सम-सामयिक बस ताल ठोंकने की रस्म अदायगी भर है मुद्रा युद्ध की आशंका..! -लोकमित्र क्या मुद्रा युद्ध की दुंदुभी बज गयी है ? रिजर्व बैंक ऑ...
सम-सामयिक
बस ताल ठोंकने की रस्म अदायगी भर है
मुद्रा युद्ध की आशंका..!
-लोकमित्र
क्या मुद्रा युद्ध की दुंदुभी बज गयी है ? रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन की मानें तो आशंकाएं तो पूरी तरह से पैदा हो गयी हैं.हालांकि उनके मुताबिक़ चीनी मुद्रा यूआन के मूल्य में गिरावट कम से कम अभी तक उतनी चिंताजनक बात नहीं है, जितनी चिंताजनक यह आशंका है कि चीन बतौर रणनीति अपनी मुद्रा अवमूल्यन नीति को जारी रखेगा जिस पर प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे देश भी एक्शन लेंगे . अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व प्रमुख अर्थशास्त्री रघुराम राजन के मुताबिक़ दरअसल आशंका यह है कि चीन ने अगर अपनी मुद्रा की विनिमय दर को लम्बे समय तक निचले स्तर पर बनाए रखा तो फिर जैसे को तैसा वाला ऐक्शन चेन शुरू हो सकता है . वास्तव में इससे करंसी वॉर छिड़ने का खतरा है।
कई और विशेषज्ञ हैं जो इस संकट में मुद्रा युद्ध की झलक देखने को गैरजरूरी संवेदनशीलता करार देते हैं, मसलन सिंगापुर का डीबीएस बैंक मानता है कि इससे चीन के निर्यात को कोई पंख नहीं लगने वाले उसके मुताबिक़ युआन के इतने अवमूल्यन भर से निर्यात पर इसका कोई तुरंत असर नहीं पड़ने वाला है। बैंक के अपने विश्लेषण के मुताबिक़ “असल अवमूल्यन 10 से 30 प्रतिशत के बीच होगा तब असर पड़ेगा और वह भी तब जब यह अवमूल्यन एक साल से ज्यादा समय तक बना रहे या तब तक कि जब तक निर्यात में कोई सुधार नहीं होता।”
विशेषज्ञों का धैर्य और साहस अपनी जगह लेकिन भारतीय शेयर बाजार को लगता है उन पर ज्यादा भरोसा नहीं है; क्योंकि 20 अगस्त 2015 को बीएसई या बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज [जो सही मायनों में समूचे भारत के शेयर बाज़ार का प्रतिनिधित्व करता है ] लगातार चौथे दिन भी भारी गिरावट के साथ बंद हुआ. प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स 324 अंकों की गिरावट के साथ 27,608 पर और निफ्टी 122.40 अंकों की गिरावट के साथ 8,373 पर बंद हुआ.दरअसल वित्त यानी मुद्रा और शेयर बाज़ार पूरी तरह से अनुमानों पर थिरकने वाला बाज़ार है. इसलिए दुनिया में जरा सी बेहतरी की कोई उम्मीद बनती है तो यह शेखचिल्ली की तरह सपनों का सब्जबाग लगाकर बल्लियों उछलने लगता है.इसी तरह जरा सी कोई परेशानी दिखी कि अपनी कल्पना से यह उस परेशानी को पहाड़ मान पाताल में गोते लगाने लगता है .
फिलहाल दुनिया में आशंकाओं की यह स्थिति जिसमें मुद्रा और वित्त युद्ध की आहट सुनाई पड़ रही है, चीन द्वारा अपनी मुद्रा के तीन दिन लगातार अवमूल्यन से पैदा हुई है . अपनी कमज़ोर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए चीन ने अपनी मुद्रा युआन का तीन किस्तों में अवमूल्यन कर दिया है। गुरुवार यानी 20 अगस्त 2015 को उसने लगातार तीसरे दिन यह किया . इन क्रमिक अव्मूल्यनों के बाद एक डॉलर के मुक़ाबले चीनी मुद्रा की क़ीमत 6.4010 युआन हो गई . मालूम हो कि इससे पहले 18 अगस्त 2015 को पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने अपनी मुद्रा में 1.9 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया था जिससे एक डॉलर की क़ीमत 6.22298 युआन हो गयी थी जबकि पहले 1 अमरीकी डॉलर 6.1162 युआन के बराबर था . यह अवमूल्यन अगले दिन यानी 19 अगस्त को भी हुआ . तब इस अवमूल्यन के बाद एक डॉलर 6.33 युआन का हो गया .
इस अवमूल्यन से एशियाई बाज़ारों पर तुरंत असर पड़ा है. भारतीय अर्थव्यवस्था जो खुद पिछले सात महीनों से गिरते निर्यात से परेशान थी,चीन के इस कदम से सचमुच सकपका गयी है.क्योंकि हकीकत यही है कि इससे भारत के लिए संकट बढेगा. सांत्वनाएं कुछ भी दी जाएँ लेकिन वास्तविकता यह है कि यूआन के मूल्य में गिरावट के बाद से रुपये में डॉलर की तुलना में 2 फीसदी गिरावट आ गई है. सितंबर 2013 की तुलना में यह एक पॉइंट नीचे गिर गया है. गौरतलब है कि सितंबर 2013 में भारत दो दशकों के सबसे बड़े करंसी संकट से जूझ रहा था. भारतीय निर्यातक संगठन संघ ने कहा है कि युआन की कीमतों को कम करने के चीन के फैसले का भारत पर बुरा असर पड़ेगा. संघ के अध्यक्ष एस सी रल्हण के मुताबिक, ‘ युआन के अवमुल्यन से न केवल भारत का चीन को निर्यात घटेगा बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी चीनी सामान सस्ता होने से भारतीय निर्यात पर असर पड़ेगा’.
सवाल है चीन आखिर ये खेल क्यों खेल रहा है जिससे दुनियाभर में तरह तरह की आशंकाएं पैदा हो गयी हैं ? मुद्रा मामलों के विशेषज्ञ समझे जाने वाले जानकार फ़िलिप गेलिस कहते हैं, ‘मुद्रा नीति को लेकर चीन का यह अचानक यू टर्न दिखाता है कि देश की अर्थव्यवस्था ख़तरे के निशान पर पहुंच रही है . यही वजह है कि मुद्रा का संतुलन बनाए रखने के तमाम वायदों के बाद भी चीन ने साफ़ साफ़ मुद्रा युद्ध का रास्ता अपना लिया है.’ लेकिन शायद असली बात यह नहीं है. असली बात यह है कि चीन पर इस बात के लिए बहुत ज्यादा अंतरराष्ट्रीय दबाव है कि वो युआन को बाज़ार से नियंत्रित होने दे, जबकि चीन सरकार वर्षों से इसका विरोध करती रही है.अमेरिका चीन की इस नीति का हमेशा मुखर आलोचक रहा है. अमेरिका का मानना रहा है कि चीन निर्यात को बढ़ाने में मदद के लिए जानबूझ कर मुद्रा की क़ीमत को कम रखता है.
लगता है चीन अमेरिका की इसी रोज रोज की टोका टाकी से आजिज़ आकर युआन को बाज़ार के हवाले करने का फैसला किया है . यह इस व्यवस्था का अंग बनने के पहले की मनमर्जी है . जैसे बकरीद के पहले बकरे को उछलकूद और मस्ती करने की छूट दी गयी हो यह मानकर कि और कितने दिन बचे हैं जिबह होने में . ऐसा इसलिए भी लग रहा है कि जरा सी बात पर प्रतिक्रिया कर देनेवाला आई एम एफ इस बार कुछ नहीं बोला . उलटे गौर से देखें तो चीन को मुद्रा अवमूल्यन की यह धमाचोकड़ी मचाने के लिए एक तरह से आइएमएफ ने हरी झंडी दिखा दी है . चीन की खुद सुनिए वह क्या कह रहा है . वह कह रहा है कि सैद्धांतिक रूप से वही कर रहा है जो अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है. चीन के केंद्रीय बैंक के मुताबिक़, अब चीन युआन की क़ीमतों को अधिक लचीला होने की इजाज़त देगा यानी दूसरे साफ़ शब्दों में न्यूयार्क तय करेगा कि युआन की कीमत क्या हो ? इसीलिए चीन के इस क़दम को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की हरी झंडी मिल चुकी है.
कुल जमा कहने की बात यह है कि मुद्रा युद्ध के बादल जरूर छाये हों मगर साफ़ साफ़ यानी आमने सामने यह युद्ध नहीं होगा.इसकी दो वजहें हैं मुद्रा युद्ध में कभी कोई निर्णायक रूप में नहीं जीतता.इसलिए इस पचड़े में पश्चिम नहीं फंसने का .अमरीका ईराक और अफगानिस्तान में देख चुका है कि निश्चित जीत न होने की स्थिति का क्या मतलब होता है ? दूसरी प्रमुख वजह इस युद्ध के न छिड़ने की यह है कि छद्म युद्ध तो इस खेल में जारी ही रहता है .फिर ढोल नगाड़ा बजाकर इस युद्ध में कूदने की भला कौन सी अक्लमंदी है ? आखिर यूरो,येन और लीरा भी तो यही खेल, खेल रहे हैं ? मगर क्या कहीं हो हल्ला है ?
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