घर श्रीकांत वर्मा एक स्त्री और एक पुरुष मेरे अहाते में आए. मैंने झांक कर देखा. पानी के लक्षण थे. स्त्री के कपड़े मैले-कुचैले थे, और पुर...
घर
श्रीकांत वर्मा
एक स्त्री और एक पुरुष मेरे अहाते में आए. मैंने झांक कर देखा. पानी के लक्षण थे. स्त्री के कपड़े मैले-कुचैले थे, और पुरुष के भी. पुरुष अंधा था. स्त्री की गोद में बच्चा था, और वह पुरुष का हाथ भी पकड़े हुए थी. पुरुष अंधा था. इसलिए वह आगे थी.
वर्षा का डर दोनों को था, स्त्री को कुछ अधिक. वह घबराई हुई थी. मर्द को वह जैसे खींचती हुई लिए आ रही थी. दो सीढ़ियां चढ़ वह मेरे बरामदे में आ पहुंची, और गोद का एक-डेढ़ साल का बच्चा, जो एक लम्बी कमीज में करीब-करीब पूरी तरह खो गया था, फर्श पर सुला दिया. पुरुष ने हवा में हाथों-ही हाथों कुछ टटोलते हुए पूछा- ‘‘आ गए?’’
‘‘आ गए,’’ स्त्री ने जवाब दिया.
‘‘कोई है?’’
‘‘कोई नहीं है,’’ स्त्री ने फिर उत्तर दिया. और अपनी ओढ़नी संवारने में लग गयी.
‘‘मैं जरा पेशाब कर लूं.’’
‘‘कर ले,’’ स्त्री ने अपने में बुझे-ही-बुझे कहा- ‘‘जरा संभल के. दूसरी तरफ दीवार है.’’
‘‘चुप,’’ मर्द ने डपटते हुए कहा- ‘‘मुझे सीख देती है?’’
और वह मेरे घर की दीवार की तरफ मुंह कर के बैठ गया.
फारिग होकर, वह फिर स्त्री की तरफ आया, और अपनी पीठ घुमाता हुआ बोला- ‘‘पीठ खोल.’’
उसकी पीठ पर एक बड़ा भारी गट्ठर था, जैसा अकसर फेरीवाले लादकर चलते हैं. स्त्री ने उसकी पीठ पर बंधा गट्ठर खोल दिया, जो धप्प की आवाज करता हुआ फर्श पर आ गिरा.
मैदान और पेड़ों पर दौड़ती हुई बौछार तेजी के साथ आ रही थी. और पहले झपाटे में वह उन दोनो को भिगो गयी.
बरामदे के एक कोने की तरफ लपककर, सिकुड़ते हुए पुरुष ने कहा- ‘‘लौंडा भी भीज गया?’’
स्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया. लम्बी कमीज दोहरी-तिहरी कर, बच्चे को उसी में लपेटने में लगी रही. फिर अपने-आप ही बुदबुदायी- ‘‘मैंने इसे छुट्टी दे दी थी. तबई मैं कहूं कमबख्त कैसे आराम से सोया है.’’
मेरे कमरे का द्वार ठीक वहीं खुलता था, जहां वे दोनों इस समय अपनी जडें फेेंक रहे थे.
मैं अपने घर में अकेला हूं. मैंने ब्याह भी नहीं किया. कोई इरादा भी नहीं है. घर पर भी कम ही रहता हूं. अपने पड़ोसियों से भी सरोकार मुझे लगभग नहीं है. अधिकतर के मैं नाम भी नहीं जानता. सूरत से जरूर वाकिफ हूं.
मैं अपनी खिड़की के पास एक बेंत की कुर्सी पर बैठ गया, और बाहर की ठंडी हवा के झोंके खाने लगा.
स्त्री एक दूसरे कोने पर जाकर बैठ गयी थी, और उसने बच्चे को फिर अपनी गोद में ले लिया था. पुरुष मेरी खिड़की के बिलकुल सामने आकर खड़ा हो गया. और अब मैंने उसे नजदीक से देखा.
डील-डौल से वह अच्छा-खासा था, और उसकी काठी भी मजबूत थी, हालांकि उम्र उसकी पचास से कम नहीं जान पड़ती थी. वह बार-बार आंखें मिचमिचाता था. शायद अपने अंधकार में कुछ टोहना चाहता था.
पानी बाहर पड़ने लगा था, और बौछारें भीतर-भीतर तक आ-आकर बरामदे को भिगो रही थीं.
‘‘पानी कब तक गिरेगा.’’ अंधे ने अपने मैले सूती कोट के कॉलर में अपने को छुपाते हुए कहा.
जब उसे कोई उत्तर नहीं मिला, तो उसने झुंझलाकर फिर अपना सवाल दुहराया- ‘‘अरी, सुनती नहीं है क्या? पानी कब तक गिरेगा?’’
जब उसे तब भी उत्तर नहीं मिला, तो उसने अपने दोनों हाथों से दीवार को टटोला. फिर फुसफुसाया- ‘‘कहीं चली गयी क्या?’’
‘‘क्या बड़बड़ा रहा है जबसे? पड़ी तो हूं यहीं.’’
अपने दोनों हाथ दीवार पर पूरी तरह रखकर, जैसे चिपका कर, उसने कहा- ‘‘चुप रह, हरामजादी!’’
‘‘तू भी चुप रह,’’ स्त्री ने दीवार के सहारे उठंगे-ही उठंगे, और बच्चे को गोद में लिए, जवाब दिया- ‘‘बैठ जा वहीं.’’
थोड़ी देर की चुप्पी को तोड़ते हुए अंधे ने कहा- ‘‘बहुत बरस रहा है?’’
‘‘बहुत,’’ स्त्री ने छोटा सा उत्तर दिया.
वह थोड़ी देर चुप रहा. फिर अपनी गठरी टटोलते हुए कहा- ‘‘जरा सुलगा दे.’’
स्त्री अपनी जगह से उठी, और गट्ठर खोल दिया, जिसमें मैले-कुचैले कपड़े, कथरी और छोटे-छोटे कुछ बासन थे. उसने एक छोटी-सी पोटली से बीड़ी का एक बंडल निकाला. फिर उसमें से एक बीड़ी निकाली. माचिस से उसे सुलगाया, और खुद एक कश लेकर, उसके इंतजार कर रहे होंठों में खोंस दी. अंधे ने पहला ही कश खूब गहरा लिया, और मजे में दीवार के सहारे
अधलेट गया, और अपनी टांगें दूर तक फैला दीं.
स्त्री ने उसके नजदीक आते हुए कहा- ‘‘बघार है?’’ ‘‘है,’’ उसने अपने मजे में कहा, और उसे टटोलने के लिए हाथ बढ़ाया. यह देख, स्त्री फुर्ती के साथ उठ खड़ी हुई.
अगर मैंने भी वही फुर्ती न बरती होती, तो निश्चय ही इस बार उसकी नजर मुझ पर पड़ी होती. मुझे लगा, अगर उसने मुझे देख लिया, तो पलक मारते वे दोनों खो जायेंगे. मैंने लपक कर, अपना सिर नीचे कर लिया. उस एक क्षण में मैंने देखा, कि स्त्री का शरीर स्वस्थ था, और उसकी आयु भी तीस से अधिक नहीं थी.
स्त्री फिर अपनी जगह आकर बैठ गयी थी.
इस बार स्त्री ने बात शुरू की- ‘‘बारिश थम रही है.’’
‘‘अंधेरा हुआ?’’
‘‘बाकी है.’’
‘‘घर किस का है?’’
‘‘होगा किसी का.’’
‘‘किसका?’’
‘‘तू पता कर.’’
‘‘मैं क्या पता करूं? मेरे कोई आंखें हैं?’’
‘‘तेरे पेट में आंखें हैं.’’
‘‘तेरे होंगी. कुतिया कहीं की!’’
उन दोनों के बीच फिर एक सन्नाटा बैठ गया, जिसे कुछ ही समय बाद तोड़ते हुए अंधे ने कहा- ‘‘लौंडा बुरी तरह सो रहा है.’’
‘‘बुरी तरह.’’
‘‘जागने का टैम हो रहा होगा. जरा संभल के.’’
स्त्री ने उसे कथरी पर सुला दिया, और गठरी खोलकर उलट-पलट करने लगी.
‘‘एक और लगा,’’ पुरुष ने कहा.
स्त्री ने कोई ध्यान नहीं दिया. फिर धीरे-धीरे छोटे-छोटे बरतन और कुछ छीनियां निकाल कर अलग रखने लगी.
‘‘क्या कर रही है?’’ अंधे ने गौर से उसकी खटपट सुनते हुए कहा.
‘‘ठैर, जरा ईंटें ले आऊं.’’
‘‘टैम हो गया?’’
‘‘हो गया.’’
मैं समझ गया, कि वह चूल्हा जलाने की तैयारी कर रही है.
बारिश बिलकुल बंद हो गयी थी. उसने एक बार ऊपर को देखा, फिर उठी, और तलाश में बाहर चली गयी.
उसकी पदचाप जब दूर चली गयी, तब अंधा फर्श पर खिसकता, अंदाज करता हुआ बच्चे तक गया, उसे टोह कर उसके गाल पर एक चुटकी काटी, और बड़बड़ाया-
‘‘क्यों, बे लौंडे, सोयाई रैगा?’’
उसकी चुटकी से लड़का जाग गया, और रोने लगा.
बच्चे का रोना सुन, स्त्री आस-पास से बटोरी हुई ईंटों और पत्थरों को फर्श पर पटककर, फौरन उसकी ओर लपकी, और झुंझलाती हुई बोली, -‘‘तूने जगा दिया?’’
‘‘जाग गया. टैम हो गया था.’’ -अंधे ने छत की ओर देखते हुए कहा.
‘‘अब तूई सुला.’’ स्त्री ने बच्चा उसकी ओर बढ़ा दिया, और खुद ईंट और पत्थर जमाकर, चूल्हा तैयार करने में व्यस्त हो गयी.
‘‘सोजा! सोजा! सोजा!’’ पुरुष उसे अपनी गोद में लिए हुए उसे थपकियों की रिश्वत देकर सुलाना चाह रहा था.
‘‘मूता है?’’ थोड़ी देर बाद अंधे ने कहा. और उसे उसके नन्हें-नन्हें पैरों पर खड़ा कर, सी-सी करता हुआ पेशाब कराने लगा.
‘‘ठहर,’’ स्त्री ने कहा.
वह चूल्हा जला चुकी थी, और मिट्टी के एक बर्तन में आटा गूंध रही थी. उसने अपना आंचल खोला. एक पुड़िया निकाली, और छीनी अंगुली से एक काली-सी चीज निकालकर बच्चे को चटा दी. मैं समझ गया कि उसने उसे अफीम दी है. बच्चे और पुरुष से मुंह मोड़, वह फिर अपने काम में जुट गयी.
लड़का सचमुच ही चुप हो गया. और शायद उसे नींद भी आ रही थी, क्योंकि अंधा उसे धीरे-धीरे थपकियां दे रहा था. फिर उसने फुसफुसाते हुए कहा- ‘‘दूध पिला दिया था?’’
‘‘पिला दिया था,’’ स्त्री ने निर्विकार उत्तर दिया. और लाल दहकते हुए अंगारों में बाटियां सेंकने लगी.
अंधेरे के कारण सन्नाटा छा गया था. आग के उजाले में उस स्त्री का दमकता हुआ चेहरा, आकर्षक और तीखा, साफ हालांकि तमतमाया हुआ नजर आता था.
‘‘सोंधी है?’’ अंधेरे में पड़ा हुआ और सूंघता हुआ पुरुष बोला.
‘‘खूब सेंक ले. लाल हो जाने दे.’’ -उसने फिर कहा.
‘‘सेंक गयीं?’’ वह अपने आप ही बड़बड़ाया.
‘‘अभी नहीं सिंकी होंगी,’’ उसने अपने-आप ही उत्तर दिया.
कुछ देर बाद बच्चे को कथरी पर लिटा दिया, वह स्त्री की ओर बढ़ने लगा.
‘‘वहीं बैठा रह. अभी हुई जाती हैं.’’ - स्त्री ने उसे आंच की ओर बढ़ते हुए देख, कहा.
‘‘चुप, हरामजादी!’’ वह तमतमाया.
स्त्री ने तीन-चार बाटियां निकाल, मिट्टी के एक ठीकरे में उसके सामने रख दी. वह उन्हें फौरन ही हाथ में उठा, तोड़, मुंह में डाल, लार टपकाने लगा.
‘‘बड़ी गरम हैं.’’ लार के कारण उसके मुंह से साफ-साफ शब्द नहीं निकल रहे थे.
‘‘तू भी खा.’’ उसने स्त्री को आमंत्रित किया.
‘‘पहले तू खा ले.’’ स्त्री ने दो ताजा बाटियां उसे और परोस दीं.
‘‘बढ़िया पकी हैं,’’ अंधे ने एक पूरा का पूरा कौर निगलते हुए कहा.
‘‘तेरे लिए हैं.’’
‘‘हैं.’’
‘‘न हों, तो पका ले.’’
‘‘पका लूंगी.’’
‘‘पानी कहां से मिला?’’ अंधे ने बातचीत बढ़ाते हुए कहा.
‘‘बम्बे से?’’
‘‘बम्बा किसका था?’’
‘‘पता नहीं.’’
‘‘जरा आचमन करा दे.’’
स्त्री उठकर, उसका हाथ धुलाने लगी.
खाना समाप्त कर, उसने खुद भी डट कर पानी पिया था, और थकी हुई महसूस कर रही थी.
बचे हुए जल से छींटे मार-मार, वह आग बुझा रही थी. और पुरुष गइरी से कथरियां निकाल, सोने की तैयारी कर रहा था. वहीं दीवार के किनारे वह पूरी तरह लेट गया था, और एक बीड़ी उसने सुलगा ली थी, दूसरी स्त्री ने.
स्त्री ने अपना बिछौना उससे कुछ दूर पर बिछाया था, और बच्चे को लेकर उस पर सो गयी थी.
पड़े-पड़े अंधे ने कहा- ‘‘परमात्मा ने तुझे भी आंखें न दी होंती, तो बड़ी मुश्किल होती.’’
‘‘बड़ी,’’ स्त्री ने बीड़ी के मजे में कहा.
‘‘रात हो गयी?’’ अंधे ने जम्हाई लेते हुए, सवाल किया.
‘‘नहीं.’’
‘‘कितनी देर है?’’
‘‘हो गयी.’’
‘‘कितनी हुई?’’
‘‘सो जा,’’ स्त्री ने उसे झिड़कते हुए कहा.
‘‘इधर आ.’’ फिर अंधे ने कोई उत्तर न पाकर कहा- ‘‘मैं ही उधर आता हूं.’’
‘‘नहीं, नहीं,’’ स्त्री ने फिर उसे झिड़कते हुए कहा.
‘‘क्यों? कोई है क्या?’’ अंधे ने शंकित होते हुए प्रश्न किया.
‘‘नहीं.’’
‘‘फिर?’’
‘‘कोई आ जाएगा.’’
‘‘कौन आ जाएगा?’’
‘‘पुलुस.’’
‘‘पुलुस यहां कहां आएगा?’’ और वह उसकी ओर खिसकने लगा.
‘‘नहीं, नहीं.’’ स्त्री ने फिर प्रतिरोध किया- ‘‘एक और पेट में है.’’
‘‘होने दे.’’ इस बार अंधे ने उसे हाथ से पकड़, अपनी तरफ खींच लिया.
और उसने कोई विरोध नहीं किया. चुप रही.
‘‘तू हो गयी?’’ अंधे ने तृप्त और कृतज्ञ स्वर में उससे पूछा.
‘‘तू तो हो गया,’’ स्त्री ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया. फिर वह उठी, और बाहर गयी.
अंधे ने बीड़ी सुलगा ली थी, और जम्हाई ले रहा था. जब वह लौट कर आयी, तब वह खर्राटे भरने लगा था.
स्त्री ने अपना बिछौना व्यवस्थित कर लिया था, और जम्हाई ले रही थी. फिर उसने कहा- ‘‘लौंडा भी बाप पर गया है. एक बार सोता है, तो जागता नहीं.’’ और उसने बच्चे को अपनी ओर खिसका कर छाती से चिपका लिया.
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