डॉ. दीपक आचार्य आजकल सभी को मेजबानी से बढ़कर मेहमानी में रस आने लगा है। और आए भी क्यों नहीं, खुद को कुछ करना-धरना है नहीं, सब कुछ मिल ...
डॉ. दीपक आचार्य
आजकल सभी को मेजबानी से बढ़कर मेहमानी में रस आने लगा है। और आए भी क्यों नहीं, खुद को कुछ करना-धरना है नहीं, सब कुछ मिल जाता है हाजिर, और वह भी पूरे आदर-सम्मान के साथ।
हम सभी लोग आतिथ्य धर्म और इसके सभी संस्कारों को भुला चुके हैं। आतिथ्य देने की बजाय आतिथ्य स्वीकारने और मेहमानवाजी का आनंद उठाने के लिए हर तरफ होड़ मची होती है। समाज-जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों, मेहमान बनकर रहना अपने आप में सारे जोखिम से दूर कर देता है।
एक बार मेहमान बनकर रहने की आदत डाल ली तो फिर जीवन में हर तरफ हमारी भूमिका मेहमान ही मेहमान की तरह हो जाती है। आतिथ्य स्वीकारना और आतिथ्य के नाम पर मौज करना हमारी जिन्दगी का वह शगल बन चुका होता है जिसे जिन्दगी के अंतिम क्षण तक हम भुनाते रहते हैं। और मरने के बाद भी इच्छा यही होती है कि जहाँ कहीं जन्म मिले, मेहमान की तरह रहने के भरपूर अवसर प्राप्त हों ताकि बिना कुछ परिश्रम के सब वह सब कुछ हासिल हो जाए, जो औरों को जिन्दगी भर मेहनत-मजूरी और पढ़ाई-लिखाई करके भी उपलब्ध नहीं हो पाता है।
घर-परिवार का कोइ सा शुभाशुभ कार्यक्रम हो या फिर मोहल्ले, समाज या क्षेत्र का सामुदायिक-सार्वजनीन आयोजन। सब तरफ हमारी मंशा मेहमान बनकर रहने और आने-जाने की बनी रहती है। जो मेहमान के रूप में आज है वह बीते या आने वाले कल कभी न कभी मेजबान की भूमिका में होता ही है, बावजूद इसके हम मेजबानी की सारी तकलीफों और झंझावातों को भुला कर जिन्दगी भर मेहमान ही मेहमान बने रहना चाहते हैं।
जहाँ हमें मेजबान या भागीदार का धर्म निभाना होता है वहाँ भी मेहमानों की ही तरह व्यवहार करते रहते हैं। एक बार मेहमानी धर्म अंगीकार कर लेने वाला इंसान जीवन में जहाँ कहीं जाएगा, वहाँ मेहमान ही बनकर रहना और आनंद पाना चाहता है।
उसकी हमेशा यही कोशिश रहती है कि सब जगह उसे मेहमान की ही तरह आदर-सम्मान और विशिष्ट पहचान मिले और इसमें कहीं कोई कटौती न हो। जरा कहीं कोई कटौती भूले भटके हो जाए, तब फिर आसमान फट पड़ेगा इनके गुस्से के मारे। न आव देखते हैं न ताव, फिर जो होता है उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
न सिर्फ सार्वजनीन आयोजन बल्कि घर-परिवार, समाज और क्षेत्र के आयोजनों में भी हममें से अधिकांश लोग मेहमान की तरह व्यवहार करते हैं और मेहमानों सा स्वागत-सत्कार और सम्मान चाहते हैं।
हर मेजबान का धर्म है कि मेहमानों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ पूर्ण आतिथ्य प्राप्त हो, उसे हर प्रकार से संतोष हो और हमारी मेजबानी उसके लिए यादगार सिद्ध हो। लेकिन यह तभी संभव हो सकता है कि मेजबानी से जुड़े हुए सभी लोगों के मन में ‘अतिथि देवो भव’ जैसे भावों से आतिथ्य सत्कार से आत्मतोष पाने की भावना हो।
जहाँ कहीं कोई सा सामुदायिक अवसर हो, हमेशा इस बात के लिए प्रयत्नशील रहें कि हमारी किसी न किसी तरह से भागीदारी हो और इस प्रकार से काम हों कि मेजबानों को हमारी उपस्थिति का फायदा हो, आनंद मिले और उन्हें हमारे कार्यों से प्रसन्नता हो। इसके साथ ही मेजबानों को लगे कि उनका कोई अपना है जो मददगार सिद्ध होकर सहयोगी के रूप में उनके साथ है।
हर प्रकार की गतिविधि का आत्मिक आनंद तभी है जबकि हम उस कर्म या व्यक्ति के प्रति सहयोगी बनें। जहाँ कहीं हमारी मौजूदगी हो, वहाँ अपने लायक कोई सा काम हाथ में लें और इसके माध्यम से अपनी सक्रिय भागीदारी अदा करें। और कुछ न कर सकें तो सेवा का कोई सा ऎसा मार्ग चुन लें जिससे कि हम समुदाय की किसी न किसी प्रकार से सेवा के अवसर का लाभ उठा सकें।
बहुत सारे लोग केवल दिखावे के लिए आयोजनों के मुख्य स्थलों पर हाथ बाँधे हुए मजमा लगाकर खड़े रहते हैं। इन लोगों से कोई काम नहीं होता बल्कि ये लोग वहीं खड़े-खड़े बतियाने और निर्देशक की भूमिका में रहने के आदी होते हैं।
पहले समाज में काम करने वालों की बहुतायत थी। अब उन लोगों की भीड़ सर्वत्र दिखाई देने लगी है जो काम-धाम की बजाय सिर्फ बातों का ही रस पाने के लिए दिन-रात जुटे रहते हैं। इन लोगों से कोई भी दस मिनट का काम तक नहीं ले सकता, लेकिन बातें करने-कराने के मामले में इनका कोई सानी नहीं, घण्टों बतियाते रहेंगे जैसे कि भगवान ने इन्हें बोलने या बकवास करने के लिए ही पैदा किया हुआ हो।
ये लोग जिन विषयों की चर्चा करते हैं उनका कोई अर्थ नहीं होता। बोलते भी सिर्फ इसलिए हैं ताकि लोगों की निगाहों में बने रह सकें। इस किस्म के लोग हर आयोजन में दिख ही जाएंगे जो हमेशा वहीं खड़े मिलेंगे जहाँ अधिक से अधिक भीड़ हो या कि विशिष्टजनों की आवाजाही का क्रम बना रहता हो। इनके लिए यह भीड़ उत्प्रेरक से कम नहीं होती जो इनके दिखावों भरी मानसिकता को परिपुष्ट करती हुई इनके आभासी कदों की ऊँचाई बढ़ाती रहती है।
जो लोग मेहमानों की तरह रहने के आदी हो जाते हैं उनकी छवि हरदम मेहमानों की तरह ही रह जाती है। लोग इन्हें अपना कभी नहीं मानते बल्कि जीवन भर ऎसे लोगों से मेहमानों जैसा ही बर्ताव करते हैं। लोगों को पता होता है कि जो मेहमानों की तरह रहते हैं वे लोग न तो किसी के बोझ को हल्का कर सकते हैं, न मददगार साबित हो सकते हैं और न ही किसी भी प्रकार की भागीदारी अदा कर सकते हैं।
इन मेहमानी व्यक्तित्व से भरे हुए लोगों के भरोसे कुछ भी नहीं हो सकता। फिर यह भी सच ही है कि जो खुद मेहमान की तरह रहने का आदी है वह अपनी जिन्दगी में भी औरों से उपेक्षित ही रहता है। भले ही वह कितना ही वैभवशाली, लोकप्रिय और वर्चस्वशाली क्यों हो, भागीदारी की भावना के अभाव में दूसरे लोग भी इनकी कोई परवाह नहीं करते बल्कि वे भी इनके यहाँ के आयोजनों में मेहमान की तरह ही रहना पसंद करते हैं। कुछ पुरुषार्थी बिरले लोगों की बात अलग है जो कि जीवन में हर किसी के लिए काम आते हैं, न अपना देखते है।, न पराया।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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