(कलाकृति - असग़र वजाहत) असग़र वजाहत दो सूफी कथाएं १.सूखी लकड़ियाँ किसी प्रसिद्ध सूफी का एक शिष्य था जो कई साल से पढ़ रहा था. एक दिन एक न...
(कलाकृति - असग़र वजाहत)
असग़र वजाहत
दो सूफी कथाएं
१.सूखी लकड़ियाँ
किसी प्रसिद्ध सूफी का एक शिष्य था जो कई साल से पढ़ रहा था. एक दिन एक नया शिष्य आया वह भी शिक्षा लेने लगा. तीन साल बाद सूफी साहब ने नए आये लडके से कहा कि तुम जाओ , तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी.
इस बात पर पुराना शिष्य नाराज़ हो गया. उसने कहा – जनाब मैं सात साल से पढ़ रहा हूँ... आपने मुझसे आज तक न कहा कि मेरी तालीम पूरी हो गयी.... इस लड़के से आप तीन साल बाद ही कह रहे हैं कि तुम जाओ, तुम्हारी तालीम पूरी हो गयी...’.
सूफी ने जवाब दिया –जब तुम आये थे तो अपने साथ गीली लकड़ियाँ लाये थे ...ये जब आया तो अपने साथ सूखी लकड़ियाँ लाया था...
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२.मीठा फल
किसी सूफी के पास एक लड़का नौकर था. वह जब बच्चा था तो सूफी ने उसे ग़ुलाम के रूप में खरीदा था. लेकिन उसे अपने बेटे की तरह पाला था. पढ़ाया - लिखाया था...सूफी उससे बहुत प्रेम करते थे...एक दिन सूफी बाज़ार से एक खरबूज़ा खरीद कर लाये. लडके से कहा, चाकू लाओ. लडके ने चाकू लाकर दिया. सूफी बातें करते जाते थे और खरबूज़ा काट-काट कर लडके को देते जाते थे वह खाता जाता था. अचानक सूफी को ध्यान आया कि वे बेख्याली में लडके को खरबूजा खिलाते रहे और वह खाता रहा... खरबूजा आधा हो गया ...
सूफी ने लडके से कहा- तुम भी अजीब हो..खरबूज़ा आधा हो गया..तुमने मुझे बताया भी नहीं..
लड़के ने माफी माँगी और कहा कि उससे भूल हो गयी... खैर सूफी ने खरबूज़ा खुद जो खाया तो इतना कड़ुवा लगा कि थू– थू करके मुहं से निकाल दिया...
सूफी ने लड़के से पूछा- इतना..ज़हर जैसा कड़ुवा खरबूजा तुम खाते रहे...और कुछ क्यों न बोले..’
लडके ने कहा.- खरबूजे की कड़ुवाहट पर तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया... मेरा ध्यान तो उस हाथ पर था जो मुझे खरबूज़ा दे रहा था.’
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भाषा की सुन्दरता – १
१९७१ - ७२ की बात है मैं दिल्ली मेँ फ्रीलांसिंग करता था. काफी कड़की के दिन हुआ करते थे. पैसा – वैसा बिल्कुल न होता था. मैं रोज घर से निकलकर लिंक हाउस आ जाया करता था और फिर फ्रीलांसिंग का काम शुरु होता था. एक दिन सुबह देखा कि मेरे पास बस का पूरा किराया नहीँ है. मुझे आई.टी.ओ. जाने के लिए ३५ पैसे का टिकेट लेना पड़ता था. लेकिन मेरे पास सिर्फ ३० पैसे थे. मैंने सोचा ५ पेसे का फासला पैदल चलकर पूरा करुँगा और उसके बाद बस ले लूँगा. मैंने ३ स्टॉप पैदल चल कर पार किये और फिर बस में चढ़ा. कंडक्टर से किराया पूछा तो उसने बताया ३५ पैसे. मैं कहा – मुझे उतार दो ..मेरे पास सिर्फ ३० पैसे हैं... मैं तो समझा था कि यहाँ से ३० पैसे लगते होंगे’. कंडक्टर ने कहा- न अगले स्टॉप से ३० लगे हैं.’ फिर उसने कहा – तेरे पास ५ पैसे नहीं हैं? मैंने कहा - नहीं.. सिर्फ ३० हैं..’.
-जा बैठ जा..’ कंडक्टर ने मुझसे ३० पैसे भी नहीं लिए. आई.टी.ओ. पर जहाँ मुझे उतरना था कंडक्टर ने अपना सिर खिड़की से बाहर निकाल कर देखा कि चेकिंग करने वाले तो नहीँ हैं और जब उसे विश्वास हो गया कि चेकिंग करने वाले नहीँ हैं तो मुझसे बोला – जा उतर जा.’
पहली बार समझ में आया कि हरियाणवी बड़ी प्यारी भाषा है.
भाषा की सुन्दरता – २
शहर फतेहपुर (उ.प्र) के एक एक प्रमुख सम्मानित व्यापारी और स्वतंत्रता सेनानी भैया गणेश शंकर रस्तोगी ‘आज़ाद’ रात के समय मुम्बई की किसी अंधेरी–सी गली में चले जा रहे थे की अचानक किसी ने पीछे से पीठ में चाकू लगा दिया और आवाज़ आयी – जौन तुमरे पास होय निकाल देव....” आवाज़,स्वर और भाषा सुनते ही आज़ाद भाई पहचान गए कि हो न हो ये आदमी फतेहपुर का है. उन्होंने कहा – फतेहपुर के हो क्या’ ? उनके ये कहते वह आदमी सामने आ गया और बोला- आप कौन को’? आज़ाद भाई ने कहा – हमको नहीं पहचानते...’उस आदमी ने आज़ाद भाई को देखा और पहचान कर लिपट गया. चाय पिलाने ले गया. बातचीत होती रही. जब आज़ाद भाई चलने लगे तो उसने जेब से एक बहुत कीमती कलम निकाल कर आज़ाद भाई को पेश किया.
- ये क्या है’? आज़ाद भाई ने पूछा.
- भैया ..आपसे पहले जो मिला रहे ...ओके पास से ... हमरे तो काम का है नहीं...
आज़ाद भाई ने कहा- हम ये कलम न लेंगे.
- चलो आपकी मर्जी...पर भैया मुम्बई में कोंई तकलीफ होए तो बताना..’
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चोरी की आस्था ( लघु कथाएं )
एक
आस्थावान अपने भगवान के पास गया. क्योंकि सब के अपने अलग अलग भगवान हैं और भगवानों के, अपने मानने वालों को कड़े निर्देश हैं कि वे केवल अपने ही भगवान, ईश्वर, अल्लाह, गाड ,प्रभु के पास ही जाएँ . कोइ धोखे से भी किसी और के पास चला गया तो सत्यानाश हो जायेगा, बड़ा नुक्सान हो जायेगा.
आज के हड़पाऊ युग में सत्य के नाश से कोइ फर्क नहीं पड़ता पर अपने नुकसान से तो संसार नष्ट हो जाता है. इसलिए आस्थावान अपने-अपने भगवानों के पास ही जाते हैं.
आस्थावान ने रोज़ की तरह भगवान के चरनों में आस्था का फूल रखा तो अचानक भगवन बोलने लगे. भक्त को बड़ी हैरत और खुशी हुई.
भगवान ने कहा – भक्त, तुमने ये जो फूल मुझे चढ़ाया है, इसे वापस ले जाओ.,
भक्त ने कहा – क्यों प्रभु ?
भगवान् बोले- रोज़ जो तुम फूल चढ़ाया करते थे उसमे ईमानदारी और सच्चाई की सुगंध हुआ करती थी. इस फूल में वह सुगंध नहीं है.’
भक्त ने आश्चर्य से कहा- प्रभु यह फूल तो मैंने खरीदा है.’
भगवान् ने पूछा – और इससे पहले जो फूल लाते थे ?’
भक्त ने कहा – परभू...वे फूल तो मैं ...पड़ोस की बगिया से चुरा कर लाया करता था.’
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दो
मोहत्ते जयन्ती की एक करोड़ की सुपर डीलक्स रोल्स रायस मंदिर के सामने रुकी. मोहत्ते जयन्ती रोज़ मंदिर के पुजारी को पूजा आदि के लिए पांच सौ का एक नोट दिया करते हैं.
आज वे गाड़ी की पिछली सीट पर अपने वकील के साथ बैठे पचास हज़ार करोड़ के घोटाले का प्लान बना रहे थे तब ही गाड़ी मंदिर के सामने रुकी.
मोहत्ते जयन्ती ने अपने ड्राईवर से कहा – तू चला जा ..पुजारी को अपने पास से पांच सौ का एक नोट दे देना... ऑफिस चल कर अकाउंटेंट से अपना पैसा ले लेना.’
ड्राईवर गया और उसने पुजारी को पांच सौ का नोट दिया. नोट पुजारी के हाथ में आते ही सौ का हो गया.
पुजारी ने कहा- ये तेरा नोट है क्या ?
ड्राईवर ने कहा – हाँ .’
पुजारी ने कहा – ये यहाँ नहीं चलेगा...जा सेठ से नोट मांग कर ला.’
( आगे भी जारी रहेंगी..)
असग़र वजाहत आज एक स्थापित साहित्यकार हैं | आपकी रचनाओं की तासीर सजीव चित्रण होने के साथ बेबांक सटीक शब्दाभिव्यक्ति है ,जो उनके लेखन की विशेषता हैं यह उन्हें अन्य साहित्यकारों से अलग पहचान देती हैं | -अशोक शर्मा 'भारती'
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