डॉ0 दीपक आचार्य जो हमारे शरीर का पोषण करता है, हमारे घर-परिवार को पालता है और सारे साधन-सुविधाएं जुटाने के लायक हमें बनाता है, सभी प्...
डॉ0 दीपक आचार्य
जो हमारे शरीर का पोषण करता है, हमारे घर-परिवार को पालता है और सारे साधन-सुविधाएं जुटाने के लायक हमें बनाता है, सभी प्रकार के अभावों का दूर करते हुए जीवन में आनंदपूर्वक उपभोग के अवसर देता है, जो अन्नदाता है, जो हमें रोजी-रोटी देता है, वह हमारे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता पर होना चाहिए।
कोई सा काम-धंधा हो, किसी भी प्रकार की नौकरी हो अथवा बिजनैस, हम जहाँ जिस किसी संस्थान या व्यक्ति से रोजी-रोटी पाते हैं, उसके प्रति हम सभी की जवाबेदही हमारे सम्पूर्ण जीवन का प्राथमिक फर्ज है।
इन्हीं की वजह से हम जीवनयात्रा को ढंग से चला रहे हैं और अंत तक हमारे भरण-पोषण का प्रबन्ध इन्हीं के द्वारा होता है। रोजी-रोटी देने वाला संस्थान या व्यक्ति किसी कारण से अपनी सेवाएं बंद कर दें तो हमें जिन्दा रहने के लाले पड़ जाएं, दूसरे अभावों की तो बात ही क्या है।
लेकिन आजकल देखा यह जा रहा है कि रोजी-रोटी प्रदाता के प्रति हम अपने कत्र्तव्यों को पूरी ईमानदारी से नहीं कर पा रहे हैं और उनके प्रति वफादारी भी निभाने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं।
बहुत सारे लोग आज भी हैं जिन्हें अपनी ड्यूटी के समय और पूरी कार्यप्रणाली के बारे में कुछ भी कहने की जरूरत कभी नहीं पड़ती। ये लोग ड्यूटी को धर्म निभाकर काम करते हैं और जो कुछ करते हैं वह पूरी ईमानदारी और मन से।
ये लोग अपने रोजी रोटी दाता, संस्थान और अपने-अपने कार्यालयों के प्रति समर्पित भाव से काम करते हैं और रोजमर्रा के कामों को पूर्णता देने के बाद ही पूरे संतोष के साथ घर लौटते हैं।
इन लोगों का यही उद्देश्य होता है कि रोजाना के काम रोज ही निपट जाएं, अपने कारण से किसी को कोई दिक्कत न हो तथा संस्थान, कार्यालय या अपने अन्नदाता की साख बढ़ती रहे। पर इस किस्म के लोगों की आजकल कमी देखी जा रही है।
दूसरी ओर रोजी-रोटी देने वाले संस्थानों के प्रति वफादारी में कमी और अन्नदाताओं के प्रति स्वामीभक्ति का अभाव आजकल आदमी की फितरत में शुमार हो चला है। बहुत सारे लोग ऎसे देखने को मिल जाते हैं जो अपनी ड्यूटी के प्रति गैर जिम्मेदार होते हैं।
ये लोग कर्म या सेवा की बजाय पैसों के लिए जिन्दा हैं। इनकी सोच यही होती है कि काम करें या न करें, बँधी-बँधायी तो हर माह मिलने वाली है ही, क्यों न मौज उड़ाते रहें, टाईमपास करते रहें।
ऎसे लोग पैसों के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इनका न कोई चरित्र होता है, न स्वाभिमान, न समाज और देश के प्रति श्रद्धा का भाव। पैसों की खातिर कोई भी इनसे कुछ भी करवा सकता है।
इन लोगों को अपनी संस्थान या काम-धंधे अथवा प्रतिष्ठानों की कोई फिकर कभी नहीं होती, ये सब इन लोगों के लिए चरागाह या धर्मशाला से कम नहीं होते जहाँ जो मनमर्जी से भ्रमण करते रहो, मस्ती छानते रहो। इस किस्म के लोगों के कारण इनकी संस्थाओं, संस्थानों और प्रतिष्ठानों की गुणवत्ता और साख समाप्त हो जाती है। पर इसके प्रति ये लोग बेपरवाह ही होते हैं।
इस किस्म के लोग अपनी व्यक्तिगत छवि बनाने और संस्थानों की साख का फायदा उठाकर दूसरे धंधों और लाभकारी परिसरों में घुसपैठ कर लिया करते हैं और अतिरिक्त आय तथा लोकप्रियता पाने के तमाम गोरखधंधों और हथकण्डों को अपनाते हुए ऎसी छद्म छवि का निर्माण कर लिया करते हैं जहाँ इन लोगों को प्रखर बुद्धिजीवी, निष्काम समाजसेवी, लोकप्रिय चिंतक और कल्याणकारी व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित माना और समझा जाता है।
इनके श्वेत-श्याम व्यक्तित्व और हरकतों से अनभिज्ञ लोग इन्हें पूजते रहते हैं और इस तरह इन लोगों का चलन चल पड़ता है। इस किस्म के लोग भले ही बाहरी जगत में पूज्य होने की छवि पा लें, इनके प्रति न घरवालों के मन में कोई सम्मान होता है, न इनके सहकर्मियों या इनके संस्थानों में रहने वालों के दिल में।
जो लोग ईमानदारी से अपनी ड्यूटी का पालन नहीं करते हैं वे चाहे बाहरी स्रोतों से कितनी ही श्रद्धा और आदर पा लें, कितना ही सम्मान बटोर लें, कितना ही धन संग्रह कर लें, भौतिक संसाधनों भरे अपार वैभव को प्राप्त कर लें, ये कोरा दिखावा है जिसमें न सुगंध है न ताकत।
ड्यूटी के प्रति गैर जिम्मेदार लोगों का पैसा बीमारियों में खर्च होता है और नष्ट होने के दूसरे रास्ते तलाश लेता है। समाज और राष्ट्र की जड़ों को खोखला करने में सबसे अधिक कोई जिम्मेदार है तो वह हम लोग हैं जो अपने स्वार्थ और कुटिल षड़यंत्रों में घिरे रहकर अपनी ड्यूटी को गौण समझने और दूसरे कामों को प्रधानता देने लगे हैं।
इस वजह से समूची व्यवस्थाओं पर किसी न किसी प्रकार से जो दुष्प्रभाव पड़ रहा है उसे आँका तक नहीं जा सकता। देश में जो जहाँ है वहाँ सिर्फ एक ही संकल्प ग्रहण कर ले कि अपनी ड्यूटी के प्रति वफादारी निभाए, तो देश की तमाम समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएं।
सज्जनों और कर्मशील लोगों के मन से यह मलाल हमेशा-हमेशा के लिए निकल जाना चाहिए कि कामचोर लोग मजे मार रहे हैं और ऊपर से रौब भी झाड़ने में पीछे नहीं हैं। हम सभी लोग उतना काम जरूर करें जितना हम पा रहे हैं। बिना काम किए जो पाते हैं उनका पैसा खुद पर खर्च नहीं हो पाता बल्कि इस धन की दुर्गति ही होती है।
जो ड्यूटी के प्रति सच्चे मन से जुड़े हैं, वफादारी निभा रहे हैं उनके प्रति हमारी श्रद्धा हमेशा बनी रहे। लेकिन जिन लोगों को अपने फर्ज की चिन्ता नहीं है, उन्हें आत्म्चिन्तन करना होगा, अपनी आत्मा को जगाना होगा अन्यथा आत्मा हीन शरीर को ढोये रहना कहाँ तक जायज है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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