(कलाकृति - रेखा श्रीवास्तव) ------ दामोदर लाल जांगिड़ छंद :- कुमार लतिका सूत्र :- नसल सलगा छः वर्ण सात मात्राएँ कब कह गया । सब ...
(कलाकृति - रेखा श्रीवास्तव)
------
दामोदर लाल जांगिड़
छंद :- कुमार लतिका
सूत्र :- नसल सलगा
छः वर्ण सात मात्राएँ
कब कह गया ।
सब सह गया ।।
पल पल गला,
झट बह गया ।
महल मन का,
फिर ढह गया ।
सब कुछ यहीं,
बस रह गया।
अब लग रहा,
छल वह गया।
===========================
विजय वर्मा
समस्याएँ है तो यहीं-कहीं समाधान भी होंगें,
देखना एक दिन इन्हीं पत्थरों में प्राण भी होंगे।
पैरों को इस जमीं पर जरा रखना संभालकर
यहाँ किसी सरबराह पैरों के निशान भी होंगें।
यहाँ सिर्फ ज़ाबिर और क़ाहिर ही नहीं रहते
बगौर देखो यहाँ बहुतेरे मेहरबान भी होंगें।
जिस बस्ती को तूने सुपुर्दे-ख़ाक करने की ठानी
उसी बस्ती में तेरे कई अपनों के मकान भी होंगें।
पलने दो सरकोबी की तमन्ना फ़ासिक़-ए -दिल में
मज़मा के हाथों में बाकी अभी जान तो होंगें।
-----------------------------------------------------------------------
सरबराह=मार्गदर्शक ,जाबिर-और कहिर =अत्याचारी और नृशंस
सरकोबी= सर कुचलना
फ़ासिक़=पापी,दुराचारी
मज़मा=जन-समूह
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.lab]
====================
डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
यह इंद्र धनुषी शाम
आ गयी बरसात की
इन्द्र धनुषी शाम
कभी नभ है साफ़ फिर हैं
घूमते घनश्याम।
छू गई पछुवा हवा
अब डोलता है मन
कितना अनोखा लग रहा है
मास मनभावन।
आज धरती रसवती
नभ को लगा काजल
ओढ़ा दिशाओं ने अचानक
यह हरा आँचल।
साध सिन्दूरी हुई है
आज आठो याम
आ गयी बरसात की यह
इन्द्र धनुषी शाम।
पता--आदित्यपुर-२, जमशेदपुर
===================
रमेश शर्मा
दोहे रमेश के
इंजेक्शन से सब्जियां, पकती आज तमाम !
बिके वही बाजार में, ..........ऊँचे-ऊँचे दाम !!
................................................................
पड़े नहीं जब खेत में,.. गोबर वाला खाद !
कैसे दें फिर सब्जियां, वही पुराना स्वाद !!
................................................................
जहर हो रही सब्जियां, ..जनता है लाचार !
तंत्र निकम्मा हो गया,पनपा छल व्यापार !!
...........……………………………………
जहर हो रही सब्जियां, देख रहे हो मौन !
रही लेखनी चुप अगर, तो पूछेगा कौन !!
रमेश शर्मा (मुंबई)
========================
विश्वम्भर व्यग्र
अंत ही शुरूआत है...
*************************
अंत ही,
शुरुआत है,ये जान लो,
पीछे मुड़कर देखना,
अच्छा नहीं |
रिश्ते , नाते , प्रेम
और अपनत्व तो,
झूठ ,कपट , जंजाल
का ही नाम है
आज सच्चाई कैद
स्वयं में भला,
काल की नजरों में,
वो बदनाम है
उम्मीद का भ्रम ,
पालना अच्छा नहीं |
बहुत उड़ ली देर तक,
नभ में पतंग
हाथ जिसके डोर,
वो भी जानता
कठपुतली हाथों की तू,
जिसके बना
खींच ले गर वो तुझे,
तो बुरा क्यूं मानता
नियति से उलझना ,
अच्छा नहीं |
लौटकर आना तुझे,
वापिस यहाँ
नव-सृजन से बनेगी,
नई पहचान तेरी
समय की पदचाप सुन,
आगे बढो़ !
प्रयाण के आयोजन में ,
तू कर ना देरी
शुभ मुहुर्त टालना ,
अच्छा नहीं |
अंत ही ,
शुरुआत है ,ये जान लो,
पीछे मुड़कर देखना,
अच्छा नहीं....
**********************
' जिन्दगी...'
*********""*********
जब से वो मुझे मिली ,
तन मिला ,मन मिला ,
मैं हो गया धनवान |
इससे पहले था ,सच,
मैं निराकार
पाकर उसका साहचर्य,
मैं हो गया साकार
श्रेणी मुझको मिली ,
मैं बन गया इंसान |
बटोरता रहा खुशियां ,
संजोता रहा सपने
रिश्तों को नाम मिले ,
थे सुबह-शाम अपने
अंजुरी भर-भर मैंने,
किया अमृत-पान |
दिन बीते , मन रीते ,
बदल गया अहसास
मेरी मीठी-मीठी बातें,
अब ना आये रास
होना चाहती दूर वो,
मैं खो चुका सम्मान |
जाने की वेला में,
हो गया अकेला मैं
अनमोल रत्न इसे ,
बेच गई धैला में
छोड़ गई निष्ठुर वो ,
भूल गई पहचान ...
-विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
स.मा. , (राज.) 322201
E-mail-vishwambharvyagra@gmail.com
==============
अशोक बाबू माहौर
मिट्टी का घर
घर
मिट्टी का
घर में
दीवाल मिट्टी की
छत मिट्टी की
आँगन मिट्टी का
बना है,
सारा घर
मिट्टी का
किनारे पर रखे
गमले मिट्टी के !
घर में
रहते लोग
बनाते खाना
खाते लोग
किलकारी भरते
बच्चे
जुबान लड़ाते तोतली,
बुजुर्ग बैठे
सुनाते कहानी किस्से
बीते ज़माने की
हुक्का फूँकते
धुँआ छोड़ते
छल्ले बनाकर
अनगिनत,अपार !
परिचय
नाम-अशोक बाबू माहौर
जन्म स्थान-कदमन का पुरा,मुरैना
लेखन-हिंदी साहित्य लेखन ,कहानी कविता आदि
प्रकाशित साहित्य-हिंदी की साहित्यक पत्रिकाओं में कहानियाँ,कविताएँ एवं लघुकथाएँ प्रकाशित
संपर्क-ग्राम-कदमन का पुरा, तहसील-अम्बाह ,जिला-मुरैना (म.प्र.)476111
ईमेल-ashokbabu.mahour@gmail.com
===============
देवेन्द्र सुथार
कविता
बॉलीवुड के बादल छाये ,
बदलावों की बारिश है,
ये है सिर्फ सिनेमा या फिर
सोची समझी साजिश है ,
याद करो आशा पारिख के सिर पर
पल्लू रहता था
हीरो मर्यादा में रहकर
प्यार मोहब्बत करता था
प्रणय दृश्य दो फूलों के टकराने में हो जाता था
नीरज , साहिर के गीतों पर
लेकिन अब तो बेशर्मी के घूँट
सभी को पीने है
जांघों तक सुदंरता सिमटी
खुले हुए अब सीने है
नयी पीढीयां कामुकता के
घृणित भाव की प्यासी है
कन्यायें तक छोटे - छोटे
परिधानों की दासी है
क्या तुमको ये सब विकास का
परिचायक लगता है
हनी सिंह भी क्या समाज का
शीर्ष सुधारक लगता है ॥
----------------------
पर्यावरण कर रहा आहवान
मत पहुँचा मुझे नुकसान
तेज सरपट दौडते ये वाहन
लाउड स्पीकर के शोर से बैरे होते कान
अशुद्ध जल विष बनकर ले लेता है जान
प्लास्टिक और पाँलिथिन की थैलियाँ
भूमि को बंजर कर रही
धरती की छाती मेँ जहर उगल रहीँ
आज चारोँ दिशाएँ है प्रदूषित
वक्त आ चुका अब लेना होँगा कदम उचित
ओजोन परत के क्षय से पैराबैँगनी किरणेँ
अपना प्रचंड प्रकोप है दिखा रही
गलोबल वार्मिग के कारण पृथ्वी मौत के करीब जा रही
अब अपने स्वार्थपूर्ण सोच छोडो
यह आहवान आज पर्यावरण कर रहा
समझ मे ही समझदार ये भी कुछ कह रहा॥
- देवेन्द्र सुथार
गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला - जालौर , राजस्थान । 343025
================
प्रतिभा अंश
मुस्कुराना ही जीवन है
मैंने सीखा है, फूलों से ,
मुस्कुराना ही जीवन है।
गर्मी, वर्षा, या शीत ऋतु हो,
मौसम में गुनगुनाना है ।।
जैसे काँटों में खङा गुलाब ,
सदा ही मुस्कुराता है ।
वैसे ही संघर्षों में भी,
हमें भी मुस्कुराना है ।।
मैंनें सीखा है, फूलों से,
मुस्कुराना ही जीवन हैं ।
फूल कमल की बात निराली ,
सदा कीचड में रहता है।।
नियति उसकी देखो कैसी ,
सदा पवित्र वो रहता है ।
इन्हीं फूलों से सीखा मैंने ,
मुस्कुराना ही जीवन है ।।
जेठ की तपती दोपहरी में भी ,
शिरीष सदा ही हँसता है ।
खुशबू उसकी खींचे सबको ,
वो दूर से जाना जाता है ।
इन्हीं फूलों से सीखा मैंने ,,
मुस्कुराना ही जीवन है ।।
कभी मन्दिर में ,कभी मरघट में ,
सब जगह यह पाया जाता है।
सहनशीलता देखो फूलों की ,
हर मार को सह जाते हैं ।।
जिस माली ने सींचा इनको ,
वहीं इन्हें काट जाते हैं ।
इन्हीं फूलों से सीखा मैंने,
मुस्कुराना ही जीवन है ।।
प्रतिभा अंश
213/2ए साकेत नगर भोपाल मध्यप्रदेश
COMMENTS