विजयेन्द्र स्नातक छायावाद : परिभाषा और स्वरूप द्विवेदी युग के अंतिम चरण में स्वच्छन्दतावाद की धारा वेगवती होती चली गयी थी. यों त...
विजयेन्द्र स्नातक
छायावाद : परिभाषा और स्वरूप
द्विवेदी युग के अंतिम चरण में स्वच्छन्दतावाद की धारा वेगवती होती चली गयी थी. यों तो स्वच्छन्दतावाद की चर्चा श्रीधर पाठक की रचनाओं को देखकर होने लगी थी किन्तु मुकुटधर पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद और पन्त ने भी अपनी कविता में यत्र-तत्र नये भाव और नवीन अभिव्यंजना शैली को स्थान देना प्रारम्भ कर दिया था. उन रचनाओं को प्रारम्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं के सादृश्य में आध्यात्मिक रहस्यवाद के ढांचे में एक नया नाम छायावाद दे दिया गया. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस वाद को मन से स्वीकार नहीं किया. उन्होंने छायावाद शब्द का प्रयोग बंगाल के तत्कालीन नये कवियों की कविता के सन्दर्भ में किया. शुक्लजी लिखते हैं
‘‘छायावाद नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तु विन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमती कल्पना को ही साध्य मानकर चले. शैली का इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही.’’
स्वाधीनता ने लोगों की पहली दौड़ तो बंग-भाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई. पर उन कविताओं की बहुत कुछ गतिविधि अंग्रेजी वाक्य खण्डों के अनुवाद द्वारा संगठित देख, अंग्रजी काव्यों से परिचित हिन्दी कवि सीधे अंग्रेजी से ही तरह-तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर अपनी रचनाओं में जड़ने लगे. कनक प्रभात, विचारों में बच्चों की सांस, स्वर्ण समय, प्रथम मधुमास, स्वप्निल कान्ति ऐसे प्रयोग उनकी रचनाओं के भीतर इधर-उधर मिलने लगे. केवल भाषा के प्रयोग वैचित्र्य तक ही बात न रही, अनेक यूरोपीय वादों और प्रवादों का प्रभाव भी छायावाद कही जानेवाली कविताओं के स्वरूप पर कुछ-न-कुछ पड़ता रहा.
‘‘छायावादी कविता पर दूसरा प्रभाव यह देखने में आया कि अभिव्यंजना प्रणाली या शैली की विचित्रता ही सब कुछ समझी गयी. नाना अर्थभूमियों पर काव्य का प्रसार रुक-सा
गया.’’
(रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 623-624)
रामचन्द्र शुक्ल के छायावाद विषयक मन्तव्यों में यह भी है कि पुराने ईसाई सन्तों के छायाभास तथा यूरोपीय काव्य क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (सिंबॉलिज्म) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताओं को छायावाद कहा जाने लगा था. अतः हिन्दी में भी इस तरह की कविताओं का छायावाद चल पड़ा (हिन्दी सा.इ.,पृ. 615). आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुक्लजी के इस मत को स्वीकार नहीं किया और अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा कि बंगाल में छायावाद नाम कभी चला ही नहीं. श्री शारदा पत्रिका में मुकुटधर पाण्डेय का हिन्दी में ‘छायावाद’ शीर्षक निबन्ध चार अंकों में प्रकाशित हुआ था. उस निबन्ध में उन्होंने छायावाद पर अच्छा प्रकाश डाला था. हिन्दी में छायावाद शब्द का जो व्यापक अर्थ हुआ, प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन. इस प्रकार रामचंद्र शुक्ल स्वच्छन्दतावाद को छायावाद से भिन्न और रहस्यवाद को छायावाद का पर्यायवाची अथवा उसी में अन्तर्भुक्त मानते हैं. प्रारंभिक काल के आलोचकों का ध्यान इस ओर नहीं गया कि विषयवस्तु और अभिव्यंजना पद्धति एक-दूसरे से अविभाज्य और अन्योन्याश्रित हैं. जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की परिभाषा काव्यकला तथा अन्य निबन्ध पुस्तक में इस प्रकार दी हैः
‘‘जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया. रीतिकालीन प्रचलित परम्परा से, जिसमें बाह्य अर्थ की प्रधानता थी, इस शैली की कविताओं में भिन्न प्रकार के भावों की नये ढंग से अभिव्यक्ति हुई. ये नवीन भाव आन्तरिक स्पर्श से पुलकित थे. हिन्दी में नवीन शब्दों की भंगिमा स्पृहणीय आभ्यान्तर वर्णन के लिए प्रयुक्त होने लगी.’’
इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि छायावाद केवल अभिव्यंजना की विशेष प्रणाली या प्रतीक पद्धति नहीं है. बल्कि उसमें ऐसे सूक्ष्म और नवीन भावों की योजना भी हुई है जिनकी अभिव्यक्ति इस विशेष शैली के अतिरिक्त अन्य किसी पद्धति से नहीं हो सकती थी. प्रसाद ने आगे लिखाः
‘‘छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है.’’
उन्होंने इसकी तीन प्रधान विशेषताओं का उल्लेख किया है -स्वानुभूति की विवृति या आत्मव्यंजकता, सौन्दर्य प्रेम तथा अभिव्यक्ति की भंगिमा या सांकेतिकता का होना. डॉ. नगेन्द्र आदि आलोचकों ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना है. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी इसे सांस्कृतिक नवजागरण से सम्बद्ध करके देखते हैं.
छायावाद के लिए ‘रोमांटिसिज्म’ का प्रयोग भी किया गया किन्तु यह प्रयोग पूर्णतः छायावादी काव्य पर चरितार्थ नहीं होता. छायावादी काव्य का सर्वप्रथम लक्षण यही है कि वह आत्माभिव्यंजक या विषय प्रधान होता है. बाह्यार्थनिरूपण और वस्तुवर्णन का उसमें अभाव-सा होता है. छायावाद को यूरोप के रोमांण्टिक काव्य सम्प्रदाय से अभिन्न मानकर चलने से यह भूल होती रही. जो आलोचक रोमांटिसिज्म और छायावाद को समतामूलक दृष्टि से देखते हैं वे रोमांटिसिज्म की प्रमुख विशेषताएं भी छायावाद में निहित हैं जैसे व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति, प्रकृति में चेतना की अनुभूति, कल्पना वैभव, विस्मय की भावना, स्वानुभूति का रंग, आन्तरिक सौन्दर्य के प्रति विशेष आकर्षण, छन्द के बन्धनों से मुक्ति आदि तत्व छायावाद में समान रूप से मिलते हैं. कुछ आलोचक यह मानते हैं कि छायावाद का प्रारम्भ प्रकृति प्रेम तथा स्वानुभूति की व्यंजना से हुआ. वस्तुतः छायावाद में व्यापक मानवतावाद, नारी गरिमा, सांस्कृतिक जागरण, राष्ट्र प्रेम, विश्वबन्धुत्व आदि विषयों का भी समावेश था. पर उसमें नये युग की सामाजिकता और विचारधारा का समावेश नहीं हो सका. छायावादी काव्य रहस्यात्मक, निगूढ़, भाव प्रधान और वैयक्तिक हो गया तथा शिल्प एवं न्यास के अतिशय प्रयोग से वह सामान्य भावभूमि से पृथक् जा पड़ा. कविवर पन्त ने अपनी आधुनिक कवि शीर्षक पुस्तक में इस मत की पुष्टि की है और लिखा हैः
‘‘छायावाद काव्य न रहकर केवल अलंकृत संगीत बन गया था.’’
छायावाद को प्रकृति काव्य सिद्ध करनेवाले भी कई आलोचक हैं. उनके मत में छायावाद का प्राण प्रकृति है. वह प्रधानतः प्रकृति काव्य है. प्रकृति का मानवीकरण अर्थात प्रकृति पर मानव व्यक्तित्व का आरोप है.
‘‘छायावादी काव्य ने प्रकृति के प्रति अनुराग की दीक्षा दी. अनुभूतियों को तीव्रता प्रदान की, कल्पना के द्वार मानो वायु के एक ही प्रबल झोंके से खोल दिये. भारत की प्रकृति का अन्यतम् दर्शन पाठक को छायावादी काव्य में मिला.’’ (प्रकाशचन्द्र गुप्त)
छायावाद का शाब्दिक अर्थ, परिभाषा, वर्ण्य वस्तु, अभिव्यंजना शैली आदि की विस्तार से चर्चा करने के बाद जो भी अभिप्राय निकलता हो वह व्यावहारिक दृष्टि से छायावाद के चार प्रमुख रचनाकारों पर केन्द्रित हो जाता है. छायावाद प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी की उन रचनाओं का द्योतक है जो सन् 1918 से 1936 ई. के मध्य लिखी गयीं. छायावाद के इन चार स्तम्भों ने 1936 ई. तक रहस्यवाद, मानवतावाद, स्वच्छन्द प्रेम, नारी सम्मान, विश्व प्रेम, जीवन मीमांसा, प्रकृति वर्णन, (आलम्बन और उद्दीपन रूप में) विषयक जो कविताएं लिखीं वे छायावाद की प्ररिधि में आती हैं. किन्तु प्रश्न यह है कि सन् 1936 से 1940 के मध्य निराला और पन्त ने जो काव्य-सर्जन किया उसमें प्रगतिवाद का गहरा पुट ही नहीं अपितु सामाजिक, आर्थिक एवं युगीन समस्याओं का जिस रूप में वर्णन किया गया है वह विषयवस्तु की दृष्टि से शुद्ध छायावादी काव्य है या नहीं. छायावदी काव्य के प्रमुख वर्ण्य-विषयक प्रकृति प्रेम को ही लें तो इससे जिस छायावाद का आरंभ हुआ था अन्त तक आते-आते उसके प्रेम का प्रसार मानवजीवन तक हो गया.
छायावादी युग में प्रमुख चार कवियों के अतिरिक्त कुछ अन्य कवियों ने भी छायावादी भाषा तथा भावव्यंजना के स्तर पर प्रेम, सौन्दर्य, प्रकृति, नारी आदि विषयों पर कविताएं लिखीं किंतु उनको वह स्थान प्राप्त नहीं हो सका जो प्रमुख चार कवियों को प्राप्त है. इन कवियों में रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, मोहनलाल महतो वियोगी, जनार्दन प्रसाद झा द्विज, केदारनाथ मिश्र प्रभात, आरसी प्रसाद सिंह, उदयशंकर भट्ट आदि उल्लेखनीय नाम है.
छायावाद के प्रमुख कवि
छायावाद आधुनिक हिन्दी काव्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति है. इसका स्वरूप निर्धारण करते समय हमने उन तत्वों की ओर निर्देश किया है जो छायावादी कविता के साहित्यिक रूप को उद्घाटित करते हैं. जिन कवियों की रचनाओं में छायावादी काव्य के तत्व प्रमुख रूप से पाये जाते हैं उनको अब हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ आलोचकों ने ‘प्रस्थान चतुष्टय’ में परिगणित किया है. जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, को उनके काव्य की भाववस्तु एवं अभिव्यंजना शिल्प के आधार पर छायावाद के स्तम्भ के रूप में स्वीकार किया जाता है.
जयशंकर प्रसाद (1889-1937) : छायावादी काव्य के प्रमुख कवि प्रसाद का जन्म काशी के सुंघनी साहु नाम से एक प्रसिद्ध सम्पन्न वैश्य परिवार में हुआ था. इनकी स्कूली शिक्षा तो आठवीं कक्षा तक ही हुई थी किन्तु घर पर रहकर इन्होंने संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्र्रेजी भाषाओं का अच्छा अभ्यास किया. शैशव से ही इनका कविता के प्रति गहरा अनुराग था. खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखने से पहले प्रेमपथिक की रचना उन्होंने ब्रजभाषा में की थी, किन्तु बाद में उसे भी खड़ी बोली में रूपान्तरित कर दिया. प्रसादजी ने द्विवेदी युग में ही काव्य क्षेत्र में प्रवेश कर लिया था और कानन कुसुम, प्रेमराज्य, अयोध्या का उद्धार, प्रेमपथिक, करुणालय, महाराणा का महत्व, शीर्षक कविता-पुस्तकों की रचना बीसवीं शती के दूसरे शतक में की थी. इसी दशक में उन्होंने फुटकर रचनाएं भी लिखी थीं. उस समय द्विवेदीजी खड़ी बोली का ेपरिनिष्ठित रूप देकर सथापित करने में संलग्न थे. प्रसाद ने जब प्रेम पथिक का रूपान्तरण ब्रजभाषा से खड़ी बोली में किया तब उनके मन में भाषा-विषयक द्वन्द्व काम कर रहा था. कानन कुसुम और झरना के परवर्ती संस्करणों में यह लक्षित किया जा सकता है कि जो कविताएं द्विवेदी युग में लिखी गयी थीं, उनकी भाषा तत्सम प्रधान खड़ी बोली थी, किन्तु शनैः-शनैः प्रसाद ने अपनी भाषा को परिमार्जित करते हुए, अभिव्यंजना शिल्प का श्रेष्ठ उदाहरण बना दिया. आंसू शीर्षक खण्ड काव्य को हिन्दी के आलोचक छायावादी काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण मानते हैं. लहर, झरना और कामायनी प्रसाद की सुप्रसिद्ध छायावादी रचनाएं हैं. कामायनी का प्रकाशन 1935 ई. में हुआ और इस महाकाव्य के प्रकाशित होते ही हिन्दी जगत में प्रसादजी की प्रतिभा पाण्डित्य, अध्ययन, दर्शन और गंभीर चिन्तन की छाप सर्वत्र व्याप्त हो गयी. यह कहना अत्युक्ति न होगी कि बीसवीं शताब्दी में कामायनी से अधिक श्रेष्ठ गंभीर और दार्शनिक मनीषा का महाकाव्य हिन्दी में दूसरा नहीं लिखा गया.
छायावादी प्रवृत्तियों के दर्शन सबसे पहले झरना में होते हैं. उसमें कवि ने सूक्ष्म मानसिक भावनाओं को व्यक्त करके कविता में चिन्तन का एक नया आयाम जोड़ा है. आंसू शीर्षक रचना को प्रारम्भ में सामान्य पाठक ने व्यक्तिगत वेदना का काव्य समझने की भूल की थी, किन्तु आंसू में विश्व-कल्याण की भावना को वेदना के स्तर पर अभिव्यक्त किया गया. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आंसू के विषय में लिखा है किः
‘‘कहने का तात्पर्य यह है कि वेदना की कोई एक निर्दिष्ट भूमि न होने से सारी पुस्तक का एक समन्वित प्रभाव निष्पन्न नहीं होता.’’
वास्तव में आंसू एक स्मृति काव्य है. कवि ने अतीत जीवन की अनुभूतियों को स्मृति के माध्यम से वेदनामयी अभिव्यक्ति दी है. यही कारण है कि अपनी वेदना को कवि ने विश्व-प्रेम में रूपान्तरित कर दिया है.
कामायनी प्रसाद की अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ रचना है. यह कृति मानव सभ्यता के विकास की मनोवैज्ञानिक कथा प्रस्तुत करती है. कथानक संक्षिप्त है किन्तु जीवन के अनेक पक्षों को समन्वित करके कवि ने मानव जीवन के विकास के लिए एक व्यापक आदर्श व्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया है. कामायनी में पात्रों का जमघट नहीं है. तीन प्रमुख पात्रों (मनु, श्रद्धा, इड़ा) के जीवन की अनुभूतियों, कामनाओं, आकांक्षाओं का गम्भीर स्तर पर वर्णन किया गया है. प्रसाद ने स्वयं इसकी भूमिका में लिखा है कि ‘यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक पक्ष का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है. इसलिए मनु, श्रद्धा, इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.’ मनु अर्थात मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है. कामायनी में हृदय तत्व की प्रतिष्ठा करते हुए कवि ने शैव दर्शन के आनन्दवाद को जीवन के पूर्ण उत्कर्ष का साधन माना है. प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अध्येता प्रसादजी का दार्शनिक चिन्तन कामायनी में ओत-प्रोत है. अतः कुछ विद्वान इसे साहित्यिक कृति से अधिक दार्शनिक ग्रन्थ के रूप में ग्रहण करते हैं. वस्तुतः कामायनी दार्शनिक चिन्तन से परिपूर्ण होने पर भी साहित्य की कसौटी पर उच्चकोटि का महाकाव्य ही है.
श्री जयशंकर प्रसाद का रचना-संसार बहुत विस्तृत था. उन्होंने कविता के अतिरिक्त, नाटक, उपन्यास, कहानी और समीक्षात्मक निबन्ध लिखकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया. नाटक के क्षेत्र में तो उन्होंने मध्ययुगीन भारत को उसके वैभवशाली उपादानों से अलंकृत कर पाठक और दर्शक क ेलिए समन्वित रूप से प्रस्तुत किया है. उनके नाटकों में भारतीय इतिहास का जो गौरवशाली रूप उभरता है वह हम नाटकों की समीक्षा में विस्तारपूर्वक लिखेंगे. अन्य गद्य विधाओं पर भी सम्बद्ध प्रकरण में यथायोग्य लिखा जायेगा.
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (1899-1961) : निराला का जन्म महिषादल स्टेट मेदिनीपुर (बंगाल) में सन् 1897 की वसन्त पंचमी के दिन हुआ था. उनका शैशव अभावों की पीड़ाओं को झेलते हुए व्यतीत हुआ किन्तु इस दुष्चक्र में फंसे रहने पर भी उनका मनोबल कभी क्षीण नहीं हुआ. उनका मूल स्थान उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले में गढ़ाकोला गांव है. उनके पिता मेदिनीपुर में सैनिक के रूप में कार्य करते थे. निराला की मां की मृत्यु शैशव में ही हो गयी थी, अतः उन्हें पिता के संरक्षण में रहना पड़ा. कुछ समय बाद पिता का भी असामयिक निधन हो गया. महामारी के विकराल प्रकोप में घर के कई अन्य संबंधी भी चल बसे. उसी समय पत्नी मनोहरा देवी की भी मृत्यु हो गयी. इस तरह निराला अपनी युवावस्था में विपत्तियों के जंजाल में पूरी तरह फंस गये. किन्तु वे अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करते रहे और पथ से विचलित नहीं हुए. बंगाल में रहते हुए उन्होंने अपनी युवावस्था में स्वामी रामतीर्थ, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस आदि की रचनाओं का अध्ययन किया था. इससे उनके विचार क्षेत्र में दार्शनिकता का प्रवेश हुआ. महिषादल में रहते हुए उनका अपने मालिकों से कुछ विवाद हो गया था, इसलिए नौकरी छोड़कर वे कलकत्ता चले गये और रामकृष्ण मिशन के समन्वय पत्र में काम करने लगे. उनकी सबसे पहली रचना ‘जुही की कली’ सन् 1916 ई. में प्रकाश में आयी. इसे हम उनकी प्रारम्भिक छायावादी रचना कह सकते हैं. सन् 1916 में ही उन्होंने हिन्दी-बाङला का तुलनात्मक व्याकरण लिखा जो सरस्वती में प्रकाशित हुआ. समन्वय के लिए लेख आदि लिखते समय इनकी दार्शनिक चेतना क्रमशः प्रबुद्ध होती गयी और कविता में उसका प्रभाव पड़ने लगा. सन् 1923 में महादेव बाबू ने उन्हें अपने मतवाला शीर्षक पत्र के सम्पादक मण्डल में शामिल किया. मतवाला में आने के बाद उनकी काव्य प्रतिभा के प्रसार के लिए अच्छा अवसर मिला और लगभग तीन वर्षों तक मतवाला में काम करते हुए उन्होंने बहुत सुन्दर कविताएं लिखीं जो परिमल में संकलित हैं.
कलकत्ता प्रवास में उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा और कलकत्ता छोड़कर उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होनेवाली सुधा नामक पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में काम करना प्रारम्भ किया. लगभग बारह वर्ष वे लखनऊ में रहे और आर्थिक विपन्नावस्था में उन्होंने अपना यह समय व्यतीत किया. इन वर्षों में उन्होंने लोकमानस को ध्यान में रखकर कुछ कहानियां और उपन्यास लिखे. सुधा के लिए फुटकर लेख भी लिखते रहे. सन् 1936 में नये स्वर ताल युक्त उनके गीतों का संग्रह गीतिका नाम से प्रकाशित हुआ. उसके बाद 1938 ई. में उनका अनामिका काव्य संग्रह प्रकाश में आया और इसी वर्ष उनकी प्रबन्धात्मक रचना तुलसीदास प्रकाशित हुई.
छायावादी काव्य को विस्तृत भूमि पर प्रतिस्थित करने का श्रेय निराला को है. उन्होंने हिन्दी काव्य क्षेत्र में मुक्त छन्द का प्रारम्भ किया. वे इस छन्द के प्रथम पुरस्कर्ता कहे जाते हैं. उन्होंने परिमल की भूमिका में लिखा है.
‘‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है. मनुष्य की मुक्ति कर्म बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है.’’
मेरे गीत और कला शीर्षक निबन्ध में उन्होंने लिखा है कि भावों की मुक्ति छन्दों की भी मुक्ति चाहती है. यहां भाषा, भाव और छन्द तीनों स्वच्छन्द हैं. जुही की कली शीर्षक कविता इसी कोटि की मुक्त छन्द की रचना है. परिमल में निराला ने मुक्त गीत शीर्षक से कुछ रचनाएं संकलित की हैं. जिनमें तुक का आग्रह तो है पर मात्राओं का नहीं. छायावादी कवियों ने जो प्रगीत लिखे हैं उनमें शास्त्रानुमोदित स्वर, लय, ताल आदि का बन्धन नहीं है. उनकी कविताओं में श्रृंगारिक भावना, स्वर, लय, ताल आदि का बन्धन नहीं है. उनकी कविताओं में श्रृंगारिक भावना, माधुर्य भाव के साथ प्रकृति वर्णन तथा देश-प्रेम का चित्रण भी मिलता है. संगीतात्मकता का ध्यान रखते हुए भी काव्य पक्ष की क्षति नहीं होने दी गयी है. सन् 1935 से सन् 1940 के बीच लिखी हुई कविताएं उनकी प्रौढ़ रचनाएं कही जा सकती हैं जो अनामिका में संकलित हैं. सरोजस्मृति, राम की शक्तिपूजा, प्रेयसी आदि उनकी श्रेष्ठतम रचनाएं हैं. राम की शक्ति पूजा एक प्रौढ़ महाकाव्यात्मक रचना है जो निराला को महाप्राण कवि सिद्ध करती है. इस कविता में कवि का पौरुष और ओज चरमोत्कर्ष के साथ अभिव्यक्त हुआ है. तुलसीदास शीर्षक कविता में तुलसी के जीवन वृत्त पर प्रकाश न डालकर उसके मानस पक्ष का चित्रण किया गया है जो तत्कालीन परिवेश को उद्घाटित करता है. भारत के सांस्कृतिक ह्रस के पुनरुद्धार की प्रेरणा तुलसी को प्रकृति के माध्य मे से ही मिलती हैः
करना होगा यह तिमिर पार
देखना सत्य का मिहिर द्वार.
अपनी प्रौढ़ कृतियों के साथ ही निराला ने व्यंग्य-विनोदपूर्ण कविताएं भी लिखी हैं. कुकुरमुत्ता उपालम्भ और व्यंग्य के साथ ऐसी ही रचना है. अणिमा, बेला और नये पत्ते में सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए उन्होंने छोटी-छोटी कविताएं लिखीं. इनमें उर्दू, फारसी के छन्दों को हिन्दी में ढालने का प्रयास देखा जा सकता है. इसके बाद के दो गीत संग्रह अर्चना और गीत गुंज में गहरी आत्मानुभूति की झलक और कहीं व्यंग्योक्तिपूर्ण कटाक्ष हैं. उनके व्यंग्य की असली बानगी देखने के लिए कुल्ली भाट और बिल्लेसुर बकरिहा जैसी गद्य रचनाओं पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है.
संक्षेप में निराला के समस्त काव्य साहित्य पर दृष्टिपात करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे परम्परागत गलित रूढ़ियों के विरोधी तथा काव्य जगत में नवीन चेतना के उद्घोषक के रूप में पाठक के सामने आते हैं. इसमें तो तनिक भी संदेह नहीं कि निराला भारतीय संस्कृत के द्रष्टा कवि हैं.
मध्यम श्रेणी के परिवार में उत्पन्न होकर और परिस्थितियों के घात -प्रतिघात को सहन करते हुए स्वस्थ आदर्श के लिए सब कुछ बलि करनेवाला महापुरुष हिन्दी में महाप्राण निराला ही हैं. निराला ने सारे जीवन सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक तथा साहित्यिक संघर्ष झेले और अविचलित रहकर जो उच्चस्तरीय साहित्य हिन्दी जगत को प्रदान किया वह सदैव उस महाप्राण कवि का स्मरण कराता रहेगा. निराला की मृत्यु अक्टूबर मास में सन् 1961 ई. में इलाहाबाद में हुई. निराला का वैविध्यपूर्ण रचना-संसार उनके इसी व्यक्तित्व का बोध कराता है.
सुमित्रानन्दन पन्त (1990-1977) : पन्त का जन्म 20 मई 1900 ई. को कूर्मांचल प्रदेश के कौसानी ग्राम में हुआ. कविवर पन्त ने साठ वर्ष एक रेखांकन में अपने जीवन के रोचक प्रसंगों का वर्णन किया है. इस पुस्तक से विदित होता है कि शैशव से ही पन्त को प्रकृति से गहरा लगाव था. प्राकृतिक दृश्यों को देखकर उनके मन में तरह-तरह के सुन्दर भावों का उद्वेलन होता था. सात वर्ष की उम्र में ही कवि को छन्द रचना की प्रेरणा प्रकृति प्रेम से उत्पन्न हुई. इसलिए उन्होंने 1907 ई. से 1918 ई. तक के काल को अपने कवि जीवन का प्रथम चरण माना है. उनके घर में सरस्वती, वेंकटेश्वर समाचार, अल्मोड़ा अखबार आदि पत्र-पत्रिकाएं आती थीं. इन्हें पढ़कर उनके मन में हिन्दी के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ. उसी समय मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की रचनाएं सरस्वती में प्रकाशित होती थीं जिन्होंने कवि को छन्द योजना के प्रति आकर्षित किया. पन्त ने अपने आत्मवृत्त में दोनों कवियों के प्रति सम्मान का भाव व्यक्त किया है. जब वे अल्मोड़ा के हाईस्कूल में पढ़ने आये उस समय उन्होंने अपना घर का नाम गुसाईदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रख लिया. मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद सन् 1918 में कवि बनारस के जियानारायण हाईस्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिये चले गये. बनारस में उनका कवयित्री सरोजनी नायडू, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा अंग्रेजी की रोमानी कविता से परिचय हुआ. काशी में ही उन्होंने स्थानीय काव्य प्रतियोगिताओं में भाग लेकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया. काशी से लौटकर उन्होंने उच्छ्वास और ग्रन्थि की रचना की. इन कृतियों में उनकी वयः सन्धि की अतीन्द्रिय प्रेम भावना एवं आन्तरिक आकुलता के दर्शन होते हैं. सन् 1919 में कवि ने प्रयाग के म्योर कॉलेज में प्र्रवेश किया और वहीं रहते हुए छाया और स्वप्न जैसी सुन्दर रचनाओं द्वारा कवि समाज का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया. 1922 से 1930 तक पन्त की जो रचनाएं प्रकाश में आयीं वे उनके छायावादी काव्य की प्रौढ़ रचनाएं मानी जाती हैं. पल्लव, वीणा, ग्रन्थि और गुंजन का प्रकाशन कवि की काव्य साधना का नया पक्ष उद्घाटित करता है जो प्रकृति और मानव सौन्दर्य के प्रति कवि की कला चेतना की सूचना देता है.
सन् 1931 ई. में पन्त कालाकांकर चले गये और वहां उनकी युवावस्था के सर्वश्रेष्ठ वर्ष, सन् 1930 से 40 तक व्यतीत हुए. कालाकांकर में उन्होंने ज्योत्स्ना जैसी काव्य कृति की रचना की. उन दिनों पंत के मन में वैचारिक द्वन्द्व चल रहा था.
गांधीवाद और मार्क्सवाद के विविध पक्षों पर इन्हीं दिनों उन्होंने अपने काव्य की भाव-सृष्टि में परिवर्तन किया. सुन्दरम् की संस्तुति छोड़कर वे सत्यम् की ओर आकृष्ट हुए अर्थात् उन्होंने सामाजिक यथार्थवाद के पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित किया. कालाकांकर प्रवास के दौरान कवि का प्रयाग और लखनऊ के साहित्यिक जीवन से निकट सम्पर्क बन सका और राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्रों की नवीनतम प्रवृत्तियों की जानकारी से उन का संबंध जुड़ा. सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कवि का मन बहुत उद्विग्न रहा और वह अल्मोड़ा चले गये. वहां उदयशंकर केन्द्र से संबंध स्थापित कर उनकी टोलह में शामिल होकर भारत-भ्रमण किया. सन् 1944 में उन्होंने उदयशंकर के कल्पना चित्र के लिए गीत भी लिखे और इसी समय मद्रास भ्रमण करते हुए पहली बार योगी अरविन्द और उनकी दार्शनिक एवं साधनात्मक प्रवृत्तियों से परिचय प्राप्त किया. इस काल को उन्होंने अपने जीवन का (मानवता) स्वप्न काल कहा है. सन् 1950 ई. में वह आल इण्डिया रेडियो के परामर्शदाता के पद पर नियुक्त हुए और सन् 1957 ई. के अप्रैल तक रेडियो से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध रहे. इस कार्य काल में उन्होंने रजत शिखर, शिल्पी, सौवर्ण और अतिमा नाम से काव्य संग्रह तथा काव्य रूपक की रचना की. अतिमा में रूपकों के अतिरिक्त सन् 1954 ई. की स्फुट रचनाएं भी संकलित हैं. कवि का नवीन संग्रह ‘कला और बूढ़ा चांद’ उन की प्रसिद्ध रचनाओं का संग्रह (1958) है जिसे सन् 61 में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत किया गया. इन रचनाओं का रूप विधान पिछली छायावादी रचनाओं से भिन्न कोटि का है. पन्त की एक विशाल रचना लोकायतन आध्यात्मिक चेतना का महाकाव्य है जिस पर अरविन्द दर्शन का गहरा प्रभाव लक्षित किया जा सकता है.
पन्त का कृतित्च हिन्दी साहित्य की आधुनिक चेतना का प्रतीक है जो इहलौकिक जीवन मूल्यों के निर्माण की ओर अग्रसर है. युग-धर्म को दृष्टि में रखते हुए पन्तजी ने युगान्त, युगवाणी और ग्राम्या शीर्षक से जो कविता संग्रह प्रकाशित किये उनमें प्रगतिवादी चेतना का संस्पर्श देखा जा सकता है. उत्तरा, युगपथ, स्वर्ण धूलि, स्वर्ण किरण आदि रचनाएं उनके जीवन चिन्तन को एकांगी न बनाकर सार्वभौम दृष्टि से युगधर्म के भौतिक, सामाजिक और नैतिक पहलुओं के साथ आध्यात्मिक चेतना के समानान्तर चलनेवाले तत्व हैं. उन्होंने प्रकृति, नारी, सौन्दर्य और मानव जीवन की ओर देखने की मध्यवगाीर्य जीवन दृष्टि को परिष्कार दिया है. परवर्ती कविताओं मे राष्ट्र रंगभेद से ऊपर उठकर अखिल मानव की कल्याणकामना को उसी तरह मुखरित किया है जिस तरह संतों की वाणी में मानव की महनीयता ध्वनित होती है. कवि वर्तमान मानव जीवन के विषम संकट को व्यक्त करते हुए एक नये आदर्श भविष्य का चित्रण करता है जो मुख्यतः अध्यात्म पर आश्रित है. अतः काव्य की दृष्टि से इसे किस सीमा तक ग्राह्य माना जाये यह एक विचारणीय विषय है.
पन्त ने अपने काव्य के सम्बन्ध में लिखा है.
‘‘मेरा काव्य प्रथमतः इस युग के महान संघर्ष का काव्य है जो लोग युग संघर्ष तक ही सीमित रखकर उसे केवल बाहरी राजनीतिक-आर्थिक स्तरों पर ही देख सकते हैं उनकी बात मैं नहीं करता. आज के विराट मानवीय संघर्ष को वर्ग-संघर्ष तक ही सीमित करना विगत युगों की खर्वचेतना तथा ऐतिहासिक अन्धकार को एक प्रतिक्रिया माना. उन अर्थों में मार्क्सवादी मैं कभी नहीं रहा. मुझमें यह दृष्टिकोण परिवर्तन प्रेम के कारण नहीं किन्तु भावनात्मक आवश्यकता के कारण सम्भव हुआ. अरविन्द की साधना-पद्धति आत्म-मुक्ति संबंधी न होते हुए भी सामूहिक मुक्ति की नहीं है. मेरी प्रेरणा के स्रोत निःसंदेह मेरे भीतर रहे हैं जिन्हें युग की वास्तविकता ने खींचकर समृद्ध बनाया है. न मुझे यही लगता है कि दर्शन द्वारा मनुष्य सत्य की प्राप्ति कर सकता है. ये (विचारसार) केवल मेरे कवि मन के प्रकाश स्फुरण अथवा भाव प्ररोह हैं जिन्हें मैंने अपनी रचनाओं में शब्द मूर्त करने का प्रयास किया है.’’
संक्षेप में, पन्त वर्तमान युग को महासंक्रान्ति का युग कहते हैं. इस युग में विघटन, विश्रृंखलता, नैतिक मूल्यों का ह्रास चारों ओर दिखायी पड़ रहा है. ऐसे युग में पन्त नवीन स्वप्न की आकांक्षा करके एक महान जीवन और विराट आत्मा की परिकल्पना करते हैं. उनका काव्य आत्मोकर्ष का काव्य है. यह आत्मोकर्ष अपनी समग्र संरचना में एक सार्वभौमिक स्वेच्छा के फलक पर भविष्योन्मुखी काव्य है. संपूर्ण काव्य सम्पदा के भीतर से उन्होंने एक नये और निजी अध्यात्म की रचना की है. उनकी रचनाएं भारतीय जीवन की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना से गहन साक्षात्कार कराती हैं. उन्होंने खड़ी बोली की प्रकृति-शक्ति और सामर्थ्य की पहचान का अभियान चलाया और उसे वाक्य-विन्यास और शब्द-सम्पदा से समृद्ध भी किया. उनकी मृत्यु प्रयाग में 29 दिसम्बर सन् 1977 ई. को हुई.
महादेवी वर्मा (1907-1987) : महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में होली के दिन 1907 ई. में हुआ. उनकी माताजी धार्मिक वृत्ति की महिला थीं और घर में रामायण का सस्वर पाठ किया करती थीं. शैशव के पांच वर्ष तो फर्रुखाबाद में ही कटे किन्तु उनके पिता इन्दौर में काम करते थे अतः वहीं के मिशन स्कूल में इन्हें प्रविष्ट कर दिया गया. घर की पढ़ाई के लिए एक पण्डित, एक मौलवी, एक ड्राइंग टीचर तथा संगीत शिक्षक का प्रबन्ध कर दिया गया. 14 वर्ष की अल्पायु में में इनका विवाह हो गया. किन्तु इनका मन पढ़ाई में लगा हुआ था, अतः वैवाहिक दायित्व को इन्होंने स्वीकार नहीं किया.
अध्ययन की रुचि के कारण सन् 1919 में प्रयाग के क्रास्थवेट कॉलेज में पुनः इन्होंने प्रवेश ले लिया. वहीं से प्रथम श्रेणी में मिडिल की परीक्षा पास की और सर्वप्रथम रहने के उपलक्ष्य में राजकीय छात्रवृत्ति भी प्राप्त की. अध्ययन के समय ही उनकी रुचि बौद्ध दर्शन की हुई और एक बार भिक्षुणी बनने का विचार भी इनके मन में आया. परिस्थितिवश वे भिक्षुणी तो नहीं बन सकीं किन्तु बालकों की शिक्षा के प्रति इनका रुझान हो गया और इन्होंने प्रयाग के आसपास के गांवों में जाकर बच्चों को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया. सन् 1931 में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया और प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने लगीं. उन्हीं दिनों प्रयाग से प्रकाशित होनेवाले चांद मासिक पत्र में भी वे अवैतनिक रूप से कार्य करती रहीं.
साहित्य में उनका प्रवेश नीरजा शीर्षक कविता संग्रह के प्रकाशन के साथ हो गया था और उन्हें इस रचना पर साहित्य सम्मेलन की ओर से शेख सरिया पुरस्कार प्राप्त हुआ. प्रयाग महिला विद्यापीठ के निर्माण में महादेवी का अमिट योगदान है और लम्बे समय तक वे इस विद्यापीठ के कुलपति पद के दायित्व को संभाले रहीं. साहित्यिक अभिरुचि के साथ सामाजिक कार्यों में भी उनकी रुचि उत्तरोतर बढ़ती गयी और उन्होंने प्रयाग में अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन, मीराजयन्ती का शुभारम्भ, नैनीताल में मीरा मन्दिर कुटीर का निर्माण, प्रयाग में साहित्यकार संसद की स्थापना, साहित्यकार संसद की ओर से अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन तथा साहित्यिक पर्व का आयोजन, प्रसाद जयन्ती समारोह का साहित्यिक कार्यक्रम, वाणी मन्दिर का निर्माण आदि कार्य किये. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से भी उन्होंने भेंट की थी और राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा वाणी मन्दिर का शिलान्यास कराया. इन समस्त कार्यकलापों के मूल में महादेवीजी की साहित्यिक चेतना ही कार्य करती रही और उन्होंने गार्हस्थ्य जीवन के दायित्यों से मुक्त रहकर अपना सारा जीवन साहित्य और समाज को समर्पित कर दिया.
महोदवी वर्मा के संस्कार भारतीय जीवन दर्शन से जुड़े हुए थे. भारतवर्ष को वे एक विशाल देश की नहीं अपितु विद्या, आस्था और वाणी का केन्द्र भी मानती थीं. भारत के तीर्थ स्थलों के प्रति भी उनके मन में श्रद्धा थी. बद्रीनाथ की यात्रा तो उन्होंने दो बार पैदल ही की थी. दक्षिण भारत की साहित्यिक यात्रा में वे कन्याकुमारी तक गयीं और अपने साथ दिनकर, इलाचन्द्र जोशी को भी ले गयी थीं. महादेवी की काव्य-यात्रा को पांच खण्डों में विभाजित करके देखा जा सकता है. उनके संग्रहों के नाम उनकी काव्य-यात्रा को संकेतित करते हैं. पहली रचना नीहार में जीवन के प्रति एक रहस्यमय व्याकुल मात्र दृष्टिगत होता है. रश्मि की कविताओं में उस रहस्यमयता का स्पष्टीकरण है. नीरजा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनका सुन्दर काव्य-संग्रह है. अभिव्यक्ति का जो स्तर आरम्भ में मिलता है वह आगे चलकर और अधिक संवेदनीय बन गया है. सान्ध्य गीत में एक समापन का आग्रह-सा लगता है. इस प्रकार इन चारों पुस्तकों को उन्होंने यामा शीर्षक से प्रकाशित किया है. इसके बाद आगे चलकर दीपशिखा में कवयित्री ने स्वयं को जीवन के प्रति सम्पूर्ण भाव से समर्पित कर दिया. सारी ललक संवेदना की आकुल विस्मयानुभूति और किसी चिरंतन के प्रति समर्पण की उत्सुकता अपनी पूर्णता को प्राप्त कर निरपेक्ष भी हो गयी है. सान्ध्यगीत की भूमिका में इन्होंने अपने रहस्यात्मक संवेदन को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है. वास्तव में उनका काव्य संवेदना की अमूर्तता का काव्य है, जिसके सारे प्रतीक अपने आप में मूर्त हैं. संवदेना की इस अमूर्तता के बारे में लिखते हुए महादेवी ने उसे ‘एक निराले स्नेह सम्बन्ध की सृष्टि’ कहा है. यह निराला स्नेह सम्बन्ध ही उनके समूचे व्यक्तित्व की देन है.
सान्धगीत की भूमिका में उन्होंने लिखा है किः
‘‘आज गीत में हम जिसे नये रहस्यवाद के रूप में ग्रहण कर रहे हैं वह इन सबकी विशेषताओं से युक्त होने पर भी उन सबसे भिन्न है. उसने प्राविद्या की अपार्थिता ली, वेदान्त के अद्वैत की छाया मात्र ग्रहण की, लौकिक प्रेम से तीव्रता उधार ली और इन सबको कबीर के सांकेतिक दाम्पत्य भाव-सूत्र में बांधकर एक निराले स्नेह सम्बन्ध की सृष्टि कर डाली जो मनुष्य के हृदय को आलम्बन दे सका तथा मस्तिष्क को हृदयमय और हृदय को मस्तिष्टमय बना सका.’’
महादेवी की समस्त रचनाएं मुक्तक रूप में हैं. उनके गीत छन्द, लय, स्वर, ताल आदि की सृष्टि से गेय होने के साथ प्रवाहपूर्ण भी है. अभिव्यक्ति के जितने कोण, प्रेम सम्बन्धों की जितनी सहज आवेगपूर्ण और आकर्षक मुद्राएं महादेवी के गीतों में मिलती हैं उतनी अन्यत्र दुर्लभ हैं. गेयता और प्रभावान्विति की दृष्टि से उनकी भाषा और शब्द संयोजन सौष्ठवपूर्ण होने के साथ भाव सम्पे्रषण में भी पूर्ण हैं. विभिन्न आवेगों और मुद्राओं के अंकन के लिए उन्होंने अपनी भाषा में जो विभिन्न प्रतीक गूंथे हैं वे स्वतंत्र अध्ययन का विषय हैं. उन्होंने अपने संकेतार्थों के लिए अधिकांश प्रतीक प्रकृति से ग्रहण किये हैं. इसलिए प्रकृति को वे अनेक रूपों में नियोजित करती हैं. इसी कारण उनका सम्पूर्ण काव्य एक प्रकार से श्रेष्ठ प्रकृति काव्य का संकेत रूप ग्रहण करता-सा लगता है तो दूसरी ओर यह मानव संवेदना की पूर्णता से जुड़ा हुआ है. उन्होंने भाव संवेदन के अनुकूल ही चित्रफलक प्रस्तुत किये हैं. उनके प्रतीकार्थों में बहुधा रंग, प्रकाश आकार और बोध का साम्य-ग्रहण देखा जा सकता है. जैसे अन्धकार, रजनी, हरीतिमा, दीपक, ज्योति, बादल, वीणा, पुष्प, फल, वृक्ष, पर्वत, सागर, चांदनी, प्रातः, कोहरा आदि का संसार संकेतार्थों द्वारा उनकी कविता में फैला पड़ा है. छायावादी काव्य की जिन विशेषताओं का उल्लेख आलोचक वर्ग प्रायः करता रहता है वे महादेवी के काव्य में उपलब्ध हैं. जैसे भाषा के संस्कार में परिष्कार और परिमार्जन, कल्पना की गहराई, अनुभव की मार्मिकता और पूर्णता, नवीन तथा सर्वथा मौलिक अप्रस्तुत विधान की योजना, लय, स्वर, ताल, ध्वनि आदि का सन्तुलित संयोजन, बाह्यार्थ निरूपक स्थूल विषयों की उपेक्षा तथा सूक्ष्म चिन्तन योग्य विषयों का समावेश महादेवी के काव्य में उपलब्ध होता है.
सान्ध्य गीत के बाद जब महादेवी ने दीपशिखा की रचना की तब उन्होंने गीतों के आधार पर उसमें कुछ रेखाचित्र भी प्रस्तुत किये. ये चित्र उनके गीतों में वर्णित भाव को स्पष्ट करते हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता. चित्र का भाव कहीं-कहीं गीत के भाव से मेल नहीं खाता किन्तु माध्यम की दृष्टि से महादेवी अपने चित्रों को सूक्ष्म और स्थूल के बीच में स्थित मानती हैं. उन्होंने लिखा हैः
‘‘मेरे गीत और चित्र दोनों के मूल में एक ही भाव रहना जितना अनिवार्य है, उनकी अभिव्यक्तियों में अन्तर उतना ही स्वाभाविक है. गीतों के विविध रूप, रंग, भाव, ध्वनि सब एकत्र हैं. पर चित्र में इन सबके लिए अवसर नहीं होता, उनमें प्रायः रंगों की विविधता और रेखाओं के बाहुल्य में भी एक ही भाव अंकित हो पाता है. इसी से मेरा चित्र गीत को एक मूर्त पीठिका मात्र दे सकता है, उसकी सम्पूर्णता बांध लेने की क्षमता नहीं रखता.’’
महादेवी की कविता छायावादी काव्य में कई दृष्टियों से अपना स्वतंत्र स्थान रखती हैं. प्रबन्धात्मकता से बचते हुए प्रतीकों का आश्रय लेकर उन्होंने जो गीत-रचना की है वह छायावादी काव्य में अपना स्वतन्त्र स्थान रखती है. महादेवी की रचनाओं में सप्तपर्णा एक विशेष प्रकार की रचना है. इसमें महादेवी ने वैदिक ऋचाओं तथा भारतीय वाङमय के सुप्रसिद्ध ग्रन्थों से कुछ अंश लेकर उन्हें हिन्दी में रूपान्तरित किया है. महादेवी का संस्कृत भाषा और साहित्य से, विद्यार्थी जीवन से ही घनिष्ठ सम्बन्ध था. प्राकृतिक दृश्यों में भी हिमालय, गंगोत्री, यमुनोत्री, कन्याकुमारी आदि रमणीय प्राकृतिक दृश्य उनके मन में जन्मजात संस्कार की तरह बैठ गये थे. वैदिक साहित्य और कालिदास उनके प्रेरणा स्रोत रहे. उन्हें देश के जागरण की पे्ररणा भी संस्कृत साहित्य से ही मिलती है. रामायण, महाभारत, धरगाथा, अश्वमेघ, कालिदास, भवभूति, जयदेव आदि की रचनाओं के जिन अंशों का अनुवाद उन्होंने किया है वह दिव्य ज्ञान का श्रेष्ठ भण्डार मानकर ही किया है. सप्तपर्णा के अनूदित अंश हिन्दी माध्य में मौलिक रचना का आस्वाद प्रदान करते हैं. उनकी एक रचना अग्निरेखा नाम से उनके निधन के बाद साहित्य सहकार न्यास ने प्रकाशित की है जिसमें उनकी कुछ पूर्व अप्रकाशित रचनाएं हैं. महादेवी ने पद्य के साथ गद्य में भी विपुल साहित्य का सर्जन किया था. संस्मरण साहित्य में अतीत के चलचित्र, पथ के साथी, स्मृति की रेखाएं, अत्यन्त प्रसिद्ध हैं. शृंखला की कड़ियां शीर्षक पुस्तक में महिला जगत के उत्थान के लिए व्याख्यान शैली के लेख हैं.
महादेवी वर्मा को अपने साहित्य अवदान के लिए अनेक संस्थानों से सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए. स्मृति की रेखाएं शीर्षक पद्य कृति पर द्विवेदी पदक, रश्मि और नीरजा पर मंगला प्रसाद पुरस्कार, भारत सरकार से पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रथम भारत-भारती पुरस्कार, यामा और दीपशिखा के लिए सन् 1982 में ही भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार आदि. सन् 1960 में वे सर्वसम्मत से प्रयाग महिला विद्यापीठ की कुलपति निर्वाचित हुई. भारतीय परिषद् की ओर से 1964 में वृहद् अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन, कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से भी उपाधि से सम्मानित हुईं. महादेवीजी ने कविवर निराला की श्रेष्ठ कविताओं का एक संकलन अपरा नाम से सन् 1952 में साहित्यकार संसद की ओर से प्रकाशित किया. वे साहित्य अकादमी की सम्मानित सदस्या थीं तथा 1981 में इसकी फैलोशिप से सम्मानित हुईं. इनका निधन 11 सितम्बर 1987 को प्रयाग में हुआ.
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