राकेश भ्रमर हमारे घरों की स्त्रियां जितने अनुशासन और शांति प्रियता के साथ टी.वी. में सास-बहू के धारावाहिक देखती हैं, उतनी शांति और अन...
राकेश भ्रमर
हमारे घरों की स्त्रियां जितने अनुशासन और शांति प्रियता के साथ टी.वी. में सास-बहू के धारावाहिक देखती हैं, उतनी शांति और अनुशासन से वह घरों में नहीं रहती हैं. धारावाहिक देखते समय मजाल है कि कहीं सुई भी गिर जाए. घर का कोई सदस्य उस वक्त अगर जरा-सा भी जुबान हिला देता है, तो समझ लीजिए उसका रात्रि-भोज निरस्त! उनके मुंह से भी कोई आवाज नहीं निकलती. बस, बीच-बीच में कुछ वाक्य निकलते हैं, मसलन ‘‘बड़ी डायन सास है!’’ ‘‘ननद की करतूतें तो देखो! छी छी!’’ ‘‘कैसे घर को फोड़ रही है.’’ ‘‘हाय राम! बहू की कितनी दुर्दशा हो रही है!’’ ‘‘कुटनी को तो देखो, कितनी शातिर चालें चल रही है.’’ ‘‘झूठी कहीं की.’’‘‘हाय राम, मर गयी.’’ बीच-बीच में कई बार उनके मुंह से केवल च्-च् की ध्वनि निकलती है, और कई बार इस तरह सुबकती हैं कि शंका होने लगती है, जैसे घर का कोई बन्दा बिना टिकट के यमलोक की यात्रा पर तो नहीं निकल गया. कई स्त्रियां रो-रोकर अपना गला बैठा लेती हैं और कई तो साड़ी के छोर को आंसुओं से इतना भिगो लेती हैं, जिससे बाद में वह अपने चेहरे और हाथों को पोंछ लेती हैं. इससे घर का पानी बचता है और केजरीवाल सरकार को पानी सप्लाई पर ज्यादा सब्सिडी नहीं देनी पड़ती है.
भारतीय दूरदर्शन के घरेलू मनोरंजन चैनलों ने किसी का भला किया हो या न किया हो, कम से-कम भारतीय पतियों को घण्टे-आध घण्टे के लिए, जब तक उनकी पत्नियां धारावाहिक देखती हैं, सुकून और शान्ति के पल अवश्य प्रदान कर दिए; परन्तु इसमें भी एक पेंच है, कई स्त्रियां ऐसे मौकों पर रसोई की कड़छी और चम्मच उनको पकडा़कर कहती हैं, ‘‘जरा सब्जी चला
देना.’’ ‘‘देखना, दाल न जल जाए.’’ ‘‘चावल उबल गया होगा, उतार लेना.’’ पति बेचारा, ऑफिस का थका-हारा, करे तो क्या करे? उसे पता है, किसी और मौके पर वह पत्नी को भले डांट ले, परन्तु इस मौके पर वह पत्नी को डांटने का जोखिम नहीं उठा सकता. रात को भूखे पेट ही नहीं, उसे बाहर खुले बरामदे पर पड़े तख्त पर सोना पड़ सकता है, जिस पर कभी उसके बूढ़े और बीमार पिताजी लेटा करते करते थे और भगवान का नाम लेते हुए मृत्यु नामी देवदूत की प्रतीक्षा करते थे.
कुछ स्त्रियां सास बहू के झगड़ों, साजिशों, मार-पीट और कुत्सित चालों से युक्त धारावाहिकों को देखते समय अत्यन्त अनुशासन का पालन करते हुए अपने पतियों को रसोई के झंझट से भी मुक्ति दे देती है. ऐसे मौके पर वह रसोई में दाल-चावल और सब्जी को बाकायदा धो-पोंछ, काट और नमक-मसाला लगा कर भगोने, कड़ाही आदि में डालकर, चूल्हे को जलाकर चुपचाप सीरियल देखने में व्यस्त हो जाती हैं. सीरियल तो खत्म नहीं हो पाता, परन्तु उसके पहले ही सब्जी कड़ाही में जल-भुनकर खाक होते-होते पूरे घर में कड़वा धुआं भर देती है. वह धुआं भी गृहणी की गीली आंखों को नहीं सुखा पाता. सब्जी को जलता देखकर दाल भी बड़बड़ाने लगती है और चावल भगोने के तले से चिपककर पिटिर-पिटिर करता हुआ अपने को जलाने लगता है. उधर गृहणी धारावाहिक के षड्यन्त्रों से परेशान होकर आंसू बहाती रहती है, इधर रसोई में सब्जी, दाल और चावल आगरूपी दुश्मन से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं.
मैंने पूर्व में कहा है कि ये स्त्रियां जो टी.वी. धारावाहिक देखते समय शान्त और अनुशासित रहती हैं, वह सारा दिन ऐसे ही रहती हों, ऐसा भी नहीं हैं. वह धारावाहिक के पात्रों द्वारा निभायी गई भूमिका के अनुसार वास्तविक जीवन में भी कार्य करने लगती हैं, यथा-सास बहू को प्रताड़ित करती है, तो बहू सास की बुराई पड़ोसन से करती है, ननद भाभी के खिलाफ भाई के कान भरती है, तो देवर भाभी को अपनी धर्मपत्नी समझ कर उसे कमरे में घसीटने लगता है.
हिन्दी धारावाहिकों में एक चीज कमाल की होती है, जिससे हमारे घरों की स्त्रियों ने कोई सीख नहीं ली. टी.वी. धारावाहिकों में काम करने वाली महिलाएं पूरी तरह सज-धजकर, अपने सारे गहने पहनकर युद्ध-क्षेत्र में पदापर्ण करती हैं और बड़े ही अनुशासित ढंग से एक गोल चक्कर में खड़ी होकर वाक्-युद्ध करती हैं. कई बार उनके वाक्-युद्ध में घर के पुरुष भी सम्मिलित हो जाते हैं. सभी एक घेरे में खड़े होते हैं, चाहे उनकी संख्या बीस से अधिक हो. पात्रों के बीच में जब वाक्-युद्ध प्रारंभ होता है, तो एक समय में एक ही पात्र बोलता है, चाहे उसका संवाद पांच-दस मिनट का हो. जब एक पात्र बोलता है, तो बाकी सारे पात्र पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े रहते हैं, उनके चेहरों पर भी कोई भाव परिवर्तन नहीं होता है. जब एक पात्र का संवाद समाप्त हो जाता है, तभी दूसरा पात्र बोलने की हिम्मत जुटा पाता है. अगर ऐसी ही अनुशासित लड़ाई वास्तविक जीवन में हो, तो स्त्रियां कितनी सुन्दर दिखेंगी. परन्तु ऐसा नहीं होता है. वास्तविक जीवन में उन्हें लड़ाई करने के पहले सजने-संवरने का मौका ही नहीं मिलता कई तो पलंग से उठते ही बिना मंजन किए, पड़ोसन से कचरा फेंकने को लेकर लड़ाई करने पहुंच जाती हैं. ऐसे अवसर पर उनकी केशराशि जंगल में उगी लंबी घास की तरह बिखरी होती है और उनका चेहरा रामायण के लंका की किसी राक्षसी की तरह डरावना लगता है. उनके मुखारबिन्द से सुन्दर गालियों के गुच्छे फूलों की तरह हवा में बिखरने लगते हैं और आपको तो पता ही है कि वास्तविक जीवन में लड़ाई करते समय कोई स्त्री दूसरी स्त्री के संवाद समाप्त होने का इंतजार नहीं करती. उसके संवाद एक साथ निकलते हैं और इतने असंबद्ध होते हैं कि उनका अर्थ समझ पाना भगवान श्री गणेश के लिए भी संभव न होगा. मात्र उनकी गालियां ही समझ में आती हैं, बाकी वह क्या कहती हैं, चीख-चिल्लाहट में समझ में ही नहीं आता. सोचिए, जब बड़े परिवार की दस औरतें वास्तविक जीवन में लड़ाई करेंगी, तो क्या दृश्य उत्पन्न होगा. वह केवल वाक्-युद्ध नहीं करेंगी. एक-दो संवादों के पश्चात ही स्थिति मल्ल-युद्ध की उत्पन्न हो जाएगी. तब क्या किसी के शरीर के गहने-कपड़े सुरक्षित रहेंगे. सभी की केशराशियां ऐसे बिखरी होंगी, जैसे सावन की घटाओं ने घर के अन्दर अपना डेरा जमा लिया हो. उनके चेहरों पर इतनी खरोंचें होंगी, कि अगले जनम तक वह आईना देखना भूल जाएंगी, शृंगार करना तो दूर की बात है. अपने सगे पतियों से भी मुंह चुराती फिरेंगी. किसी दूसरी औरत को चुड़ैल कहने से कतराएंगी, कि कहीं वहीं न उनको चुड़ैल की नानी कह दे.
जिस प्रकार से टी.वी. धारावाहिकों में उच्च वर्ग की पढ़ी-लिखी सुन्दर एवं सौन्दर्य प्रसाधनों से युक्त नारियां अनुशासित ढंग से अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन करती हैं और अनोखी रणनीति से अपने प्रतिद्वन्दी को परास्त करती हैं, वैसा वास्तविक जीवन में संभव नहीं है, परन्तु हमारे देश के सांसद और विधायक इससे बहुत अच्छी सीख ले सकते हैं कि संसद या विधान-सभा में कैसे अनुशासन में रहते हुए भी युद्ध किया जा सकता है और ऐसे युद्ध से किसी को चोट लगने या कपड़े फटने का भी भय नहीं रहता है. अभी तो आलम ये है कि हमारे देसी नेता स्कूल बच्चों से भी बुरे युद्ध-कौशल का प्रदर्शन अपने रणक्षेत्र में करते हैं, यथा-बहस करते-करते गालियां देने लगते हैं, ज्यादा उत्तेजित होने पर सामने वाले को धक्का दे देते हैं या बांह मरोड़कर एक-दूसरे के ऊपर कुर्सियां उठाकर फेंकने लगते हैं. किसी का सिर फूटता है, तो किसी के कपड़े फट जाते हैं, परन्तु टी.वी. धारावाहिकों की स्त्रियां पांच-दस साल तक षड्यन्त्र रचती रहती हैं, परन्तु मजाल है कि उनके कपड़ों में धूल का एक कतरा भी पड़ जाए, गहने पहले से अधिक चमकने लगते हैं और उनकी केशराशियां ऐसी कि उनका बाल तक बांका नहीं होता. महाभारत तो अठारह दिन में समाप्त हो गया था. भारत का स्वतंत्रता संग्राम भी पूरे सौ वर्ष नहीं चला था. पानीपत की लड़ाई तो बाबर ने पलक झपकते ही जीत ली थी. इसी प्रकार संसार में अपने प्रभुत्व और जीविका के लिए लड़े जाने वाले युद्ध कुछ ही दिनों में समाप्त हो गए और विजेता योद्धा खून की नदियों में नहाते हुए अपनी जीत का जश्न मनाते थे; परन्तु हमारे धारावाहिकों की घरेलू लड़ाइयां ऐसी हैं कि समाप्त ही नहीं होती. चौबीस घण्टे स्त्रियां एक बड़े से हाल में एकत्र होकर वाक्-युद्ध करती रहती हैं. अक्सर उनके घेरे में पुरुष भी होते हैं, जो बहुत कम बोलते हैं. ऐसे में यह पता ही नहीं चलता कि इन परिवारों के भरण-पोषण के लिए पैसा कहां से आता है? क्या सरकार इनको प्रिवी-पर्स देती है. हांलाकि अब यह बन्द हो गयी है या इनकी आय का कोई गुप्त स्रोत होता है, जो अनवरत इनके घर में पैसा आता रहता है.
इन बड़े-बड़े परिवारों में आमजीवन के सामान्य कार्य भी नहीं होते हैं, मसलन, परिवार का कोई बच्चा स्कूल-कॉलेज जाते हुए नहीं दिखता, पुरुष काम करते हुए नहीं दिखता, स्त्रियां घर को कोई काम नहीं करतीं. घर के काम के लिए कोई बाई भी नहीं आती. ऐसे में समझ में नहीं आता कि इनके दैनिक घरेलू कार्य कैसे सम्पन्न होते हैं.
यह तो मानना ही पड़ेगा कि हिन्दी धारावाहिकों ने हमारे देश की स्त्रियों को रात आठ बजे से लेकर दस बजे तक अनुशासन में रहकर टी.वी. देखना सिखा दिया. इस दौरान घर में पूर्ण शान्ति विराजमान रहती है, परन्तु इसके कारण रसोईघर में खाना जलने और बर्बाद होने के सुअवसर बढ़ गये हैं, जिससे कई बार घर के सदस्यों को पिज्जा और बर्गर से संतोष करना पड़ता है या फिर जली-भुनी बातों के साथ जला-भुना खाना खाना पड़ता है.
धारावाहिकों की तरह वास्तविक जीवन में ऐसे घरेलू युद्ध संभव नहीं हैं, परन्तु सीरियल निर्माताओं से मेरा निवेदन है कि वे अपने धारावाहिकों में स्त्रियों को कुछ काम करते हुए दिखाएं, जिससे हमारे देश की महिलाएं कुछ कर्मठ बन सकें. वैसे सरकारी नौकरी में आने के बाद वह इतनी कर्मठ तो हो ही गयी हैं कि कार्यालय में हाजिरी रजिस्टर में दस्तखत करना सीख गयी हैं. थोड़ी देर बैठकर अखबार भी पढ़ लेती हैं और दफ्तर की अन्य स्त्रियों के साथ बैठकर गप्पें मारते हुए सब्जी, दाल, चावल आदि के भाव भी पता कर लेती हैं. सरकारी काम के नाम पर वह केवल बहाने बनाती हैं. घर से लेट आना उनकी फितरत है, क्योंकि बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजने का खूबसूरत बहाना उनके पास होता है और फिर शाम को जल्दी घर जाने के लिए कहती हैं, ‘‘बच्चे स्कूल से आ गये होंगे. उनकी देखभाल करनेवाला घर में कोई और नहीं है. वे भूखे होंगे.’’ ऐसे में किस बॉस की हिम्मत है जो किसी महिला को शाम छः बजे तक दफ्तर में रोक कर काम करवा सके. वरना आपको पता ही है कि आजकल यौन-शोषण का कानून कितना सख्त हो गया है. आपकी गुस्से भरी नजर बुरी नजर बन जाती है और डांट-फटकार को प्रेम-निवेदन में बदलने में देर नहीं लगती. इसके आगे तरुण तेजपाल का मामला आपको मालूम ही है.
खैर, मुझे खुशी है कि हमारे देश की स्त्रियां टी.वी. धारावाहिक देख-देखकर कुछ हद तक अनुशासित हो गयी हैं. जिनको धारावाहिक देखने का अवसर उपलब्ध नहीं होता, वह भी अपने ढंग से अनुशासन में रहते हुए अपने सुकार्यों को सम्पन्न में अपना योगदान दे रही हैं. उन्होंने अपने पतियों को भी अनुशासन में रहना सिखा दिया है, वरना वह सभी आज आवारा सांड़ों की तरह गली-कूचों में प्लास्टिक की पन्नियां चबा रहे होते. नारी शक्ति की जय!
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