उपन्यास अंश नौ मुलाकातें बृज मोहन विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं और मिलना चाहते हैं! मैंने मन ही मन जोड़ा. इति से मेरी यह नौवीं मुलाकात होगी...
उपन्यास अंश
नौ मुलाकातें
बृज मोहन
विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं और मिलना चाहते हैं!
मैंने मन ही मन जोड़ा. इति से मेरी यह नौवीं मुलाकात होगी. चालीस वर्ष की
अवधि में नौवीं मुलाकात! इससे पहले इति से जितनी मुलाकातें हुईं, अति भावुकता में हुई थीं. छोटी-छोटी मुलाकातें, लेकिन हर मुलाकात मेरे लिए खास थी और मेरी जिन्दगी में हलचल मचाकर गई थी. वह जब भी मिली, जैसे भी मिली, मुझे याद है. यहां तक कि एक-एक मुलाकात ऐसे याद है, जैसे कल की ही बात हो. जब यादें आती हैं तो एक के पीछे एक याद आती चली जाती हैं और लगता है, चालीस वर्ष बीते बहुत समय नहीं हुआ, लेकिन चालीस वर्षों का समय बहुत-बहुत होता है.
इस मुलाकात में क्या होगा! मैं असमंजस में हूं और सोचकर थोड़ा-सा परेशान भी. हालांकि तूफान आने के कोई पूर्व लक्षण नहीं हैं, फिर भी आशंका से मेरे मन में झंझावात-सा घुमड़-घुमड़ जाता है.
उससे आखिरी मुलाकात पैंतीस साल पहले हुई थी. लम्बे अन्तराल के पीछे कोई ठोस कारण नहीं था. बस, मेरा आन्तरिक निर्णय था कि हम अब नहीं मिलेंगे. शायद ऐसा ही कोई आत्मनिर्णय उसके मन में भी उठा हो. वर्ना अगर हम चाहते तो मिल सकते थे. कोई बाहरी रोक-टोक तो कम-से-कम नहीं ही थी. उस मुलाकात में हमारे बीच ऐसा कुछ भी अप्रिय नहीं घटा था कि हम नफरत करने लगें और फिर कभी न मिलने की कसम खा लें. कोई वर्जित रेखा भी हमारे बीच नहीं खिंची थी और न ही कोई अलंघ्य दीवार हमारे बीच थी. बस, इतना जरूर था कि फिर हमारे मिलने का कोई औचित्य नहीं था. हम जिस बिन्दु पर मिलकर अलग हुये थे, वहां से दोनों का विपरीत दिशाओं की ओर प्रस्थान करना ही श्रेयस्कर था. यही भावना शायद हमारे बीच लम्बे अन्तराल का कारण बनी. न मिलने जैसी कोई वचनबद्धता हमारे बीच नहीं हुई थी और न ही प्रकट या अप्रकट रूप में न मिलने का कोई समझौता हमारे बीच हुआ था. किसी ने ‘अलविदा’ भी नहीं कहा था.
वह मुलाकात मेरी जिन्दगी के ऐसे मोड़ पर हुई, जब मैं एक नई राह पर जाने को खड़ा था और मेरी जीवन शैली में आमूल परिवर्तन होने जा रहा था. अचानक वह आकर ऐसे मिलेगी, मैं सोच भी नहीं सकता था.
उस दिन को मैं कभी भूल नहीं सकता. मेरे लिए खुशियों भरा दिन था. नवम्बर के आखिरी सप्ताह के उस दिन की सुहावनी शाम मौसम के करवट लेने से जल्दी झुक आई थी. अचानक बढ़ रही ठण्ड का एहसास गेस्ट हाउस के भीतर भी होने लगा था, जिसकी हवा में मिश्रित परफ्यूम्स की गन्ध घुली थी. नये परिधानों की चमक-दमक और उनकी सरसराहटें लोगों के उत्साह को प्रकट कर रही थीं. हर कोई सजा-संवरा रहना चाहता था. मदिरा प्रेमी कुछ घूंट गटक कर सुरूर में थे. मेरे मन में अनूठी तरंगें और अनुभूतियां ठाठें मार रही थीं. वह समय पास आ रहा था, जब एक खूबसूरत लड़की संयोगिता का हाथ व साथ मेरे अधिकार में सदा के लिए आने वाला था. संयोगिता मेरी जिन्दगी में एक रेशमी मरहम की तरह आई थी और धीमे-धीमे मेरे दिल की खाली जगह भरने लगी थी. मैं उससे प्यार भी करने लगा था. मैं उसी के खयालों में खोया था. उस दिन तमाम अटकलों, प्रकरणों पर अपने-आप विराम लग जाना था. पूर्ण विराम! उस पूर्ण विराम का इन्तजार मेरी मां को तब से था, जब मैं संयोगिता से विवाह के लिए राजी हुआ था. मुझे मां की याद बार-बार आ रही थी.
कभी मेरे सपनों में एक शहर था. उस शहर में एक घर था. उस घर में इति रहती थी. उसे मैंने अपने दिल में बसा रखा था और उसके घर बारात लेकर जाना चाहता था. सपने की कुछ बातें सच हो जाती हैं और कुछ अधूरी रह जाती हैं. उसी तरह ऐसा कुछ आधा सच हुआ था. मेरी बारात उस शहर में तो गई थी, लेकिन उस घर में नहीं जो इति का था.
एक गेस्ट हाउस में हमें जनवासा दे दिया गया था. मुझे दूल्हे के रूप में सजाए जाने की तैयारी चल रही थी. उसी समय वह प्रकट हुई थी. मान न मान, मैं तेरा मेहमान का हठीलापन ओढ़े हुए, बिना किसी झिझक या संकोच के. हमारी ओर से उसे या उसके परिवार को निमन्त्रण-पत्र नहीं भेजा गया था और न ही आमन्त्रण जैसा कोई झूठा-सा भी आग्रह किया गया था. हमारे और उसके परिवार के बीच वर्षों से संवादहीनता ही नहीं तनाव भी था. हम नहीं चाहते थे कि उसके यहां से कोई भी मेरी शादी में शामिल हो. तब उसकी शादी हो नहीं पाई थी और उसकी शादी न हो पाने का दोषी मुझे माना जाता था. कम से कम उसकी मां और भाई तो मुझे ही जिम्मेवार मानते थे. उसकी मां मुझे आरोपी करार करते हुए अक्सर कोसती थीं और उसका भाई तो मुझे दुश्मन समझता था. उससे जब भी सामना होता, वह खा जाने वाली निगाहों से देखता था और मैं उसके सामने असहज हो जाता था.
वह गहरे काले रंग की नाभिदर्शना साड़ी में थी, जिसका पल्लू जमीन को छू रहा था और सर्दी बढ़ जाने के बावजूद उसने बिना बाहों का छोटा-सा काला ब्लाउज पहन रखा था. उसके दाहिने कन्धे पर फोल्ड किया हुआ काला शॉल था. काले परिधान में वह बहुत खुश दिखाई दे रही थी. उसका सुगठित शरीर सौष्ठव देखते ही बनता था. सघन काली केशराशि को खुला छोड़ रखा था, जिसके एक ओर कान के पास लटकती मोगरे के फूलों की सफेद घनी लड़ी कन्ट्रास्ट पैदा कर रही थी. कुछ और भी कन्ट्रास्ट थे. पैरों में सफदे खास ऊंची ऐड़ी वाले सैंडिल थे, जिसमें वह कुछ ज्यादा ही लम्बी लग रही थी. सफेद चमकती लौंग, उसकी नाक पर तो क्या, पूरे शृंगार पर भारी पड़ रही थी, जो असली हीरे की ही रही होगी. उसकी हैसियत हीरा पहनने की थी. वह पूर्ण परिपक्व लग रही थी और आत्मविश्वास से भरी हुई थी. उसके निश्चिन्त हाव-भाव, चाल-ढाल और स्फूर्ति से लगता था, जैसे जताना चाहती हो कि मेरे विवाह से उसे जरा भी तकलीफ नहीं है. खट-खट तेज चलती हुई मेरे पास आई, बिल्कुल बिजली सी चपल. उसने खुशी छलकाते हुए बड़ी बेतकल्लुफी से मेरी तरफ हाथ बढ़ाया और गर्मजोशी से बधाई दी. मैंने सकुचाते हुए उससे हाथ तो मिला लिया था, लेकिन ठण्डेपन से. मैं गर्मजोशी नहीं दिखा पाया. उसकी हथेली गुदगुदी और गर्म थी. उसे बहुत करीब पाकर मेरे शरीर में सनसनाहट सी उठने लगी थी. मेरे रोम-रोम में कम्पन की अनुभूति हुई और शरीर में पसीने का हल्का सा गीलापन महसूस किया. मैं लगभग हक्का-बक्का-सा रह गया. मेरी घबराहट को पता नहीं वह जान पाई या नहीं! वह तो निगाहें घुमा-घुमाकर आस-पास का जायजा ले रही थी.
उसके पीछे उसकी मौसेरी बहन रेवती थी, जो उम्र में उससे काफी बड़ी होते हुए भी अविवाहित थी. रेवती से मेरा बहुत दूर का कोई रिश्ता बहन का था, जिसे मेरी मां ने मुझे कई बार समझाने की कोशिश की थी कि सगा रिश्ता है और वह सगापन मेरी समझ में कभी भी ठीक से नहीं आ पाया था. उसी नाते इति से भी मेरी बहन होने का रिश्ता जोड़ा जाता था और मेरी-उसकी शादी न हो सकने के पीछे एक ठोस कारण यह भी गिनाया जाता रहा था. रिश्ता ऐसी अलंघ्य बाधा थी, जिसे मेरी मां कभी भी पार करने को तैयार नहीं थीं. एक भारी कठोर पत्थर की तरह अटल थीं, जिसे न खिसकाया जा सकता था और न ही तोड़ा जा सकता था. मां तमाम आशंकाओं और भय से घिरी लगती थीं.
रेवती ने मटमैले रंग का शॉल ओढ़ रखा था और उसके हाथ में वैनिटी बॉक्स था. उसने बताया, “हम लोग आपको सजाने आए हैं. आप हमारे शहर में बारात लेकर आये हैं, इसलिये हमारी भी कोई ड्यूटी बनती है. इति ने ब्यूटीशियन का कोर्स किया है. बहुत अच्छी ब्यूटीशियन है, ये. बोलो, इसके हाथों सजने को तैयार हो न?”
मैं उन्हें विस्मय से देखता रह गया. उनके हाव-भाव और इरादे मुझे आश्चर्यचकित कर रहे थे. उसके उस तरह जनवासे में पहुंचने से मुझे अटपटा तो लग रहा था, लेकिन उसके लिये मेरे दिल से शाबासी ही निकली. मन-ही-मन उसकी दिलदारी और हिम्मत को दाद दे रहा था. उन्हें इस तरह आया देख, कई बाराती, रिश्तेदारों की आंखों में उत्सुकता जाग उठी थी और कानाफूसी होने लगी थी. बहुत से रिश्तेदार मेरे-उसके प्रेम-सम्बन्धों के बारे में जानते थे, जो शायद अटकलें लगा रहे थे कि अब क्या घटने वाला है! कौन सा विस्फोट होने को है! मौका देख, मेरे चाचा पास आए और मुझे अलग ले जाकर कान में फुसफुसाकर सख्त हिदायत दे गए थे, “अगर इति पान-वान या कुछ भी खिलाए-पिलाए तो साफ मना कर देना. खाना-पीना मत! वह जहर दे सकती है, होशियार रहना!”
उसे इतने अविश्वास और सन्दिग्ध निगाहों से देखा जा रहा था कि मेरा मन भी शंका से घिर गया. जो लड़की एक दिन मेरे कारण मरने को तैयार थी, क्या इसके घाव इतनी जल्दी भर गये हैं! आज इतनी खुश क्यों है! क्या आज जीत हासिल करने वाली है! मुझे लगा कि मैं सतर्क रहूं, परन्तु उसी पल मैंने अपने शंकित विचारों को एक मजबूत झटके से दूर छिटक दिया, नहीं...नहीं, मैं कभी उस पर अविश्वास नहीं कर सकता. वह इतनी पारदर्शी है कि छद्मवेशी हो ही नहीं सकती. वह इतनी निर्दयी भी नहीं हो सकती कि मेरी जान लेने की सोचने लगे या मुझे कोई नुकसान पहुंचाए. अगर फिर भी, वह मेरे साथ कुछ बुरा करना चाहे तो कर ले. मैं खुशी-खुशी तैयार हूं यहां तक कि उसके हाथों मुझे शहीद भी होना पड़े तो मैं उफ नहीं करूंगा. वह जो सजा देना चाहे, दे. उसे पूरा हक है. समर्पण का भाव सा मेरे मन में जागा था.
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पिपरिया रेलवे स्टेशन के रास्ते भर मैं आत्मविश्वास जगाने की कोशिश करता रहा कि उसे पहचान तो लूंगा ही! हालांकि मेरे जेहन में जो उसकी पैंतीस साल पहले की छवि थी, उसे मैंने अपनी कल्पना में वैसी की वैसी ही रहने दी थी. कभी भी बदलाव करने की कोशिश नहीं की थी, जबकि मैं जानता था, उसमें बहुत से बदलाव आए हैं. लोगों की बताई गई हुलिया के आधार पर क्यों मनगढ़न्त छवि गढ़ता! जो मेरे लिए आसान भी नहीं था.
‘इति को पहचान नहीं पाओगे. वह इतनी...इतनी बदल गई है कि तुम सोच नहीं सकते!’ रेवती ने बातों-बातों में विस्मय सा खड़ा करते हुए, मुझसे कई बार जिक्र किया था. रेवती दो-चार-पांच साल में कभी, किसी रिश्तेदार के यहां शादी या शोक के मौकों पर अलग-अलग जगहों पर मिल जाती थी. मेरे बिना पूछे इति के बारे में कुछ संक्षिप्त सूचनाएं धीमे से दे देती थी. जिन्हें मैं बड़ी उत्सुकता से सुनता था और तृप्त हो जाता था कि वह बहुत सुखी है. उसे मैं इतना सुख नहीं दे सकता था. रेवती बताती थी कि वह मेरे बारे में अक्सर पूछती रहती है, बहुत पूछती है. यह सुनकर मुझे अच्छा लगता कि वह भी मुझे भूली नहीं है. मन होता था, कभी उससे मिलूं. लेकिन कभी भी इसके लिये मैंने कोशिश नहीं की. सोचता था, ऐसे ही कभी अकस्मात मिल जाय तो सम्मानजनक होगा.
दो दिन पहले मेरे मोबाइल पर फोन आया था. अनजाना नम्बर देखकर मैंने लापरवाही से ‘हलो’ कहा था.
“विकेश जी बोल रहे हैं आप?” खनकती आवाज में कोई महिला स्वर था.
“जी.” कहते हुए मैंने सोचा, कौन हो सकती है!
“नमस्ते...मैं इति बोल रही हूं.”
“कौन इति?” मैं कह तो गया लेकिन उसी क्षण मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ. ऐसे नहीं पूछना चाहिए था, पर क्या किया सकता था! कह गया तो कह गया. बोला हुआ शब्द वापस नहीं लिया जा सकता! जिस नाम को मैं कभी भूल नहीं सका और उस नाम की कोई मेरी परिचित भी नहीं, इतनी लापरवाही से ऐसा सवाल कैसे कर गया! जैसे दो-चार इतियों को मैं जानता हूं. उसके नाम से न जाने कौन सा अहं अनचाहे ही उस पल आ खड़ा हुआ था.
“मैं इति वर्मा...बॉम्बे से...”
मैं अचकचा गया. सोच ही नहीं सकता था कि वह कभी मुझे फोन करेगी. फोन पर उसकी आवाज मैंने पहली बार सुनी थी इसलिए पहचानने का सवाल ही नहीं, फिर भी इस तरह ‘कौन इति’ कह देना मुझे खुद को बहुत ही असभ्य और अहंकार भरा लगा.
“अरे इति तुम! माफ करना मैं समझ नहीं पाया था कि तुम हो. मुझे ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि तुम कभी मुझे फोन करोगी. तुम्हारी आवाज कभी फोन पर सुनी नहीं, जो पहचान पाता. फिर भी मुझे इस तरह कौन इति नहीं कहना चाहिए था. सॉरी! आई एम वेरी सॉरी!” मैंने अति विनम्र होने की पूरी कोशिश की.
“आपकी बात सही है... हमारी फोन पर कभी बात हुई ही नहीं, जो मेरी आवाज पहचानते. फिर पैंतीस साल बहुत होते हैं किसी को भूलने के लिए. है ना?” उसकी आवाज में खनक थी.
भले ही उसने कोई चोट करने की नीयत से न कहा हो, फिर भी मुझे चोट पहुंची. मीठी-सी चोट.
“अरे तुम तो शिकायत करने लगीं.” मैंने हंसने की कोशिश की.
“शिकायत! शिकायत तो बिल्कुल नहीं. आपका कोई कसूर नहीं है, इतने बरसों तक कौन, किसको याद रख सकता है!”
फिर मीठी चोट. उसने भले ही व्यंग्य न किया हो, लेकिन मुझे मीठे तीर की चुभन महसूस हुई. क्या जवाब देता! उस पल मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था.
“खैर छोड़ो.” वह बोली, “मैं आ रही हूं बॉम्बे-हावड़ा मेल से, अगले सण्डे को पांच तारीख में पहुंच जाऊंगी. ए वन कोच में मेरा रिजर्वेशन है. पिपरिया स्टेशन पर मिलना, अगर न मिल सको तो मैं पचमढ़ी पहुंचने के बाद आपसे जरूर मुलाकात करूंगी. भूलना नहीं. ओ...के.” उसने बात को खत्म-सा कर दिया था.
‘भूलना नहीं,’ सुनकर लगा, उसने फिर चोट की है, चोट पर चोट.
मीठे दर्द से कराह नहीं निकलती. उसके फोन ने मेरे शरीर में मीठी सिहरन-सी भर दी थी. जिज्ञासा हो रही थी कि वह क्यों आ रही है! ऐसे अचानक! क्यों मिलना चाहती है, अकेली है या कोई और साथ है! पूछना चाहता था, लेकिन पूछ नहीं सका. इस तरह के सवालों से पता नहीं वह क्या सोचती! मेरी अशिष्टता ही प्रकट होती. मेरे प्रति न जाने कैसी धारणा बनाती!
मुझे खुशी हुई कि वह भी मुझे भूली नहीं है. उसने मेरा फोन नम्बर ढूंढ़ा, पता लगाया कि मैं पचमढ़ी में हूं. मुझसे जुड़ी अदृश्य डोर को थामे लगी, वह भी इतने सालों बाद. कुछ धागे ऐसे होते हैं, जो अपनत्व की भावना से पगे होते हैं. उन्हें समय भी जर्जर नहीं कर पाता. मैं भी तो उसे हमेशा एक अदृश्य डोर से थामे ही रहा हूं और उसे कभी नहीं भूल पाया. पहले प्यार का अंकन मन की कोरी पटल पर गहरी और अमिट छाप छोड़ता है, जो मिटाए नहीं मिटती, चाहे कितना भी चाहो!
उसके फोन ने मेरे अन्दर एक अनोखी स्फूर्ति सी भर दी. उसके आने का समाचार, एक उत्सव के आगमन सा लगा. जिसका स्वागत मैं हर्षोल्लास से करना चाहता था. मैंने हाथों में लिये बुके को खुश होते हुये निहारा, जिसके ताजे और चटख रंग के फूल मेरी तरह बहुत खुश लग रहे थे.
नामः बृज मोहन
जन्मः 1951, झांसी
शुरुआती लेखन मोहन बृज के नाम से
प्रकाशनः पहली कहानी 1974 में छपी. एक कहानी संग्रह ‘इसे जन्म लेने दो’ व 30 कहानियां सुपरिचित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. आकाशवाणी लखनऊ व छतरपुर से तीन रेडियो नाटकों का प्रसारण
सम्प्रतिः बैंक ऑफ बड़ौदा से सेवानिवृति के बाद अब कहानी-लेखन में सक्रिय
सम्पर्कः ‘मनोरम‘, 35, कछियाना, पुलिया नम्बर-9, झांसी-284 003
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