29 अगस्त खेल दिवस पर विशेष मजबूत खेल संस्कृति लौटा सकती है खोई प्रतिष्ठा ० खेलों में पनप रहा भेदभाव उचित नहीं डॉ. सूर्यकांत मिश्रा अंतर्र...
29 अगस्त खेल दिवस पर विशेष
मजबूत खेल संस्कृति लौटा सकती है खोई प्रतिष्ठा
० खेलों में पनप रहा भेदभाव उचित नहीं
डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलों की दुनिया में हमारा प्रदर्शन संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। ईमानदारी और गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो खेलो मे उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए सुविकसित खेल प्रणाली का होना जरूरी है। कभी हम राष्ट्रीय खेल हॉकी के लिए विश्व भर में जाने जाते है। इतना ही नहीं पूरे विश्व को हॉकी खेलना हमने ही सिखाया और अब खुद अपने ही राष्ट्रीय खेल में ओलंपिक और विश्व कप के लिए क्वालीफाई करने जद्दोजहद करते देखे जा रहे है। हमने अब तक वैश्विक स्तर पर खेलों में यदि प्रभावी पहचान नहीं बनाई, तो इसके पीछे हमारे देश में खेल संस्कृति का न होना ही रहा है। हमारे देश में खेल प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, किंतु खेल संस्कृति के अभाव में न तो उन्हें आगे बढ़ने का अवसर मिल पा रहा है और न ही एक अच्छा मुकाम। अन्य देशों की तुलना में हमारे देश के खिलाड़ियों को सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही है। इन्हीं सब कमियों का परिणाम खेलों के पिछड़ेपन के रूप में हमारे सामने आ रहा है। ओलंपिक और विश्व कप जैसे खेलों में प्रायः व्यंग्य कसा जाता है कि सवा अरब की जनसंख्या वाला हमारा देश महज ही 2-3 स्वर्ण पदक ही सीमित रह जाता है, जबकि हमसे अथवा हमारे प्रदेशों से भी कम जनसंख्या वाले देश बोरी भरकर स्वर्ण ले जाते है।
वैश्विक स्तर पर खेलों के मैदान में हमारा प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है। देखा जाए तो खेलों के हर क्षेत्र में स्तर पर खेल संस्कृति का अभाव ही हमारे पिछड़े होने का मुख्य कारण रहा है। सवाल यह उठता है कि सामाजिक रूप से संगठित और संचार तकनीक से सुसज्जित हमारे देश के नौजवान एक उच्च स्तरीय खेल संस्कृति को आत्मसात करने आगे क्यों नहीं आ पा रहे है? यदि हम यह कहे कि हमारे देश के अधिकांश प्रदेशों में व्याप्त निर्धनता इसका मुख्य कारण है, तो शासकीय स्तर पर नीति नियंताओें ने खेल संस्कृति के विकास के लिए कितने ईमानदार प्रयास किये है? यह भी देखने वाली बात है। खेलों की संस्कृति को सभ्यता, विकास की कड़ी के रूप में देखा जाता रहा है। फिर सार्वजनिक व कार्पोरेट सेक्टर ने इसे कितना और कैसा समझा? यह भी एक बड़ा सवाल है। खेल ही एक ऐसे आयेाजन है, जो पनप रही क्षेत्रीयता का भावना को समाप्त कर सकते है। इससे आपसी भाईचारा बढ़ता है और सहयोग की भावना में वृद्धि होती है। अंतर्राष्ष्ट्रीय जीत हासिल करने से नागरिकों में राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद का संचार होता है।
हमारे देश के खेल इतिहास के वर्तमान परिदृश्य पर नजर डाले तो निराशा के गहरे कुहासे के बीच कुछ उम्मीद की किरणें दिखाई पड़ती है। बिंदुवार खेलों की बात करें तो निःसंदेह क्रिकेट वर्तमान में सबसे लोकप्रिय खेल बन चुका है। क्रिकेट से जुड़ी आधारभूत सुविधाओं का विस्तार एवं विकास काफी तेजी से किया गया और जरूरत के हिसाब से किया भी किया जा रहा है। गौरतलब बात है कि बीसीसीआई दुनिया का सबसे शक्तिशाली और समृद्ध बोर्ड बन चुका है। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर क्रिकेट की नामी गिरामी देशों की टीमों का प्रतिनिधित्व करने वाले सेवानिवृत्त क्रिकेटर भारतीय क्रिकेट टीम को कोच के रूप में सेवाएं देने तत्पर रहते है। वर्तमान समय में क्रिकेट आईपीएल संस्करण ने स्पाट फिक्सिंग का मामला भी जोरों से उठा है। इतना ही नहीं अनेक क्रिकेटरों को सजा के तौर पर मैदान के बाहर भी रहना पड़ृ रहा है। इस प्रकार के भ्रष्टाचार के मामलों ने खेलों की विश्वसनीयता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। ऐसे ही मैच फिक्सिंग के चलते खेल संस्कृति का विकास का क्षरण ज्यादा हुआ है।
हमारे प्रदेश की सरकारों ने खेलों को विशेष तरजीह नहीं दी है। 70 और 80 के दशक में जहां हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ियों को रेल्वे से लेकर बैंक, आर्मी और स्टील तथा नामी सीमेंट तथा अन्य उत्पादक कंपनियां हाथों हाथ लेकर अपने यहां सेवा का अवसर दिया करती थी, अब ऐसा नहीं हो रहा है। राष्टीय खिलाड़ी तो दूर अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी भी भरण पोषण के लिए तरस रहे है। इन्हीं सारे कारणों के चलते हमारे राष्ट्रीय हॉकी की दुर्दशा विश्व में किसी से छिपी नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो हमारे देश की हॉकी टीम ओलंपिक और विश्व कप के नजरिये में निचले क्रम में पड़ी दिखाई देती है। इसी तरह महिला हॉकी टीम भी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। अनेक ऐसे अवसर आते है, जब हम शर्म से पानी पानी हो जाते है, क्योंकि हमारी पुरूष और महिला हॉकी टीम विश्व कप के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पाती।
हमने अपने राष्ट्रीय खेल के साथ ही अन्य खेलों फुटबाल, व्हालीबाल, वॉटर पोलो तथा टेनिस आदि में भी कोई विशेष उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए है। खिलाड़ियों के पारिवारिक पालन पोषण से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा और उच्च स्तरीय प्रशिक्षण की सही व्यवस्था न हो पाना ही हमारे खेलों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण माना जा सकता है।
हमारे देश में खेल संस्कृति के न पनप पाने के कई कारण है। एक ओर जहां खेल समितियों एवं प्रतिष्ठानों में भ्रष्टाचार का बोल बाला है। वहीं दूसरी ओर भाई भतीजावाद व क्षेत्रवाद से भी हम अछूते नहीं है। भेदभाव व पक्षपात खेलों में अपना असर दिखाई रहा है। परिणाम स्वरूप वास्तविक प्रतिभाएं या तो हाशिए में चली जाती है या फिर उन्हें मौका ही नहीं मिल पाता है। खेलों की कमान उन्हें सौंपी जती है, जिनके पास उच्च स्तरीय रसूखदारी होती है। स्वभाविक है प्रदर्शन पर इस भेदभाव का नकारात्मक असर सामने आता रहा है। जिन खेल संघों समितियों व संस्थाओं की बागडोर तपे हुए खिलाड़ियों के हाथ में होनी चाहिए, वह भी नौकरशाहों और राजनेताओ के कंधों पर टिका दी जाती है, जिन्हें न तो खेलों का क, ख, ग, घ आता है और न ही वे खेलों की आत्मा को ही समझ पाते है। एक उचित खेल संस्कृति के अभाव में ही हम इस प्रकार की व्यवस्था के शिकार हो रहे है। अभी स्थिति इतनी भी नहीं बिगड़ी है कि उससे उबरा न जा सके। अदम्य उत्साह, साफ नियत और दृढ़ इच्छा शक्ति से हमारे देश में श्रेष्ठ खेल संस्कृति की स्थापना की जा सकती है।
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(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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