , मेरी ओर झांकता क्यों नहीं? क्यों , प्रत्येक की सिर्फ हेय दृष्टि ही पड़ती है मुझ पर? मैं भूख , गरीबी और बेरोजगारी के बीच जीवन जीते तंग आ गयी हूं। मुझे भी , अच्छे दिन में रहने भेज दीजिए। भगवान हंसे। तुम झोपड़ी हो बेटा , अच्छे दिन तुम्हारे लिए नहीं है। तुम जैसे जी रही हो , उससे अच्छे दिन कुछ नहीं हो सकता। तुम इसकी कामना मत करो। तुम अमीर बनने , उसकी तरह रहने या उसके साथ रहने की ख्वाहिश मत करो। तुम्हारा उनका साथ नहीं हो सकता। फोटो फ्रेम में घुसकर उनके घरों की शोभा बढाओ , इससे अधिक की कल्पना मत करो। वह जिद पर आ गयी। इसका मतलब आप मुझ पर प्रसन्न नहीं हैं? क्या आप नहीं चाहते कि , मै भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करूं? भगवान ने उसकी तीव्र इच्छा को देखते हुए , एवमस्तु कहकर, अंतर्ध्यान होने में ही अपनी भलाई समझी।
दूसरे ही दिन , वह झोपड़ी किसी अमीर के हाथों बिक गई। एक दिन , एक कार उसके प्रांगण में आकर रूकी। सूट बूटधारी कुछ अमीरों ने झोपड़ी में कदम रखा। झोपड़ी की मुरादें पूरी होते दिखी , उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वे अंदर आए और आते ही झाड़ू लेकर साफ सफाई में लग गए। झोपड़ी का एक एक कोना साफ होने लगा। चमचमाती सड़क बनकर , वहीं आकर समाप्त हो गयी। कुछ ही दिनों में , वह झोपड़ी बिजली की रोशनी में जगमगाने लगा। पानी , शौचालय सब कुछ हो गया उसके पास। बैंक में खाते खुल गये। आसपास की दूसरी झोपड़ियां इस चकाचौंध से जलने लगी।
इतना सब होने के बाद भी , मन उदास सा था , क्योंकि , अब ना रोटी दाल की गंध आती वहां , ना बच्चों की किलकारियां सुनने मिलती। ना गीता के श्लोक , ना रामायण की चौपाई , ना कुरान की आयातें , ना भाई बहन का प्यार , ना दादी - दादा का दुलार , ना मांदर की थाप , ना ढोलक की गूंज , ना कोई पड़ोसी सब्जी मांगने आता , न हालचाल पूछने।
थोड़े दिनों बाद , वह अमीर मालिक , दोस्तों के साथ फिर आया। थोड़ी आशा जगी , अच्छे दिन की। अंदर आते आते शानदार कारपेट बिछ गयी। बैठने के लिए सोफा , दीवान सज गये। पर यह क्या? उसकी खुशी पानी के बुलबुले की तरह फूट कर गायब होने लगे। ताश की पत्तियों के बीच असभ्य बातें , जानवरों की तरह खाना-पीना , डिस्को और कुछ नहीं। अब यह सिलसिला बन गया रोज का। शराब की बोतलों से , उसका घूरा पटने लगा। पहले रात का अंधेरा भी उसके दिल में प्रकाश का अनुभव कराता था , अब , शाम के जगमग उजाले ने , झोपड़ी की जिंदगी में अंधेरा फैलाना शुरू कर दिया। अपना दुख किसे कहे वह , अच्छे दिन की जिद उसी की थी। अब तो हदें पार होने लगी। जुआंघर , शराबखाने से अपग्रेड होता वह , वेश्यालय में तब्दील हो गयी। आए दिन , लम्बी लम्बी कारों का , छुप छुप कर आना , रात रात भर रंगरेलियां मनाना , रोज का उपक्रम हो गया। काला धन ऐसा होता है , उसे पहली बार पता चला था। झोपड़ी बहुत हताश निराश हो गयी। वह अतीत को सोचने लगी , जब बाबा टूटी खटिया पर बैठकर खांसते खांसते चिलम गुड़गुड़ाते रहते थे , जब मुनिया फटे बोरे में बैठकर , बटकी में बासी खाती थी , जब छोटी सी ढिबरी , सारे घर को उजालों से भर देती थी , पर तब झोपड़ी अपना घर होता था , आज की तरह सराय या होटल नहीं। वह समझ चुकी थी , कि अच्छे दिन केवल राजनैतिक मिट्टी का दलदल है , जो सुख का कमल केवल दिखाता भर था , पहुंचाता नहीं। अपना दुख बताना चाहती थी वह , पर कौन सुनेगा उसकी। बहुत दूर जा चुकी थी अपनों से। वैसे भी , सारे दोस्त , उसकी बाहरी प्रगति को देख दुश्मन बन चुके हैं। उनमें से हरेक , अच्छे दिन की चाहत रखता था। उन्हें मालूम नहीं था , अच्छे दिन की कामना करने वाले , छोटे लोगों के साथ क्या क्या होता है , और अच्छे दिन भोगने वाले बड़े लोग , क्या क्या करते हैं। एक अच्छे दिन भोगने वाले बड़े ने , दिखा ही दिया कि , वे क्या कर सकते हैं। आसपास के झोपड़ी को परेशान कर , भगाने के उद्देश्य से , पुलिस में शिकायत कर दी। एक रात , पुलिस का छापा पड़ा , पकड़े गए - बहुतेरे लोग , पर सबूत के अभाव में छोड़ दिये गये सारे। इनमें कसूरवार कोई नहीं। कसूरवार था एक गरीब। वह गरीब , उस झोपड़ी का पुराना मालिक है - जो झोपड़ी का दर्द सुनने आया था , वहां पर। बदनाम कर दिया गया , दोनों को।
दूसरे ही दिन , अमीर मालिक ने झोपड़ी को लाइसेंसशुदा जुआंघर , शराबखाना बनाने के लिए , तोड़ना शुरू कर दिया। वह गरीब जेल में टूट –टूट कर मर गया। झोपड़ी तो , इस टूटन से पहले ही टूट चुकी थी। अब वह भी मरने जा रही थी। वह दिन भी आ गया , जब जनाजा उठ गया दोनों का। झोपड़ी की लाश का एक एक फ्रेम , रो - रो कर बता रहा था – साथियों , तुम गरीब की झोपड़ी हो , और यदि अस्तित्व बचाना है , तो , अपने लिए , अच्छे दिनों की आस में बिकना कभी मत , क्योंकि अच्छे दिन केवल और केवल अमीरों के लिए है। काले धन आयेंगे , तुम्हारे घरों की शान बढ़ायेंगे , इसकी कल्पना त्याग दो , नहीं तो मेरी तरह बदनाम कर दिए जाओगे। तुम्हारे ही बंधु बांधव तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। टूट - टूट कर बिखर जाओगे , और वह दिन भी आ जायेगा जब , तुम असमय ही , सदा सदा के लिए दुनिया से विदा हो जाओगे। वह तो , आज भी चीख चीख कर कह रही है , पर कौन सुनता है कब्र की आवाज , आज भी दौड़ जारी है अच्छे दिनों की चाहत के लिए।
हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन , छुरा
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