डॉ0 दीपक आचार्य हर संबंध का अपना कोई न कोई आधार होता है, बिना किसी संबंध के न कोई संयोग हो सकता है न वियोग। जो कुछ होता है वह किसी न...
डॉ0 दीपक आचार्य
हर संबंध का अपना कोई न कोई आधार होता है, बिना किसी संबंध के न कोई संयोग हो सकता है न वियोग। जो कुछ होता है वह किसी न किसी हिसाब को चुकाने के लिए ही होता है और हिसाब पूरा हो जाने पर राह अपने आप अलग-अलग हो जाया करती है।
बात जड़ की हो या चेतन की, सभी किसी न किसी ऋण की वजह से जुड़ते और अलग होते हैं। यह बात व्यक्ति से लेकर वस्तु सभी के लिए समान रूप से लागू होती है। व्यक्ति का मिलना-बिछड़ना हो या फिर वस्तुओं का संयोग-वियोग। हर मामले में सभी प्रकार के संबंध काल सापेक्ष और ऋणानुबंध से बंधे हुए होते हैं।
दुनिया में चाहे किसी के प्रति कितना आकर्षण, चकाचौंध भरा मोहपाश और सारी सुविधाएं हों, स्वर्ग की तरह भोग-विलास के संसाधन हों और किसी भी प्रकार की कोई कमी न हो, तब भी संबंधों को रहना तभी तक है जब तक कि एक-दूसरे का पूर्वजन्म का हिसाब चुकता न हो जाए। जैसे ही लेन-देन पूरा हो जाता है सब अपनी-अपनी राह ले लिया करते हैं। चाहे वह प्रेमपूर्वक पृथक हो जाएं अथवा संघर्ष की भूमिका के साथ।
पूरा का पूरा संसार इसी गणित पर टिका हुआ है। इसे कोई स्वीकार करे या न करे, मगर शाश्वत सत्य और यथार्थ तो यही है। दुनिया में लोगों का मिलना और बिछुड़ना एक सामान्य घटना है जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। प्रेम, मोह, क्रोध, वैराग्य, मैत्री और शत्रुता की भावनाओं के अनुरूप इनके प्रति लगाव या अलगाव की मानसिक अवस्थाओं में भिन्नता होना मानव स्वभाव के अनुसार स्वाभाविक है।
हममें से किसी के लिए कोई सा संयोग या वियोग कितना ही महत्वपूर्ण व जीवन के सभी कारकों पर गहरा प्रभाव डालने वाला क्यों न हो, हम इसके पीछे छिपे आधारों को गौण मानकर चलते हैं इसीलिए संयोग के क्षणों में आनंद और वियोग की अवस्था में विरह अथवा विषाद का भाव जन्म ले लेता है।
मन, मस्तिष्क और देह के धरातल पर हम औरों से किसी भी प्रकार से भले ही परम संयोग या किन्हीं क्षणों में अद्वैत की भावना को साकार होते हुए अनुभव करें या देखें, इन संबंधों के सदा स्थायित्व की गारंटी कोई नहीं ले सकता। पता नहीं किन क्षणों में अलगाव का कोई कारण उपस्थित हो जाए और दोनों पक्षों का सदा-सदा के लिए ध्रुवीकरण हो जाए।
जो लोग रोजाना दैहिक रूप से चरम आनंदभाव में एक साथ रहते हैं, परस्पर उल्लास, परम आत्मतुष्टि और अहोभाव में विचरण करते हैं, एक-दूसरे के लिए जीने-मरने की कसमें खाकर साथ रहते हैं, साथ रहकर संतति पैदा करते हैं, परिवार बसाते हैं और अमरत्व की भावना के साथ जीवन के सारे आनंदों में रमे रहते हैं। इनमें भी यदि मन-मस्तिष्क और देह के संबंध ही सब कुछ होते तो किन्हीं भी दो व्यक्तियों में कभी अलगाव नहीं होता।
हर प्राणी के जीवन में स्थान, व्यक्ति और किसी भी प्रकार के जीवात्माओं का संयोग पूर्वजन्म के ही आधार पर होता है। दुनिया के हर कोने में देखा जाता है कि लोग किसी न किसी आकर्षण या संयोग के मारे बंध जाते हैं और पूरी मस्ती के साथ ऎसे जीते हैं जैसे कि सात जन्मों से साथ हों। इनके साथ ही दूसरे लोग, प्राणी और वस्तु आदि भी जुड़ जाते हैं।
सभी प्रकार से महा आनंद, चरम भोग-विलास, मन एक्यता, मानसिक धरातल की समानता और तमाम सुविधाओं के होने के बावजूद जब पूर्वजन्म की लेन-देन समाप्त हो जाती है तब दोनों पक्षों या समूहों में बिखराव आरंभ हो जाता है। यह बिखराव देहपात के रूप में हो, लड़ाई-झगड़े से एक दूसरे से पृथक हो या फिर किसी आकस्मिक कारण अथवा किसी विवशता से। कारण कोई भी हो सकता है।
बड़े-बड़े घनिष्ठ मित्रों, पति-पत्नी, पिता-माता, भाई-बहन, हर प्रकार के कुटुम्बियों, गुरु-शिष्य, प्रेमी-प्रेमिका और तमाम प्रकार के वैध-अवैध सभी प्रकार के संबंधों का संयोग भी इसी वजह से होता है, और वियोग भी इसी कारण से। हम लोग अपनी स्थूल बुद्धि से किसी न किसी कारण की पूँछ पकड़ कर एक-दूसरे को दोष देने लगते हैं और अपने जीवन में बेवजह अशांति पाल लेते हैं।
थोड़ा सा भगवदीय धाराओं में रमे रहकर सोचें और पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म पर गहन चिंतन करने का प्रयास करें तो संबंधों का विज्ञान, मनोविज्ञान और सामाजिक ज्ञान अपने आप अनुभवित हो सकता है। पूर्वजन्म की लेन देन का चुकारा तीन प्रकार से हो सकता है। एक तो कुछ लोग हमें देने ही देने आते हैं फिर सब कुछ चुकाकर अपने आप अलग हो जाते हैं, इन लोगों से हमें जीवन के आनंद पाने में आसानी होती है और दिली सुकून का अहसास होता है। इन लोगों के अपने से दूर चले जाने का मलाल भी रहता है। ये लोग हमारे लिए जीवन के सबसे बड़े सहयोगी की भूमिका निभाते हैं।
दूसरी किस्म के लोग कुछ न कुछ लेने ही आते हैं और हमें हैरान-परेशान करते हुए जो कुछ बाकी होता है वह लेकर हमसे अलग हो जाते हैं, इन लोगों के हमसे दूर हो जाने पर हमें दुःख नहीं होता बल्कि शांति प्राप्त होती है। कुछ लोग देने भी आते हैं, और लेने भी। ऎसे लोग हमारे लिए जीवन में आनंद भी देते हैं और दुःख भी।
इनसे इतर भी कई किस्में हैं जो हमसे किसी न किसी रिश्तों में बंध कर या बगैर रिश्तों के दीर्घावधि अथवा अल्पावधि में हमारे लिए बिना किसी कारण के शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ऎसे लोग हमारे पूर्व जन्म के शत्रु होते हैं। जिनसे निपटने का एकमात्र उपाय इनकी उपेक्षा कर देना है ताकि ये शत्रुता भरी नापाक हरकतें भी पूरी कर लें और हम साफ-साफ बचे भी रहें।
इन लोगों से भूल से भी किंचित मात्र भी बदले की भावना न रखें क्योंकि इससे नवीन प्रतिशोध का सृजन हो जाता है जो दोनों पक्षों के लिए हानिकारक है और मुक्ति मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभरता है। हर कर्मशील इंसान के पीछे बहुत से लोग पड़े रहते हैं जो बिना किसी कारण से शत्रुता करते हुए परेशान करते रहते हैं, ऎसे लोग पूर्वजन्म के शत्रु ही होते हैं क्योंकि इस जन्म मेंं उनसे हमारी शत्रुता का कोई कारण नहीं होता।
संबंधों के स्थायित्व या माधुर्य के लिए मन, मस्तिष्क और शरीर का कोई संबंध जिम्मेदार नहीं है बल्कि संबंधों का सारा व्यापार पूर्वजन्मों के लेन-देन पर आधारित है। यही लेन-देन संबंध जुड़वाता है और पूरा हो जाने के बाद अपनी राह ले लेता है।
पूर्वजन्मों के संबंधों को भी लेन-देन की सीमा से ऊपर उठकर लम्बे समय तक टिकाऊ बनाया जा सकता है लेकिन इसके लिए संबंधों में आसक्ति का परित्याग होना जरूरी है। अनासक्त संबंधों पर लेन-देन का कोई सिद्धान्त लागू नहीं होता।
संबंधों के मामले में यथार्थ को जानें तथा संयोग-वियोग अवस्थाओं में अपेक्षाओं, कामनाओं और स्वार्थों से मुक्त रहकर जीवन का आनंद पाएं। जो लोग आपके साथ हैं उनका पूरा साथ निभाएं, उन पर गर्व करें और उनके प्रति आत्मीय सहयोग, संबल एवं सद्भावना रखें। जो किन्हीं भी प्रकार की दुर्भावना, शंकाओं, आशंकाओं या भ्रमों-अफवाहों की वजह से अपने साथ नहीं हैं, रूठकर छिटक गए हैं उनके प्रति भी सद्भावना रखें और वियोग को नियति का प्रसाद मानकर ग्रहण करें। जीते जी मुक्ति का आनंद पाने के लिए यही सूत्र है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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