डॉ0 दीपक आचार्य कहा जाता रहा है कि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है पर अब मछली एकमात्र नहीं होती, मछलियों ने संगठन की ताकत को स...
डॉ0 दीपक आचार्य
कहा जाता रहा है कि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है पर अब मछली एकमात्र नहीं होती, मछलियों ने संगठन की ताकत को समझ लिया है तभी अब एक ही तालाब में खूब सारी ऎसी समान दुराचार-दुव्र्यहार वाली मछलियाँ रहने लगी हैं जो न केवल तालाब को ही गंदा कर डालती हैं बल्कि तालाब के तटोें तक को खा जाती हैं, आस-पास के तालाबों और पोखरों तक में अपनी करतूतों का कमाल दिखाती रहती हैं।
और तो और अब मछलियों ने दूसरे जलीय जीवों को भी जलेबियां दिखा-दिखा कर अपने बस में कर लिया है और उनके सहारे तालाब के वजूद तक को चुनौती देने लगी हैं। मछलियों ने अपनी ही तरह की मछलियों और माछलों को लेकर नदियों और समन्दर तक में अपनी आतंकवादी गंध को पहुँचा दिया है। सिर्फ मछलियां ही नहीं अब दरियाई घोड़ों, साँपों और घड़ियालों-मगरमच्छों तक को नए जमाने की हवा लग चुकी है। तभी तो ये सारे के सारे उतर आए हैं अपनी पर।
अब अपना कहने को कुछ नहीं रहा, सब मानते हैं कि यह मेरा है। इसी मेरा-तेरा के चक्कर में सारे के सारे लगे हुए हैं। छीना-झपटी और मुफ्तखोरी का धंधा सब तरफ परवान पर है। जब बिना कुछ किए, शातिराना अक्ल लगाकर ही सब कुछ हासिल होता रहे तो कौन होगा जो कुछ काम करना चाहेगा, मेहनत करने की इच्छा करेगा।
हर तरफ बिना पुरुषार्थ के बहुत कुछ, सब कुछ पा जाने का उतावलापन इस कदर हावी है कि हर कहीं लगता है कि जैसे एक-दूसरे के हाथ और कब्जे से छीनने की कोई वैश्विक प्रतिस्पर्धा ही हो रही हो। जमाने का चलन भी कुछ इसी प्रकार के ढर्रे पर चल पड़ा है। न लहरों में तैरने का आनंद कोई चाहता है, न हवाओं का संगीत सुनने को जी मचलता है। न दुनिया को जानने और ज्ञान पाने का माद्दा दिखता है, न और कुछ।
सिक्कों की खनक और बैंक लॉकरों के सिवा अब किसी को कुछ नहीं दिखाई देता। इस तृष्णा के मारे मृग मरीचिका में भटके और अटके हुए सारे के सारे स्वयंभू हो चले हैं। सब को लगता है कि वही राजा या राजकुमार, रानी, पटरानी या महारानी हैं। और उनके अलावा जो भी हैं वे सारे हमारे दास-दासी या अनुचर।
सामाजिक बदलाव के इस भयानक दौर में कोई ही कोना शायद ऎसा बचा होगा जिसमें मातृभूमि की सेवा का कोई प्रगाढ़ भाव निहित हो। अन्यथा सब तरफ अपने ही घर को मातृभूमि मानकर भरने का जो सिलसिला चल पड़ा है उसने हमें कहीं का नहीं रहने दिया है।
और तो और हम अब हमारे अपने तक भी नहीं रहे, पराये हो चले हैं। बहुत सारे हैं जिनकी आत्मा ही मर चुकी है। इनके लिए संसाधन, जमीन-जायदाद, तरह-तरह की संपदा और पात्रताहीन प्रतिष्ठा पाना ही जीवन का परम ध्येय होकर रह गया है।
इसमें सभी किस्मों के लोग शुमार हैं। व्यक्तिवादी भी हैं और राष्ट्र के नाम पर चिल्लपों मचाने वाले भी। परम वैभव की बातें सारे करते हैं लेकिन इकाई-इकाई को वैभवशाली बनाकर परम वैभव का स्वप्न संजोये हुए हैं। मातृभूमि की सेवा और इसके लिए सर्वस्व समर्पण जैसी बातें अब खोखली होने लगी हैं।
जो जैसा है, दिखता है वह वैसा है नहीं। उसका कर्म, व्यवहार और वाणी सब कुछ उलट-पुलट है। केवल दिखाने भर के लिए हम धर्म, सत्य और न्याय की बातें करते हैं, उन पर अमल करने का साहस कितनों में है, यह आज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण यक्षप्रश्न है।
संस्कारहीनता और स्व के लिए सर्वस्व करने मात्र की संस्कृति ने सभी को जकड़ लिया है। सामाजिक लोक जीवन में भौतिक समृद्धि ही सर्वोपरि हो गई है, सर्वमान्य और लोक प्रतिष्ठ हो चुकी है। और सबसे बड़ा कारण यही है। इस वजह से ही लोग परंपरागत संस्कारों, सेवा और परोपकार के धर्म और मूल्यों की बलि चढ़ाते जा रहे हैं।
इन लोगों को वह बहुत सारा नहीं करना जिसके लिए हमारे पूर्वजों को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाने के लिए बरसों तक कठोर तप, त्याग और कठोरतम परिश्रम करना पड़ता था तब कहीं जाकर सामाजिक मान्यता प्राप्त हो पाती थी।
आज वह सब कुछ करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ भौतिक समृद्धि पा लो, पूंजीवाद का दामन थाम लो, बाकी सब कुछ अपने आप मिल जाएगा। अनुचरों की जमात भी मिल जाएगी और परिक्रमा कर जयगान करने वाले नर्तक भी भारी संख्या में तैयार हो जाएंगे।
इसी मानसिकता ने आज समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को इतना अधिक प्रदूषित कर दिया है कि ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती लोगों के लिए अपने अस्तित्व और प्रतिष्ठा को बचाए रखने का संकट पैदा हो गया है।
हर बाड़े में मनहूसों और शातिरों का साया पसरा हुआ है जो अपनी कालिख भरे आभामण्डल से पूरे के पूरे माहौल को इस कदर ढंके रहने में माहिर हैं कि हर तरफ लगता है कि जैसे ये ही कर्मयोगी हैं जिनके सहारे सब कुछ चल रहा है, दूसरे लोगों की तो केवल उपस्थिति मात्र है। फिर अंधेरों से अंधेरों की कड़ी से कड़ी हर कहीं मिली होती है इसलिए अंधेरों की सियासत करने वाले लोग उल्लूओं और चमगादड़ों की तरह हर तरफ डेरा डाले बैठे हैं। मजाल है कि रोशनी का कोई छोटा सा कतरा उनके बाड़ों और गलियारों में झाँक भी ले।
दुनिया में सभी अच्छे लोग किसी से दुःखी और आप्त हैं तो और किसी घटना-दुर्घटना या अभावों से नहीं, बल्कि उन लोगों से परेशान हैं जो अपने नम्बर बढ़ाने, अपनी चवन्नियाँ चलाने और खुद की वाहवाही कराते हुए अपने लाभों और स्वार्थों को पूरा करने के लिए मेहनतकश, पुरुषार्थी, निष्ठावान और ईमानदार लोगों को परेशान करने, असहयोग करने और नीचा दिखाने के लिए हर क्षण प्रयत्नशील रहते हैं।
आजकल हर तरफ मनहूस और शातिरों का बाहुल्य है। इन्हें कोई भी दिल से कभी पसंद नहीं करता किन्तु छोटे-छोटे स्वार्थ के चक्कर में लोग इनसे ऊपरी तौर पर नाता जोड़े रखते हैं और समझदार लोग दुर्जनों से दूर रहने की खातिर इनसे दूरी बनाए रखते हैं और सामान्य से अधिक संपर्क रखने से हमेशा परहेज रखते हैं।
इस किस्म के मनहूस, शांतिर और विघ्नसंतोषी लोगों का मूलमंत्र यही होता है कि अपने उल्लू सीधे करने हों, उल्टे-सीधे काम करते रहना हो तो सज्जनों को किसी न किसी प्रकार उलझाये रखो और खुद मस्त रहो। ताकि शेष सारे लोग दूसरे कामों, विवादों और प्रत्युत्तर में उलझें रहें और ये लोग अपने नापाक इरादों में सफलता पाते रहें, न कोई देखने वाला हो न कोई टोकने वाला।
समाज की इस भयावह और विद्रुपताओं से भरी दुरावस्था में सभी ऎहतियातों से बढ़कर यही है कि ऎसे मनहूस और शातिर लोगों से सतर्क रहें, इनके झाँसे में न आएं और अपने काम करते चलें। स्वकर्म के प्रति निष्ठावान भी रहें और गीता के कर्मयोग को अपना कर अधर्मियों के संहार में भी पीछे नहीं रहें। हम सभी का आज का पहला फर्ज यही है कि दुष्टों को ठिकाने लगाएं और सज्जनों के हितों की रक्षा करें।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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