प्राची - अगस्त 2015 - कहानी : आदमी के सुख दुख में

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आदमी के सुख दुख में (भूकंप आधारित कहानी) डॉ. कुंवर प्रेमिल (भाइयों, यह कथा बहुत पुरानी है. इसकी कथाकार मेरी नानी की नानी है इन दादी-ना...

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आदमी के सुख दुख में

(भूकंप आधारित कहानी)

डॉ. कुंवर प्रेमिल

(भाइयों, यह कथा बहुत पुरानी है. इसकी कथाकार मेरी नानी की नानी है इन दादी-नानी की कहानियों पर ही बचपन पलता है. पांव-पांव, डगर-मगर चलता है, हंसता है, रोता है, खिलखिलाता है बचपन. आंखों को भाता है ‘पांव-पांव चलें किशनचंद,’ हंस-हंस गीत गवाता है.)

बिल्‍ली चुप,

नेवला चुप,

तोता गूंगा,

गाय रंभाना गई भूल.

सांप कुंडली मार कर हो गया संज्ञाशून्‍य.

चारों ओर एक अभेद्य चुप्‍पी, गहरा सन्‍नाटा. एक ही दशा में, भूखे पड़े थे सभी. असीम दुख ने उन्‍हें जकड़ लिया था अभी-अभी.

देखते ही देखते, पलक झपकते, उनकी मालकिन भूकंप की चपेट में आ गई थी. उसकी निर्जीव देह आंगन में चुपचाप पड़ी थी. यह जानकर मालकिन के असामयिक निधन पर शोक मना रहे थे. आंसू बहा रहे थे. आपस में बातें करने से भी कतरा रहे थे. उनके गले में कांटे उग आये थे. उन्‍हें भूख-प्‍यास की भी सुधि नहीं थी. उनके सामने यह एक विपत्ति की घड़ी थी.

बिल्‍ली ने म्‍याऊ नहीं की, कुत्ता भौंका नहीं, गाय रंभाती कैसे, तोता हक्‍का-बक्‍का, सांप को तो सांप ही सूंघ गया हो जैसे.

अलस्‍सुबह दही बिलोने में लगी थी, मालकिन. इन सबको छाछ जो देनी थी. लेकिन तोता वाचाल हो उठा. गाय खूंटा तुड़ाने लगी. बिल्‍ली मटकी के गेर-फेर नाचने लगी. कुत्ता अपनी मालकिन की धोती पकड़कर बाहर की ओर खींचने लगा.

मालकिन क्षण भर के लिये अचंभे में आ गई. होकर भयातुर, तेजी से जाने लगी बाहर. उसने सबसे पहले सांप का पिटारा खोला. टामी की चैन. उछलम-कूदम करते नेवले की ढीली की रस्‍सी. बिल्‍ली छपाक से कूद गई बाहर. कुत्ता अभी तक उसकी धोती पकड़े हुए था. तोते का पिंजरा उसने अपने हाथ में ले लिया था.

और कोई समय होता तो तोता कहता- ‘बोलो मिट्‌ठू तोताराम. भजो राम-राम.’’

टॉमी गुरगुराकर तोते की हां में हां मिलाता. नेवला सिर घुमाता जाता. फन काढ़कर सांप थोड़ी देर नाचता. बिल्‍ली म्‍याऊं-म्‍याऊं कहकर खुशी जाहिर करती. इन चारों को देख-देख गाय भी सींग-पूंछ हिलाती.

लेकिन, पिटारा खुलते ही सांप मरता-जीता भागा. नेवला भी सरपट बाहर भागा. सारे के सारे जानवर पलक झपकते होना चाहते थे बाहर. मालकिन डर से कांप रही थी बेचारी थर-थर.

उसने देहरी पर से एक पैर बाहर निकाला ही था कि

धरती घूमने लगी. हजारों-हजार छिपकलियां-सी उसके शरीर पर रेंगने लगीं. पैर जड़ हो गये. वह हतप्रभ होकर चक्‍कर खाती जमीन को देख रही थी. हजारों-हजार ट्रक, रेलगाड़ियां, हवाई जहाजों की ध्‍वनि उसके कानों में गूंज रही थी.

‘‘भागो-भागो.’’ तोताराम चिल्‍लाया.

परंतु वह भाग नहीं सकी. तोते का पिंजरा जरूर उसने आंगन में उछाल दिया था.

‘‘माई री! भूडोल है यह तो!’’ वह मन ही मन घबराई.

‘‘मैं तो, गई काम से अब तो! चिंता की रेखाएं उसके चेहरे पर उभर आईं.

तभी आंगन एक वीभत्‍स आवाज के साथ फटा. कान के अंधेरे पर्दे को फाड़ देने वाली आवाज के साथ, कुछ घटा. घर आंगन में धुंआ ही धुआं भर गया. पल भर में बहुत बड़ा कुछ घट गया.

वह किसी अज्ञात भय से कंपकंपाने लगी. बाहर निकल भागने, बुरी तरह छटपटाने लगी.

‘‘भागो, भूकंप है.’’ कोई बाहर चिल्‍ला रहा था.

वह भी चिल्‍लाई, पर भाग नहीं सकी. उसके पैर मन-मन भारी हो गये थे. तभी घर की छत लहराई, और वह उसके मलबे में जा समाई.

इन जानवरों की मालकिन का आधा शरीर बाहर आधा घर के भीतर पड़ा था. उसकी छाती पर टनों मलबा गिरा-पड़ा था, बेचारे जानवर बेरहम प्रकृति की इस करतूत पर आंसू बहा रहे थे. बुरी तरह घबरा रहे थे.

तभी उनका मालिक दौड़ता हुआ आया. बुरी तरह कांप रही थी उसकी काया. अपनी पत्‍नी की हालत देखकर उसका गला भर आया. वह विलाप करने लगा. पत्‍नी उसको असमय ही दे गई थी दगा. बेचारा एक बारगी लहराया और पत्‍नी की देह पर गिरते ही उसे बेहोशी ने धर-दबोचा.

गांव से बाहर खेत में घर था. इसलिए जानवरों को मालिक-मालकिन की सुरक्षा को लेकर बड़ा डर था. सभी ने मिलकर आंखों ही आंखों में बतियाकर समस्‍या का हल ढूंढा. सांप को मुखियागिरी सौंपी, क्‍योंकि वह था उन सबमें समझदार और बूढ़ा.

सांप बिल्‍कुल करीब में फन काढ़कर सतर्क होकर बैठ गया. मजाल कि परिंदा भी पर मार देता. इस रक्षा पंक्‍ति में कुत्ता इतना चौकन्‍ना कि मक्‍खी को भी पास फटकने न देता. बिल्‍ली मिचमिची आंखों से सभी पर कड़ी नजर रखे हुए थी.

तोता ‘टें-टें’ कर बाहरवालों को बुला रहा था. नेवला बार-बार घर के दरवाजे तक आ-जा रहा था. इससे बड़ा दुर्भाग्‍य यह क्‍या होगा कि किसी का भी ध्‍यान इस ओर फिर भी आकर्षित नहीं हो पा रहा था.

खग जाने खग ही की भाषा. तोते ने नीम पर बैठी चिड़ियों से सम्‍पर्क साधा, चिड़ियों को इस हादसे का कुछ पता नहीं था. वे तो अमराई से घबराई हुई आई थी. भूकंप ने अमराई के पेड़ जड़ से उखाड़ दिये थे. हर तरफ भारी तबाही थी. मुर्दिनी सी छाई थी.

चिड़ियों ने नीचे ताका. पूरी तरह बदला हुआ था, नीचे का खाका. वे जब भी इस पेड़ पर आकर सुस्‍ताती. नीचे मरी पड़ी औरत को इन जानवरों की सेवा में लगा पाती. यह औरत उनके लिए भी चने-चावल बिखेरती. कुंडे में जल भरकर रखती और एक सजी हुई मुस्‍कान बिखेर देती.

चिड़ियां मसखरी कर जातीं. कुत्ते को चिढ़ाती. सांप को चोंचों से टहूके लगातीं परंतु बिल्‍ली, चिल-बिल्‍ली से वे भी घबराती.

तोता भ्रम में था. वह मालिक की वस्‍तु-स्‍थिति से वाकिफ होना चाहता था. मालिक यदि केवल बेहोश ही हों तो. इस सच्‍चाई को जानने की कोई युक्‍ति चिड़ियों के पास में हो तो. इसी ‘तो’ पर उसका विश्‍वास कायम था. वह मालिक की जीवन-मृत्‍यु बाबत आश्‍वस्‍त होना चाहता था. चाहे जो हो वह अपने मालिक को खोना नहीं चाहता था.

चिड़ियों ने तोते की बात मान ली. मन ही मन एक अनूठा प्रयोग करने की ठान ली. वह एक-एक कर नीचे उतरीं. वे सधे कदम दर कदम आगे बढ़ रही थीं. एक विचित्र-सा संगीत गढ़ रही थीं.

चिड़ियों ने समवेत स्‍वरों में कोई बढ़िया-सा गीत गाया. फिर मालिक के शरीर को कई जगह गुदगुदाया. कुछेक मालिक की जुल्‍फों से खेल रही थीं.

तभी गाय रंभाई- ‘‘कोई उसे क्‍यों कुछ नहीं बताता भाई. अब चिड़ियों के साथ सांप, बिल्‍ली, कुत्ता, नेवला और तोता मालिक के समीप खिसक रहे थे. इसके पहले तो वे नजदीक जाने में भी हिचक रहे थे.

इस दरम्‍यान कुत्ता रोना चाहता था, परंतु क्रन्‍दन कर अपने साथियों का मनोबल गिराना नहीं चाहता था. रोना तो बिल्‍ली भी चाह रही थी. परंतु अशगुन के डर से बमुश्‍किल अपना मुंह

बांध रही थी.

चिड़ियों का गुदगुदाना काम कर गया. मालिक ने आंखें खोली तो तोता खुशी से भर गया. चिड़ियों की युक्‍ति काम कर गई थी. मालिक की बेहोशी दूर बहुत दूर उड़ गई थी. चिड़ियां फिर अमराई की ओर मुड़ गई थीं.

कुछ दिन ऐसे ही दुख में बीते. मालकिन की त्रयोदशी संपन्‍न हुई. पूरे गांव के लोग मौज उड़ा रहे थे पर ये बेचारे जानवर उस दिन भूखे रहकर अपनी मालकिन का शोक मना रहे थे.

दूसरे दिन सांप अपने मालिक से बोला- ‘‘मालिक, मैं वनचर प्राणी हूं. जहरीला भी हूं, मालकिन के प्‍यार में अपना जहर खो चुका था. अब मैं यहां से रुखसत होना चाहता हूं. इस नेवले पर मुझे जरा भी भरोसा नहीं है.’’

‘‘मुझे आजाद कर दीजिये, आपका बड़ा उपकार होगा.’’

नेवले ने कहा- ‘‘हमारी मालकिन सभी जीवों के प्रति समान रूप से स्‍नेही थी. सांप को चील के पंजो से छुड़ाकर लाई थी. सांप ने मुझ पर अविश्‍वास किया है. अब मैं भी यहां नहीं रहूंगा. इसके बगैर मैं ऊर्जावान होकर कैसे जियूंगा. जहां सांप, वहां आप.’’

बिल्‍ली बोली- ‘‘मालिक, मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी. सांप-नेवले अहसान फरामोश हैं. मै तो बचा-खुचा खा लूंगी. जैसे-तैसे, आपके साथ ही रह लूंगी.’’

तोतो बोला- ‘‘अजी, मैं वनपांखी हूं, अब जंगल में इधर-

उधर उड़ना मेरे वश में नहीं है. कुछ हरी मिर्च और फल, बस निकल आयेगा, मेरा हल. आपको ज्‍यादा कष्‍ट नहीं दूंगा. पिंजरे में ही रह लूंगा.’’

गाय रंभाई- ‘‘अरे, कुछ मेरी भी सुनो भाई. जिसको जाना है तो जाये, पर मेरी भी कुछ सुनते जायें. मालिक खेत से लौटेंगे तो मेरा दूध पीकर ताजादम हो लेंगे. मालकिन की एकमात्र निशानी, जो नीम की डाल पर बंधे झूले से झूल रही है, उसे अपना दूध पिलाऊंगी. मैं अब और कहीं नहीं जाऊंगी. कुछ हरी घास और पत्ते, इसी तरह पड़ी रहूंगी, सस्‍ते-सस्‍ते.’’

कुत्ता पूंछ हिलाकर बोला- ‘‘मालिक, मैं बिन पैसे का चौकीदार हूं. सिपाही हवलदार हूं. सेवा भावी हूं, ठंडी-बासी खा लूंगा.’’

भाइयों, यह कथा बहुत पुरानी है. इसकी कथाकार मेरी नानी की नानी है. इन दादी-नानी की कहानियों पर ही बचपन पलता है. पांव-पांव, डगर-मगर चलता है, हंसता है, रोता है, खिलखिलाता है बचपन. आंखों को भाता है ‘पांव-पांव चलें किशनचंद,’ हंस-हंस गीत गंवाता है.

खैर, कहते हैं तभी से जानवरों में दो गुट हो गये. एक वर्ग जो लूटेरा था, उदंड, अविश्‍वासी अभिमानी, स्‍वेच्‍छाचारी था, वह जंगलों में चला गया. दूसरे वर्ग के चापलूस, मिठबोले, आरामतलबी, परजीवी, कामचोर और सेवाभावी आदमी के साथ रह गये.

अपनी स्‍वेच्‍छा से रहे प्राणियों में गाय महत्‍वपूर्ण बन गई. अपने अमृत समान दूध से इंसानी कौम को पालकर सम्‍माननीय और वंदनीय हो गई.

इस आदमी ने गाहे-बगाहे दोनों किस्‍मों के जानवरों का उपयोग और शोषण किया. अपने मतलब के लिये जानवरों के

वध करने से भी वह नहीं चूका. लेकिन गौरतलब यह है कि आदमी के साथ-साथ रह कर जानवर संवेदनशील हो गये.

वे आदमी के सुख-दुख में साथ रहकर अति महत्‍वपूर्ण हो गये.

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संपर्कः एम.आई.जी. 8, विजयनगर

जबलपुर 482002 (म.प्र.)

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रचनाकार: प्राची - अगस्त 2015 - कहानी : आदमी के सुख दुख में
प्राची - अगस्त 2015 - कहानी : आदमी के सुख दुख में
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https://www.rachanakar.org/2015/09/2015_68.html
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