सिंधी कहानी जेब्रा-क्रासिंग पर हरिकांत बैंक की बहु-मंजिली इमारत से बाहर निकलते ही यंत्रवत् उसका बायां हाथ उसके कंधे पर लटकते हुए जूट के...
सिंधी कहानी
जेब्रा-क्रासिंग पर
हरिकांत
बैंक की बहु-मंजिली इमारत से बाहर निकलते ही यंत्रवत् उसका बायां हाथ उसके कंधे पर लटकते हुए जूट के खुरदरे शोल्डर बैग की ओर चला गया. लंच बाक्स जो आज उसने खोला ही नहीं था, छोटी सी डायरी जिसके प्लास्टिक कवर की तह में वह रुपये रखती थी, पेन, दो रूमाल और एक साप्ताहिक पत्रिका- उसकी उंगलियां इन इनी-गिनी और जानी-पहचानी चीजों को छूती हुई फोल्डिंग छतरी पर पहुंचकर रुक गईं. उसने आसमान की ओर देखा. चारों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतें एक-दूसरे से सटी हुई- बीच में एक चौकोर आकाश और उसमें मंडराती हुई सितम्बर के अन्तिम सप्ताह की एक छोटी-सी बदली-धुनी रुई की तरह और सफेद- इधर से उधर दौड़ती हुई- छुटकारा पाने को आतुर.
लोहे का गेट पार करते हुए उसे महसूस हुआ, ग्रीष्म की तीव्रता खत्म हो चुकी थी और वर्षा ऋतु लौटने लगी थी. वातावरण में सिर्फ उमस बाकी थी. उसने छतरी न निकालकर रूमाल निकाल लिया और बस-स्टाप की दिशा में चलते हुए अपना सांवला चेहरा पोंछा. रूमाल गीला नहीं हुआ. उस पर केवल कुछ काले निशान बन गए.
बस स्टाप उसके दफ्तर से ज्यादा दूर नहीं, करीब दो फर्लांग होगा. लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए एक चौराहा पार करना पड़ता है.
जेब्रा-क्रासिंग पर पहुंचकर वह रुक गई. सामने लाल बत्ती थी. जब भी वह यहां पहुंचती, बत्ती अक्सर लाल ही होती है. न चाहते हुए भी उसे यहां रुकना ही पड़ता है. रुकावट के ये कुछ लाल पल भी उसे बहुत भारी लगते. कभी-कभी उसे सन्देह घेर लेता- यातायात नियंत्रक में अवश्य कोई खराबी आ गई है. लाल बत्ती अब कभी हरी नहीं होगी- उसे वहीं इन्तजार करना होगा- वहीं, जहां पिछले कई वर्षाें से वह थी.
सुबह उठते ही रसोई में जाना, भाई साहब और भाभी जी को बेड-टी देना, नाश्ता बनाना, पिंकी और राजू को जगाकर तैयार करना, उन्हें स्कूल-बस में चढ़ा आना, खुद तैयार होना, बस में धक्के खाकर बैंक पहुंचना, सीयर-ड्राफ्ट विभाग में दिन भर वही खाता लिखना, शाम को थककर घर लौटना, रात का खाना बनाना, और कुछ धुंधले से सपनो में खोकर सो जाना-
आज भी ऐसा ही हुआ था, कल भी, परसों भी, उससे पहले और उससे पहले भी- उसे लगा कई वर्षों से वह वहीं खड़ी हुई है- लाल बत्ती के सामने, हरी बत्ती की प्रतीक्षा में.
एक फुट ऊंची फुटपाथ पर खड़े कभी-कभी उसे लगता वह सड़क के किनारे नहीं, एक नदी के किनारे खड़ी है, जिसमें बाढ़ आई हुई है और सैकड़ों बसें, मोटरें, टैक्सियां, स्कूटर, साइकिलें, बाढ़ के तेज बहाव में लुढ़कती चली जा रही हैं. फिर अचानक धारा का रुख बदल जाता और उसके देखते-देखते सभी प्रकार के वाहन विपरीत दिशा में बहने लगते- उसी रफ्तार से.
जेब्रा-क्रासिंग पर हरी बत्ती होते ही एक और बाढ़ आई- जैसे कोई बांध टूट गया हो. इस प्रवाह में वह भी बहती जा रही थी. कोलतार की चौड़ी सड़क पर छपी अट्ठाइस मैली, सफेद पट्टियां पार करते हुए उसे अचानक याद आया- भाभी ने आज जल्दी घर लौटने को कहा था. वेल्फेयर एसोसियेशन ने कम्यूनिटी सेन्टर से कठपुतली का तमाशा आयोजित किया था. पिंकी और राजू को वहां ले जाना था. खेल-तमाशे में उसकी जरा भी रुचि नहीं. लेकिन अपनी रुचि की गुंजाइश ही कहां है. घर में शांति और सुसम्बन्ध कायम रखने के लिए दूसरों की इच्छाएं ओढ़कर संतुष्ट रहना, अब आदत बन गई थी उसकी. बस-स्टाप पर पहुंचकर उसने देखा क्यू इतनी लम्बी नहीं थी. दस-बारह व्यक्ति होंगे, इसका मतलब थोड़ी-सी देर पहले बस जा चुकी है. अगली बस बीस मिनट से पहले तो नहीं ही आयेगी.
‘हैलो दीदी!’
बैंक की कैन्टीन में पहली बार अपनी एक नई सहेली द्वारा अपने लिए यह सम्बोधन सुनकर वह पल भर स्तब्ध रह गयी थी. न जाने कैसे-कैसे सवाल एक साथ उसके मस्तिष्क में कौंध गये थे और उसे पहली बार अपनी आयु का एहसास हुआ था.
‘किस सोच में डूबी हो दीदी.’
उसने मुड़कर पीछे देखा. सरला और उसके साथ उसी उमर की एक अपरिचित लड़की उसकी ओर देखकर मुस्करा रही थी.
‘इसे जानती हो दीदी!’
‘कभी देखा नहीं.’
‘ये हैं मिस- नहीं- नहीं- नहीं- मिसेज कान्ता. कैश सैक्शन में आई हैं. करीब एक महीना हुआ. आते ही लम्बी छुट्टी पर चली गई थीं- शादी करने. आज नैनीताल से वापस आई हैं- हनीमून मनाकर.’ सरला ने अपनी सहेली का परिचय देना पूरा किया, लेकिन उससे पहले ही उसने कान्ता को सर से पांव तक देख लिया था. सफेद सैंडल से झांकती पतली उंगलियों के लम्बे नाखूनों पर करीने से लगाई गई नेल पालिश, फूल जैसा खिला-खिला चेहरा और घने काले बालों के बीच चमकता सिंदूर.
‘और ये हमारी दीदी.’ सरला ने अब उसका परिचय देना शुरू किया, ‘बैंक की सीनियर मोस्ट महिला असिस्टेन्ट- ओवरड्राफ्टिंग सेक्शन में हैं. दिन भर लेजर लिखती रहती हैं या कहानी-कविता. लेकिन सुनाती किसी को नहीं. लंच टाइम कैन्टीन की बजाए लाइब्रेरी में गुजारती हैं और- ’
‘बस- बस, बहुत हो गया.’ उसने सरला को बीच में ही टोक दिया और कहा, ‘तुम दोनों बातें करो, मैं वहां बैठी हूं. बस आये तो बुला लेना.’ और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना वह पास वाली सफेद इमारत की बाउन्ड्रीवाल की ओर बढ़ गई.
बाउन्ड्रीवाल और इमारत के बीच काफी जगह थी जिसमें एक छोटा-सा बगीचा बनाया गया था- हरी-हरी घास, तीन तरफ मेंहदी और बाउन्ड्रीवाल के साथ लगाये गये रंग-बिरंगे फूलों के पौंधे. इमारत में किसी विदेशी फर्म का दफ्तर था. बगीचे की अच्छी देखभाल से फर्म का वैभव झलकता था.
क्यू में खड़ी होकर बस की प्रतीक्षा करते पेट्रोल और डीजल की बदबू और धुएं से जब भी उसका दम घुटने लगता, वह सड़क से दूर इसी बाउन्ड्रीवाल पर आकर बैठती. हरी घास मेंहदी और फूलों को देखते हुए उसे एक सुकून मिलता था और कभी-कभी अपने आप में खोकर अपने पर सोचने का मौका मिल जाता था. वैसे उसके बारे में सोचने की फुर्सत या जरूरत किसको थी? सब अपने लिए सोचते हैं- घर वाले.
हायर सेकेण्डरी तक पढ़ाकर एम्पालयमेंट एक्सचेंज के बाहर लाइन में खड़ा कर दिया. यह तो मेरी अपनी जिद् थी कि पड़ोस की लड़कियांें को ट्यूशन देकर, आत्मनिर्भर बनकर प्राइवेटली बी.ए. कर लिया और बैंक की परीक्षा में पास होकर अच्छी नौकरी हासिल कर ली.
पहली तनख्वाह मिलने पर जब भाई साहब के हाथों में दी थी तो भाभी ने कितनी सादगी से कहा था, ‘तुम्हारी कमाई कैसे ले सकते हैं हम? अपने ही बैंक में अपने नाम एक खाता खुलवा लो. आगे चलकर ये रुपये तुम्हारे ही काम आयेंगे. हां, तुम्हें नौकरी मिलने की खुशी में गैस अवश्य लेंगे. तुम्हें ही सुविधा रहेगी.’ और भाई साहब ने अपने प्रभाव का सदुपयोग कर उसी महीने गैस का प्रबन्ध कर लिया था.
फिर उसी के नाम पर घर को ‘देखने लायक’ बनाने का एक ऐसा अभियान शुरू हुआ कि धीरे-धीरे घर का नक्शा ही बदल गया. घर के पिछवाड़े खाली पड़ी जगह के आधे हिस्से में एक अतिरिक्त कमरा बनवाया गया. दो-चार महीने की तनख्वाह जमा होते ही भाई साहब या भाभी जी की घर को देखने लायक बनाने की चिन्ता फिर जाग उठती, जिसका निवारण करने के लिये उसे अपने रुपयों को कभी सोफा सेट में परिवर्तित करना पड़ता कभी डबल-बैड में.
अब तो वह अनेक रूप और आकार लेकर रसोईघर से ड्राइंग रूम तक बिखर चुका था. कुकर, मिक्सी, वार्ड-रोब, टी.वी., फ्रिज, टेपरिकार्डर, घर की जिस चीज को देखती उस पर उसे अपनी छाप नजर आती. आवश्यकता, सुविधा और आनन्द विलास के अनेकानेक साधनों से भरे-भरे घर को देखकर उसे खुशी तो होती ही, लेकिन उस खुशी में एक हल्की-सी निराशा भी शामिल रहती. उसे लगता घर को भरने के प्रयास में वह अपने आप को खाली करती गई है. खालीपन- जिसको उसके सिवाय कोई नहीं समझता.
हवा का एक हलका झोंका अपने अदृश्य आंचल में फूलों की सुगन्ध लेेकर उसके पास आया. उसने मुड़कर बगीचे की ओर देखा. फूलों के नन्हें-नन्हें पौधे नाच रहे थे- मन्द-मन्द, शर्मीले बच्चों की तरह. फूल और बच्चे उसे कमजोरी की हद तक भाते थे. उसकी इसी कमजोरी का लाभ उठाकर भाभी ने उससे पिंकी का बीमा करवा लिया था. बीस साल आगे चलकर उसके विवाह में काम आने के लिए और साथ ही राजू के नाम दस वर्ष का रिकरिंग जमा खाता भी खुलवा लिया था- उसकी उच्च शिक्षा के लिए. उसे फिर याद आया- आज उनको कठपुतली का तमाशा दिखाने ले जाना है. दोनों तैयार बैठे अधीरता से इन्तजार कर रहे होंगे और भाभी उत्तेजित हो रही होगी- उन पर भी और मुझ पर भी.
उसने क्यू की ओर देखा. काफी लम्बी हो गई थी, लेकिन बस नजर नहीं आ रही थी.
खुरच-खुरच की आवाज से उसका ध्यान फिर बगीचे की ओर चला गया. बूढ़ा माली खुरपा लेकर पौधों के आस-पास उगी घास को जड़ से काटकर फेंकता जा रहा था. उसे याद आया, इसी माली ने एक बार बताया था- खरपतवार पौधों को पूरा विकसित होने नहीं देते- यह काले गुलाब का पौधा ही देखो- अब तक यह कम से कम ढाई फीट ऊंचा हो जाना चाहिए था और इसमें कई फूल खिल जाने चाहिए थे- लेकिन.
‘बस आ गई दीदी- ’
एडवांस बुकर टिकट पहले ही दे गया था. सरला ने दाएं हाथ की उंगलियों में थामे टिकट हिलाते हुए उतावलेपन से कहा, ‘जल्दी आओ न दीदी!’
बस एक ही फर्लांग चलकर रुक गई. फिर वही लाल बत्ती. खिड़की से बाहर झांकते हुए उसको महानगर के जीवन पर खीझ-सी होने लगी. अजीब परेशानी है- लोग पैदल हों चाहे बस में, अपनी इच्छा से रास्ता तक पार नहीं कर सकते. यंत्रों के इशारों पर चलना पड़ता है.
पीछे वाली सीट पर बैठी कान्ता, सरला को अभी तक नैनीताल के अपने मधुर अनुभव सुनाने में मग्न थी.
चारों तरफ पहाड़, ऊंचे-ऊंचे पेड़, हवा में गाते हुए से, बीच में नैनी झील और उसमें नौका विहार.
उसे लगा यह सब उसने भी देखा है- पहाड़, गाते हुए पेड़ और उसके बीच एक नीली झील. लेकिन मैं नैनीताल तो कभी गई नहीं. फिर, कहां देखा यह सब.
माउंट आबू में, शायद चार साल पहले.
अहमदाबाद से भाभी के मायके होकर लौटते हुए. दो दिन ठहरे थे. कुछ भी अच्छी तरह देख नहीं पाई. दलवाड़ा मन्दिर तक नहीं देखा. भाई साहब और भाभी अकेले देख आये थे. मैं पिंकी और राजू को होटल में संभालती रही थी, आया की तरह. केवल सन्सेट-प्वाइंट और नक्की झील देखी थी, किनारे पर बैठकर, कोई मधुर स्मृति नहीं.
बस के अन्दर शोर और अंधेरा बढ़ता जा रहा था. उसने सर में हल्का-हल्का दर्द महसूस किया और आंखें बन्द कर लीं.
आंखें बन्द होने के बावजूद उसे अहसास था कि बस कहां से गुजर रही है. जैसे-जैसे घर नजदीक आता जा रहा था, उसकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी. भाभी के तेवर असली जगह पर कायम रखने के लिए, भाई का खिंचाव नियंत्रित रखने के लिए और पिंकी तथा राजू की हर तमन्ना पूरी करने के लिए वह क्या कुछ नहीं करती. फिर भी...गेट के अन्दर कदम रखते ही उसको उसी स्थिति का सामना करना पड़ा जिसकी उसे आशंका थी और जिससे बचने के लिए बस से उतरते ही वास्तव में वह दौड़ती-सी घर पहुंचती थी.
बरामदे में भाभी दोनों बांहें बांधे आराम कुर्सी पर अधलेटी थी. बच्चे चेहरे लटकाये दीवान पर बैठे थे. उनकी गीली आंखों को देखकर उसे लगा उन्हें थप्पड़ मारकर चुप कराया गया था. उसको देखते ही दोनों उसकी ओर लपके और अपनी सारी व्यथा विशेष स्वर में कहे एक ही शब्द से व्यक्त कर दी-
‘दी- दी.’
अपना सिरदर्द, दिन भर की थकान और मानसिक पीड़ाएं भूलकर वह अपने चेहरे पर प्रयत्न से एक मुस्कान खींच लाई.
‘अरे तुम तैयार बैठे हो, अभी चलते हैं.’
और शोल्डर-बैग वहीं रखकर रूमाल से चेहरा पोंछते हुए कहा, ‘चलो- .’
बड़े-बड़े कदम उठाते हुए कम्यूनिटी-सेन्टर की ओर बढ़ते हुए उसे लगा वह अभी घर की तरफ जा रही है. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह घर से होकर आई है. जब देखा कंधे पर शोल्डर-बैग नहीं है और पिंकी और राजू बतियाते हुए उसके पीछे-पीछे आ रहे हैं तब जाकर विश्वास हुआ कि वह घर गई थी. पीछे मुड़कर उसने कहा, ‘जल्दी चलो- भाई, तमाशा शुरू हो जायेगा- ’
और तमाशा सचमुच शुरू हो चुका था. छोटा-सा हाल पूरा भरा हुआ था. दर्शक अधिकतर बच्चे थे और महिलाएं- फर्श पर बिछी चटाई पर बैठी हुई. दोनों बच्चों को साथ लिये हुए एक कोने में दीवार को सहारा लेकर खड़ी हो गई. उसका अंग-अंग टूट रहा था. दीवार पर पीठ टिकाने से उसे कुछ राहत मिली. फिर उसने मंच की ओर देखा.
शुरू-शुरू में उसे कुछ समझ में नहीं आया. दो बड़े-बड़े तख्त दाएं-बाएं और ऊपर सफेद पर्दे- बीच की खाली जगह पर रंगबिरंगे वस्त्र पहने लकड़ी की कुछ छोटी-छोटी मूर्तियां- अदृश्य डोरियों में बंधकर इधर-से-उधर उछलती हुई- कुछ अजीब आवाजें- जो उनकी नहीं थीं, लेकिन उनके मुंह में डाली जा रही थी. इन सबसे उसे क्या वास्ता? उसे ऊब महसूस होने लगी. फिर भी वह वहीं खड़ी रही- विवश.
अचानक उसकी दृष्टि मंच पर नाच-नाचकर एक कोने में चुपचाप खड़ी एक कठपुतली पर केन्द्रित हो गई. उसने ध्यान से देखा- उसमें कुछ था जो उसे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था. एकटक उसकी ओर देखने से उसे लगा, वह मंच पर खड़ी की गई किसी कठपुतली को नहीं, स्वयं अपने आप को देख रही थी. उसकी आंखें और भौहें और ओंठ और नाक, पूरा चेहरा यथावत उससे मिलता था. वह अवाक् हो गई और अपलक उसकी ओर देखती रही, देखती रही.
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