डॉ0 दीपक आचार्य यह जरूरी नहीं कि हम जिन बाड़ों, गलियारों और बस्तियों में रहते हैं वहाँ सारे के सारे लोग पूरे के पूरे जिन्दा हों ही। बह...
डॉ0 दीपक आचार्य
यह जरूरी नहीं कि हम जिन बाड़ों, गलियारों और बस्तियों में रहते हैं वहाँ सारे के सारे लोग पूरे के पूरे जिन्दा हों ही। बहुत सारे जिन्दादिल हैं जो जिन्दगी को मस्ती से जीते हैं, खुद भी काम करते हैं, औरों के भी काम आते हैं।
ये लोग जब तक अपने आस-पास रहते हैं, खुद भी मुस्कराते हुए रहते हैं और दूसरों को भी आनंद देते हैं। जब तक रहते हैं तब तक सुकून मिलता रहता है, हम हास्य और मस्ती के माहौल में जीते रहते हैं, जब वे हमारे बीच से कहीं दूर चले जाते हैं अथवा ऊपर चले जाते हैं तब उनकी कमी हमेशा अखरती है, याद भी आती है और उनके प्रति श्रद्धा के साथ आदर-सम्मान देते हुए हम गर्व एवं गौरव का अनुभव भी करते हैं।
ये ही वे लोग होते हैं जो जमाने भर के लिए जीते हैं और जमाने को जीना सिखाते हैं। इनके इतर बहुत सारे लोगों की अवांछित भीड़ ऎसी है जो चलते-फिरते हैं, खाते-पीते हैं, बातें करते-बनाते रहते हैं, यहाँ-वहाँ मौज उड़ाते हैं और गुलछर्रे उड़ाते हुए अपनी ही खुदगर्जी के मकड़जाल में चक्कर काटते रहते हैं।
इन लोगों को अपने ही अपने से मतलब होता है, किसी और से नहीं। इस प्रजाति के लोगों को और किसी की कुछ भी पड़ी नहीं होती। अपने आस-पास, पड़ोस या मोहल्ले, क्षेत्र में क्या कुछ हो रहा है, उसके बारे में हर प्रकार के अपडेट इनके पास जरूर रहते हैं लेकिन इनका उपयोग सिर्फ जानकारी मात्र के लिए अपने पास रखते हैं और किसी डिटेक्टिव एजेंट की तर्ज पर या मौका पड़ने पर दूसरों को ब्लेकमेल कर अपना लाभ उठाने भर के लिए किया करते हैं।
सब कुछ जानते-बूझते हुए भी परम तटस्थ बने रहना इन लोगों का पहला गुणधर्म होता है। हर हरकत और हर इंसान पर पैनी व कातिल निगाह रखते हैं लेकिन रहेंगे ऎसे कि जैसे इन्हें कुछ पता ही न हो।
कुछ लोग हो सकते हैं जिन्हें कुछ भी पता न हो, लेकिन अधिकांश लोग अपने ही अपने स्वार्थों में घिरे रहते हैं, अपने भाई-बंधुओं, कुटुम्बियों और क्षेत्रवासियों की क्या पीड़ाएं हैं, क्या अभाव और समस्याएं हैं, उन्हें किस चीज या सेवा की जरूरत है, इसकी कोई परवाह नहीं करते।
इन लोगों का साफ मानना होता है कि यह संसार हमारा है और हम अपने ही अपने लिए हैं। यही कारण है कि आज सर्वत्र तटस्थ लोगों की विस्फोटक जनसंख्या ने हर तरफ किंकर्तव्यविमूढ़ता के हालात पैदा कर दिए हैं।
बात समाज-जीवन के व्यवहारिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि दुनिया की तमाम सोशल साईट्स को देख लें। मित्रता सूची में जुड़ जाने या कि घुसपैठ कर लिए जाने के बाद कितने लोग रोजमर्रा की जिन्दगी या अपडेशन में सक्रिय रह पाते हैं।
ऎसे ही लोगों में एक किस्म उनकी है जो मित्रता सूची का उपयोग अपने विज्ञापन, शेखी बघारने, आत्मप्रचार और अपने-अपने काम-धंधों का नेटवर्क स्थापित करने में करते हैं। दूसरी किस्म के लोग औरों की गतिविधियों पर खुफिया नज़र गड़ाए रखने के लिए करते हैं और तमाम नकारात्मक बातों और टिप्पणियों का रिकार्ड रखते हुए रिकार्ड रूम में परिवर्तित हो जाते हैं।
बहुत से नाकारा और धर्मभीरू लोग भगवान के नाम पर पाखण्ड फैलाने और भगवान पर आश्रित होते हुए कर्मयोग को दरकिनार कर भाग्य और ईश्वर के सहारे संसार की वैतरणी पार करने की फिराक में अंधविश्वासों और अगाध विश्वासों का सहारा लेते रहते हैं।
सर्वाधिक लोग सारी पोस्ट्स देखेंगे जरूर पर न लाईक करेंगे, न कोई कमेंट, शेयर करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस किस्म के गूंगे-बहरे और मूकद्रष्टाओं से न केवल आभासी दुनिया बल्कि असली दुनिया भी भरी हुई है।
ये लोग किसी न किसी स्वार्थ, नाजायज लाभों, लालच, किसी न किसी अपराध को ढंकने व संरक्षण पाने, किसी बड़े आदमी के पालतू या अनुचर बनकर जिन्दगी जीने और असुरक्षित भविष्य की आशंका तथा दुनिया भर के भयों से त्रस्त रहा करते हैं इसलिए उनकी हिम्मत ही नहीं हो पाती कि किसी विषय पर सोचें, टिप्पणी करें या अच्छी बातों को आगे से आगे पहुंचायें।
ये लोग जीवित होते हुए भी मुर्दों की तरह व्यवहार करते हैं या फिर हमेशा-हमेशा कोमा में चले गए, आईसीयू में भर्ती उस मरीज की तरह हो जाते हैं जिसके बारे में सभी को पक्का पता होता है कि यह कभी भी गुड़क सकता है।
समाज-जीवन, परिवेश, समुदाय और देश की किसी भी गतिविधि के प्रति असंवेदनशीलता का व्यवहार या तो मुर्दें करते हैं अथवा नीम बेहोशी में चले गए मरीज, देशद्रोही, आतंकवादी अथवा बौद्धिक सामथ्र्य खो चुके पागल। कोई छोटा पागल है, कोई बड़ा।
अपने आस-पास खूब सारे ऎसे गूंगे-बहरे और चुपचाप देखते रहने वाले लोग हैं जिन्हें सीधी सट्ट भाषा में नुगरा कहा जा सकता है। समाज और देश के अधःपतन से लेकर इतिहास तक को कलंकित करने में जिन लोगों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है उनमें तटस्थता ओढ़े हुए नुगरों की भूमिका सर्वाधिक संदिग्ध रही है जिन्होंने अपने ही स्वार्थ को सामने रखा, समाज और देश को भुलाते रहे, खुद लूटते रहे, देश को लुटता हुआ देखते रहे।
ये लोग न अच्छे को अच्छा कह पाने का माद्दा रखते हैं, न बुरे को बुरा कह पाने का साहस। जैसा चल रहा है, चलने दो, अपनी रोटियाँ सेंकते रहो, ‘राम नाम जपते रहो, पराया माल पाते रहो’ का राग अलापने वाले इन लोगों का कलंकित इतिहास ही है जो भारतमाता के लिए अभिशाप बना हुआ है।
आभासी से लेकर वास्तविक दुनिया तक पसरे हुए इन तमाम किस्मों के मुर्दाल लोगों के प्रति पावन श्रद्धांजलि देने को जी चाहता है जिनकी वजह से धरती का बोझ भी बढ़ा हुआ है और आसमान में प्रदूषण फैल रहा है।
ऎसे सभी आत्म निःशक्त, जान-बूझ कर तटस्थता का कफन ओढ़े अजगरी व्यक्तित्व वाले नुगरे, निकम्मे और नालायक लोगों को जानें, समझें और ईश्वर से प्रार्थना करें कि धरती का भार हल्का करे ताकि इन मुर्दों की दुर्गन्ध से मुक्ति पाकर हम जमाने की रफ्तार के अनुरूप तरक्की की राह पा सकें।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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