डॉ0 दीपक आचार्य इंसान को उसकी पूरी क्षमता से काम करने की स्वतंत्रता मिल जाए, अभावों और समस्याओं का कोई रोना नहीं रोना पड़े, सारे के सा...
डॉ0 दीपक आचार्य
इंसान को उसकी पूरी क्षमता से काम करने की स्वतंत्रता मिल जाए, अभावों और समस्याओं का कोई रोना नहीं रोना पड़े, सारे के सारे अपने काम करने लगें, जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या न रहे, तभी इंसान पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने पूरे सामर्थ्य का परिचय दे सकता है और उसका हर काम समयबद्धता व गुणवत्ता का प्रभावी दर्शन करा सकता है।
लेकिन आजकल ऎसा नहीं है। आदमी को अपने दायित्व निभाने तक के लिए अनुकूलताएं प्राप्त नहीं हो पाती। कभी बाहर का माहौल ठीक नहीं होता, कभी भीतर वाले लोग माहौल को ठीक नहीं रहने देते। प्रजातंत्र की सबसे बड़ी खासियत ही यह है कि यहाँ अधिकारों के प्रति हर कोई जागरुक है, अपने कर्तव्य का किसी को भान नहीं रहता। हर आदमी अपनी हैसियत और हुनर से कई गुना अधिक आदर-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, मुफतिया भोग-विलास के सारे वैभव और संसाधन पाना चाहता है। हर कोई अपने आपको राजा-रानी या दरबारी से कम नहीं समझता। जो बड़े लोग कहलाते हैं अथवा बड़े लोगों के पास या साथ हैं उन सभी ने अपना आभासी कद इतना अधिक ऊँचा कर लिया है कि उन्हें जमीन से जुड़े लोग न दिखते हैं, न पसंद आते हैं।
दुर्भाग्य यह है कि एक बार जिसने आसमान की ऊँचाइयों से जमाने को देख लिया, पानी भरे बादलों के आलिंगन का सुकून पा लिया, आकाशी बयारों से नहा लिया, वह जमीन से दूर रहने का आदी हो गया है। जड़ों से कटकर ऎसा त्रिशंकु बन बैठा है कि जिसका कोई ओर-छोर और स्थायी ठिकाना नहीं है। बस हवाओं के साथ बहते रहना है, आसमानी अठखेलियों में रमे रहना है और जमाने भर को अपने अधीन समझते हुए स्वयंभू ईश्वर होने या मानने का स्वाँग रचे रखकर मनमानी और मनमर्जी की खुली छूट के साथ परिवेशीय आनंद में रमण करना ही जीवन का परम ध्येय होकर रह गया।
न व्यक्तित्व का कोई अनुशासन रहा, न जीवन की मर्यादाएँ। ‘समरथ को नहीं दोष गोसाई’ पंक्ति को जीवन में हर क्षण चरितार्थ करते हुए जो कुछ हो रहा है उसने किसी को कहीं का नहीं रहने दिया है। हम सभी लोग संस्कारहीनता के दौर में जी रहे हैं जहाँ एक-दूसरे से काम लेना और निकलवाना, अपने-अपने नम्बर बढ़ाकर कहीं न कहीं कोई न कोई शक्तिशाली वजूद बनाए रखना अथवा बड़ों के आभामण्डल में रहकर उपग्रहों की तर्ज पर उनकी परिक्रमा करते हुए जीना ही जीवन की सफलता का आदर्श पैमाना हो गया है।
हमारी आत्मा कब की मर चुकी है। खुद को भी भरम में रख रहे हैं, हम जिनके साथ हैं वे लोग भी पूरे के पूरे भ्रमों में जी रहे हैं और दूसरे लोगों के लिए तो भ्रम में जीना और भ्रमित अवस्था में ही मर जाना भाग्य में ही बदा हुआ है।
वर्तमान की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि सारा संसार दो भागों में बंटा हुआ है। एक तरफ वे लोग हैं जो सच्चे मन से अपने दायित्वों को निभाते हैं और कर्मस्थलों को मन्दिर मानते हुए अपने कर्मयोग के आदर्श की छाप छोड़ते हैं। इन लोगों को किसी से कोई अपेक्षा नहीं होती। ये लोग रोजमर्रा का काम पूरा करने के बाद ही घर लौटते हैं और कार्यपूर्णता का सुकून ही उनके लिए सबसे बड़ा होता है।
दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके लिए कर्तव्य या दायित्वों का कोई महत्त्व नहीं है। इनके लिए कार्यस्थल किसी धर्मशाला या सार्वजनिक उद्यान की तरह हैं जिनमें दायित्वों के निर्वाह के सिवा सब कुछ करने को वे स्वतंत्र होते हैं। इन लोगों को कोई पूछने या टोकने वाला नहीं होता। क्योंकि इनमें से खूब सारे तो दूसरे-दूसरे लोगों के नाम पर उछलकूद मचाते रहते हैं, कुछ लोगों को किसी न किसी का आदमी बताया जाता है जैसे कि वे उनके पालतु ही हो गए हों, कुछ लोग धींगामस्ती और शोर करते हुए धमाल मचाने के आदी होते हैं और इनके बारे में कहा जाता है कि इन नुगरों को छेड़ना अपने आप में आफत मोल लेना ही है क्योंकि ये नंगे-भूखे और प्यासे लोग संस्कारहीनता में पले-बढ़े होते हैं और कभी भी अपनी औकात दिखा सकते हैं। फिर नंगों को काहे की लाज-शरम, किसी भी पोखर, नाले या नदी में नंगे होकर उतर सकते हैं।
इनके लिए कहीं कोई वर्जना नहीं होती क्योंकि इनका जन्म ही सस्ते मनोरंजन का प्रतिफल होता है इसलिए ये लोग अपने कर्म, स्वभाव और व्यवहार आदि सभी को मनोरंजन या टाईमपास जिन्दगी से कुछ ज्यादा नहीं समझते।
इन विषम परिस्थितियों में सामाजिक परिवर्तन, राष्ट्रीय चरित्र, स्वाभिमान, साँस्कृतिक चेतना, सामाजिक समरसता, एकात्मवाद और राष्ट्र को परम वैभव पर पहुँचाने की बातें तब तक बेमानी हैं जब तक कि व्यवहारिक धरातल पर कुछ ठोस पहल नहीं की जाए।
हम सब लोग परिवर्तन, गुणवत्ता लाने, उपयोगिता दर्शाने और कल्याणकारी माहौल स्थापित करने की बातें तो खूब करते हैं लेकिन इनका कोई आधार नहीं होता इसलिए सब कुछ हवा-हवाई ही होकर रह जाता है। हर तरफ बातें होती हैं, सिखाया जाता है, सीखने और सिखाने के नाम पर बहुत कुछ किया जाता है मगर यह हमारे दिल और दिमाग तक को छू नहीं पाता, ऊपर ही ऊपर से हवाओं और समय के साथ बह जाता है बिना कुछ असर डाले।
इसका मूल कारण यही है कि हम विदेशी कल्चर से डॉक्टरी कर रहे हैं, हम न नब्ज़ टटोलना जानते हैं, न समस्या की जड़ में जाना चाहते हैं। यही कारण है कि किसी भी बीमारी का ईलाज नहीं हो पा रहा। बाहर से हर बार क्रीम, परफ्यूम और पॉवडर छिड़क-छिड़क कर व्यक्तित्व और कर्मयोग की सुगंध बिखरने का आडम्बर सफल होता लगता रहा है लेकिन भीतर ही भीतर मर्ज घातक अवस्था में पहुंच कर लाईलाज होता चला जा रहा है।
जब भी किसी मरीज को डॉक्टर की क्षमताओं पर शक होने लग जाता है, तब मरीज का भरोसा उठ जाता है, श्रद्धा गायब हो जाती है। इसके बावजूद घर वालों के भय से वह दवाखाने में जमा रहता है। जब सारे डॉक्टर नाकारा हो जाते हैं तब मरीज अपने आपको या तो भगवान के भरोसे छोड़ देता है, अपने कर्म को शिथिल कर देता है और उदास-खिन्न हो कर जैसे-तैसे टाईम पास करने का आदी हो जाता है अथवा मौका पाते ही कहीं भाग छूटता है।
आजकल अभावों, समस्याओं और तनावों के कारण बहुत सारे लोग इसी मानसिकता में जी रहे हैं। इससे समाज और देश को बहुत बड़ा नुकसान यह हो रहा है कि देश की प्रतिभाओं और कार्यक्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है और सब तरफ किसी न किसी प्रकार के तनावों का माहौल बढ़ता जा रहा है।
इन विषमताओं के बीच किसी को अच्छे काम करने, गुणवत्ता लाने और परिपूर्णता-परिपक्वता दर्शाते हुए आदर्श बनने-बनाने की बातें करना बेमानी है। बातों से किसी का पेट नहीं भरता, बातें ही बातें करने वाले बहुत सारे लोग हर युग में रहे हैं। ये लोग सिर्फ अपनी वाहवाही और नंबर बढ़ाने के लिए उपदेश झाड़ते हैं। किसी भी समस्या या तनाव के उन्मूलन के लिए ये न कुछ करना चाहते हैं न इनमें हिम्मत है। यही कारण है कि नाकारा और नपुंसक लोग बातूनी होकर अपने आपको प्रतिष्ठित करने की कला में माहिर होते हैं।
बातों से बहलाना किसी साजिश से कम नहीं है। बातें सिर्फ टाईमपास और मन को बहलाने के लिए होती हैं। समाज और देश के लिए कुछ करना चाहें तो पहले आदमी को समस्याओं और रोजमर्रा के तनावों से मुक्त करें, यही आज का राजधर्म और युगधर्म है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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