डॉ. दीपक आचार्य धर्म का सीधा संबंध आत्मा से है। इसमें शरीर का कोई भेद कभी नहीं रहा। धर्म से लेकर कर्मकाण्ड के तमाम पहलुओं में परमात्म...
डॉ. दीपक आचार्य
धर्म का सीधा संबंध आत्मा से है। इसमें शरीर का कोई भेद कभी नहीं रहा। धर्म से लेकर कर्मकाण्ड के तमाम पहलुओं में परमात्मा का संबंध किसी शरीर से नहीं होता बल्कि आत्मा से ही होता है।
उपासना पद्धतियां जीवात्मा को शुद्ध भावभूमि पर लाकर परमात्मा के अवतरण अथवा दैवीय शक्तियों के प्राकटय के लिए परिशुद्ध हृदयाकाश तैयार करती हैं। शरीर के भीतर जो भी चक्र होते हैं वे स्त्री और पुरुष सभी में समान होते हैं और उपासना की यही अंतिम अवस्था है जहाँ जाकर जीव का परमात्मा से मिलन होता है।
साधना की पद्धति कोई सी हो, सभी की पूर्णता तभी है जब बाहरी कर्मकाण्ड और ईश्वर को मन्दिरों एवं मूर्तियों में तलाशने की बजाय शरीर के भीतर विद्यमान चक्रों में ईश्वर की खोज आरंभ हो जाए। इस दृष्टि से ज्ञान और योग मार्ग में तो इसे अनिवार्य माना ही गया है।
हालांकि प्रेम और भक्ति मार्ग का आश्रय ग्रहण कर लिए जाने पर समर्पण की उच्चावस्था और अनन्य भाव की प्राप्ति हो जाने पर परमात्मा से सहज साक्षात्कार अपने आप संभव है। लेकिन यह सब तब संभव है जबकि जीवन अपने अहंकार और व्व को भुलाकर अपने आपको भगवान के सामने समर्पित कर दे और लेश मात्र भी अपने होने का कोई बोध न रहे।
लेकिन योग मार्ग में इन चक्रों के जागरण तथा इन्हें दिव्यावस्था प्रदान करने के लिए शरीर का शुद्ध एवं पवित्र होना अत्यन्त जरूरी होता है। ऎसा होने पर ही ये चक्र दिव्यता और पवित्रता से पूर्ण होते हैं। इसके बाद ही इन चक्रों का स्वाभाविक जागरण आरंभ होता है।
उपासना का प्रकार कोई सा हो, इसका अंतिम और निर्णायक दौर योग मार्ग की ओर ही प्रवृत्त करने वाला होता है और योग मार्ग का आश्रय ग्रहण करने के बाद ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच दिव्य और अदृश्य सेतु का निर्माण होता है जिससे होकर ईश्वरीय ऊर्जाएं और शक्तियाँ जीवात्मा को और अधिक पावन करती हुई ईश्वरीय क्षमताओं और सामथ्र्य से भरने लगती है।
परमात्मा को पाने के लिए प्रत्येक जीवात्मा को प्रयत्न करना चाहिए लेकिन माया के वश में होकर जीवात्मा सत्य, धर्म,न्याय और दैवीय शक्तियों का अवलम्बन नहीं कर पाते हैं। लेकिन बहुत सारे लोग ऎसे होते हैं जो संसार के कर्म करते हुए भी परमात्मा का स्मरण, ध्यान, पूजा-पाठ और उपासना नहीं छोड़ते। अपने-अपने हिसाब से पूजा की विभिन्न पद्धतियों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते हैं।
ईश्वर की कैसी भी उपासना पद्धति हो, इसमें केवल पुरुषों का ही अधिकार नहीं है बल्कि पुरुषों से कहीं ज्यादा अधिकार स्ति्रयों को हैं। स्त्री को आदिकाल से शक्ति माना गया और पुरुष को शिव। मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी शक्ति के रूप में विराजमान शक्ति का सहस्रार चक्र में अवस्थित शिव से मिलन ही समाधि की उच्चावस्था और परमात्मा से संयोग होने का स्पष्ट प्रतीक है।
शिव और शक्ति का संयोग ही सृष्टि का मूलाधार है और यह स्थिति ब्रह्माण्ड से लेकर पिण्ड सभी तक समान अवस्था में स्वीकारी जानी चाहिए। स्त्री शक्ति के बारे में वेदों, पुराणाें, उपनिषदों से लेकर सभी प्राच्य ग्रंथों में विशेंष महिमा बताई गई है। यहाँ तक कि आदि शंकराचार्य ने भी श्रीविद्या की उपासना पद्धति में शक्ति को शिव के जागरण के लिए जरूरी माना है।
आद्यशंकराचार्य विरचित सौन्दर्य लहरी में तो पहला श्लोक ही भगवती को समर्पित है जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि शक्ति से युक्त होने पर ही शिव शिव हैं, शक्ति के बिना कोई भी हिल-डुल तक नहीं सकता। यह भी कहा गया है - शक्ति विना महेशानि सदाहं शवरूपकः। अर्थात शक्ति के बिना शिव शव ही है। शिव में से ई कार को हटा दिया जाए तो शव ही शेष बचा रहता है।
आजकल खूब सारे मन्दिरों में धर्म और शैव महिमा से बेखबर लोग मनुष्य बुद्धि से विचार करते हुए शिव के लिंग को जिस दृष्टि से देखते हैं और महिलाओं को शिवलिंंग की पूजा से दूर रखते है, वह अपने आप में शक्ति का भी अपमान है और शिव का भी।
जहाँ शक्ति का अपमान होता है वहाँ शिव की भी कृपा नहीं रह पाती बल्कि शक्ति के अपमान से शिव भी नाराज होते हैं और जिन स्थानों पर ऎसा होता है वहाँ होने वाली शिव पूजा का कोई अर्थ नहीं है। शिव की पूजा अथवा शिवलिंग की पूजा-अर्चना, जलाभिषेक और स्पर्श का हर स्त्री को भी उतना ही अधिकार है जितना पुरुष को।
जिस मन्दिर में अकेला शिवलिंग होता है वह पूजने लायक नहीं होता। इसी प्रकार जिस मन्दिर में शिवलिंग के बिना जलाधारी होती है वह भी पूजने लायक नहीं होती। शिवलिंग और जलाधारी का समागम ही अपने आप में पूर्ण शिवत्व का जागरण करता है।
श्रीविद्यासाधना में शिव और शक्ति को कामेश्वर-कामेश्वरी के युगल और आलिंगनबद्ध स्वरूप में प्रकटाया गया है। हमारे यहाँ अद्र्धनारीश्वर की उपासना का भी विधान रहा है। जहाँ शिव पूजा होती है, लघु रूद्र होता है वहाँ देवी की आराधना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार जहाँ कहीं भगवती की पूजा होती है वहाँ शिवार्चन का होना भी अनिवार्य है।
ऎसे में स्त्री को शिवलिंग की पूजा से वंचित करना न धर्म सम्मत है, न शास्त्र सम्मत। स्त्री को उपासना का पूरा अधिकार है। जब भी हम उपासना करते हैं तब हम जीवात्मा होते हैं न कि स्त्री-पुरुष।
परमपिता और जगदम्बा के समक्ष पहुंचने पर न हम स्त्री होते हैं न पुरुष। वहाँ देह का कोई संबंध नहीं होता सिवाय साधन के, यहाँ आत्मा से सीधा संबंध होता है यदि वास्तव में साधना कर रहे हों तब, अन्यथा जगत को दिखाने भर के लिए उपासना कर रहे होते हैं तब हम साधक की बजाय स्त्री और पुरुष के शरीर को ही देखते हैं।
स्त्री को आदिकाल से पुरुष से भी कहीं अधिक महत्त्व और सम्मान दिया गया है। यहाँ तक कि पुरुष के नाम की शुरूआत ही स्त्री वाचक नाम से होती थी। दुर्भाग्य से बीच का कालखण्ड ऎसा आ गया जिसने पौरुषी मानसिकता को आकार दे डाला और स्ति्रयों को दोयम दर्जा। जबकि स्त्री प्रथम है, उसके बाद पुरुष की अवधारणा।
जिस माँ के गर्भ में हम पल-बढ़कर बाहर निकले और आज मुकाम पाया है, वह अछूत या अस्पृश्य कैसे हो सकती है। हमारी बहन, पत्नी, सास, नानी-दादी, भुआ, मौसी, काकी, बिटिया, पौती, बहू, नातिन आदि हों या सभी प्रकार की स्ति्रयाँ, इन्हें भगवान की पूजा के मामले में अस्पृश्य कैसे माना जा सकता है।
ऎसा किया जाना मातृशक्ति और जगदम्बा का अपमान है। स्त्री शक्ति का साक्षात प्रतीक है और इसकी अवहेलना कहीं भी नहीं की जानी चाहिए इससे स्वयं भगवती तो नाराज होती ही है, भगवान शिव का तीसरा नेत्र यह सब देखकर कभी भी खुल सकता है।
जो लोग स्त्री को पूजा-पाठ से दूर रखना चाहते हैं उन्हें पोंगा पण्डितों और पाखण्डियों की बातों में न आकर एक बार तसल्ली से धर्मग्रंथों का अध्ययन कर लेना चाहिए, अपने आप आँखें खुल जाएंगी।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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