यात्रा वृतांत नेपाल तब और अब डॉ. कुवंर प्रेमिल पहाड़ों की रानी दार्जिलिंग के पहाड़ों, खाइयों और चाय के बगानों की शैर करते थकते नहीं थे. ...
यात्रा वृतांत
नेपाल तब और अब
डॉ. कुवंर प्रेमिल
पहाड़ों की रानी दार्जिलिंग के पहाड़ों, खाइयों और चाय के बगानों की शैर करते थकते नहीं थे. तब लोग छोटे-छोटे डिब्बों वाली ट्रेन और बसों के भीतर घुसकर आश्चर्यचकित भी तो थे.
सन दार्जिलिंग पीक के नीचे बादलों की परत देखकर अब आप ही उसकी ऊंचाई का अनुमान लगा लें. सुबह-सुबह बेशुमार भीड़ जुट जाती थी. सूर्योदय का दृश्य देखने के लिये. लगता था कि एक जंप लगाकर बादलों की छत पर मजे-मजे उतर जाएंगे और इस तरह बादलों की अनोखी सैर का लुत्फ उठा लेंगे. सामने दूर-दूर तक पहाड़ों की ऊंची-ऊंची श्रृंखला थी. नजरें हटाए नहीं हटती थीं. दूर-दूर तक बर्फ की चादर ओढ़कर पहाड़ खड़े थे. चमकती चांदी जैसा आभास देते थे.
यहीं टीम के सदस्यों का मन ‘काठमांडू’ जाने का बन गया. दूसरे दिन बस में सवार होकर चल पड़े काठमांडू की ओर. दूसरे दिन ग्यारह बजे जा बैठे काठमांडू की गोंद में. यहां भी मन प्रसन्नता के झूले में झूल रहा था. लगता था कोई सपनीली दुनिया में आ खड़े हुए हो.
एक होटल में हमारा जत्था ठहर गया. पुरुष बच्चे महिलाएं समेत चालीस की जनसंख्या थी हम लोगों की. नेपाली टोपी पहने वहां के लोग आत्मीय थे और हमसे मिलने होटल तक चले आते थे. भारत के लोगों से उनकी दिली मोहब्बत थी. वहां के न जाने कितने नेपाली हमारे यहां आकर रात्रि में चौकीदारी करते हैं. अपनी ईमानदारी का सबूत भी देते हैं. महीने के अंत में घर-घर से पांच-दस रुपये पाकर संतुष्ट हो लेते हैं. जो दिया जितना दिया उसी में खुश हो लेते हैं. कुछ तो सरकारी मोहकमों में भी लगे हैं. अपने घर लौटने पर भारत से नायाब जिंसें खरीदकर अपने देश भी ले जाते हैं.
हम भी वहां से कुछ सामान खरीदकर अपने देश लाना चाहते थे. शाम को फुटपाथों पर, संकरी गलियों में मीना बाजार सा भरा करता. चीनी सामान जैसे घड़ी, कैमरा, टेपरिकार्डर, टार्च, बगैरह-बगैरह खरीदने की हममें होड़ सी लगी थी.
अमूमन इन दुकानों में महिला दुकानदार ही ज्यादातर थीं. पुरुष उनमें पीछे बैठकर सहयोग करते थे. पुरुष हल्के नशे में दिखाई देते और नेपाली भाषा में लोकगीत जैसा कोई गीत गुनगुनाते रहते. वे मनोविनोद में पीछे नहीं थे. अक्सर जोकरनुमा हरकतें कर हंसाने में प्रवीण ये नेपाली कोई ज्यादा महत्वाकांक्षी प्रतीत नहीं होते थे.
एक नेपाली ने तो हंसी-मसखरी में गजब ही ढा दिया. कहने लगा- ‘ये मेरी घरवाली किसी को चाहिए हो तो अपने साथ लेते जाए. यहां घरवालियों की कोई कमी नहीं है. मैं दूसरी घरवाली लाना चाहता हूं.’
मेरा साथी रायकवार बोला- ‘अपनी घरवाली से पीछा छुड़ाना चाहते हो क्या?’
वह बोला- ‘हां ऐसा ही समझिए. यह मुझे बात-बात पर डांटती है.’
उसके इस इनोसेंट मजाक पर हम सब हंसने लगे. उसकी घरवाली लाज-शरम से दोहरी हो गई थी. उसके गाल लाल-लाल टमाटर जैसे सुर्ख हो गए थे. काठमांडू के बाजार व्यवस्थित थे. दूकानदार भारत व नेपाल करेंसी दोनों में सामान बेचते थे. बाकायदा जिंसों का मूल्य ‘केलकुलेटर’ पर ‘केलकुलेट’ कर ही लेते. ठगा-ठगी का आलम ‘न’ के बराबर था.
वहां के होटलों में खाना स्वच्छ और साफ-सुथरा और सस्ता मिलता था. होटलों में रोटियां कम चावल चाहे जितना खाया जा सकता था. मुर्गे की तरी, चावल, बियर प्रायः कहीं भी उपलब्ध हो जाती थी.
काठमांडू को हवाई जहाजों का शहर कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. प्रत्येक पांच मिनट में हवाई-जहाज आते और चले जाते. होटल की छत पर चढ़कर ऐसा प्रतीत होता जैसे एक उछाल मारेंगे तो हवाई जहाज से लटक जाएंगे. दिल भर हवाई जहाजों का बढ़ता-घटता शोर कान के पर्दों को हिलाने के लिए काफी था.
यदि आप काठमांडू के बस अड्डे की बात करेंगे तो मैं तो यही कहूंगा कि इतना बड़ा बस अड्डा मैंने कहीं नहीं देखा. आपने भी नहीं देखा होगा. बड़ी-बड़ी, प्यारी-प्यारी रंगीन मोहक बसें खड़ी रहतीं. रेल सेवा कहीं नहीं थी. बगैर किसी स्थानीय की मदद के बिना आप अपनी बस किसी तरह पकड़ नहीं पाते- यह निर्विवाद सत्य है.
सबसे ज्यादा रौनक ज्योर्तिलिंग (शिवलिंग) मंदिर की थी. दर्शनार्थियों से मंदिर प्रांगण लबालब भरा रहता. पूरा मंदिर एक ही लकड़ी की (काठ) से बना था. इसलिए मंदिर के नाम पर शायद उस शहर को काठमांडू कहा गया. काठमांडू को भारत की उज्जयनी शहर जैसा दर्जा दिया जा सकता है. धार्मिक आस्था से अनुप्राणित शहर है वह.
कोई ठगा-ठगी नहीं. वैमनस्यता जैसा कुछ भी नहीं. हिमालय की वादियों में बसा यह शहर नेपालियों की धरोहर है. वे वहां पीढ़ियों से रह रहे हैं. नौकरी के लिए भले ही वे अन्यत्र चले जाएं पर लौटकर अपनी जन्म भूमि में आते हैं वे सब.
पानी में डूबी विष्णुजी की मूर्ति भी दर्शनीय स्थल हैं. ‘बूड़ा नीलकंठ’ कहलाती है. नेपाली करेंसी का कलर ही था यह कि पानी में नोट पड़े रहते पर नष्ट होने का नाम ही न लेते. वे पॉलिस्टर कोटेड नोट थे. जबकि हमारे यहां नोटों की दुदर्शा देखते बनती है. नोट पर भाई लोग पूरा हिसाब-किताब लिख डालते हैं. यहां के नोट डायरी कि कमी को भी पूरा करते हैं. इतने बड़े देश की यह कैसी व्यवस्था है जो किसी तरह स्वीकार्य नहीं है.
वहां पर एक बड़ी और बुरी, खटकने वाली बात यह थी कि सिर शर्म से झुक जाए. जब यू.पी. बार्डर पहुंचे तो वहां के नाकों पर यात्रियों की लूट देखकर पशोपेश मेें पड़े बिना नहीं रह सके. सौ-सौ, दो-सौ रुपये हर नाके पर चढ़ोत्तरी दिए बिना, निकासी मिलती तो मिलती कैसे?
जब फायनली नाम आया तो वहां की पुलिसिया वसूली देख कर माथा शर्म से झुक गया. यहां पांच सौ की चढ़ोत्तरी चाहिये थी. बिना दिए भारत की जमीन छू लेना कोई हंसी खेल था. बात-बात पर तलाशी ली जाती. एक सज्जन से तो वहां की लेडी इन्सपेक्टर ने बटुआ ही छिनवा लिया और उसमें के पांच सौ के सारे नोट निकाल लिए. ऊपर से जेल भेजने की धमकी से वह आदमी एकदम बौरा गया. लुटा-पिटा मजबूर हुआ आदमी कैसे अपने घर लौटा होगा, यह तो वही जानता हेागा. बस चंद कदमों की दूरी पर भारत की धरती थी और वे नोट वहां वेलिड थे.
नेपाल अबः-
एक झांकी मैंने जो दिखाई थी वह खुशहाल नेपाल की थी. पर नेपाल यह खुशी ज्यादा दिन अपने पास सुरक्षित नहीं रख सका. 25 अप्रैल 2015 दिन शनिवार सुबह पौने बारह बजे
धरती हिली और मिनटों में सदियों की खुशहाली तहस-नहस हो गई. ज्यादा क्या कहें, नेपाल की पहचान ही जमींदोज हो गई. पूरा शहर मलवे के नीचे दबकर रह गया.
यह कैसा जलजला था, मकान ताश के पत्ते से गिरकर बिखर गये. सड़कें फट गइंर्, दरक गइंर्, जमीन में समा गईं. इमारतें पेंडुलम जैसी डोल रही थीं. रिक्टर पैमाने पर 7.9 की तीव्रता वाला यह भूकंप नेपाल को मटियामेट कर गया. 81 साल का सबसे बड़ा भूकंप था यह. इसके पहले लातूर, मध्यप्रदेश में भी भयंकर भूकंपों ने धरती हिलाई, हजारों-हजार मौत के आंकड़ों से सिहर उठे थे लोग.
अप्रैल 2015 में आयी यह भयानक त्रासदी लोगों को इतनी भयभीत कर गयी कि नेपाल से लोग बाहर पलायन करने लगे. तबाही का आंकड़ा इतना विस्तृत है कि पूरा नुकसान अभी तक नहीं आंक पाए हैं. नौ सौ साल पुराना दरबार स्क्वेयर तबाह हो गया जो यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल था. इसे हनुमान डोंका भी कहते थे. चार सौ साल पुराना काण्टमंडप ढहा, इसी काण्टमंडप के नाम पर शहर का नाम काठमांडू पड़ा था. वहीं एक सौ चार साल पुराना जानकी मंदिर भी क्षतिग्रस्त हो गया. एक सौ तिरासी साल पुरानी नेपाल की कुतुब मीनार ढह गई. लगता था कि भूखी धरती समूचे नेपाल को निगल जाएगी.
एवरेस्ट जो नेपाल का सीमा सुरक्षा प्रहरी था बुरी तरह हिल गया. इंडियन प्लेट के कारण हर साल पांच किलोमीटर ऊपर उठ रहा है हिमालय. यही वजह है कि सबसे अधिक भूकंप नेपाल में आएंगे और नेपाल का भविष्य चरमरा कर रख देंगे. इससे लोग उत्तर भारत के राज्यों में कई राज्यों ने भूकंप की विभीषिका को महसूस किया. दस हजार से ज्यादा मौतें हुई.
भौगोलिक क्षति- अखबारों ने लिखा था कि नेपाल में मात्र 30 सेकिण्ड का ही विनाशकारी भूकंप आया था पर उसने भौगोलिक गणित को बुरी तरह गड़बड़ा दिया.
हिमालय का 2000 वर्ग मील क्षेत्र ढहा. खुद काठमांडू भी दस फीट दक्षिण में खिसक गया है. प्लेटों में घर्षणोपरांत 7200 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र तीन मीटर तक ऊपर उठा. दो प्लेटों के खिंचाव से एक झटके में करीब 79 लाख टन टी.एन.टी. ऊर्जा निकली जिसने पृथ्वी की धुरी में बड़ा बदलाव किया है. यह ऊर्जा हिरोशिमा में हुए एटमी धमाके से निकली ऊर्जा से 504.4 गुना ज्यादा थी.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इस भूकंप में 24 जिलों के करीब-करीब 80 लाख लोग प्रभावित हुए हैं. करीब 50 हजार गर्भवती महिलाओं पर बुरा असर हुआ है. क्या पता वे कितनी स्वस्थ और सुरक्षित संताने जनेंगीं...बिहार के नीचे की चट्टान खिसकी है. पूरे समय उत्तर भारत की ओर नेपाल के नीचे खिसका है. लगातार तीसरे दिन भी नेपाल और भारत में भूकंप के झटके आते रहे.
काठमांडू के महाराज गंज के पास वसुंधरा इलाके में पांच मंजिला मकान के नीचे दबी सुनीता सितौला 33 घंटे बाद मलबे से निकली तो बोली ऐसा लगता है कि जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया में आ गई हूं.
जरूर ऐसा लगा होगा सुनीता सितौला को, क्योकि न जाने कितने ऐसे दुर्भाग्यशाली थे जो लौटकर इस दुनिया से नहीं आए. इस समूचे विप्लव में भारत की भूमिका को सराहा जाना चाहिए. सबसे पहले अपनी सेना एवं अन्य जरूरी वस्तुएं भेजकर पड़ोसी का धर्म निभाया.
28 साल के ऋषि कनाल को 80 घंटे बाद जिंदा निकाल लिया गया. मृतकों की संख्या दस हजार तक जा सकती है. यह था नेपाल का भूत और वर्तमान. मैं तो कहता हूं इस प्राकृतिक आपदा में किसी का भी भविष्य सुरक्षित नहीं हैं. लातूर (महा.) भी तो एक दिन बंटाधार हो गया था.
चार महीने के बच्चे सोनित को नेपाली आर्मी ने निकाला जो 22 घंटे तक मलबे में दबा रहा. कहते हैं न जिसके पास जिंदगी है उसे मौत छू भी न सकेगी. आदमी कितने ही सुरक्षा के मुखौटे लगाकर जीना चाहे पर हुइए वही जो राम रचि राखा, केकहु तर्क बढ़ावहिं शाखा. यहां यही सच है कि हम कुदरत को कहर बरपाने के लिए मजबूर कर रहे हैं...जमीन के ऊपर कुछ हम बदल रहे हैं, जमीन के भी भीतर भी बहुत कुछ बदल रहा है जो हमें ऐसे हादसों में नजर आ जाता है. जो मकान, पहाड़, मीनारें हमने अपनी रक्षा, सुरक्षा के लिए मान्य किए थे, वही हमारे प्राणघातक शत्रु बन जाते हैं.
नेपाल हमारा एक अच्छा पड़ौसी देश है. हम चाहते हैं कि वह महफूज रहे. ऐसे हादसों और त्रासदियों से गुजरने को मजबूर न होना पड़े. सब कुछ वैसा ही हो और काठमांडू जाने की तरफ लोगों की इच्छा में हमेशा बढ़ोतरी होती रहे. उसका भरोसा हमेशा बढ़ता रहे, क्योंकि जब अफरा-तफरी मचती है तो सबसे पहले जो टूटता है, वह आदमी का भरोसा ही टूटता है. हम सब नेपाल को पहले से कहीं ज्यादा सर्वगुण संपन्न देखना चाहते है. ज्यादा भरोसेमंद देखना चाहते हैं.
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संपर्कः एम.आई.जी.-8, विजयनगर,
जबलपुर482002 (म.प्र.)
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