"तेरा तुझको अर्पण" को मेरे हृदय-सुमन समर्पण

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-दिनेश कुमार माली कवयित्री परिचय :- डॉ. प्रभा पंत राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी में विगत 16 वर्षों से स्नातक एवं स्नातकोत्तर ...

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-दिनेश कुमार माली

कवयित्री परिचय :-

डॉ. प्रभा पंत राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी में विगत 16 वर्षों से स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं में अविरल हिंदी विषय के अध्यापन कार्य में रत हैं तथा अपने शोध-निर्देशन में अनेक छात्रों को पी.एच.डी. करवा चुकी हैं।बाल-मनोविज्ञान, बाल-साहित्य एवं नारी-विमर्शपरक शोध-पत्रों के प्रकाशन के साथ-साथ अनेक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आपके शोध-पत्र, संस्मरण, जीवनी, आलेख, पुस्तक-समीक्षा, कविताएं और कहानियां प्रकाशित होती रही हैं। इसके अतिरिक्त, अनेकानेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से आपको नवाजा जा चुका है तथा आकाशवाणी रामपुर तथा अल्मोड़ा एवं दूरदर्शन,लखनऊ से आपकी फिल्म-समीक्षाएं, पत्रोत्तर, वार्ताएं, नाटक, कविता-पाठ व कहानियां प्रसारित होती रही है। आपकी प्रकाशित रचनाओं में प्रमुख 'कुमाऊंनी लोक कथाएं',‘तेरा तुमको अर्पण(कविता-संग्रह), 'फांस'(कहानी संग्रह),'मैं' (कविता-संग्रह),'बच्चे मन के सच्चे'(बाल-कविता संग्रह) व उत्तराखंड की लोक कथाएं हैं। आप लगातार हिंदी एवं कुमाऊंनी भाषा में लिख रही हैं।

कविता-संग्रह "तेरा तुझको अर्पण" :-

डॉ. प्रभा पंत का काव्य संग्रह ‘तेरा तुझको अर्पण’ सन 2006 में मनीष प्रकाशन, अल्मोड़ा से प्रकाशित हुआ,जो अपनी ब्रह्मविलीन दादी श्रद्धेय भागीरथी देवी को समर्पित किया गया है। इस कविता-संग्रह में कवयित्री ने पांच खंडों जैसे आध्यात्म दर्शन,शिव शक्ति,दीप-दर्पण,प्रेम-प्रतीक्षा और इंद्रधनुष में अपनी काव्यानुभूतियों को अभिव्यक्त किया है। इन कविताओं का जन्म उनकी भावोद्रेक की स्थितियों में हुआ है,कभी व्याकुलता तो,कभी उदासी तो कभी प्रसन्नचित्त। कभी रोते हुए तो कभी मुस्कराते हुए अपने हृदयोद्गारों को भावपूर्ण अपनी लेखनी से उकेरे हैं। कभी-कभी तो उनकी कविताओं में ऐसा भी लगता है कि शायद किसी अदृश्य शक्ति ने अर्धरात्रि में अर्धचेतनावस्था में कविता लिखने के लिए उन्हें प्रेरित किया हो।

डॉ॰ प्रभापन्त की कविताओं में, पता नहीं, ऐसा क्या आकर्षण था कि अक्सर रात को सोते समय बार-बार मैं उनकी कविताओं को पढ़ता था और मुझे लगता था कि उन कविताओं के प्रभाव से मुझे अच्छी नींद आएगी। बचपन में मुझे पिताजी कहा करते थे कि सोते समय कम से कम एक सौ आठ बार गायत्री मंत्र का जाप करके सोने से चित्त शांत होता है और गहरी नींद आती है।इसके पीछे क्या कारण होंगे,मुझे मालूम नहीं? 'न जानामि योगं जप नैव पूजा' वाली अवस्था थी मेरी। न तो मुझे तब तक गायत्री मंत्र का अर्थ मालूम था और न ही उस मंत्रोच्चारण से अन्तःकरण पर पड़ने वाले प्रभाव की जानकारी थी। किसी मंत्र में ऐसी क्या वैज्ञानिक या आध्यात्मिक शक्ति हो सकती है कि उसके उच्चारण से मन शिथिल होता है और साधक निद्रावस्था या तुरीयावस्था को प्राप्त कर लेता है? मेरा विद्रोही मन इस बात की कभी गवाही नहीं देता था कि जब 'शक्कर-शक्कर' बोलने से मुंह मीठा नहीं हो सकता है तो कोई भी मंत्र या बीज-मंत्र बोलने से गहरी नींद कैसे आ सकती है ? क्या विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है ? मगर प्रभापन्तजी की कविताओं ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्दों में शक्ति होती है और इस बात का प्रमाण भी प्रस्तुत किया कि उन कविताओं के पढ़ने के बाद आदमी एक दूसरी दुनिया में प्रवेश कर लेता है, जहां वैचारिक तरंगों के सिवाय कुछ भी नहीं होता।

प्रभाजी के कविता-संग्रह की प्रारम्भिक कवितायें मुझे अतीत के बचपन के दिनों की ओर खींची ले जाती है,जब मैं सोचा करता था, आकाश के ऊपर स्वर्ग है और धरती के नीचे पाताल। उस स्वर्ग में देवी-देवता रहते हैं और पाताल में नाग व राक्षस। भले ही, बचपन के इस दृष्टिकोण में वैज्ञानिक तर्क का अभाव था, मगर कल्पना की तीव्र उड़ान भरते घोड़ों को कोई रोक सकता है ?  वे दिन  अभी भी अच्छी तरह याद हैं, जब मन कहता था सृष्टि के कण-कण में ईश्वर है तभी तो नृसिंह अवतार ने खंभा फाड़ कर प्रह्लाद की रक्षा के लिए उसके पिता हिरण्यकशिपु का वध किया था। कितनी डरावनी व लोमहर्षक लगती थी दूरदर्शन पर आने वाली भक्त प्रह्लाद व राजा हरिश्चंद्र की फिल्म उन दिनों! बचपन में देखे हुए ये दोनों चरित्र मेरे स्मृति-पटल पर ऐसे छाए हुए हैं कि आज भी सृष्टि के प्रादुर्भाव से संबन्धित सभी तत्त्वों के गवेषणा तथा उसके नियंता के बारे कल्पना अपने आप अध्यात्म की ओर ले जाती है,जहां से किसी भी रहस्यमयी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। सभी अनुत्तरित। जन्म क्यों होता है ? मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं? भगवान रहता कहाँ है? अन्तरिक्ष का ओर-छोर है भी या नहीं ? नाखून क्यों बढ़ते है ? फूल क्यों खिलते हैं? मन, अन्तःकरण, आत्मा व परमात्मा में क्या फर्क है? पता नहीं,ऐसे कितने सवाल होंगे जिनका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। शायद वही वजह रही होगी कि आध्यात्म-दर्शन पर आधारित कवयित्री की कविताएं वैदिक ऋचाओं, गायत्री-मंत्र, स्वस्ति-वाचन, ईश्वरोपासना स्तुति-मंत्र, महामृत्युंजय-मंत्र की तरह एक मेरे अंतस् में एक अलौकिक प्रभाव पैदा करती है, तभी तो सोते समय इन कविताओं को पढ़ने से मेरे चित पर अनोखी शांति छाने लगती है और मैं कविताओं के तत्काल प्रभाव से गहरी नींद के आगोश में खोता चला जाता हूँ। आखिरकार ऐसी इन कविताओं में विशेषता क्या है? मैंने पाँच खंडों में उनका विश्लेषण करने की चेष्टा की है,आशा करता हूँ कि यह समीक्षा हिन्दी जगत के पाठकों को पसंद आएगी।

प्रथम खंड: आध्यात्म-दर्शन :-

‘आध्यात्म-दर्शन’ वाले प्रथम खंड में ‘तेरा तुझको अर्पण’,‘नेत्र कलश’,‘कौन है तू ?’'निराकार साकार हो’,‘मेरे प्रियतम’,‘मानस-हंस’,‘कबूल मैं उसे’, ‘दीवानगी’ और ‘हकीकत’ जैसी कविताएं हैं। ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि, अजर, अमर, निर्विकार, अनंत, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वांतर्यामी, नित्य व सच्चिदानंदस्वरूप की विचारधारा को अपनी कविता ‘तेरा तुझको अर्पण’ में कवयित्री ने दर्शाया है। भगवत् गीता के अनुसार अगर भगवान को पाना है तो सिर्फ पूजा से काम नहीं चलेगा। शुकदेव महाराज ने राजा परीक्षित को भागवत कथा के दौरान भगवान को जानने से पहले अपने आप को जानने की तमाम चीजों का बोध कराया था,ठीक उसी तरह ‘हर सांस में हो सुमिरन तेरा’,‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ भजन की पंक्तियों की तर्ज पर अपनी कविता में ईश्वर को बीज,मेघ,पुष्प,राधा आदि भावों में अपने तन-मन के स्पंदनों द्वारा स्नेह-दीप प्रज्ज्वलित कर सारी ईश्वरीय चीजों को ईश्वर को ही समर्पित करने की प्रखर भावना अभिव्यक्त की है।

पहली कविता 'तेरा तुझको अर्पण' में कवयित्री उस 'तुझको' की तलाश में ध्यान-मग्न हैं, जो ऐसे सर्वव्यापी है और ऐसे कहीं भी नहीं है। उस ईश्वरीय सत्ता को अनुभव करने वालों ने अपनी सूक्ष्म-अन्वेषण दृष्टि से समस्त निर्जीव-सजीव प्राणियों के साम्राज्यों में,धरती पर अंकुरित होते बीजों में, पल्लवित होते पुष्पों में,आकाश से बरसते बादलों में अपनी महीन अनुभूति से अनुसंधान किया है। इस कविता में द्वैतवाद की भी झलक मिलती है,आत्मा और परमात्मा के विभेद की। उदाहरण के तौर पर कवयित्री का तर्क है कि अगर पुष्प में परमात्मा की सत्ता है, तो तितली में जीवात्मा की। तभी वह कहती है:-

तितली बन तुझ पर रीझती कभी

भ्रामरी तुझे सुनाती मैं।

पंछी बन डोलूँ, डाली-डाली कभी

गीत मधुर गुनगुनाती मैं।

परंतु जब जीवात्मा में अज्ञान का पर्दा हट जाता है तो विशुद्ध भाव से वह परमात्मा को प्रेम करने लगता है। कवयित्री पुष्प में परमात्मा को तलाशती है और उन्हीं फूलों को लेकर ईश्वर को समर्पित कर देती है। गीता में भी कहा गया है,"पत्रम पुष्पम फलम तोयम" को भगवान स्वीकार करते हैं।तभी  वह आश्वस्त भाव से कहना चाहती है,तेरा तुझको अर्पण।

मालिन बन बगिया से चुनती तुझे

आंचल में अपने छिपाती हूँ मैं

प्रीत के धागों से गूँथ कर तुझे

तुझको ही अर्पित करती हूँ मैं

इसी तरह उस सार्वभौम सत्ता को कवयित्री कभी शिशु,पिता,प्रियतम,राधा-कृष्ण में खोजने लगती है और जीवात्मा को जननी और प्रियतमा के नाम से संबोधित कर परमात्मा से जीवात्मा के "मामैवांशों" संबंध को उजागर करते हुए कृष्ण और राधा के भेद को स्पष्ट करती है। आगे चल कर वह यह भी साफ़गोई से स्पष्ट करती है कि परमात्मा को हम दे भी क्या सकते हैं, जिसने सारी सृष्टि का निर्माण किया है, उसे खुश करने के लिए क्या अर्पित किया जा सकता है? कुछ भी नहीं, प्रेम-पूरित आँखों के झरते आंसुओं तथा उस सत्ता के अनवरत स्मरण के सिवाय। एक बहुत बड़ी बात कवियत्री ने सामने रखी है,जिसे कभी विवेकानंद ने भी कहा था कि हमारा शरीर एक जीता-जागता मंदिर है, उसमें ही साक्षात ईश्वर का निवास है। कवयित्री का दर्शन भी कुछ ऐसा ही है,

''पुष्प बने अधर-.स्मित मेरे

तन मन, स्पंदन सभी तेरे।

स्नेह-दीप प्रज्ज्वलित करूँ

तेरा तुझको ही समर्पित करूँ।''

अंतिम पंक्ति ने मेरा ध्यान अद्वैतवाद की ओर आकर्षित किया अर्थात 'अहम् ब्रह्मास्मि'(मैं ही ब्रह्म हूँ अर्थात जीवात्मा ही परमात्मा है।) अतः जीवात्मा की सारी चीजें परमात्मा की ही है अतः भक्ति-प्राचुर्य से भरा हुआ दिल ही इतने बड़े कथन "तेरा तुझको ही समर्पित करूं" को कहने का साहस कर सकता है। अंत में,इस कविता के बारे में इतना कहना चाहूँगा कि इस कविता की प्रत्येक पंक्ति ईश्वर  के प्रति न केवल अपनी श्रद्धा व समर्पण की भावना की परिचय देती है,वरन द्वैतवाद, अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैताद्वैतवाद.के उलझे अनेकानेक रहस्यों पर से भी पर्दा हटाती है। इतने गहरे दर्शन को पंक्तियों में बांधकर कविता का रूप देना वैदिक समाज के प्रबुद्ध विचारकों  द्वारा लिपिबद्ध की गई शास्त्र-संहिताओं से कम नहीं है।मगर यह कविता भक्तिकाल के कवियों की भांति कई अनसुलझे  प्रश्न हमारे समझ छोड़ जाती है।

'नेत्र कलश' कविता में कवयित्री ने अपने आप को कलुषित पाषाण को टुकड़ा बताया है जबकि  ईश्वर को उसे गढ़ने और तराशने वाला कारीगर। जिस तरह एक कारीगर छैनी-हथौड़े की सहायता से व्यर्थ पाषाण खंड को तराश कर सुंदर-सी मूर्ति में तब्दील कर देता है, ठीक वैसे ही वह प्रभु से यह प्रार्थना करती है कि वह अपने मृदुल कर-स्पर्श से  दुख-पीड़ा की  छैनी-हथौड़े की मार से धीरे-धीरे उसे तराश लें। कविता ‘नेत्र कलश’ में प्रभु से मानव जीवन संवारने की विनती की गई है:-

मैं कलुषित पाषाण-खंड

दुख पीड़ा छैनी-हथौड़े।

अपने मृदुल कर-स्पर्श से

तराश मुझे प्रभु हौले-हौले।

कवयित्री ने बहुत ही सुंदर शब्द प्रयुक्त किए हैं यहाँ, 'छैनी-हथौड़े'। किस तरह के छैनी-हथौड़े हो सकते है? दुख,दर्द,पीड़ा,यातना,भय,मृत्यु,बीमारी,प्राकृतिक आपदाएँ-विपदाएं बहुत-कुछ। ये सब क्या छैनी हथौड़े नहीं है? जीवन में अगर इन चीजों का अभाव हो तो क्या वह जीवन तराशा हुआ माना जाएगा? कभी नहीं। एक तराशे हुए जीवन के लिए इन चीजों की चोट अथवा आघात अत्यंत ही जरूरी है,मगर हौले-हौले मृदुल कर-स्पर्श के साथ। कवयित्री ईश्वर से कहना चाहती है कि यह आघात अचानक नहीं होना चाहिए और न ही लंबे समय तक लगातार। ईश्वर से प्रीति के माध्यम खोजने के लिए कवयित्री 'त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव" प्रार्थना की पुनरावृत्ति करती हुई समर्पण भाव से यह कहती है कि तुम ही तो मेरे माँ-बाप हो और मैं तुम्हारी अबोध बालिका किस तरह तुम्हें रिझाऊँ, सखी बनकर या दासी बन कर ? दोनों सखा और दास्य भाव यहाँ अभिव्यक्त किए गए हैं, मगर कवयित्री के दृष्टिकोण में सखा-भाव ज्यादा बेहतर है तभी प्रेम-पीड़ा की मार्मिक अनुभूतियों को व्याकुलता से उन्होंने प्रकट किया है :-

पीड़ा, प्रीत प्रतीत होती

जब भी तुझे स्मृत कर रोती

अश्रुओं के पावन निर्झर में

अन्तः व्याप्त कलुष मैं धोती।

व्याकुलता भी इतनी कि आँखों से आंसुओं की झड़ी लग जाए और उन आंसुओं के प्रवाह में भीतर के सारे मैल धूल जाते हैं,इसीलिए कवयित्री ने अपनी इच्छा जाहिर की है कि हे ईश्वर! तू जितना भी दुख देना चाहे,दे देना, मगर एक पल के लिए भी मुझे अपने से जुदा मत कर देना, मेरे नेत्र कलशों को प्रेम-भक्ति से इतना भर देना। यह प्रेम देहातीत है, देह से बहुत दूर एक विशुद्ध प्रेम 'कृष्ण राधा' या 'कृष्ण मीरा'की तरह। दूसरे शब्दों में, प्रेम की अनुभूति ही मनुष्य जीवन की एक उपलब्धि और प्रमुख लक्ष्य है। जबकि मनुष्य वासनाओं के इर्द-गिर्द उन्हें प्रेम समझकर भटकता है, मगर क्या वह सच्चा-प्रेम होता है? सच्चे प्रेम के लिए हर समय आपके नेत्र-कलश अश्रुल रहेंगे और वह व्याकुलता हमेशा उस भक्त की तरह बनी रहेगी, जो अपने कलुषों को मिटाकर ईश्वर-प्राप्ति के लिए जन्म-जन्मांतर से तपस्या करता हुआ अपने अन्तःकरण तथा बाह्यकरण  का शुद्धिकरण चाहता है। यह तड़प ही एक पीड़ा जो जन्म देती है, जो धीरे-धीरे आत्म-चेतना की उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगती है। इतने .गूढ़ार्थ वाली दार्शनिक कविताओं में उस सत्य का आभास होता है, जिस सत्य को पाने के लिए कभी महावीर जैन, गौतम बुद्ध ने अपना घर त्याग दिया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 'दुनिया दुखों की नगरी है,दुखों का कारण वासनाएँ हैं। वासनाओं को दूर करके दुखों को दूर किया जा सकता है।' आखिरकार वासना है क्या ? एक अंतरकलुष ही तो है। जिस प्रकार दर्पण पर जमी धूल हटने पर ही अपनी सही छबि देखी जा सकती है,ठीक वैसे ही भीतरी मैल का आवरण साफ होने के बाद आत्मा में परमात्मा के दर्शन किए जा सकते है।

‘कौन है तू ?’,‘कहां है तू ?’,‘निराकार साकार हो!’ आदि आध्यात्मिक चेतना से ओत-प्रोत रहस्यवादी कविताओं में सृष्टि को संचालित करने वाली शक्ति से कवयित्री ने कुछ अनुत्तरित सवाल पूछने के साथ-साथ अपनी जिज्ञासा को मूर्तरूप देने के लिए उसे अपने रहस्य से पर्दाफाश करने का आवाहन भी किया है।

''कौन है तू ?'' कविता में कवयित्री ने उस सवाल को दोहराया है, जो  डेढ़ सौ साल पूर्व स्वामी दयानन्द  सरस्वती के बंद दरवाजा खटखटाने पर अपने जन्मांध गुरु स्वामी विरजानंद सरस्वती द्वारा किए गए सवाल,''कौन है तू ?'' का जवाब दिया था,यह कहकर कि अगर इसका उत्तर मुझे मालूम होता तो मैं इधर-उधर क्यों भटकता,यह जानने के लिए ही तो मैं आपके पास आया हूँ,आपकी शरण में। भले ही,सवाल दिखने में बहुत छोटा प्रतीत हो रहा हो, मगर इस प्रश्न के वलय में आज भी कई अनसुलझे सवालों की छाया नजर आती है,जो अभी भी अपने भीतर सृष्टि के असंख्य रहस्यों को छुपाकर रखी हैं। ऐसे ही अनेकानेक रहस्यों की गुत्थियों को सुलझाते-सुलझाते कवयित्री की तार्किक बुद्धि जागृत हो उठी है,वह न केवल अपने से वरन हम सभी से यह पूछना चाहती है, जैसे पहला सवाल, प्राण-रहित पत्थर को देवता के रूप में पूजा जाता है,जबकि प्राण सहित मनुष्य को निकृष्ट क्यों गिना जाता है?दूसरा सवाल, उस तत्त्व का नाम बताइए जो अपने स्पंदनों के माध्यम से प्रतिक्षण जीवित होने का अहसास करवाता है? जैसे हृदय निस्पंद हुआ, वैसे ही सारी देह निष्क्रिय।'कौन है तू ?’ कविता से :-

कौन है ? है कैसा ?

जो न हो जब

हो जाएगा निष्क्रिय

तब शरीर हमारा।

ये सारे दृश्य प्रतिफल अपने जीवन में देखने,सुनने व समझने को मिलते अवश्य है, फिर भी आदमी अपने आप को अमर समझकर दुनिया पर काबू पाने की चेष्टा क्यों करता है? क्या वह नहीं जानता कि वह शरीर नहीं है, बल्कि शरीरी अर्थात आत्मा है। तब विकारी तत्त्वों पर निर्मित इस तुच्छ आशियाने पर इतना गर्व क्यों?

क्या जिस्म है तू ? या

रूह का आशियाना है तू ? या

रूह का आशियाना है जिस्म?

गर लगता है, आशियां तुझे

उजड़ने से डरता है क्यों ?

गीता-दर्शन भी इस बात को दोहराता है कि यह शरीर मिथ्या है,असत है तभी तो इसका विनाश होता है,इसमें प्रतिपल विकार होते हैं और यह शरीर सुख-दुख का भोक्ता बनता है। मगर 'रूह' 'आत्मा' तो अनादि काल से विद्यमान है, जो अविकारी है, अविनाशी है। कहने का अर्थ यह है कि गीता जैसे उच्च-कोटि के दर्शन-शास्त्र के सार-तत्त्व को अपने भीतर आत्मसात कर लेखिका ने 'सार-सार को गही रहे, थोड़ा देई उडाय' उक्ति को पूरी तरह से चरितार्थ किया है। एक बहुत बड़ा प्रश्न इस कविता में फिलॉसफर कवयित्री ने पाठकों के सामने रखा है कि रूह के आशियाने के उजड़ जाने का डर क्यों लगता है? मृत्यु से भय? भले ही, गीता के श्लोकों 'अशोच्यान शोचत्वम प्रज्ञावादान्श्च भाषसे, गतासूनगतासूंश्च नानू शोचंति पंडिता'' (मृत्यु की पंडित लोग चिंता नहीं करते हैं।) तथा  "अजो नित्य अयम शाश्वतोयम", "न हन्यते हन्यमाने शरीरे।"'( आत्मा अमर है,शाश्वत है,दिव्य है। आशियाना  खत्म होने पर भी इसका विनाश नहीं होता है।) की तरह यहाँ कवयित्री भी ऐसा ही सोचती है कि है "ये जहान महज/ खुली आँखों का ख्वाब/ बंद होते ही बदल जाएगा।'' मगर यहाँ मेरा मन फिर से विरोध करने लगता है और अपने आप से एक सवाल पूछता है कि यह शरीर भी तो ईश्वर की ही देन है और जब  एक बार वह पंचतत्त्वों में विलीन हो जाता है तो फिर ऐसा ही शरीर देखने को कहीं से मिलेगा ? ओशो ठीक कहते है कि आत्मा के लिए भले ही आप मत रोओ,मगर छ फीट का यह शरीर खत्म होने के बाद फिर इस सृष्टि में फिर आएगा? वह शरीर कहीं और देखने को मिलेगा? नहीं मिलेगा।अतः उस शरीर के लिए भी रोना स्वाभाविक है। गीता कहती है कि शरीर के खोने पर मत रोओ, मगर ओशो कहते है रोओ। दोनों में उत्तर-दक्षिण का विरोधाभास! चार्वाक भी तो ऐसा ही कुछ कहता है,

यावत जीवेत सुखेम जीवेत ऋणमकृतम घृतम पीबेत ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत:।।

'जब तक जियो सुख से जियो,उधर करके घी पियो' वाला चार्वाक का अनात्म-दर्शन शरीर की भौतिक अवस्था पर विशेष बल देता है। पाठक ही बताए, आत्मा अपने साथ क्या ले जाएगी? पाँच कोष,तीन शरीर और अनंत संस्कार-बिन्दु? शरीर की प्रकृति  अनुभवजन्य हैं, मगर आत्मा की ? न तो वह दिखती है और न ही प्रकृति के सापेक्ष परिवर्तनशील नजर आती है। अतः आशियाना टूटने का डर तो बराबर बना रहेगा, भले ही, पलक झपकते ही दूसरा नया आशियाना क्यों न मिल जाए। आध्यात्मिक धरातल पर उपनिषदों के सारगर्भित संदेश कवयित्री की कविताओं में साफ नजर आते है। वे संदेश जिनका विश्लेषण करने के लिए ऋषि-मुनि हिमालय की तराई अथवा कन्दराओं के एकांतवास में अपने भीतर अपना अनुसंधान करने में लीन होते हैं। कभी-कभी मुझे इन सवालों से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि कवयित्री,हो-न-हो,पूर्व जन्म में ब्रह्मज्ञानी ऋषि मुनि रही होगी। जिन सवालों का जवाब वह उस जन्म में पा नहीं सकी, एक जिज्ञासु भक्त की तरह इस जन्म में वह उन शोध-कार्य कर मानव-जन्म का उद्देश्य सार्थक करने आई है।

''कहाँ है तू'' कविता में फिर एक रहस्यमयी प्रश्न सामने रखा है कवयित्री ने, ईश्वर के निवास- स्थान के बारे में। ईश्वर रहते कहाँ पर है?

देखा नहीं महसूस किया हैं मैंने

अदृश्य हाथों से थामा है तूने

यत्र-तत्र –सर्वत्र है तू ही तू

किन्तु,है कौन? कैसा? कहाँ है तू ?’

आज तक इस प्रश्न का मूर्तरूप से किसी ने शायद ही सही उत्तर दिया होगा। किसी ने कहा कि जैसे ईख में रस व्याप्त है, ऐसे ही ईश्वर भी सृष्टि के कोने-कोने में व्याप्त है अर्थात वह सर्वव्यापी है। अंतघट में भी, बाह्यघट में भी। किसी ने कहा कि जिस तरह बिजली दिखाई नहीं देती है मगर स्विच ऑन करते ही उसके अस्तित्व का आभास हो जाता है। इसी तरह ईश्वर अदृश्य है, निराकार है मगर यह यम,नियम,ध्यान-धारणा के माध्यम से उस ईश्वर के स्थान का पता लगाया जा सकता है। कबीर ने कहा, "कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूंढ़े वन माही।" ईश्वर तो हमारे शरीर के अंदर ही है तभी तो कबीर दास आगे कहते हैं :-

न मैं मंदिर, न मैं मस्जिद

न काबे कैलाश में

खोजी होई तो तुरंत मिलियों

इन साँसों की सांस में

जिस तरह कबीर ने सांस में ईश्वर का निवास स्थान बताया है, उसी तरह कवयित्री में एक सच्चे साधक की तरह ईश्वर के निवास स्थान के बारे में अनेक सवाल अपने अन्तर्मन में उठे हैं :-

रक्त है तू या है श्वास

भूख है तू, या है प्यास ?

त्रिकुटी में या स्थित शीर्ष पर

है कौन ? कैसा ? कहाँ है तू ?

कवयित्री ने 'श्रुतिविप्रतिपन्ना' व शास्त्रों के अध्ययन के आधार पर ईश्वर के कई वैकल्पिक निवास स्थान रक्त तो कभी श्वास, कभी भूख तो कभी प्यास, कभी आज्ञा-चक्र तो कभी सहस्रार पर तलाशने की चेष्टा की है, वह भी उसके स्वरूप व सत्ता को ध्यान में रखते हुए। महात्मा नारायण की पुस्तक मृत्यु और परलोक में हमारे तीन प्रकार के शरीरों (भौतिक, सूक्ष्म, कारण) का उल्लेख है वही अन्य धर्मग्रंथों में त्रिकुटी से लेकर नाभि तक ध्यान करने से कुंडलिनी जागृत होती है और ईश्वर की सत्ता को अपने भीतर अनुभव किया जा सकता है। पता नहीं, कितना सच कितना झूठ। हजारों सवाल हमारे प्रत्यक्ष होते हैं। किसकी बात माने,किसने ईश्वर को देखा है! देखा भी है तो चमड़े की इन आँखों से? अगर ऐसा होता तो महाभारत में भगवान कृष्ण क्यों विदुर,अर्जुन और भीष्म पितामह को दिव्य नेत्र प्रदान करते,अपना दिव्य विश्व-रूप दिखाने के लिए। क्या विश्व रूप भी केवल कल्पना है?  कल्पना-लोक की उच्च कोटि की साहित्यिक संवेदनाओं व भावनाओं को उजागर करने वाली ? तभी तो स्वामी दयानंद को भी यह तर्क देना पड़ा कि किसी भी हालत में ईश्वर एककोशीय अथवा एकदेशीय नहीं हो सकते और अगर ऐसा होता तो सारे सृष्टि को संचालन करने वाले गृह-नक्षत्रों पर क्या वह नियंत्रण कर पाते ? नहीं, इसका मतलब ईश्वर का निवास-स्थान जर्रे-जर्रे में है। जहां देखो,ईश्वर ही ईश्वर नजर आता है। हम सभी ईश्वर में ही जागते हैं और ईश्वर में ही सोते हैं। सब कुछ तो ईश्वर मय है, फिर भी कवयित्री भक्तों की तीन श्रेणियों अर्थात जिज्ञासु,आर्त और ज्ञानी में जिज्ञासु के अंतर्गत आती है, तभी तो वह एक ही श्वास में कितने सारे प्रश्न विश्व-पटल के सामने रखने का साहस करती है:-

ग्रह, नक्षत्र, धरती, आकाश

अग्नि,पवन या जल है तू ?

कण-कण में जब, तू है व्याप्त

मंदिर-मस्जिद में, क्यों नहीं है तू ?

है कौन ? कैसा ? कहाँ है तू ?

वैदिक ऋचाओं में ''येन धौरुग्रा पृथ्वी श्च दृढ़ा स्तंभितम येन नाक: ''  में भी ईश्वर को ग्रह नक्षत्र धरती और खगोलीय पिंडों को बांध कर रखने वाली गुरुत्वाकर्षण शक्ति के भीतर तलाशा गया है, साथ ही साथ, "अग्ने नए सुपथे रायेस्मान विश्वानि देव वयुनानी विद्वान" आदि में पांच तत्त्वों में उसे खोजा है। सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षण करने वाली बात इस कविता की पंक्ति, "मंदिर-मस्जिद में क्यों नहीं है तू ?" में नजर आती है, जहां आम जनता ईश्वर को मंदिर-मस्जिद में खोजती है, जबकि कवयित्री इस बात का यहाँ घोर विरोध करती है, ईश्वर का निवास स्थान मंदिर मस्जिद नहीं हो सकते हैं (कबीर की उपर्युक्त पंक्ति 'न मैं मंदिर न मैं मस्जिद' की एक पुनरावृत्ति ही तो है)। भले ही, कवयित्री कबीर-पंथी न हो, मगर उनका दृष्टिकोण महात्मा गांधी की तरह स्पष्ट है, जब उन्होंने कहा कि मैं उस गीता को मानने से इंकार करता हूँ, जिसे भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय गायी थी। डॉ॰ प्रभापन्त जी का भी यह मानना है कि भगवान मंदिर-मस्जिद में तो हो ही नहीं सकते, अगर होते तो क्या वह हिन्दू-मुस्लिम धर्मावलम्बियों में लड़ाई-झगड़े व पारस्परिक मार-काट को पसंद करते ? हरगिज नहीं। सबका मालिक एक है। कवयित्री इस कविता के माध्यम से यह संदेश देना चाहती है कि ईश्वर का निवास सब जगह है, यहाँ तक कि उसके अस्तित्व की सत्ता के बिना सृष्टि का कोई भी अणु,परमाणु अथवा त्रेसरेणु भी बचा नहीं होगा।

कवयित्री की कविता  'निराकार साकार हो।" में मुझे एक विशेष विरोधाभास नजर आता है कि जो सत्ता निराकार है, यह साकार कैसे हो सकती है ? और जो साकार है उसका विशेषण निराकार कैसे हो सकता है? अर्थात यह तो ठीक ऐसी ही बात हो गयी कि अदृश्य दृश्य। ऐसा दृश्य जो दिखता ही नहीं तो फिर कैसा दृश्य? भगवान के आकार और निराकार को लेकर सनातन काल से विमर्श चलता आ रहा है। किसी ने कहा, ईश्वर साकार हो ही नहीं सकते हैं। क्या ब्रह्मांड का सम्पूर्ण नियंत्रण वह अपनी सारी शक्तियों को समेटकर अगर साकार रूप लेकर करने लगेगा तो सृष्टि का क्या हश्र होगा? और अगर वह सुप्रीम पॉवर "मिस्टर इंडिया" की तरह इन्विजिबल है तो उस तक कैसे पहुंचा जाएगा? कोई न कोई तो माध्यम चाहिए न वहाँ तक पहुँचने के लिए। भले ही,प्रतीकात्मक क्यों न हो?  यह अंतर्द्वंद्व कवयित्री के मन में जागना स्वाभाविक है, क्योंकि वह  निराकार को अपने जीवन का सहारा मानती है,उस निराकार को वह अपने पथ-प्रदर्शक के रूप में जानती है, उसके बिना अपने जीवन को एक दिग्भ्रांत पोत की तरह समझती है तब वह अपने अस्तित्व को निराकार में तलाश नहीं पाती है तो वह आह्वान करती है :-

ओ दिव्य पुंज! साकार हो!

ओ शक्तिपुंज! निराकार हो!

आ, दिव्यदृष्टि दे मुझे

ओ निराकार! साकार हो!

फिर वही सवाल उठता है कि क्या निराकार साकार हो सकता है ? जिस तरह फिल्मों में नारद ऋषि को निराकार से साकार और फिर पल भर में साकार से निराकार में जाते हुए दिखाया जाता है। क्या कोई वैज्ञानिक अन्वेषण इस विचार को वास्तविकता में बदल सकता है ? किसी ने कहा था की जैसा नाम नारद वैसे ही उनके गुण, (ना+रद अर्थात कभी भी रद्द नहीं होने वाली शक्ति।) जिस तरह यूनिवर्स में ध्वनि तरंगों, प्रकाश तरंगों अथवा x-किरणों की तरह असंख्य अविनाशी शक्तियाँ विद्यमान है। इसी तरह नारद भी कोई न कोई अविनाशी शक्ति ही होगी इस प्रकृति में। हमारे बॉस श्री विनोद कुमार झा हमेशा कहा करते थे कि वह समय दूर नहीं है जब वैज्ञानिक इस चीज का आविष्कार कर लेंगे,जिसे आप अपने हाथ में लेकर अपने शरीर को सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणुओं में विभाजित कर एक जगह से दूसरी जगह जा सकेंगे और नारद की तरह दूसरी जगह पर पहुँचकर अपने अणुओं को संगठित कर फिर से साकार रूप ग्रहण कर लेंगे। प्रभापन्तजी की यह कविता इस वैज्ञानिक खोज की परिकल्पना को एक नया रूप देती है।

उनकी अगली कविता 'मेरे प्रियतम' ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धा-भाव उनके समर्पित हृदय के अलग-अलग रूपों की प्रतिछाया में नजर आता है।जब तपिश पीड़ादायक हो तो, बादलों का रूप लेकर, जब आलिंगन करने की चाह हो तो अश्रुधारा के रूप में, जब भावलीनता के चरम अवस्था हो तो अश्रुधारा के रूप में तो कभी कुंजवनों में लुका-छिपी करते पक्षियों के गीतों में तो कभी अजस्र स्रोतों में प्यास को बुझाने वाले के रूप में नजर आते हैं। पता नहीं, प्रकृति की कण-कण में रहते हुए भी किस तरह एक-एक झलक दिखला जाते है। फिर सवाल उठता है कि क्या ईश्वर भी अपना रूप बदलता है?  इस सवाल के उत्तर की खोज में एक कहानी याद आती है कि एक आदमी समुद्र में डूब रहा था। उसकी ईश्वर में गहरी आस्था थी, वह मन ही मन सोच रहा था कि ईश्वर उसे पक्का बचाने आएंगे। एक नाव वाले ने उसे डूबता देख कर बचाने की कोशिश की तो उसने मना कर दिया। तभी एक हेलिकाप्टर वाले ने उसे डूबता देख कर उसे बचाने के लिए ऊपर से रस्सी नीचे फेंके तो भी उसने नहीं पकड़ी। एक गोताखोर ने भी उसे बचाने का प्रयास किया तो उसने उसकी सहायता लेने से इंकार कर दिया। आखिरकार वह स्वर्ग सिधार गया। स्वर्ग में पहुँच कर वह भगवान से शिकायत करने लगा कि आपका परम भक्त होने के बाद भी मेरे मरते वक्त आप मुझे बचाने क्यों नहीं आए ? भगवान ने मुस्कुराकर कहा कि मैं तीन बार तुम्हारे पास गया, कभी नाविक बन कर तो कभी रस्सी फेंक कर तो कभी गोताखोर बन कर, मगर तुमने मेरी सहायता लेने से इंकार कर दिया। कहने का अर्थ यह है की कभी 'नर में नारायण' बाली पंक्ति चरितार्थ होती है। गोस्वामी तुलसीदास को चित्रकूट में भगवान दर्शन देते हैं, मगर वह नहीं पहचान पाते हैं। जब हनुमानजी तोते के रूप में उन्हें याद दिलाते हैं :-

" चित्रकूट के घाट पर भई संतजन की भीड़/तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक देते रघुवीर।" ईश्वरीय शक्ति की रूप बदल कर सेवा करती है। इसके अतिरिक्त, इस कविता का शीर्षक भी मुझे सबसे ज्यादा आकर्षक लगा 'मेरे प्रियतम'। कवयित्री 'प्रियतम' शब्द का प्रयोग ऐसे करती है, जैसे कभी मीरा 'मेरो तो गिरिधर गोपाल दूजा न कोई' की धुन पर भगवान कृष्ण को याद करती थी। स्वामी रामसुख दास भी कहा करते थे कि इस दुनिया में अगर सबसे ज्यादा प्रेम करने योग्य चीज है तो वह है ईश्वर। बाकी सारी दुनिया की सारी चीजें बेकार है। पति भी प्रियतम नहीं हो सकता है। प्रियतम तो केवल ईश्वर के सिवाय और कोई नहीं सकता है,अन्यथा पांचों पतियों के होते हुए भी द्रौपदी  को वस्त्र-हरण के समय अपनी रक्षा के लिए ईश्वर के सामने गुहार लगाने की नौबत नहीं आती और ऐसे भी सृष्टि की सारी शक्तियों का केंद्र तो ईस्वर है। भौतिक पति की अपनी सीमाएं हैं और वह तो खुद पाशों में फंसा हुआ है अर्थात "पाशबद्ध भवेत जीव,पाशमुक्त सदाशिव।" कवयित्री की अंतरात्मा का प्रेम इतना गहरा है कि वह अपनी दिनचर्या की प्रत्येक गतिविधि में भी इस आलौकिक सत्ता का अहसास करती रहती है।

‘मेरे प्रियतम’ कविता की तरह ही एक अन्य कविता ‘मानस हंस में कवयित्री ने ईश्वर को अपना प्रियतम मानकर राधा व मीरा की तरह देहातीत निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति की है कि परमात्मा को पाने के लिए किसी भी जीवात्मा में कितनी तड़प व बेचैनी होनी चाहिए। भावलीनता की वजह से परमात्मा की उपस्थिति प्रकृति के कण-कण में तथा मन-मानस के भीतर अनुभव कर सुखद अनुभूति से वह रोमांचित हो उठता है। तभी गीता में भी कहा गया है,सभी जीवों में मुझे जो देखता है,वही पंडित है।'मानस हंस' भी आध्यात्मिक स्तर की एक ऐसी कविता है, जिसमें इस चीज का अहसास होता है कि अगर किसी जीवात्मा की परमात्मा से मुलाकात हो जाए, उस समय मन को कितनी प्रफुल्लता होगी, वह शब्दों में वर्णित नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक कविताओं में अक्सर 'हंस','हंसा',आदि शब्दों का प्रयोग प्राण-पखेरू  से लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर,उस वृद्ध आदमी का हंसा उड़ गया अर्थात उसकी मृत्यु हो गयी। ईश्वर की अनुभूति योग-साधकों द्वारा भी शब्दों में बयान नहीं कही जा सकती है, क्योंकि यह विषय केवल अनुभव का विषय है। ऐसा कहा जाता है कि कोई कहना भी चाहता हो तो शब्द नहीं निकल पाएंगे। मगर जिस तरह ईश्वर ने अपने समग्र ज्ञान को अग्नि,वायु,आदित्य और अंगिरा ऋषिगण के हृदय में आलोकित कर चार वेदों में लिपिबद्ध कर दिया। ठीक इसी तरह आध्यात्मिक-क्षेत्र में प्रगतिशील कवयित्री ने अपने अनवरत चिंतन-मनन से उस पल को शब्दों के साँचे में डालने का प्रयास किया है। जैसे ही ईश्वर की अनुभूति हो जाती है तो फिर बार-बार ईश्वर की याद आनी लगती है,उस क्षण आँखों में आनंद की आँसू भर आते हैं और ऐसा लगता है मानो धरती बारिश की बूंदों से पुलकित हो उठती है। ईश्वर के दर्शन मात्र से मन का भौंरा हर्षित हो उठता है, जैसे प्रियतम का स्पर्श पाकर हृदय स्पंदित होने लगता है। जैसे छोटा बच्चा माँ का आँचल पाकर आश्वस्त हो जाता है, आम्रमंजरी देखकर कोयल मधुर पंचम स्वर गाने लगती है, वैसा ही आनंद ईश-प्राप्ति के समय मिलता है। शायद यह वर्णन शब्दजाल हो, मगर आध्यात्मिक ग्रन्थों में षट्चक्रों का भेदन कर कुंडलिनी शक्ति के जागरण के बारे में उल्लेख आता है अर्थात ढाई चक्कर कुंडली मारे हुआ सांप आपके शरीर के अंदर के काल्पनिक चक्रों जैसे मूलाधार, स्वाधिष्ठान,मणिपुर,अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र को भेदते हुए सहस्रार में पहुँचती है, जहां त्रिवेणी संगम होता है अर्थात इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीनों नाड़ियाँ संतुलन की अवस्था में आ जाती है और शिवलिंग पर गिर रहे कलश की जलधार की तरह अमृत की वर्षा होने लगती है और इस अवस्था को साधक ईश-प्राप्ति की  उच्च अवस्था मानते हैं। कहने का अर्थ यह है कि साधक अपनी अनुभूति प्रकट करने के लिए अनेकानेक प्रतीकों,मुद्राओं तथा भाव-भंगिमाओं का सहारा लेते हैं, वैसे ही साहित्यकार भी अपनी .संस्कारित व परिमार्जित भाषा-शैली में कल्पना की उड़ान भरते हुए इस परम सुखद स्थिति के अनुभव की बात रखते हैं। कभी-कभी तो मुझ जैसे धारण मनुष्य को मन,अन्तर्मन,आत्मा,प्राण, चेतना जैसे अमूर्त शब्द इस यात्रा-पथ पर भ्रमित कर देते हैं, क्योंकि यह सारे शब्द काल्पनिक बिम्ब पैदा करते है। उदाहरण के तौर पर कुछ वाक्यांश देखिए,"जैसे मन ठीक नहीं है, अन्तःकरण के तरह-तरह के विचार आने लगे। मेरी आत्मा इस बात की गवाही नहीं दे रही है। वह प्राणों से भी प्यारा है, अपनी चेतना को ऊर्ध्वगामी  बनाओ।" साधारण धरातल पर कभी-कभी लगता है ये सारे शब्दों का अर्थ लगभग बराबर है, मगर चेतना के उच्चस्तर पर इन सारे शब्दों में काफी विभेदता आ जाती है। कोई भी शब्द किसी भी शब्द से मेल नहीं खाता है। न मन आत्मा के बराबर है, न आत्मा चेतना के बराबर है, और न ही चेतना किसी अन्तःकरण के तुल्य है। शायद यही कारण रहा होगा शब्दों के प्रपंच से बचने के लिए कवयित्री ने 'मानस हंस' जैसे शब्द का प्रयोग किया है। यह शब्द पूरी तरह से साहित्यिक है, जो आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ-साथ जीवन को अपने सुनिश्चित लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है।

‘कबूल मैं उसे’,‘दीवानगी’तथा ‘हकीकत’ हिंदी-उर्दू मिश्रित शब्दों से बनी कविताएं हैं जो सार्वभौम सत्ता को पाने के लिए भाषा रूपी सारे अवरोधों को तोड़कर प्रेम के दीवाने सूफी संतों की तरह नि:शब्द भाव से मानव जीवन के उद्धार की कामना करती है। इन कविताओं से यह स्पष्ट होता है कि उपासना की पद्धति चाहे कोई भी क्यों न हो सबसे खास बात है इंसान का आचार और विचार। इन कविताओं में हृदय की शुद्धता झलकती है। चारों तरफ नूर नजर आता है। प्रेम की दीवानगी लगातार बढ़ती ही जाती है। अल्लाह तक पहुंचने का बस एक ही रास्ता है और वह है प्रेम,इश्क,मुहब्बत।

कबूल मैं उसे” कविता में कवयित्री ने मुस्लिम धर्म में निकाह के समय ‘मैं तुझे कबूल, तू मुझे कबूल” की प्रथा प्रचलित है कि दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को पति-पत्नी अर्थात जीवनसंगी के रूप में स्वीकार कर लेते है। यह अपार खुशी का विषय होता है, एक घर-संसार बसने- बसाने के लिए। भावोद्रेक से कवयित्री निश्छल प्रेम से खुशी प्रकट करती है कि अल्लाह ने उसे महबूबा कि तौर पर कबूल कर लिया है। विभिन्न आध्यात्मिक व दार्शनिक विचारों के माध्यम से हमारी शरीर की तुलना काबा और शिवालय से की है तथा उसमें छुपे हुए नूर को खुदा या शिव के रूप में माना है। साथ ही साथ, इस बात पर भी आश्चर्य अभिव्यक्त किया है कि किस तरह वह जुदा होते हुए भी उसकी रग-रग में व्याप्त है। इसलिए कवयित्री हमेशा यह ख्वाहिश करती है कि ईश्वर की अलौकिक शक्तियों को वह प्रत्यक्ष तौर पर अनुभव कर सकें। इस प्रत्यक्षीकरण की सबसे बड़ी गवाह होती है नारी,क्योंकि जब किसी  निःसंतान स्त्री को संतान धन प्राप्त हो जाता है तो वह उस शक्ति को अपने गर्भ में अनुभव कर सकती है। नारी होने के कारण इस शक्ति के प्रत्यक्षीकरण के फलस्वरूप कवयित्री  ईश्वर की दीवानी है और सृष्टि के प्रत्येक कण-कण में उसकी उपस्थिति को अपना प्रेमी मानकर उसे खोजने का प्रयास करती है, यह कहते हुए कि मंदिर तेरा,काबा तेरा /ये जिस्म भी तेरा /जर्रे-जर्रे में जो रहता /महबूब है मेरा। ईश्वर से प्रेम करने के लिए उसे दुनिया की को भी परवाह नहीं है,इसलिए वह कहती है – लोगों की अब भला/ परवाह है किसे/ मिल गया मेहबूब मुझे/ कबूल मैं उसे। क्या इस पंक्ति में मीरा की भक्ति नजर नहीं आती है? एक निश्चल पुनीत प्रेम की अद्भुत झलक।

कवयित्री ने अपनी ''दीवानगी'' कविता में दौलत और ईश्वर को एक तराजू के पलड़े में रख कर यह सिद्ध किया है कि ईश्वर की अनुभूति के लिए किए गए कार्यों का  वजन संचित दौलत के भार की तुलना में कई गुणा ज्यादा है,इसीलिए पैसों पर ज्यादा गुरूर करना व्यर्थ है। यथा :-

है गुरूर, दौलत का तुझे

अनमोल रत्न, मिला मुझे।

कीमत जिसकी, दीवानगी बेमोल

देखा जब मैंने, अंत:पट खोल।

यहाँ सोचने की एक बात है कि दौलत की तुलना कवयित्री ने ईश्वर के लिए दीवानापन से क्यों की? कहते है, "जो मजा है फकीरी में, वो मजा नहीं अमीरी में।" ऐसे भी अमीरी अपने साथ कई ऐसे दुर्गुणों को भी आकर्षित करती है, जो ईश्वरोन्मुखी कर्मों में अवरोध का कार्य करते हैं और साथ ही साथ, ज्ञान-चक्षुओं पर आभासी घमंड का झीना पर्दा भी बना देती है, जिसकी वजह से वह दुनिया के यथार्थ-ज्ञान से वंचित रह जाता है। दूसरी मुख्य बात,जो इस कविता में देखने को मिलती है, वह है दीवानेपन की। ईश्वर जैसे अनमोल खजाने के लिए दीवानापन ? क्या बिना दीवानापन या जुनून के उस शक्ति का अहसास नहीं कर सकते हैं। नहीं, कदापि नहीं।गोस्वामी तुलसीदास जी के कथनानुसार, ईश्वर को पाने के लिए आपकी आत्मा में वही तड़प व बेचैनी होनी चाहिए, जो तड़प और बेचैनी एक आदमी नाक बंद कर पानी में डुबकी लगाते समय दम घुटने की अवस्था में नए सिरे से सांस लेते समय अनुभव करता है और जब उसे 'आत्मज्ञान' प्राप्त हो जाता है तो फिर सारे दुनियावीं आकर्षण  तुच्छ नजर आने लगते है। केवल मन उसी धूनी में रमा रहता है। राजस्थानी भाषा में भी अनूप स्वामी ने एक जगह लिखा है :-

"सर चौगान में भट्टी जलाई/भरिया सुखमण माटा/पीवत-पीवत म्हारा जन्म सुधारियों/ मतवाला साधु केवाता मेरे दाता"

इसी अनुभूति को कवयित्री दूसरे रूप में हमारे समक्ष रखती है :-

'मस्ती में मुझे झूमने दे/चौखट को जरा चूमने दे/पिया है अभी मैंने प्याला/मिली मुझे नूरानी हाला"  अब बात यहाँ उठती है, इतनी बड़ी बात क्या कवयित्री ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखी अथवा दूसरों के अनुभवों के आधार पर लिखे गए शास्त्रों के अनुकरण से ? स्वानुभूति के बिना क्या यह संभव है? जो भी हो, एक बात तो यहाँ पूरी तरह स्पष्ट है कि कवयित्री का आध्यात्मिक ज्ञान अत्यंत ही विस्तृत, व्यापक व ईश्वरोन्मुखी है। तभी तो वह दुनिया की आकर्षणों से तिरोहित होकर सहजता से चुनौती दे सकती है,जो चुनौती कभी मीरा  ने भक्ति के सर्वोच्च तुंग पर चढ़ कर दी थी। मीरा के शब्दों में, "मेरो तो गिरधर गोपाल, दूजों न कोई।" यही सम्वेदना यहाँ पर भी कवयित्री अभिव्यक्त करती है इन शब्दों में :- "महबूब मेरा सबसे हसीन। तू क्या ? तेरा हस्ती है क्या ?"  एक और बहुत बड़ी बात भी इस कविता में देखने को मिलती है, वह है '' सिर झुकाया ,मिल गया काबा मुनव्वर हो गया।'' यहाँ एक प्रश्न अवश्य दिमाग में उठता है कि  सिर झुकाने पर ऐसा क्या मिला कि काबा में आलोक आ गया? वह कहना चाहती है कि उसे पाने के लिए वहीं बाहर और झांकने की जरूरत नहीं है। केवल जरूरत है तो मन को स्थिर करने की। गीता में जैसे कहा गया है:-

'' समं कायशिरोग्रीवं धार्यन्नचलं स्थिर:। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्श्चानवलोकयन"

इस के द्वारा सिर झुका कर किया गया साधनाभ्यास ही ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक है । इस कविता को फिर से मैंने पढ़ा। कविता के मर्म के आधार पर यह कहा जा सकता है कि खुदा की बंदगी के लिए भाषा की कोई जरूरत  नहीं है, केवल भाव की ही महिमा है । ''न काष्ठे विद्यते देवा, न मृण्मय, भावे विद्यते देवा'' कितनी भी लच्छेदार भाषा में की गई प्रार्थना ईश्वर के नजदीक ले जाएगी, यह जरूरी नहीं है तभी कबीर,रैदास,मीरा, तुलसी,जायसी सभी ने तो अपनी-अपनी बोल-चाल की भाषा में दोहे,चौपाई,छंद,गीत,प्रगीत आदि की रचना की है। सारी रचनाएँ भक्ति-भावनाओं से ओत-प्रोत हैं।

''हकीकत'' कविता ने भी मेरा ध्यान गीता के उस श्लोक की ओर आकर्षित किया है, जिसमें यह कहा गया है कि सत क्या है? असत् क्या है ? झूठ और सत्य की परिभाषा क्या है ? जिसे हम सत्य मानकर जीवन भर ढोए जाते हैं, मगर हकीकत में क्या वह  सत्य है?कवयित्री आत्म-विश्वास से कहती है: - ''ऐसे ही है रिश्ते-नाते/जो है मगर है नहीं/ख्वाब हकीकत बन सकता/ हकीकत ख्वाब बनती नहीं"

हिन्दी के वरिष्ठ कवि नन्द किशोर आचार्य के अनुसार भी लेखक अक्सर अपनी रचना-धर्मिता के दौरान दो दुनिया का सामना करता है,एक भीतरी दुनिया और दूसरा, बाहरी दुनिया। भीतरी दुनिया का साम्राज्य भी वैसा ही है जैसा कि बाहरी दुनिया का। मगर अंतर है तो केवल पात्रों का तथा स्पृश्यता का। बाहरी दुनिया के पात्रों को स्पर्श किया जा सकता है, मगर भीतरी दुनिया के पात्रों को नहीं। यह बात दूसरी है कि संयोगवश वे पात्र हकीकत की दुनिया में प्रवेश कर अंतर्जगत् के सुख-दुख,व्यथा, हंसी-खुशी का इजहार कर सकते हैं, मगर ऐसा होने पर भी क्या हकीकत से मुंह मोड़ा जा सकता है? जो सत्य है, वह सनातन है और रहेगा, अविनाशी है और रहेगा मगर जो  झूठ है, उसका कभी भी अस्तित्व नहीं रहेगा।  इस गूढ़ार्थ कविता में न केवल डॉ॰ प्रभापन्त ने आध्यात्मिक चेतना के स्वर मुखरित किए है, वरन अपनी भीतरी दुनिया की कार्यशैली से अपने दार्शनिक व्यक्तित्व का भी परिचय करवाया है।

दूसरा खंड शिव-शक्ति:-

इस कविता के दूसरे खंड ‘शिव-शक्ति’ में कवयित्री की ‘नारी हूँ मैं’,’बेबसी’, ‘जननी’, ‘कलियुग के राम’, ‘नारी’, ‘क्यों फैल रहा अंधियारा’, ‘परंपरा चाहे परिवर्तन’, ‘स्मृत सब हो आएगा’, ‘अब भी’ तथा ‘वन में क्यों भटके थे राम’ जैसी क्रांतिकारी विचारों को उद्वेलित करने वाली कविताओं का संकलन है। ‘नारी हूँ मैं’, ‘जननी’ और ‘नारी’ जैसी नारीवादी कविताओं में कवयित्री ने नारी के भीतर खोई हुई शक्तियों को जगाने के साथ-साथ भ्रूणहत्या जैसे पापकर्म, बलात्कार जैसे अपराध तथा दोहरी पुरुषवादी मानसिकता को उजागर करने का सशक्त प्रयास किया है। “तेरा तुझको अर्पण” कविता-संग्रह का शिव-शक्ति खंड नारी केन्द्रित है अर्थात शक्ति ही शिव की आराध्य है। अपनी कविता “नारी हूँ मैं” में कवयित्री ने अपने नारी होने पर गर्व अनुभव किया है कि कितने भी आँधी तूफान क्यों न आ जाए, वह अपने पुष्प पर लिपट जाती है और उसे अकेले नहीं छोड़ती, झंझावातों से लड़ने के लिए, जबकि भँवरे अवसर पाते ही साथ छोड़ देते हैं, इसी तरह पहाड़ों की तरह दृढ़ नारी कभी गिरी नहीं है, अगर गिरी भी है तो किसी की प्यास बुझाने के लिए, एक झरना बनकर। सूरज की किरणों की तरह बादलों से भरे आकाश को चीरते हुए वह अंधकार मिटाने में सक्षम है, अमावस्या की रात में,भले ही, वह छिप जाती है, मगर फिर से पूनम की चाँदनी बनकर चमकती है। हो सकता है, परिस्थिति-वश वह कभी कंटक बन जाती है तो भी पुष्प की मुस्कान को खत्म नहीं होने देती। गंगा की निर्मल धारा की तरह वह अपने जीवन का अनुसरण करती है,प्रवाहित होती है। भले ही, वह कभी पंक बन जाती है तो भी कंज को जन्म देती है, तभी तो पंकजा कहलाती है। नारी के विभिन्न स्वरूपों में कवयित्री ने ‘छंदानुगामी’ (पति का अनुकरण करने वाली), मोहिनी, अर्धांगिनी, सरस्वती, जननी आदि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृतियों से परिभाषित  किया है, मगर सर्वश्रेष्ठ कृति होने के बावजूद भी हमारे समाज में नारी को भोग्या समझा जाने पर दुख प्रकट किया है कि जिस देश में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता” की वैचारिक पृष्ठभूमि वाले देश में आज नारी की हालत बदहाल है।नारी हूँ मैं ’ कविता से :-

इतने निर्मम,इतने निष्ठुर

मापदंड दोहरे क्यों समाज के

पुरुष कलंकित होता नहीं

कलंकिता होती है नारी।

नारी हूँ मैं,

सर्वश्रेष्ठ कृति हूँ ईश्वर की

किन्तु सर्वश्रेष्ठ कृति होकर भी-

भोग्या ही समझी जाती हूँ ।

'बेबसी' डॉ॰प्रभापन्त की एक प्रमुख नारीवादी कविता है, जो आधुनिक युग के यथार्थ का बोध कराती है। आज भी जहां नारी अपने कर्तव्य पालन करते-करते अपने अस्तित्व को विस्मृत कर देती है, घर-परिवार के उन्नति के लिए पथ में फूल बिछाती है, मगर उसे अपने पति के व्यंग्य-बाण व चुभते शब्द-शूल का शिकार बार-बार होना पड़ता है। कवियित्री कहती है कि भले ही, आज की नारी काफी कुछ पढ़ी-लिखी हो, मगर उसके पढ़ने का अभी तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आया है। पुरातन काल में भी द्रौपदी का वस्त्र-हरण हो रहा था और आज भी विज्ञापनों में बाजारीकरण  के कारण जिस्म-प्रदर्शन हो रहा है। आखिर क्यों? क्या यह भी एक प्रकार का वस्त्र-हरण नहीं है ? उसका दोषी कौन है? कौन हैं आधुनिक दुर्योधन व दुशासन ? तरह-तरह के सवाल कविता में उठाए गए हैं। विसंगति तो इस बात की है कि जब किसी औरत को शोहरत प्राप्त हो जाती है तो फिर उसे पुरुष समाज 'बेहया' के नाम से रोने-बिलखने, गिड़गिड़ाने व तड़पने के लिए क्यों छोड़ देता है? ऐसी क्या विवशता  है कि जिस नारी ने अपने नर के उत्थान के लिए खुद को मिटा दिया और गहन अंधेरे में खुद रोती रही, जलती रही, बुझती रही, मगर खुदगर्ज इंसान ने उसे ठुकरा दिया। कवयित्री के कुछ पंक्तियाँ अत्यंत मार्मिक है, जो पाठकों के हृदय में हलचल पैदा कर देती है :-

जब माँ न वो बन पाई

दुल्हन नई फिर घर आई।

आवाज खिलाफत की जब उठाई

तूने की उसकी, जग रुसवाई।

अगर आदमी की बेवफाई से तंग आकर अगर कोई औरत गलत कदम उठाने को अग्रसर होती है तो उसका दिल गवाही नहीं देता है। उलटा धिक्कारने लगता है भीतर ही भीतर और अंतर्द्वंद्व में वह पूरी तरह से टूट जाती है। अपने आप को माफ नहीं कर पाती है, वह अपना आत्मावलोकन करने लगती है। कवयित्री के इन शब्दों में :-

सोचा उसने, खुद से कहा-

मैं भी महबूबा बन जाऊँगी

बेमोल हया जब बिसराउंगी।

टूटकर बिखरी, हया की माला।

मिला न कोई, पिरोने वाला।

हया का गहना बेचा उसने

बेहया खरीददारों को।

बिकती अब बाजारों में

महकाती गुलजारों को।

आखिरकार इस घुटन भरी जिंदगी के प्रमुख कारक तत्त्व कौन है? ऐसे सवाल सिवाय नारी के दर्द को अपने भीतर अनुभव किए बगैर क्या कोई कवयित्री कविता के शैली में प्रकट कर सकती है?

"जननी" कविता में कवयित्री ने पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की वर्तमान अधोस्थिति  के कारणों का गहराई से अन्वेषण करते हुए प्रमुख कारण नारी को ही बताया है, जो स्वयं शुरू से बेटा-बेटी को लेकर विभेद करती है। प्रबंधन संकाय की एक फ़ैकल्टी  के अनुसार हमारे देश की कमजोर 'लीडरशिप' का कारण भी महिला है। लीडरशिप जैसे विषय में बोलते हुए उन्होंने कहा कि हमारे देश में  जब घुटनों के बल चलने वाला बच्चा उठने-चलने के विकास-क्रम में यदि गिर जाता है तो उसकी माँ दौड़ कर जाती है, उसे उठाने के लिए। पुचकारते हुए गले लगाकर जमीन पर झूठी-मूठी थप्पड़ मार कर कहती है, अब मत रो,मैंने इस चींटी ने मार दिया,जिसने मेरे प्यारे बेटे को गिरा दिया। मगर हकीकत में न तो वहाँ कोई चींटी होती है, न ही कोई चींटा। नन्हा बच्चा अचरज से अपनी माँ की तरफ देखता है, एकदम चुप हो जाता है। बिना बोले ही वह समझ जाता है कि उसकी माँ उसका ध्यान हटाने के लिए झूठ बोलती है, चींटी के मारने की  बात कहकर। झूठ की खोखली नींव पर आधारित जब यह बच्चा बड़ा होकर अगर कोई बन जाएगा तो क्या किसी सत्य का सामना कर पाएगा ? कदापि नहीं! यहीं वजह है, वैश्विक-परिदृश्य में भारत के नेतृत्व कुशलता के ह्रास की।  जबकि इजराइल जैसे देश में इसी घटना का दूसरा स्वरूप है। अगर उस उम्र का दुधमुंहा बच्चा वहाँ लड़खड़ाकर गिर जाता है और रोने लगता है, तो उसके पास जाकर उठाना तो दूर की बात, उसकी तरफ देखती तक नहीं है। फलत: उस अवस्था में कुछ रो-धो लेने के बाद वह बच्चा स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होकर चलने लगता है। यहाँ फिर एक प्रश्न उठता है, क्या भारतीय माताओं की तुलना में इजरायली माताएँ संवेदनहीन है ? नहीं। विश्व की सारी माताएँ एक समान होती है। इजरायली माताओं में भी अपने बच्चों के लिए वही प्रेम है जो भारतीय माताओं में होता है। मगर अंतर है तो केवल दृष्टिकोण का। शायद यही कारण है कि कवयित्री ने भारतीय समाज के संदर्भ में महिलाओं को लेकर अनेक सवाल उठाए हैं और अंत में स्वयं ने ही उत्तर दिया है, वही उत्तर जो ऊपर वाले प्रबंधन गुरु ने दृष्टिकोण को लेकर नेतृत्व-कुशलता के सापेक्ष अपनी बात रखी है। कवयित्री के सवाल इस तरह है, पीड़ा सहते हुए भी नारी मूक क्यों है? भ्रूणहत्या के लिए वह स्वयं क्यों तत्पर रहती है? उस पर चलाये जा रहे व्यंग्य-बाणों को क्यों बरदाश्त करती है? पुरुषों से महिलाओं की क्यों बन नहीं रही है ? बहुत सारे ऐसे सवालों का उत्तर कवयित्री ने अपने शब्दों में दिया है, विधाता प्रदत्त दैविक गुणों को महिला स्वयं भूल गयी हैं। जन्म से ही तनय-तनया में अंतर करने लगी है। इस अंतर का बीज तो स्वयं नारी ने बोया है। कवयित्री के शब्दों में:-

वह निरीह अस्तित्व क्या उसका ?

जन्म हुआ तुझसे ही जिसका।

तेरी ही दृष्टि से उसने पहचाना

था वह इस जगह से अनजाना।

तनय-तनया से किया तूने भेद

कह रही मैं तुझसे आज सखेद।

''कलयुग के राम'' कविता में इस जमाने में राम बनने की ठानने वाले पुरुषों को अपने आस्तीन में झाँकने तथा उन पौराणिक शास्त्रों  की विश्वसनीयता पर भी एक प्रश्नवाचक खड़ा किया है। सतयुग में धोबी की बात मान कर राजा राम ने राजधर्म की मर्यादा के खातिर गर्भिणी सीता का परित्याग किया, वन में भेज कर। क्या वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने लायक है? यही ही नहीं, कवयित्री ने तत्कालीन सृजनकर्मियों की रचनाओं पर भी उंगली उठाते हुए कहा कि  नरकृत शास्त्रों के बंधन हैं/  नारी को लेकर/ अपने लिए सभी सुविधाएं/ पहले ही कर बैठे नर" । इसके अतिरिक्त,लिंग-भेद को लेकर भी कवयित्री ने आधुनिक समाज के पुरुष पर कटाक्ष किया है कि अगर तुम आज्ञाकारी पुत्र हो तो मैं भी किसी की पुत्री हूँ। तुम्हें अगर किसी ने कष्टों से पाला है तो मुझे भी। तुम्हारे माँ ने अगर तुम्हारे लिए कोई पीड़ा सही, तो क्या मेरी माँ ने नहीं सहन की कोई पीड़ा? क्या बेटे के लिए ज्यादा प्रसव वेदना होती है और बेटी के लिए कम ? आँख खोल देने वाले सारे प्रश्नों को उठाया है कवयित्री ने इस कविता में। यह ही नहीं, सतयुग के राम और कलयुग के राम पर भी तुलनात्मक दृष्टिपात किया है। सतयुग के राम ने तो सीता स्वयंवर में धनुष तोड़ा था, सीता को परेशान करने  वाले कौए की एक आँख फोड़ी थी, रावण को भी खत्म किया था, मगर कलयुग के राम के पास आज इतना सामर्थ्य है ? जब चारों और रावण ही रावण गिद्ध-दृष्टि डाले प्रहार की ताक में बैठे हो तो क्या कलयुग का राम इन रावणों का वध कर सकेगा? अगर हाँ तो कवयित्री कहती है मैं तुम्हारे चरणों की धूल उठाकर अपनी मांग भर लूँगी। क्या आधुनिक पुरुषवर्ग कवयित्री के उपर्युक्त सवालों का जवाब दे सकेगा? ‘कलियुग के राम’ तथा ‘वन में क्यों भटके थे राम’ कविता के माध्यम से कवयित्री ने राम के मिथकीय चरित्र पर अनेकानेक यथार्थ प्रश्न उठाए हैं जैसे सीता की अग्नि-परीक्षा को न मानकर रजक द्वारा मिथ्यारोप स्वीकार करना,गर्भवती सीता को जंगल में भेजने पर मर्यादा हनन,नरकृत शास्त्रों को चुनौती देने के साथ-साथ कलियुग के राम से पति-धर्म बिसराने पर दो-दो हाथ कर लेने की ठानी है। तभी तो वह कहती है:-

सिया वरण को पिनाक तोड़ा

क्या हिमालय हिला पाओगे?

दृष्टिहीन किया कागा को

रावण को भी था संहारा।

कुदृष्टि आज इस उसकी

किस-किस पर करोगे वार।

अभिमान के कुटिल वारों से

स्वयं भी जाओगे हार।

वन-वन क्यों भटके थे राम कविता में गर्भवती सीता को जिस निर्जन वन में छोड़ा था उस वन की प्राकृतिक सौंदर्य विटप,लताएं,सारंगवृंद,शावक आदि का वर्णन ओडि़या भाषा के प्रमुख भक्त कवि गंगाधर मेहेर की कविता ‘तपस्विनी’ से तुलना की जा सकती है,जो उड़िया भाषा की महानतम कृतियों में से एक है। कविता की शुरुआत ओडिया भाषा के महान कवि गंगाधर महर की कविता ‘तपस्विनी’ की तरह ही होती है जिसमें निर्जन वन प्रांत में सीता को एकाकी देखकर विटप, लताएँ, सारंग, शावक, सभी सीता से उन्हें छोड़े जाने पर प्रश्न पूछती है, मगर सीता अपने उत्तर में राम को कभी भी दोषी ठहराती वरन राम के प्यार की दुहाई देते हुए उन्हें राज्य-धर्म निभाने हेतु पति धर्म को बिसराने का उल्लेख करती है तभी एक पक्षी राम के पक्ष में अपनी दलीलें देते हुए कहता है,“आप राम के पति धर्म पर शंका क्यों करती हो ? राम ने कभी भी अपने जीवन में एक पत्नी-व्रत को भंग नहीं किया, तुम्हारे लिए एक कौआ को दृष्टिहीन करना क्या दिखावा था ? जब-जब तुम्हारे पाँव में कांटे चुभे तब-तब क्या राम रुके नहीं थे जंगल में ? क्या राम ने वनपुष्पों की बेणी नहीं गूँथी थी तुम्हारे लिए? राम को जंगल में आने का ऐसा क्या कारण था ? जब रावण ने तुम्हारा हरण कर लिया तब आँखों में आँसू लिए वन-वन क्यों भटके थे राम ? अभी तक की कविताओं में कवयित्री का नारी मन केवल नारियों के पक्ष में आवाज उठा रहा था मगर इस कविता में सीता की शंका का समाधान करने के लिए एक पंछी के माध्यम से राम के त्याग, बलिदान, प्रेम तथा उसके लिए किए गए संघर्ष की गाथा को सामने रखकर पुरुषों के समर्थन में भी अपनी बात रखी है। यह कहा जा सकता है कि लिंग-विभेद से ऊपर उठकर कवयित्री अपनी कविताओं में पक्षपात रहित मानव गरिमा को हित में अपनी रचनाएँ रचती है। इस कविता में राम के मिथक-चरित्र पर प्रश्नों की अनवरत बौछार करती हुई कवयित्री सीता के मुख से कहलाती है,जिसका उत्तर एक पक्षी देता है:-

अवरुद्ध कंठ बोली तब सीता-

है सत्य ,राजधर्म निभाया

परंतु पतिधर्म को क्यों बिसराया ?

चहक-चहक तब पंछी बोली-

पतिधर्म पर शंकित सीते !

एक पत्नी व्रत धारा था

क्या व्रत भंग किया कभी ?

दृष्टिहीन किया कागा को

क्या वह मात्र छलावा था ?

कंटक पग जब चुभे तुम्हारे

ठहरे नहीं थे तब क्या राम ?

वन पुष्पों की वेणी में बोलो

गूंथ रहे थे तब क्यों राम ?

किसकी अभिलाषा पूर्ण करने

वन को धाए थे श्रीराम ?

रावण ने जब हरण किया,

कांतिहीन दृग वारि लिए-

वन-वन क्यों भटके थे राम ?

''नारी'' कविता में कवयित्री ने लिंग-भेद पर आधारित समाज के  दोहरे मापदंडों को ओर ध्यानाकृष्ट किया है कि व्यभिचारिणी, बांझ जैसे शब्दों से नारी को ही अपमानित किया जाता है, मगर पुरुषों को क्यों नहीं ? क्या यह जरूरी है कि औरत ही बांझ हो? पुरुष निर्वीर्य नहीं हो सकता ? इससे भी ज्यादा विडंबना यह है कि नारी पुत्री,पत्नी,माँ होने के बाद भी हमेशा आश्रिता क्यों कहलाती है?

''क्यों फैल रहा अंधेरा'' कवयित्री की ऐसी कविता है जिस पर यह कहा जा सकता है कि कवयित्री अपने भीतर एक अंतर्द्वंद्व से गुजर रही है। आज की नारी, भले ही पढ़ी लिखी हो, मगर अवस्था तो अनपढ़ होने से बदतर है। वह सोचती है कि अनपढ़ होना ज्यादा बेहतर था। उस समय,भले ही,वह मर्दों के पाँवों की जूती थी,मगर पाँव काटने की भी क्षमता रखती थी। आज नारी को सिर पर रखा जाता है, पर जब संतुलन बिगड़ जाता है तो उसे नीचे गिराकर मरने के लिए अकेले छोड़ दिया जाता है। अगर वह अपने अधिकारों की मांग करने लगती है, तो परिवार टूटने की कगार पर आ जाते हैं। इसीलिए अच्छा तो यही रहता कि बिना पढ़े वह अपनी जिंदगी गुजार लेती। मन के एक कोने में विचार उठने लगते है:- पढ़-लिख कर/ अंधकार था मिटता/ होता था उजियारा/फिर क्यों आज/ अज्ञान का फैल रहा अँधियारा ? आधुनिक युग में यद्यपि  नारी शिक्षा और नारी-सशक्तिकरण पर ज़ोर तो दिया जा रहा है, मगर हमारे यहाँ शिक्षा का मतलब अर्थोपार्जन के सिवाय कुछ भी नहीं है।कविता की पंक्तियों में वह कहती है:- "पढ़ना लिखना बना आज/क्यों डिग्री नौकरी का पर्याय"

इसी तरह ‘परंपरा चाहे परिवर्तन’ कविता में जमाने के अनुरूप पुरानी परंपराओं में बदलाव लाने तथा ‘स्मृत सब हो आएगा’ जैसी कविता में चाणक्य की पुरातन मान्यताओं जैसे - ‘स्त्रीणाम चरित्रम् ईश्वरो न जानाति कुतो मनुष्या:!’ को सीधा उत्तर देती है। “परंपरा चाहे परिवर्तन” कविता में कवयित्री ने उन पुरानी परम्पराओं को बदलने के लिए समाज से आग्रह किया है कि किसी के घर बेटी होने पर क्यों रोते हैं, उसे पराया धन क्यों कहते हैं, क्यों भिक्षा के रूप में दहेज मांगते हैं, क्यों लड़की को सहनशीलता की शिक्षा दी जाती है? यह सारी पुरानी परम्पराओं के कारण हमारे देश का महिला वर्ग अभी भी सामाजिक बेड़ियों से जकड़ा हो कर देश की उन्नति में योगदान नहीं दे पा रहा है। कवयित्री की अपनी माँ के बारे में सोचते हुए उसकी आँखें नम हो जाती है, यह सोचकर कि उस माँ को पिता ने अवश्य रुलाया होगा, सास ने अवश्य सताया होगा। मगर सत्य जानकर भी पिता अनजान बने होंगे। यह सब बातें कवयित्री के खयाल में तब आती है, जब उसकी शादी हो जाती है, अपनी सारी संवेदनाओं को माँ के भीतर सहजकर अनुमान लगाने की चेष्टा करती  है। ‘सात कुल कन्या उठाती, सात कुल कन्या डुबाती” जैसे संस्कार के माध्यम से अधिकांश माताएँ अपनी बेटियों को स्वपीड़ा में तड़पने के लिए तथा दुखों का गरल पीने के लिए विवश कर देती है, मगर कवयित्री ने आधुनिक माताओं से आवाहन किया है कि वे अपनी बेटियों को कभी भी ऐसी शिक्षा न दे जिसकी वजह से उनके अपने स्वाभिमान को ठेस पहुंचे। साथ ही साथ, उन्हें स्वावलंबी बनाकर जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने की शिक्षा ताकि

कभी भी उसे अपनी पुत्री जन्म पर दुख नहीं होगा। इस प्रकार से यह कविता न केवल पूर्ण रूप से नारीवादी है वरन नारी को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाकर समाज के उत्थान में कदम से कदम मिलाकर योगदान देने के लिए भी प्रेरित करती है। कवयित्री की इस कविता में चीन के माओ-त्से-तुंग की विचारधारा साफ झलकती है। चीन भारत के दो साल बाद आजाद हुआ। चीन भी कृषि प्रधान देश था और भारत भी। मगर आज चीन विश्व शक्ति के रूप में उभरकर सामने आ रहा है, केवल नारी को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाकर देश के सकल घरेलू उत्पाद में उनकी भागीदारों को नई दिशा देकर। मगर आज भी भारत में महिला आरक्षण तथा महिला सशक्तिकरण जैसे नारों को बुलंद करना केवल एक दिखावा है। यह तभी संभव है जब हम पुरानी परम्पराओं को बदलकर नवीन विचारधाराओं के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए महिलाओं को आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करे।

“स्मृत सब हो जाएगा” कविता में कवयित्री ने पुरुषों को ललकारते हुए चेतावनी दी है कि सावधान पुरुष! सावधान हो। इतिहास उठा पृष्ठ उलट, स्मृत सब हो आएगा। स्वयं को यदि पहचान गया त्रिया को जान पाएगा। नारी को अब शर्म से सिर झुकाने कि कोई जरूरत नहीं, बल्कि उसे अपनी आप में गर्व महसूस होना चाहिए। जो उसे “नर्क का द्वार”, “त्रिया चरित्र” कहते हैं। उन्हें अपना आप का ज्ञान होना चाहिए। अगर नारी नहीं होती तो सारा सृष्टि चक्र रुक गया होता। पुरुष वर्ग अपने अहम-तुष्टि के लिए षड्यंत्र रचकर नारी को अपने हाथ की कठपुतली बनाकर अब तक स्वार्थ सिद्ध करता आया है। भले ही, आदमी में शारीरिक शक्ति ज्यादा हो मगर मन की शक्ति तो सदैव क्षीण रहती है। तब जब भी वह पराजित होता है तो पुनः शक्ति लेने के लिए घर या बाहर की किसी भी औरत से संपर्क साधता है। इस तरह कवयित्री की इस कविता नारी जगत को ओजस्वी उद्बोधन से सिर उठाकर जीने का संदेश देती है।

“अब भी” कविता में एक दार्शनिक कविता है जो नारी मन को संवेदना व संवेग को दर्शाती है कि किस तरह नियति उसके साथ खिलवाड़ करती है और उसे इंतजार के समुद्र में डूबो देती है। तभी तो वह कहती है किनारा ही दूर कर देता है उसे शायद ! यही नियति है लहर की/ जबकि, स्थिर किनारा/ प्रतीक्षारत लगता है अब भी/इस तरह हिंदी-उर्दू मिश्रित शब्दों से बनी इस खंड की सारी कविताएं नारी-अस्मिता पर वर्तमान युगीन प्रश्न उठाती है।

तीसरा खंड: दीप-दर्पण

कविता-संग्रह के तीसरे भाग “दीप-दर्पण” में कवयित्री ने आधुनिक समस्याओं पर आधारित अंतर्वस्तु को समाहित करती हुई अपनी दस कविताओं को संकलित किया है। इस खंड में कवयित्री ने कई ऐसी कविताओं की रचना की,जो उनके अंतस में छुपे मनोवैज्ञानिक धरातल पर ईश्वर के प्रति अगाध आस्था के रूप में अपने अनोखे आध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रदर्शन करती है। “इक टीस उठी” कविता में कवयित्री ने आने वाले कल के बारे में कुछ ऐसा सोचा कि उसके सीने में एक टीस उठने लगी जैसे कि वह सोचती है सारे पर्वत शिखर नष्ट हो जाएंगे, जल प्रपात सूख जाएंगे, पृथ्वी पर भूकंप आने लगेंगे और सारी सृष्टि नष्ट हो जाएगी। मगर फिर भी सृजन का काम अविरल चलता रहेगा और महल फिर से नवनिर्मित हो जाएगा। इसी तरह वह सोचती है कि वे लोग जो कल हमारा साथ दे रहे थे, वे आज नहीं है और जो आज जो साथ दे रहे हैं वे लोग कल नहीं होंगे। फिर भी सृष्टि क्रम चलता ही रहेगा। केवल हमसफर बदलते जाएंगे। यह सोचकर ही उसके दिल में टीस उठने लगती है। ऐसी अवधारणा प्रकृति के माध्यम से ही कवयित्री ने प्रस्तुत की है – नव कोपलें मुकुलित होंगी/ प्रसून प्रतीत हो जाएंगे/ किन्तु, ऋतु-क्रम सतत चलेगा/ शिशिर-बसंत,आएंगे-जाएंगे।कवयित्री ने सामाजिक कुरीतियों, विपर्यय तथा विसंगतियों को उजागर करते हुए लिखा है कि इतना कुछ होने पर भी सृष्टि-क्रम चलता ही रहता है वह बिलकुल थम नहीं जाता है।इक टीस उठी तब सीने में/जब भी सोचा दिल में/ चुभने न दिया कंटक जिसे/ अंगारों में उसे जला दिया/ पुष्प-पर्यंक पर जिसे सुलाया/ माटी में उसे मिला दिया/आज सिसकियाँ लेकर रोते/कल पुनः मुस्काएंगे/ सूर्य,चन्द्र,पृथ्वी–पवन,अविराम चलते जाएंगे।

जहां ‘इक टीस उठी’ कविता में कवयित्री ने सृष्टि के प्रलय की कल्पना मात्र में अपने हृदय में उठ रही टीस, को अभिव्यक्त किया है, जबकि ‘अंदाज-ए-इबादत’ में सर्वधर्म समभाव को प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न धर्मों की प्रार्थना। इबादत की विभिन्न शैलियों मान्यताओं तथा आस्थाओं के गूढ़ार्थ में ईश्वर-प्राप्ति के उद्देश्य को प्रतिपादित किया है।

“अंदाज-ए-इबादत" कविता में कवयित्री पूजा की विभिन्न पद्धतियों को सामने रखते हुए यह कहना चाह रही है कि जैसे बरगद कि विभिन्न शाखाओं का उद्देश्य केवल उस तक पहुँचना होता है उसी तरह हिन्दू मंदिर में, मुसलमान मस्जिद में और ईसाई गिरजा-घर में तथा सिख गुरुद्वारा में इबादत करने का मकसद केवल ईश्वर को पाना ही है। इसी तरह चाहे हमारा दफन हो, चाहे हम चीता पर जलाएँ, मगर मिटते हम एक ही मिट्टी में है। भले ही संप्रदाय हमें दृष्टि-भाव से अलग-अलग करता है, मगर सभी का धर्म एक ही है।

तू मंदिर, मैं मस्जिद जाता।

ये गिरजाघर, वो गुरुद्वारा।

मकसद एक ही हम सबका।

अंदाज-ए-इबादत है जुदा।

इस खंड की कुछ अन्य कविताओं में ‘सोच जरा कर विचार’,‘अपेक्षा’,रे मन’, ‘आत्म-विश्वास’, ‘अपने-अपने रास्ते’ में सदियों से चली आ रही मानवीय उत्कंठा इच्छा व जिज्ञासा को सामने रखने का कवयित्री ने प्रयास किया है। स्वर्ग-नरक,सुख-दुख के कारणों तथा उससे त्राण दिलाने वाली युक्तियों के साथ-साथ इन कविताओं में आधुनिक युग की समस्याओं जैसे- नक्सलवाद,माओवाद तथा आतंकवाद के फलस्वरूप पैदा हो रही प्रतिशोध की ज्वाला से हो रहे नर-संहार की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। इस कविता में कवयित्री ने स्वर्ग और नर्क की तार्किक परिभाषा प्रस्तुत की है। अगर इंसान  संतुष्ट वह प्रसन्नचित्त रहता है तो क्या वह स्वर्ग लोक से कम है? और जिस घर में हमेशा क्लेश छाया रहता है वह जगह नरक से क्या बदत्तर नहीं है? इसी तरह सुख-दुख, क्रोध, अहम,विक्षुब्धता,प्रतिशोध की भावना, उन्मत्तता सभी तो इंसान के अंतःकरण की चीजें हैं। इस चीजों का बाह्य जगत से कोई लेना-देना नहीं है। कवयित्री आगे यह भी कहती है कि क्रोध की ज्वाला में आदमी पहले खुद जलता है फिर उसकी लपट दूसरे तक पहुँचती है। इस तरह वह अपना दुश्मन खुद बन जाता है। कवयित्री ने इस जगत के यथार्थ को भी सामने लाया है कि कोई किसी का नहीं होता है बिना किसी स्वार्थ के। इसी तरह इस दुनिया में अकेले आए हो तो अकेले ही जाओगे। अतः अपने भीतर परम आनंद की अनुभूति करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। मगर इन सारी चीजों को एक तरफ रखकर मनुष्य प्रतिशोध की ज्वाला में जलता हुआ  नर-संहार करता जाता है। क्या मानवता मिटाने वाले इस धर्म को अपनी पीढ़ी को उपहार स्वरूप विरासत में देकर जाएगा।( ज्ञान नहीं, संतति को अपनी/ नर-संहार तू सिखलाएगा/ भावी पीढ़ी को अपनी/ धरोहर यह दे जाएगा) इस कविता में कवयित्री ने पर्यावरण संरक्षण की भी बात उठाई है कि जीवन मिटाकर किया गया विकास क्या विकास कहलाता है ? ऐसी संस्कृति क्या संस्कृति कहलाती है?

कवयित्री की कविता “अपेक्षा” एक दार्शनिक कविता है जिसमें दुखों का मूल कारण अपेक्षा बताया है। पत्नी को पति से,गृहस्थ को संत से, सास को बहू से, पिता को पुत्र से, मालिक को मजदूर से और सभी को एक-दूसरे से काम अथवा नाम की अपेक्षा है। मगर जब वे अपेक्षा पर खरे नहीं उतरते तो वे एक दूसरे की उपेक्षा करने लगते हैं। जिससे निराश मन अपनी जिजीविषा को खो देता है। जैन-धर्म के सैद्धांतिक सत्य (दुनिया दुखों की नगरी है। दुखों का कारण वासनाएं/अपेक्षाएं हैं।) को कवयित्री ने ‘अपेक्षा’ कविता में उद्धृत किया है :-

अपेक्षाएं हैं दुख का कारण

होती  नित  हमें अकारण।

और दूसरी कविता में इन वासनाओं से ऊपर उठकर दुखों से मुक्ति पाने की सलाह दी है ताकि जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। ‘रे मन’ कविता की पंक्तियों में देखें :-

विडम्बना है ये तेरी।

चाहत के इस भंवर में।

कुछ नहीं तू कर पाता ।

एक कृत्य ही तू कर ले।

जीवन सार्थक हो जाएगा।

पहले खुद से पहचान कर।

तब जग को जान पाएगा।

‘हवस” कविता में कवयित्री ने भूख के अलग-अलग प्रकार बताएं हैं। किसी को ज्ञान की, किसी को जिस्म की, किसी को दौलत की तो किसी को शोहरत की मगर पेट की भूख के आगे ये सारी दूसरी भूखें तुच्छ है। वह भूख विद्वान, अमीर, गरीब, बादशाह, फकीर, नेता, अभिनेता किसी में भी अंतर नहीं समझती। मगर हवस का आधिक्य एक पल में इंसान को हैवान बना देता है तभी तों चाणक्य ने कहा है “बुभुक्षितं किम न करोति पापं”

कवयित्री की “नजरिया” कविता जिंदगी के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की सीख देती है वही “रे मन” कविता हताशा के गलियारे में भटक रहे मन को अपने आप से पहचान कर ईश्वर के प्रति समस्त समर्पण भाव से कर्म करते हुए जीवन को सार्थक बनाने का आवाहन करती है।“आत्मविश्वास” कविता में मनुष्य के भीतर अपनी दिव्य-शक्तियों को केंद्रीभूत करने तथा क्षण-भंगुर जीवन को आत्मविश्वास के साथ जीने का संदेश देती है :-

सर्वश्रेष्ठ कृति तू ईश्वर की !

दुर्लभ, मानव जीवन पाया

दिव्य शक्ति तुझमें भी उसकी,

फिर क्यों जीवन व्यर्थ गंवाया।

"वक्त" कविता में कवयित्री ने वक्त की महत्ता पर प्रकाश डाला है कि किसी मेहमान की तरह वक्त आता-जाता है,कभी ख्वाब और पतझड़ के फूल बनकर खिलता है तो कभी बिखर जाता है सूर्य किरण बनकर,कभी जीवन द्वीप बनता है तो कभी आशा द्वीप।“‘अपने-अपने रास्ते’” कविता में कवयित्री ने समाज के मरने पर फैल रही बदबू पर शिकायत करने वालों से शिकायत की है कि वे पहले अपने आपको बदले तब जाकर समाज बदल जाएगा। यह कविता गायत्री परिवार के संस्थापक डॉ॰ राम शर्मा आचार्य के अनुसार ‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ नारे को चरितार्थ करती है।केवल कोरे उद्देश्य,मिथ्या-भाषण,आरोप-प्रत्यारोप से समाज का उद्धार नहीं होने वाला है। इस कविता में कवयित्री ने आधुनिक समाज की संकीर्ण भावनाओं पर जबरदस्त कुठाराघात किया है कि कोरे उपदेश व मिथ्या भाषण से समाज में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। इसके लिए जरूरत है तो पहले अपने आप को बदलकर बिना किसी से कुछ शिकायत किए ठोस प्रयास करने की। वरना,चल देंगे सभी,अपने-अपने रास्ते।कवयित्री के इस कविता संग्रह की विशेषता रही है कि उर्दू-हिंदी मिश्रित कविताओं को भी कविता के हर फलक व दृष्टिकोण में सामने रखने की चेष्टा की है।

चौथा खंड: प्रेम प्रतीक्षा

इस कविता के चतुर्थ खंड ‘प्रेम प्रतीक्षा’ में कवयित्री ने मानवीय हृदय के प्रेम उद्गार को तराशने का सार्थक प्रयास किया है। ‘आग़ाज-ए-गुफ्तगू’,‘भंवर–ए-इश्क’,‘मुहब्बत’,‘तमन्ना’,‘इंतजार’ आदि उनकी ऐसी कविताएं हैं,जिनमें दिलों में प्रेम के पनपने के लक्षण,इश्क के भंवर में डूबने के खतरों,प्रेम-प्रतीक्षा व वायदों की वृष्टि,प्रेम में कुछ कह न पाने का अफसोस तथा प्रेम-प्रतीक्षा में गुजर रहे हर लम्हों का मार्मिक वर्णन कवयित्री ने अपनी काव्यानुभूतियों के माध्यम से किया है। जबकि ‘प्रीत ने ली अंगड़ाई’, ‘रिश्ता’, 'आंचल’, 'कैसे भुलूं और ‘मेरे जीवन साथी’ कविताओं में कवयित्री ने आवृत्त हृदय को अनावृत्त करने, देहातीत संबंधों की संभावनाओं,कांटों भरे आंचल में रिश्ते बनाने की चाहत,विस्मरण शक्ति के क्षीण होने के साथ-साथ जीवन-साथी के प्रति पूर्ण समर्पण भाव को दर्शाया है।

‘आगाज-ए-गुफ्तगू’ कविता में कवयित्री ने स्पष्ट किया है कि प्रेम-संवाद का माध्यम न केवल जुबान है, वरन आँखेँ भी हृदय के रिश्ते को प्रकट करती है। ऐसे रिश्तों में समय कैसे पार हो जाता है, पता ही नहीं चलता, सदियाँ की सदियाँ कब पार हो गई, मगर अगर संबंध दिखाने का होता है तो एक क्षण काटना भी मुश्किल होता है, ऐसा लगता है मानो वह क्षण किसी सदी से कम नहीं हो और अटूट संवादहीनता की अवस्था पैदा हो जाती है। ‘प्रीत ने ली अंगड़ाई’कविता यौवनावस्था के प्रेम की प्रतीक्षा में बाट जोहती प्रेमिका के दिलों के भावों को बखूबी उजागर किया है, वहीं ‘भंवर-ए-इश्क' में प्रेमी की स्मृतियों में नायिका की दीवानगी  ‘मेघदूत’ व ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की याद दिला देती है। ‘रिश्ता’ कविता में कवयित्री ने संबंध को दो वर्गों में बाटा है। पहला, शरीर का तो दूसरा आत्मा का। शरीर की खुशबू तो क्षणिक है, मगर आत्मा की महक तो दिनोदिन बढ़ती जाती है। अक्सर लोग प्रेम के नाम पर जिस्मानी संबंध बनाते हैं, वफा की कसमें खाकर बेवफा हो जाते हैं और छद्म-प्रेम के जख्म अपने सीने में छुपाकर जीवन भर उसे झेलते हैं।‘आँचल’ कविता में कवयित्री ने अपने आँचल को काँटों से भरा दिखाया है और सचेत किया है कि अगर किसी ने इसे छू लिया तो उसमें उलझकर एक नया रिश्ता बन जाएगा। ऐसी ही अनुभूति ओडिया भाषा के प्रसिद्ध कवि रमाकांत रथ ने अपनी कविता ‘यशोदा’ में अभिव्यक्त की है। ‘मुहब्बत’ में प्यार की तड़प को प्रकट करते हुए हंसी और खुशी में अंतर प्रकट किया है। "हंसी में खुशी में फर्क है ए दोस्त/ हँसता रहा महफिलों में, हँसाता रहा/ खुशी को न कभी जाना तूने/ तन्हाई में अश्क बहाता रहा।"“कैसे भूलूँ” कविता में कवयित्री ने अपने पुराने दिनों की बातों को भूलना चाहती हैं, मगर क्या जिंदा अवस्था में उन बातों को भुला जा सकता है ? जब अविरल साँसों का आना-जाना, दिल की धड़कन, गरम हवा की चुभन, सर्द हवा की सिहरन, खुशबू, मधुर स्वाद, स्वप्निल आँखें, अपेक्षा-उपेक्षा, तिरस्कार आदि के मनोभाव उसे भूलने दे सकेगा? ‘तमन्ना’ कविता में अनकही बातों को होठों तक आते-आते गुम हो जाने से पूर्व सुन पाने की इच्छा प्रकट की है और इसी तरह कल्पनालोक में अपने प्रियवर हँसते मुसकराते देखने की भी वह तमन्ना रखती है।अनबूझे अनेक जज्बाती तमन्नाओं को अपने भीतर समेटे रखी है। ‘मेरे जीवन साथी’ कविता में कवयित्री ने आँसूओं को अपना जीवन साथी चुना है, तभी वीरानगी, दीवानगी और तन्हाई के आगोश में वह बुरी तरह रोना चाहती है यह कहकर –

हमजोली है अश्क मेरे/ छोड़के न जाएंगे/ हमकलाम है तनहाई/ आप न बन पाएंगे

‘इंतजार’ कविता में कवयित्री उन खुशियों के लौटने का इंतजार करती है, जिन्हें उन्हें अपने हाथों से विदा कर देती है और चुपचाप बैठकर जमाने की बेड़ियों से बंधकर बिना एक कदम आगे बढ़ाए बंद दरवाजे पर खुशियों की खटखटाने की आवाज सुनने लगती है। तभी वह कहती है –"करूंगी इंतजार, हर लम्हा उनका/ खुशियाँ गुजरा वक्त नहीं-जो न/ आएंगी लौटकर कभी।"

पांचवा खंड: इंद्र धनुष

इस कविता के अंतिम खंड ‘इन्द्र धनुष ’ में डॉ. प्रभा पंत ने अपनी कलम के माध्यम से विभिन्न सतरंगी विषयों जैसे कविता,देश,पर्यावरण जीवन,मौन संवाद अपने आप से शिकायत करने तथा हृदय की अंतरंग संवेदनाओं को उकेरने का प्रयास किया है। जहां ‘तब कविता बन गई’ में कवयित्री ने कविता लिखने के समय हृदय-तंत्र में होने वाली अकुलाहट अधीरता,अंतर्मुखी होने के भावों के साथ-साथ भावनावश अश्रुधारा बहने के अंतर्भावों का उल्लेख किया है। अक्सर नए कवियों के सामने यह प्रश्न उठता है कि कविता कैसे लिखी जाए? अथवा कवियों के मन में ऐसी क्या बात आती है कि वे लिख पाते हैं ? डॉ ॰ प्रभापन्त की कविता ‘तब कविता बन गई’ की तुलना ओडिया की दीपक मिश्रा की कविता ‘कविता के लिए घर’ में की जाए तो तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कवयित्री ने स्पष्ट शब्दों में कविता के अंतर्वस्तु की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है कि कविता बनाने के लिए रचनाकार के हृदय में वियोग, स्वप्न, अधीरता, अंतर्जगत्, प्रेम, यादों के टूटने-जोड़ने आदि दृशावलियों का गहन अनुभूति आवश्यक है। उसी अवस्था में कविता लिखी जा सकती है,जिस अवस्था किसी आदमी को किसी समुद्र या नदी या जलाशय में जबरदस्ती पकड़कर डुबोया जाता है तब अपने आपको बचाने के लिए जो अकुलाहट उसके भीतर पैदा होती है।ऐसी ही अकुलाहट कवि के भीतर कविता लिखते समय होनी चाहिए,अन्यथा वह कविता अवरुद्ध हो जाएगी:-

भावों की लड़ी टूटकर

मोतियों-सी बिखर गई।

अवरुद्ध होकर जब बढ़ी

कविता अवरुद्ध हो गई।

'देश का भविष्य’ कविता में कवयित्री ने आधुनिक शिक्षा की परीक्षा-प्रणाली पर खेद प्रकट किया है। ‘पेट की खातिर काटता पेड़’ कविता में किशोर लकड़हारे की निर्धनता के कारण पेड़ काटने की विवशता, ‘जीवन क्या है ?’ कविता में निष्काम कर्म करने का संदेश ‘मौन संवाद’ में जीवन में सुख-दुख के थपेड़ों तथा परिवर्तनशील नैसर्गिक प्रक्रिया का निस्पृहता के साथ कवयित्री ने वर्णन किया है। इसी तरह जीवन के कुछ छुए-अनछुए प्रसंगों को झकझोरती उनकी कविताएं ‘न जाने क्यों’,दिल’, ‘तुझसे सुरभित जीवन मेरा’, 'मुझको मुझमें जीने दो’ आदि काव्य-पाठकों को सहजता से अपनी ओर आकृष्ट करती है। ‘देश का भविष्य’ कविता में कवयित्री ने आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर सवाल उठाया है कि आने वाली पीढ़ी अगर नकल कर परीक्षाएँ पास करेंगी तो देश का भविष्य कैसा होगा ? इधर-उधर ताकते-झाँकते हाथों में प्रश्न-पत्र थामकर सिगेरट की तरह होठों में कलम दबाए गुट्खा जुगाली करते, अंगड़ाइयाँ लेते, सिर खुजलाते, जम्हाई लेते, च्विंगम खाते, पलकें झपकाते,गर्दन आगे-पीछे घुमाते बुदबुदाते अधिक नंबर पाने की चाह में कॉपी के पन्ने पलटकर नकल करते नजर आते हैं। अध्यापन क्षेत्र से दीर्घ समय से जुड़े होने के कारण अपनी कविता में कवयित्री अत्यंत सजीव चित्रण प्रस्तुत करने में समर्थ सिद्ध हुई है कि ऐसी अवस्था में देश का भविष्य आपने आपको धोखा नहीं दे रहा है ? ‘पेट के खातिर काटता पेड़’ कविता की तुलना सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘पत्थर काटती वह' से की जा सकती है। एक शोषित निर्धन परिवार के किशोर को अपने पेट के खातिर उंचें पेड़ पर चढ़कर जान जोखिम में डाल काटता देख मन उसी दुख से भर उठता है, जिस दुख से सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ इलाहबाद की सड़कों पर पत्थर काटती किसी महिला को देखकर विचलित हुए थे। कवयित्री के शब्दों में –

"क्यों इतनी ऊपर चढ़ा/ पद-पीड़ा वह सह गया/ उसने देखा भी नहीं/ छिलते अपने पैर को"

‘’जीवन क्या है ?’ जैसे अबूझ सवाल को इस कविता में कवयित्री ने अपने दार्शनिक दृष्टिकोण से परिभाषित करने का प्रयास किया है। अनेक धर्मशास्त्र, पुराण तथा मेटाफिजिक्स की पुस्तकों में ‘जीवन’ के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है, मगर मुझे सबसे ज्यादा अगर प्रभावित या किसी परिभाषा ने तो, तो वह गीता में दी हुई जीवन की परिभाषा । जन्म से पूर्व काल का हमें ज्ञान नहीं और न ही मृत्यु के बाद के समय का। तब इन दोनों के मध्य व्यक्त समय ही जीवन है और इसके प्रतिपल की निस्सारता का अहसास करना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। दूसरे शब्दों में, जीवन हर्ष-विषाद के क्रीड़ास्थल में खेली जाने वाली आँख-मिचौनी मृगतृष्णा का दूसरा नाम, ‘स्व’ से अपरिचित रहकर स्वजनों के लिए कर्म करने की अनसुलझी पहेली, 'सहज मिले सो अमृत है' चरितार्थ करने वाली उक्ति का नाम है और जब मृत्यु ही जीवन का अंतिम सत्य है तब कवयित्री का यह आवाहन शत-प्रतिशत सही है :-

जीवन का प्रतिक्षण, अंतिम क्षण

इस पल हंस लो, इस पल जी लो

जीवन क्षुधा आज ही पी लो।

व्यर्थ करते हो कल की चिंता

कल, कभी नहीं आएगा

आज अभी सुंदर बन जाए

कल स्वतः संवर जाएगा ।

जीवन की उपर्युक्त अनसुलझी पहेली का समाधान कवयित्री अपनी दूसरी कविता “मौन-संवाद” में करती नजर आती है। वह जीवन को न केवल परिवर्तनशील मानती है वरन पेड़-पौधों के जीवनचक्र को लेकर भी कई प्रश्न आपसे पूछने लगती है। जैसे ये पेड़-पौधे पल्लवित पुष्पित कैसे होते है? पतझड़ के मौसम में ठूंठ मात्र क्यों रह जाते हैं ? अचानक पतझड़ में पत्रहीन और बसंत में फिर से पुष्पित होने का राज क्या है? जहां सूखी पत्तियाँ मिट्टी में मिलकर प्रकृति उनका खाद बनाकर अपना दायित्व निभाती है ताकि बसंत के मोहक मौसम में कोपलें शाखों पर मुसकाने लगे। अंत में, प्रकृति के इन उदाहरणों के माध्यम से कवयित्री गीता के दूसरे अध्याय का यह संदेश देने में सफल हो जाती है –"गतासूनगता नानू शोचंती पंडिता” के इसी श्लोक को कवयित्री अपने शब्दों में कहती है:-

निराश कभी होती नहीं / षडऋतुएँ आतीं-जातीं /

‘हकीयत उसी की’ कवयित्री की भले ही, छोटी कविता हो, मगर अपने भीतर एक सारगर्भित  संदेश देती है। वह कहना चाहती है कि यह दुनिया किसी की भी व्यकतिगत जमींदारी नहीं है, इसलिए हुक्म चलाने वाले बनने से बेहतर होगा ‘हातिम’ बनकर दिखलाना। क्या कोई इंसान ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने की क्षमता रख सकता है। सृष्टि की चमक ईश्वरीय सत्ता से ही है तभी तो वेदों में भी कहा गया है :-

“ओ हिरण्यगर्भ समवत्तर्ताग्रे. भूतस्य जात पतिरेक आसीत। सा दाधार पृथ्वीम धामुतेमा  कस्मे देवाय हविषा विधेम” अर्थात ईश्वर की सत्ता ही सारे खगोलीय पिंडों को अपने गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बाँधें रखती है,इसलिए दुनिया में किसी की उपासना करनी है तो केवल उस सत्ता की। उसके सिवाय किसी की भी नहीं। कवयित्री इसी भाव को दूसरे शब्दों में कहती है –क्यों हरीफ़ (शत्रु) समझता है/ तू मुझको/ बनना है गर, तो/ हक शिनास (ईश्वर को जानने वाला) बन जरा” अर्थात मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य ईश्वर अनुभूति है ।

“खुद से शिकायत है मुझे” एक यथार्थपरक कविता है, जो दुनिया के स्वार्थ, अविश्वास, यश-अपयश, नामधारी छदम गुरुओं के कारनामों को पर्दाफाश करती है, वहीं आपने आप से शिकायत भी करती है, यह कहकर –

"दस्तूर है जमाने का या इंसानी फितरत/जानवर बना इंसान या खुदा की कुदरत?/शिकायत तुझसे नहीं,खुद से है मुझकों/क्यों समझता अपना, इसको, उसको, तुझको?"

‘न जाने क्यों’ में भी कवयित्री ने कई सवाल खड़े किए है, पता नहीं क्यों, जिस किसी से मुलाकात होती है, उस पर आजकल शक होने लगता है। ऐसा लगता है मानो हमारा कुछ खो गया है। पता नहीं क्यों, वह शख्स मेरा होकर भी मेरा नहीं है। मैंने खुद को खोकर पता नहीं ऐसा क्या पा लिया। अंत में, वह यथार्थ को चरितार्थ करते हुए कहने लगती है कि आज कल के संबंध दिल पर आधारित न होकर किसी की जान लेकर बनते है। तभी तो वह कहती है – नादां है हकीकत से नावाकिफ हैं अभी/ दिया है जो पाएंगे खुद भी कभी न कभी।  ये पंक्तियाँ गीता के सार्वभौमिक संदेश “जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान” अथवा अँग्रेजी की कहावत (tit for tat) के सत्य को स्थापित करती है ।

‘दिल’ कविता चूर-चूर होते आधुनिक रिश्तों की पृष्ठभूमि पर कई सवाल पैदा करती है, जैसे अपनों में बेगानापन, रिश्तों की नीलामी, नजरों में वहशियत, आदमी में हैवानियत को देखकर दिल चौंक जाता है क्योंकि दिल की बात हों या घात दिल ही समझता है। दिल की गांठ दिल में ही सुलझती हैं।

‘तुझसे सुरभित जीवन मेरा’ कविता फिल्म बागवान की तरह आधुनिक पीढ़ी में पल रहे बच्चों की हृदय में अपना वात्सल्य खोजती है। वह कहती है – “तू प्रथमांकुर, जीवन का मेरे / तुझसे सुरभित जीवन मेरा"। मगर जब पुत्र बड़ा हो जाता है तो वह उससे अनुनय विनय करती है मुझको कुछ पल दे दे अपने

सर्वस्व मेरा ले-ले मुझसे

तुझ पर अब अधिकार नहीं ?

जननी पूछती पुत्र तुमसे

‘मुझको मुझमें जीने दो’ कविता में कवयित्री ने जीवन की अनिश्चितता की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि कब, क्या हो जाएगा, कोई सोच सकता है ? अंकुरित कोपलों को क्या देखकर कभी किसी ने सोचा भी था कि एक दिन उनका अंत भी होगा ? सारी दुनिया जानते हुए भी अनजान बनी रहती है। उन्हें क्या पता कि जीवन एक खिला हुआ पुष्प है, जिसमें मकरंद छिपा है। उस मकरंद के लिए कवयित्री कहती है कि अब में उसे पीना चाहती हूँ क्योंकि वही मेरा जीवन है। इस हेतु किसी भी प्रकार की रोक-टोक करना ठीक नहीं अर्थात मेरा जीवन अब है मेरा/ मुझकों मुझमें जीने दो।

इस तरह कवयित्री अपनी प्रखर काव्याभिव्यक्ति के माध्यम से कम से कम शब्दों में अधिकतम एवं गंभीरतम भावों,विचारों को अत्यल्प समय में पाठकों के मनोमस्तिष्क में पहुंचाने में समर्थ रही है। अंत में, मैं यह आसानी से कह सकता हूँ कि इस कविता-संग्रह की भाषा अपनी सूक्ष्मता में आध्यात्मिक भावों एवं विचारों के संश्लेषण करने के साथ-साथ उनमें सांद्रता,सघनता और नैसर्गिक सौंदर्य के गुणों वाली है। इस सरल,सहज व स्वच्छ भाषा के माध्यम से ही हम कवयित्री डॉ. प्रभा पंत के अनुभव संसार में से गुजरते हुए उनके अभिप्रेत अर्थ तक पहुंचकर उनका अंत: साक्षात्कार कर सकते हैं। कवयित्री की कुछ कविताओं की विशेषता रही है,हमारे जीवन में घुले-मिले उर्दू के साहचर्य से अरबी-फारसी शब्दों की प्रधानता। जिस तरह से कवयित्री ने अपनी कविताओं में सारे दृश्य-विधान तथा भाव-विधान को भाषा-विधान के सहारे विकसित किया है,उससे उनका काव्य-सौंदर्य,गहन अर्थवत्ता और अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता देखते बनती है,आध्यात्मिक तत्व-दर्शन की जटिलता के बावजूद भी। कवयित्री अपने समय के प्रति सचेत भी है तभी तो नए विचार नई कथावस्तु को अपनी कविताओं में प्रतिबिंबित किया है। इस कविता-संग्रह की कविताओं से यह स्पष्ट है कि –

1. कवयित्री की विचारधारा आध्यात्मिक है। उनकी खोजी निगाहें सर्वत्र ईश्वर के अनुसंधान में लगी रहती हैं।

2. कवयित्री की कविताओं में नारी केंद्रित है।

3. वह जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं।

4. शारीरिक प्रेम की तुलना में देहातीत प्रेम के प्रति ज्यादा झुकाव है।

5. समसामयिक समस्याओं के प्रति कवयित्री पूरी तरह से जागरूक है

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रचनाकार: "तेरा तुझको अर्पण" को मेरे हृदय-सुमन समर्पण
"तेरा तुझको अर्पण" को मेरे हृदय-सुमन समर्पण
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