पाँच गीत - डॉ . श्याम गुप्त १. हे मन ! ले चल सत की राह | लोभ, मोह ,लालच न जहां हो , लिपट सके ना माया ....| मन की शान्ति मिले जिस पथ पर ...
पाँच गीत
- डॉ. श्याम गुप्त
१.
हे मन ! ले चल सत की राह |
लोभ, मोह ,लालच न जहां हो ,
लिपट सके ना माया ....|
मन की शान्ति मिले जिस पथ पर ,
प्रेम की शीतल छाया ....|
चित चकोर को मिले स्वाति-जल ,
मन न रहे कोई चाह | -----हे मन ले चल.....||
यह जग है इक माया नगरी ,
पनघट मन भरमाया ...|
भांति- भांति की सुंदर गगरी,
भरी हुई मद-माया...|
अमृत गागर ढकी असत पट ,
मन क्यूं तू भरमाया...
मन काहे भरमाया ....|
सत से खोल ,असत -पट घूंघट ,
पिया मिलन जो भाया....
अन्तर के पट खुलें मिले तब,
श्याम पिया की राह ....|
रे मन ! ले चल सत की राह ,
ले चल प्रभु की राह .....हे मन!....||
२.
काहे मल मल कुम्भ नहाए ....
रे मनुवा मेरे ....रे मनुवा ....मेरे .......रे मनुवा मेरे ...............|
काहे मल -मल कुम्भ नहाए....
मन के घट मद-मोह भरा रे ,
यह तू समझ न पाए रे .....|...रे मनुवा मेरे ......||
नदिया तीर लगाए मेले ,
भीड़-भड़क्के, ठेलम ठेले |
दूर- दूर चलि आये ,
अड़सठ कुम्भ नहाए.....
मन का मैल न जाए ...रे.....| रे मनुवा मेरे .....||
कोई गाडी चढ़कर आये ,
हाथी रथ पालकी सजाये |
बाबू अफसर, शासक, नेता ,
अपने अपने कर्म सजाये |
गुरु पाछे बहु चेले आये ,
सेठ-सेठानी जी भर न्हाये|
मल मल न्हाये रे ......
कैसा कुम्भ नहाना रे मनुवा....
जो मन मैल जाए रे ..........| रे मनुवा मेरे ........||
गुरु स्वामी शुचि संत समाजा ,
विविधि ज्ञान, बहु पंथ विराजा |
बहु-मत, बहुरि तत्व गुन राजा,
योग, कर्म, भक्ति शुचि साजा |
काहे न ज्ञान कुम्भ तू न्हाये,
काहे न मन के भरम मिटाए |
जो मन मैल मिटाए रे....
मन, शुचि कर्म सजाये रे .....
रूचि-रूचि कुम्भ नहाए रे ......|....रे मनुवा मेरे ......||
कैसा कुम्भ नहाना रे मनुवा ,
जो मन मैल न जाए रे ...|
मन का भरम न जाए रे ...|
रे मनुवा... मेरे... रे.....मनुवा मेरे...... रे मनुवा मेरे................||
३.
हे मन ! अब क्या धरम करम करिए
हे मन ! अब क्या धरम करम करिए ||
चौथापन मन मुकुर दिखाए,
कर्मों का सब लेख दिखाए |
जीवन बीता भोग भोगते ,
माया घिर घिर आये |
जग की जोड़-तोड़ में जीकर,
जीवन व्यर्थ गँवाए |
अब न कर्म की रेख बची जब,
धर्म नीति क्या चलिए |
हे मन, अब क्या धरम करम करिए ||
क्षमा दया इन्द्रिय-निग्रह-
शुचिता बचपन से करते |
द्वेष द्रोह सम्मोह छोड़कर,
अनुशीलन-व्रत धरते |
धर्म कर्म और ज्ञान नीति के,
मन में भाव उभरते |
अनुशासन कल्याण भाव से,
कर्म तभी तो करिए |
हे मन अब क्या धरम करम करिए ||
प्रभु की प्रीति रखे मन मांही,
धर्म-कर्म रत हो तन-मन से|
उतारें जग के भवसागर में,
निस्पृह स्वच्छ रहें जीवन में |
माया मोह लिपट नहीं पाए,
जन कल्याण कर्म मन भाये |
उजली चादर होय न मैली,
ज्यों की त्यों धरिये |
हे मन अब क्या धर्म करम करिए ||
४.
सोने की लंका में .....
आज अनाचरण व् मर्यादाहीनता के युग में जब पुरुष ( एवं स्त्रियाँ स्वयं भी ) स्वर्ण अर्थात धन, कमाई, भौतिक सुखों के पीछे दौड़ रहे हैं जो स्वयं इस अनाचरण का मूल है .....स्त्रियों को ही आगे आना होगा ... उन्हें सीता, दुर्गा, अनुसूया, मदालसा, जीजाबाई , लक्ष्मीबाई बनना होगा, स्वयं को एवं पुरुष को सदाचार का मार्ग दिखाने ...यही युग की मांग है....)
सोने की लंका में, सीता माँ बंदी है ,
रघुबर के नाम की भी, सुअना पाबंदी है |
लंका तो सोने की, सोना ही सोना है ,
सोना ही खाना-पीनी, सोन बिछौना है |
सोने के कपडे-गहने,सोने की बँगला-गाड़ी,
सोने सा मन रखने पर, सुअना पाबंदी है || सोने की लंका में ....
सोने के मृग के पीछे क्या गए राम जी,
लक्ष्मण सी भक्ति पर भी शंका का घेरा है |
संस्कृति की सीता को, हर लिया रावण ने ,
लक्ष्मण की रेखा ऊपर, सोने की रेखा है ||
अपना ही चीर हरण, द्रौपदि को भाया है ,
कृष्ण लाचार खड़े, सोने की माया है |
वंशी के स्वर में भी, सुर-लय त्रिभंगी है ,
रघुवर के नाम की भी रे नर ! पाबंदी है || ...सोने की लंका में ...
अब न विभीषण कोई, रावण का साथ छोड़े ,
अब तो भरत जी रहते, रघुपति से मुख मोडे |
कान्हा उदास घूमे, साथी न संगी हैं ,
माखन से कौन रीझे, ग्वाले बहुधंधी हैं ||
सोने के महल-अटारी, सोने के कारोबारी,
सोने के पिंजरे में मानवता बंदी है |
हीरामन हर्षित चहके, सोने के दाना पानी ,
पाने की आशा में, रसना आनंदी है || ...सोने की लंका में...
कंस खूब फूले-फले, रावण हो ध्वंस् कैसे,
रघुवर अकेले हैं लंका में पहुंचें कैसे |
नील और नल के छोड़े पत्थर न तरते अब ,
नाम की न महिमा रही सीताजी छूटें कैसे ||
अब तो माँ सीता तू ही, आशा कीज्योति बाकी ,
जब जब हैं देव हारे, माँ तू ही तारती |
खप्पर-त्रिशूल लेके बन जा रन चंडी है ,
भक्त माँ पुकारें , राम की भी रजामंदी है || --- सोने की लंका में ..||
५.
भूल न जाना रे....
रे मनुवा मेरे . .रे मनुवा मेरे.. ....रे मनुवा मेरे ........|
भूल न जाना रे ....भूल न जाना रे ......|
माया बिनु कब कौन चला है रे
माया बिनु कब जग चलता है रे |
पर हरि साथ नहीं होंगे तो,
माया नाच नचाये रे ... | ...रे मनुवा मेरे .....||
बिनु हरि माया काम न आये,
शक्ति-अहं में तू भरमाये |
धन-सत्ता और सुरा-सुन्दरी ,
में रम जाए रे .....
तू रम जाये रे ......| ... ..... रे मनुवा मेरे ....||
माया प्रकृति शक्ति ही यथा-
नारी रूप सजाया |
अंतरमन से जान जो चाहे ,
जीवन की सुख छाया |
उस प्रभु का कर धन्यवाद ,
यह सुन्दर सृष्टि रचाई |
बाह्य रूप छूने-पाने की -
इच्छा, पाप कमाई |
साक्षी-भाव रहे जो मन, नहिं -
बाह्य रूप ललचाये |
दृष्टा-भाव उसे पूजे, मन-
नहीं वासना आये |
पाप-कर्म नहिं भाये ,
अनुचित कर्म न भाये |
भूल न जाना रे ......भूल न जाना रे ...
रे मनुवा मेरे.. . रे मनुवा ,मेरे .......रे मनुवा. .. मेरे ....||
---ड़ा श्याम गुप्त ......
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(ऊपर का चित्र - डॉ. रेखा श्रीवास्तव)
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